Wednesday 17 June 2020

चीन के साथ सीमा का निर्धारण न होना बन गया नासूर वीर भोग्या वसुंधरा की प्रासंगिकता आज भी यथावत





चीन  के साथ चल रहे विवाद में बार - बार  एलएसी का जिक्र होता है | इसका हिन्दी में अर्थ वास्तविक नियन्त्रण रेखा होता है | इसका आशय ये है कि चीन के साथ  हमारी तीन हजार किलोमीटर से ज्यादा लम्बी सीमा का विधिवत निर्धारण नहीं होने से जो इलाका जिसके कब्जे में है वह उसी तक सीमित रहेगा | इसके अलावा कुछ स्थान ऐसे भी हैं जिनके आधिपत्य को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं होने से उन्हें नो मैन्स लैंड का दर्जा दिया गया है | इस पर दोनों देशों की सैन्य टुकड़ियां गश्त करते हुए इस बात को देखती हैं कि कहीं दूसरा पक्ष वहां कब्ज़ा न जमा ले  |

मौजूदा विवाद के पीछे भी यही मुख्य कारण है | लद्दाख  स्थित गलवान घाटी में चीन द्वारा अपने शिविर लगाने  की भनक लगते ही भारत ने भी अपनी सेना तैनात कर दी | बीते डेढ़ महीने से दोनों के गश्ती दलों के बीच हाथापाई की अनेक वारदातें हुईं , जो आम बात है  | लेकिन इस बार चीन का ऐतराज भारत द्वारा वास्तविक नियन्त्रण रेखा के भी कई किलोमीटर भीतर बनाई गयी सड़क को लेकर था | इसका निर्माण शुरू तो 2001 में हुआ लेकिन बीच में काम बंद हो गया | बीते कुछ सालों में फिर  काम तेज हुआ और हाल ही में अग्रिम चौकी तक भारत की सड़क बन गयी | पूरी सीमा पर भारत द्वारा इन्फ्रा स्ट्रक्चर का विकास करना चीन को कभी सहन नहीं हुआ | 2016 में भूटान के पास डोकलाम में भी चीन ने एक  महीने से ज्यादा डटे रहकार  जबरन  कब्जे की कोशिश की लेकिन भारतीय सेना ने उन्हें रोके रखा |

लेकिन इस बार गलवान घाटी में उसकी घुसपैठ को रोकने की भारतीय  सैन्य टुकड़ी की कोशिश हिंसक झड़प में बदल गई | बीते सोमवार को आठ  घंटे तक  बिना अस्त्र शस्त्र के हुई हाथापाई में पत्थर , डंडे , कंटीले तारों का उपयोग करते हुए चीनी सेना ने हमारे 20 जवान मार  डाले | जवाबी कार्र्वाई में उसके भी तीन दर्जन फौजी मारे गये , वहीं अनेक घायल हुए | पहले खबर आई कि एक कर्नल सहित भारत के तीन और चीन के पांच सैनिक मारे गये | लेकिन कुछ देर बाद ज्योंही 20 भारतीय जवानों के मारे जाने की  जानकारी आई तो पूरे देश में गुस्से की लहर दौड़ गयी | यद्यपि  बाद में चीन के अधिक  सैनिक मरने की जानकारी आने पर भले ही शर्मिंदगी कुछ कम हुई हो लेकिन ये प्रश्न हर जुबान पर था कि जब दोनों देशों के बीच सशस्त्र संघर्ष न करने का समझौता 45 वर्ष से चला आ रहा है तब इन जवानों को  जान क्यों गंवाना पड़ी ? यद्यपि धीरे - धीरे पूरा विवरण सामने आता गया जिससे चीनी सैनिकों द्वारा धोखे से किये गये वार की जानकारी मिली | लेकिन जनमानस में इस बात पर गुस्सा है कि चीन की हिम्मत ऐसा करने की हुई कैसे ?

 और यही सवाल इस समस्या के उस पहलू  की तरफ ध्यान खींचता है जिसकी उपेक्षा के कारण आज हमें अपनी ही जमीन को अपना साबित करने के लिए जवानों का खून बहाना पड़ रहा है | उल्लेखनीय है 1962 में भी चीन ने गलवान घाटी से ही हमले की शुरुवात करते हुए हमारे 33 फ़ौजी मार डाले थे | युद्धविराम के बाद हालाँकि वह पुरानी  जगह लौट तो गया | लेकिन जैसा बताया जाता है वह दबे पाँव इस क्षेत्र में अपना कब्जा बढ़ाता  चला गया | चूंकि पूरी घाटी निर्जन और दुर्गम है इसलिए वहां सतत निगरानी काफी कठिन थी | वैसे भी चीन  अक्साई चिन का कुछ इलाका तो 62  में ही कब्जा चुका था  वहीं कुछ पाकिस्तान ने उसे तोहफे में दे दिया | लेकिन गलवान घाटी पर उसका पूरा कब्जा नहीं होने से सियाचिन में भारत की मौजूदगी को रोकने  में वह सफल नहीं हो सका | पर इस बार उसकी कोशिश कुछ ज्यादा तैयारी के साथ लग रही है | भारत द्वारा दौलत बेग ओल्डी नामक सीमान्त क्षेत्र तक सड़क बनाये जाने से उसे अपने लिए खतरा महसूस हुआ और उसने गलवान घाटी को पूरी तरह हासिल करने के लिए मौजूदा हालात पैदा कर दिए | 

सोमवार के खूनी संघर्ष के बाद भारत के विरोध पर उसने उलटे हमें ही कसूरवार ठहराते हुए भारतीय  सेना द्वारा उसकी सीमा में घुसपैठ का आरोप लगा दिया | साथ ही दो टूक कहा कि  गलवान घाटी उसका हिस्सा है | 

हॉलांकि उसके पास इस बात का जवाब नहीं है कि फिर 1962 की जंग के बाद वह इस इलाके से वापिस क्यों लौटा ?

और इसी सवाल के साथ दर्जनों सवाल हमारे अपने ऊपर भी उठते हैं | चीन के साथ लगी  सीमा पर यूँ तो अधिकतर जगह कुछ  न कुछ विवाद है | लेकिन लद्दाख और अरुणाचल उसके प्रमुख निशाने पर हैं | ब्रिटिश शासन के समय तिब्बत के साथ हुए सीमा समझौते के अंतर्गत तय हुई मैकमोहन रेखा को भी उसने ये कहते हुए अमान्य कर दिया कि वह उस समझौते में शामिल नहीं था | अरुणाचल को तो वह तिब्बत का हिस्सा ही मानता है | यदि तिब्बत पर उसका कब्जा न  होता तब भारत को चीन से लेशमात्र परेशानी न होती | लेकिन इसे चीन की विस्तारवादी सोच के साथ ही दूरंदेशी कहना पड़ेगा कि 1 अक्टूबर 1949 को  माओ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट शासन आते ही उसने 1950 में ही तिब्बत पर हमला करते हुए कब्जा जमा लिया | भारत उस समय नया - नया आजाद हुआ था | लेकिन उसने चीन की नीयत को समझे बिना तिब्बत पर उसके अवैध कब्जे को मान्यता देकर अपने लिए मुसीबत पैदा कर दी | बाद में 1959 में वहां के बौद्ध शासक दलाई लामा चीनी दमन से जान बचाने सड़क मार्ग से भारत आये तो उन्हें भी शरण दे दी गयी | उन सहित  उनके हजारों  तिब्बती अनुयायियों को  हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहने की जगह दी गयी जो तिब्बत की निर्वासित सरकार की राजधानी है | चीन को  भारत का ये कदम नागवार गुजरा | लेकिन तत्कालीन प्रधान मंत्री पं नेहरु चीन के मोहपाश में थे | 

1960 आते तक चीन ने भारत के साथ भी सीमा विवाद शुरू कर दिया  किन्तु नेहरु जी तब भी कुछ न समझ सके और 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने इसी गलवान घाटी पर हमला कर नेहरु जी को जबरदस्त धक्का दिया | भारत बुरी तरह हारा | युद्धविराम के बाद चीन  कुछ पीछे तो हटा लेकिन हजारों वर्ग किमी जमीन उसने कब्जा ली | जानकारों के मुताबिक तबसे वह अघोषित तौर पर लद्दाख क्षेत्र में सैकड़ों वर्ग किमी भूमि और दबा चुका है | चूंकि वहां नजर रखना  बेहद कठिन था इसलिए जब तक हमें पता चलता देर हो चुकी होती |

 कहने का आशय ये है कि चीन ने जहां साम्यवादी शासन कायम करते ही अपनी सीमाओं का विस्तार करने की कोशिशें तेज कर दीं वहीं देश के दो टुकड़े होने के बाद भी हम अपनी सरहदों को लेकर उतने सतर्क नहीं रहे | आजादी के बाद सात दशक बीत गए | 1962 के बाद से आज तक चीन से किसी भी तरह का औपचारिक युद्ध नहीं हुआ | बावजूद उसके सीमा विवाद को स्थायी रूप से हल करने में सभी सरकारें विफल रहीं | 1962 में चीन द्वारा कब्जाई जमीन वापिस लेने का भारतीय संसद का सर्वसम्मत प्रस्ताव कहीं धूल खा रहा होगा | अनेक प्रधानमन्त्री चीन गये और उसके नेता भी भारत  आये | सीमा विवाद सुलझाने के लिए उच्च स्तरीय कार्यदल भी बने लेकिन नतीजा शून्य ही रहा |

वैसे इस तरह के विवाद दो ही तरह से सुलझते  हैं | या तो दोनों देशों के बीच आपसी समझौता  हो जाए या फिर सैन्य बल के जरिये अपनी जमीन छीन  ली जाए | कुछ मामलों में तीसरे पक्ष की सहायता से भी सहमति बनाई जाती है | लेकिन भारत और चीन के बीच 1962 की लड़ाई के 58 वर्ष बाद भी सीमा विवाद सुलझना तो दूर और उलझता जा रहा है | इसके लिए `चीन पूर्णतः दोषी  है क्योंकि वह इंच भर भी कब्जाई जमीन छोड़ने की बजाय और हड़पने की फिराक में लगा रहता है | ताजा विवाद इसीलिये आश्चर्यचकित नहीं करता | 

यद्यपि इसके पीछे और भी अनेक कारण हैं | सीमावर्ती इलाकों में भारत द्वारा सड़कें , पुल , हवाई  पट्टी जैसी सुविधाओं का विकास किये जाने के अलावा चीन के अन्य महत्वाकांक्षी प्रकल्पों से दूर बने  रहना , अमेरिका , जापान , ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ रणनीतिक नजदीकी बढ़ाना और कोरोना वायरस को लेकर चीन की घेराबंदी में शामिल होने जैसे कदम हैं | विश्व स्वास्थ्य संगठन का नेतृत्व हासिल होते ही ताईवान को उसमें प्रवेश  दिलवाने की कोशिश भी एक वजह बन गई | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भरता का नारा देकर अप्रत्यक्ष तौर पर चीन पर जो प्रहार किया उससे भी वह बौखलाया है |

लेकिन इस सबके मूल में सीमाओं  को लेकर व्याप्त अस्पष्टता ही है | प्रधानमन्त्री ने हाल में अक्साई चिन पर भारत के आधिपत्य की बात क्या कही चीन गलवान घाटी पर कब्जा जमाने आ गया | इस विवाद का क्या हल निकलता है ये अनिश्चित  है | हो सकता है बातचीत  के बाद चीन अपने कदम पीछे ले जाए लेकिन उससे भी कुछ हासिल नहीं होने वाला | यदि 1962 के बाद से इस विवाद को हल करने की प्रतिबद्धता होती तो ले - देकर ही सही , बात बनती तो | 

दरअसल ये हमारी चारित्रिक कमजोरी रही कि राष्ट्रीय समस्याओं के बारे में दूरदर्शिता की जगह सदैव तदर्थवाद का  सहारा लिया गया | इसी वजह से बहादुर फ़ौज होने के बाद भी हमारी सीमाएं सुरक्षित नहीं हैं | चीन के साथ तो निश्चित ही  नहीं हैं | ये देखकर निराशा के साथ गुस्सा भी आता है | न जाने क्यों सरकार में बैठे लोग दुश्मन को दुश्मन मानकर नीति निर्धारित करने से बचते रहे हैं ?

वर्तमान स्थिति में बड़े युद्ध की सम्भावना से भले ही इंकार किया जाए लेकिन चीन ने जो दबाव बनाया उसका स्थायी प्रतिकार किये बिना ये समस्या कुछ समय बाद फिर उठ खड़ी होगी | चीन का एजेंडा पूरी तरह निश्चित है | बेहतर हो हम भी अपनी नीति और निर्णय की दिशा निश्चित करते हुए कदम बढ़ाएं | यदि युद्ध लड़ने का हौसला है तब सेना को छूट दे दी जाए | जनता ऐसे समय सरकार और सेना के साथ है | चीन बेशक ताकतवर और सम्पन्न है लेकिन भारतीय सेना विश्व की सबसे पेशेवर सैन्य शक्ति है | और फिर बिना युद्ध के सैनिकों की शहादत से अच्छा है उन्हें पराक्रम दिखाने  का अवसर दिया जावे  ।

चीन सदैव झगड़ा झूठा , कब्जा सच्चा जैसी देसी कहावत से प्रेरित होकर कार्य करता रहा है।

वैसे भी वीर भोग्या वसुंधरा की प्रासंगिकता आज भी यथावत है |

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