Monday 22 June 2020

नो फायरिंग जैसे प्रावधान आखिर रखे ही क्यों गए ? सैनिकों के हाथ बांधने वाले समझौतों को तोड़ना जरूरी


 1962 के चीनी हमले पर बनी स्व. चेतन आनंद की  बलैक एंड व्हाइट फिल्म हकीकत देखने के बाद लम्बे समय तक गुस्सा मन में रहा | फिल्म लद्दाख  की पृष्ठभूमि पर फिल्माई गयी थी | चीनी  हमले के शुरुवाती दृश्यों में भारतीय सैन्य चौकी की हिफाजत कर रही टुकड़ी को दूर से चीनी सैनिक लाउडस्पीकर पर पहले तो  हिन्दी - चीनी भाई - भाई के नारे सुनाते हैं और उसके साथ ही ये जमीन हमारी है , तुम यहाँ से चले जाओ की चेतावनी देते हैं | टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे मेजर ( बलराज साहनी ) अपने ब्रिगेडियर ( जयंत )  को वायरलैस पर स्थिति की  जानकारी देते हैं | लेकिन ऊपर से  शांत रहने का आदेश मिल जाता है | चीनी पक्ष से लाउड स्पीकर पर हिन्दी - चीनी भाई - भाई का राग अलापने के साथ ही जमीन छोड़कर जाने के धमकी रोजाना दोहराई जाने लगी | यही नहीं चीनी खेमे में हलचल बढ़ते देखकर सैनिकों ने मेजर साहब से पूछा , साहब कहें  तो निपटा दें | उन्होंने फिर ब्रिगेडियर को वायरलैस पर खतरा बढ़ने की जानकारी के अलावा  सैनिकों की मंशा से अवगत करवाया किन्तु ब्रिगेडियर ने कड़क आवाज में आदेश दिया नो फायरिंग | दिन ब दिन चीनी खेमे में संख्या बढ़ती जा रही थी  | लाउड स्पीकर से दिन  में अनेक बार ये जमीन हमारी है , तुम यहाँ से चले जाओ की धमकी शुरू हो गयी | जब भी  मेजर साहब स्थिति के बिगड़ने से ब्रिगेडियर को अवगत करवाते हुए  कार्र्वाई का आदेश मांगते और उत्तर में घिसा - पिटा निर्देश होता नो फायरिंग |

 
धीरे - धीरे चीनी सेना के सैकड़ों सैनिक हथियारों सहित आगे आते दिखाई देते हैं | मेजर फिर आदेश मांगते हैं पर  जवाब में नो फायरिंग ही सुनाई देता है | और फिर एक दिन टिड्डी दल की शक्ल में चीनी सेना को आक्रामक अंदाज में बढ़ते देखते ही मेजर चीखते हुए ब्रिगेडियर को बताते हैं सर ये तो सरासर हमला है | और तब तक  सामने से गोली चलते ही युद्ध की औपचारिक शुरुवात हो जाती है | भारतीय टुकड़ी  छोटी होने के बाद भी चीनी सैनिकों के छक्के छुड़ा देती है किन्तु उसके अनेक जवान मारे जाते हैं | खबर पीछे जाती है किन्तु और सैनिक आते तक चीनी दल और बड़ी संख्या में आ टपकता है  और वहीं से भारत की शर्मनाक हार की शुरुवात हो जाती है | उसके बाद फिल्म कुछ हकीकत और कुछ फसानों के साथ बढते हुए कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो , गीत के साथ खत्म हो जाती है |  मैं तब विद्यालयीन छात्र था | उस फिल्म को देखने के बाद बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई |

यद्यपि उसके बाद 1965 में पाकिस्तान से हुई जंग में भारत ने अभूतपूर्व पराक्रम दिखाया और शत्रु को जबरदस्त पटकनी दी | लेकिन दोनों युद्धों में एक बात समान रही | 62 में चीन ने हमारी जमीन हमसे छीन ली | और 65 में हमने जो जमीन पाकिस्तान से जीती थी वह ताशकंद समझौते में गंवा दी |

पाकिस्तान से तो उसके बाद 1971 में भी ऐतिहासिक युद्द्ध हुआ लेकिन जीतकर भी हमारे हाथ खाली रहे | पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली  पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों  के नस्लीय भेदभाव से त्रस्त होकर विरोध में उतरे  तो उनका दमन शुरू हुआ | लाखों की संख्या में  वहां से शरणार्थी सीमा पार करते हुए भारत आने लगे | अंत में भारत ने भी  सैन्य हस्तक्षेप किया और पूर्वी पाकिस्तान बांग्ला देश नामक नये देश के तौर पर स्थापित हुआ | बंगालियों को पश्चिमी पाकिस्तान से मुक्ति मिल गयी | 90 हजार पाकिस्तानी सैनिक आत्मसमर्पण कर भारत में युद्धबंदी बनकर आ गये | लाखों  शरणार्थी पहले से ही  जमे हुए थे  | देश जीत के  जश्न में डूबा हुआ था |  पंडित नेहरु पर देश को तोड़ने का इल्जाम लगता रहा है लेकिन उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को तोड़कर इतिहास बना डाला | वह बहुत बड़ी सैन्य जीत तो थी ही | लेकिन उससे भी बढ़कर तो नियति ने एक ब्रह्मास्त्र हमारे हाथ में दिया था 90 हजार पाकिस्तानी युद्धबंदियों के रूप में |

इंदिरा जी के एक मजबूत नेता के रूप में उभरने से उम्मीद जगी कि पाकिस्तान से समझौते में 90 हजार  युद्धबंदियों के बदले पाक अधिकृत कश्मीर वापिस ले लिया जाएगा | कुछ महीनों बाद सुलह वार्ता के लिए  शिमला में पाक प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो आये | लेकिन  कश्मीर वापिस लेने की बात  न जाने कहाँ छूट  गयी और वे भविष्य में शराफत से पेश आने का वायदा युक्त समझौता करते हुए अपने युद्धबंदी  वापिस ले गये | इस तरह हारकर भी  पाकिस्तान शिमला से विजयी  अंदाज में लौटा जबकि जीतकर भी भारत के  हाथ आये लाखों भूखे शरणार्थी जो अपना अलग देश बन जाने के बाद भी यहीं  चिपककर बैठ गए |  बाद में भी  उनके आने का सिलसिला दशकों तक जारी रहा । अब तक उनकी  संख्या करोड़ से ऊपर हो चुकी होगी क्योंकि इनकी दूसरी - तीसरी पीढ़ी भी भारत की  नागरिक बन चुकी है |

 हालाँकि पाकिस्तान से कारगिल रूपी एक लघु युद्ध और हुआ जिसमें उसकी  शिकस्त हुई | दूसरी तरफ चीन के साथ एक दो खूनी संघर्षों के बाद शांति तो बनी रही लेकिन उसने अपनी विस्तारवादी नीति के तहत भारतीय भूभाग पर हकीकत फिल्म वाली शैली  में ये जमीन हमारी है , तुम यहाँ से चले जाओ , की रट कभी नहीं छोड़ी | दोनों देशों के बीच आज तक सीमा का निर्धारण न  हो पाने से उसका दावा हमेशा बना रहता है | रोज - रोज के तनाव को रोकने एवं युद्ध को टालने के उद्देश्य से 1993 , 96, 2005 , 12 और 13 में विभिन्न समझौते हुए जिनके अंतर्गत सीमा पर उत्पन्न  विवाद मौके पर उपस्थित सैन्य अधिकारियों द्वारा निपटाने के साथ किसी भी सूरत में शस्त्रों का प्रयोग न करने का प्रावधान था | दोनों देशों के सैनिक वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर एक दूसरे के क्षेत्र में घुसपैठ के चलते आपस में गुत्थमगुत्था होते रहे | घूंसेबाजी , धक्का मुक्की भी सामान्य हो गई | लेकिन कुछ साल पहले डोकलाम में दो महीने से ज्यादा चले गतिरोध के बाद भी गोली नहीं चली | इस कारण दोनों तरफ से कभी भी जनहानि नहीं हुई |

लेकिन बीते दो माह से लद्दाख सेक्टर में चीन की सैन्य गतिविधियाँ रहस्यमय तरीके से बढ़ीं जिसकी परिणिति 15 जून की उस घटना के रूप में हुई जिसमें भारत के 20 सैन्यकर्मी शहीद हो गए | चीनी सेना को भी  भारत से ज्यादा सैनिक गंवाने पड़े | प्रचलित समझौते के अंतर्गत बातचीत करने गये भारतीय सैन्य दल पर अप्रत्याशित रूप से किये गये हमले  के बाद भारतीय सैनिकों ने भी जोरदार पलटवार करते हुए चीनी शिविर में मारकाट मचा दी | जिस जगह और हालातों में वह संघर्ष हुआ वह पूरी तरह असामान्य थे | लेकिन देश  में अपने फौजियों के मारे जाने से जो गुस्सा फैला उसने इस सवाल को जन्म दिया कि क्या हमारे सैनिकों के पास शस्त्र नहीं थे और यदि थे तो उन्होंने उनका उपयोग क्यों नहीं किया ?

और जवाब में स्पष्ट किया गया कि सैनिक शस्त्र तो लिए थे किन्तु समझौते से बंधे होने से उनके सामने भी हकीकत फिल्म वाली नो फायरिंग की बंदिश थी | सरकार का जवाब सही है | विपक्ष  की आलोचना का जवाब भी विपक्ष से ही आया जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को आधार बनाया गया |

गत दिवस सरकार ने सेना को जरूरत पड़ने पर नो फायरिंग वाली बंदिश तोड़ने की आजादी दे दी | चीन को भी बता दिया गया कि गोली न चलाने की कसम तोड़ी भी जा सकती है | सेना भी यही चाह रही थी  | सियासत का मैदान भी सजा हुआ है | लोकतांत्रिक तकाजे  और शालीनता की मर्यादाएं ध्वस्त हो रही हैं | उलाहना दिया जा रहा है कि धोखेबाज चीन पर भरोसा क्यों किया गया ? लेकिन कोई ये नहीं पूछ रहा कि चीन के धोखेबाज चरित्र को जानने के बावजूद शस्त्र पास होते हुए भी सैनिकों के हाथ नो फायरिंग जैसी  शर्त से क्यों बांधे गये ?

आज सरकार ने गोली चलाने की जो छूट सेना को दी वह  सही , साहसिक और सामयिक फैसला है | बेहतर होगा बार्डर मैनेजमेंट के नाम पर चीन से हुए  सभी समझौते इकतरफा तोड़ दिये  जाएँ | इसी तरह शिमला समझौता , लाहौर समझौता और ऐसे ही किसी भी समझौते को तिलांजलि दे दी जाए | पाकिस्तानी सीमा पर तो सेना को गोली के जवाब में गोला दागने की छूट है किन्तु चीन के साथ युद्धभूमि अलग तरह की है । और फिर ये दुश्मन  बहादुरी से नहीं चालाकी से लड़ता है । इसलिए सेना को  चीनी इलाकों के भीतर घुसकर उसकी  जमीन दबाने की अनुमति भी दी जाए | चीन को ये भी लगना चाहिए कि भारत भी उकसाना और झगड़ा बढ़ाने की कला जानता है | सैन्य सूत्रों के मुताबिक गलवान में 15 जून को हुए संघर्ष में जिस तरह चीनी पक्ष की जमकर पिटाई हुई उससे 20 फौजी गंवाने के बाद भी भारतीय सेना में जबर्दस्त जोश है |

 दूसरे विश्वयुद्ध के पहले रूस और जर्मनी के बीच अनाक्रमण समझौता था  | लेकिन जब जर्मनी ने रूस पर चढ़ाई की और रूस ने  उस समझौते का हवाला देते हुए आक्रमण रोकने कहा तो जवाब मिला समझौते तो तोड़ने के लिए ही होते हैं | पाकिस्तान और चीन ने सदैव जर्मनी के उस जवाब के अनुरूप आचरण किया है | अतः उन्हें उनकी ही शैली में जवाब देने की जरूरत है |

 आखिर जिन समझौतों के बाद भी सीमा पर युद्ध के हालात बने रहें और पूरा देश तनाव में जिए , उनको सहेजकर रखने से क्या फायदा ?

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