Saturday 30 December 2023

नीतीश : होशियार बनने के फेर में हास्यास्पद बन गए


तमाम विपक्षी दलों को एकजुट कर भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपनी पार्टी जनता दल (यू) को एकजुट  रखने में पसीना आ रहा है।  पार्टी के भीतर चल रही खींचातानी के बाद  ललन सिंह को हटाकर वे खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए। दरअसल जिन ललन को नीतीश का बाल सखा माना जाता है वे  कुछ विधायकों को तोड़कर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनवाने का षडयंत्र रच रहे थे। इसके बदले उन्हें राज्यसभा की सीट देने का वचन दिया गया था।  ये भी सुनने में आया है कि ललन सिंह ने नीतीश से मिलकर तेजस्वी की ताजपोशी का सुझाव दिया था । इसी के बाद से वे उनकी गतिविधियों पर निगाह रखे हुए थे। हालांकि खुद नीतीश ने ही  राष्ट्रीय राजनीति में जाने की रणनीति के अंतर्गत विपक्ष का गठबंधन बनाने की पहल की थी। उनका सोचना था वे उसके संयोजक बनकर प्रधानमंत्री पद का विपक्षी चेहरा बन जाएंगे । हालांकि इंडिया गठबंधन अस्तित्व में भी आ गया  किंतु संयोजक को लेकर  फैसला नहीं हो पा रहा। इसे लेकर नीतीश  नाराज भी थे और परेशान भी। लेकिन 19 दिसंबर की बैठक में ममता बैनर्जी ने बिना किसी भूमिका के जब नरेंद्र मोदी के मुकाबले मल्लिकार्जुन खरगे का नाम उछाल दिया तब उनको लगा कि उन्हें किनारे किया जा रहा है। इधर बिहार में लालू यादव एंड कंपनी ने भी परदे के पीछे से तख्ता पलट की तैयारी शुरू कर दी। शुरुआत में  तेजस्वी को लग रहा था कि गठबंधन का संयोजक बनने के बाद नीतीश मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली कर देंगे किंतु उसकी नौबत न आते देख  ललन के जरिए दूसरा दांव चलने का प्रयास किया । इसके अलावा नीतीश की पार्टी के कुछ विधायक दोबारा भाजपा के साथ गठजोड़ के पक्षधर हैं। उनको लग रहा है कि लालू का साथ  लेकर नीतीश ने जनता दल (यू) का भविष्य खतरे में डाल दिया है। मुख्यमंत्री भले ही वे हों किंतु लालू का पूरा परिवार शासन तंत्र पर हावी है। नीतीश पर ये दबाव भी बनाया जाने लगा कि वे अपने दल का लालू की पार्टी राजद में विलय कर दें।  इस पूरे घटनाक्रम में ललन की भूमिका संदिग्ध रही। ये अटकल भी आए दिन लगती रही कि नीतीश एक बार फिर एनडीए का दामन थाम सकते हैं। लेकिन भाजपा ने उनके लिए दरवाजे बंद करने की घोषणा कर डाली। कुल मिलाकर जो हालात उत्पन्न हुए उनमें नीतीश का सत्ता और संगठन दोनों  से नियंत्रण कम हो रहा था । राष्ट्रीय नेता बनने के लालच में राज्य  भी  हाथों से सरकने का अंदेशा पैदा हो गया । न सिर्फ तेजस्वी अपितु भाजपा भी जनता दल (यू) में सेंध लगाने के प्रयास में जुटी हुई थी। सुशील कुमार मोदी और गिरिराज सिंह जैसे नेता खुलकर कहने लगे थे कि नीतीश चलाचली की बेला में है। ऐसे में मुख्यमंत्री पद के साथ ही उनको पार्टी बचाने की चिंता हुई और ललन सिंह को हटाकर वे खुद अध्यक्ष बन बैठे। लेकिन इस पूरे खेल में नीतीश ने अपनी स्थिति हास्यास्पद बना ली। उल्लेखनीय है पार्टी के पिछले अध्यक्ष आरसीपी सिंह मोदी सरकार में मंत्री थे। नीतीश को शक था कि वे भाजपा के साथ मिलीभगत कर रहे हैं। इसीलिए उनकी राज्यसभा सदस्यता का नवीनीकरण नहीं किया गया और अध्यक्ष के साथ - साथ पार्टी से भी अलग कर दिया गया।  ये सब देखते हुए नीतीश की स्थिति बड़ी ही विचित्र हो गई है। धीर - गंभीर राजनेता की  छवि के विपरीत वे सत्ता के लोभी के तौर पर जाने जा रहे हैं। पहले लालू और अब कांग्रेस सहित विपक्ष के अन्य नेतागण उनकी महत्वाकांक्षाओं को जान चुके हैं और इसीलिए उनको इंडिया का संयोजक  नहीं बनाया जा रहा। जनता दल (यू) के मौजूदा संकट में हालांकि सतही तौर पर तो वे विजेता बनकर उभरे हैं लेकिन सच्चाई ये है कि नीतीश लगातार अपनी जमीन खोते जा रहे हैं। पार्टी विधायकों को अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा है। लोकसभा की सीटों के लिए कांग्रेस के साथ ही वामपंथी भी दबाव बना रहे हैं। नीतीश की सबसे बड़ी चिंता इंडिया गठबंधन में अपनी वजनदारी घटने को लेकर है। बिहार की राजनीति में लालू परिवार जहां भ्रष्टाचार के कारण बदनाम है वहीं नीतीश की छवि पलटूराम की बन चुकी है। इसी सबके कारण वे बौखलाने लगे हैं। जातीय जनगणना को वे अपना तुरुप का पत्ता मान रहे थे किंतु तीन राज्यों में हार के बाद उसके प्रति कांग्रेस भी उदासीन हो चली है। ममता बैनर्जी ने तो प.बंगाल में  उसे लागू करने से साफ इंकार कर दिया।  इन सबकी वजह से ये कयास लगाए जा रहे हैं कि नीतीश जल्द ही नया धमाका करेंगे । उनकी पीड़ा इस बात को लेकर भी है कि जब ममता ने इंडिया की बैठक में श्री खरगे का नाम प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर उछाला और अरविंद केजरीवाल ने उसका समर्थन किया तब न लालू और तेजस्वी ने उसका विरोध किया ,  न ही शरद पवार तथा अखिलेश यादव ने । 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 29 December 2023

जब तक नेता लोग आर.टी.ओ से मुफ्त बसें लेंगे ऐसे हादसे होते रहेंगे


किसी बड़ी दुर्घटना या भ्रष्टाचार के मामले में आम तौर पर निचले स्तर के सरकारी अमले पर गाज गिराकर बड़े ओहदेदारों को बचा लिया जाता है। इसे आम बोलचाल की भाषा में छोटी मछलियों को फंसाकर मगरमच्छों को छोड़ देना कहते हैं। हाल ही में म.प्र के गुना में हुई बस दुर्घटना में 13 लोगों के जलकर मर जाने की दर्दनाक घटना के बाद डा.मोहन यादव की सरकार ने परिवहन विभाग के स्थानीय अधिकारी और कर्मचारियों के साथ  ही जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को हटाने का निर्णय भी कर डाला । लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा है परिवहन आयुक्त को हटाए जाने की। प्राप्त जानकारी के अनुसार दुर्घटनाग्रस्त बस का न तो फिटनेस प्रमाणपत्र था और न ही परमिट। उसका मालिक स्थानीय भाजपा नेता का रिश्तेदार बताया जा रहा है। इससे संदेह होता है कि उसके अवैध कारनामे की स्थानीय पुलिस , प्रशासन और परिवहन विभाग अनदेखी करता रहा। वैसे भी परिवहन को मलाईदार विभागों की श्रेणी में सबसे ऊपर माना जाता है , जहां भ्रष्टाचार  चिल्ला - चिल्लाकर अपनी उपस्थिति का एहसास करवाता है। ड्राइविंग लाइसेंस जैसा साधारण काम हो या ट्रकों और बसों के परमिट जैसे बड़े मामले , परिवहन विभाग के किसी भी कार्यालय में बिना दलालों के काम करवाना आसमान से तारे तोड़कर लाने से भी कठिन है। सरकार के सैकड़ों प्रयासों के बावजूद आर. टी.ओ नामक इस व्यवस्था को दलालों से मुक्त करवाने में सफलता नहीं मिली। बहुत सारा काम ऑन लाइन होने के बाद भी  बिना बिचौलियों के इस महकमे में पत्ता भी नहीं खड़कता। ऐसा नहीं है कि सरकार में बैठे हुक्मरान इस विभाग के काले कारनामों से अपरिचित हों । लेकिन सत्ताधारी पार्टी की रैलियों और जलसों में भीड़ को ढोकर लाने के लिए परिवहन अधिकारी के जरिए मुफ्त में बसें और ट्रकों की व्यवस्था करवाए जाने के एवज में इस विभाग को भ्रष्टाचार की खुली छूट दे दी जाती है। अन्यथा कोई कारण नहीं है कि जमाने भर के प्रशासनिक सुधारों के बाद भी परिवहन विभाग की चाल , चरित्र और चेहरे में रत्ती भर का परिवर्तन नहीं हुआ। गुना में हुई दुर्घटना निश्चित रूप से समूची व्यवस्था के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा है। सत्ता संभालने के कुछ दिनों के भीतर ही मुख्यमंत्री डा.यादव के सामने ये मुसीबत आकर खड़ी हो गई। हालांकि ये घटना न होती तब भी प्रशासनिक शल्य  क्रिया के अंतर्गत परिवहन आयुक्त सहित अन्य अधिकारी भी आने वाले दिनों में इधर से उधर किए जाते । लेकिन 13 लोगों की दुखद मृत्यु जिन हालातों में हुई उसके कारण सामने आने के बाद भी यदि मुख्यमंत्री शांत बैठे रहते तो उन पर चौतरफा हमले होते। इसीलिए उन्होंने बिना देर किए बड़े पैमाने पर निलंबन और स्थानांतरण कर डाले। जल्द ही नया परिवहन आयुक्त नियुक्त हो जाएगा। कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक सहित बाकी जगहों पर दूसरे चेहरे नजर आएंगे। बस मालिक के साथ ही जिम्मेदार शासकीय अमले पर कार्रवाई का कर्मकांड होगा। मृतकों और घायलों के लिए निर्धारित मुआवजा सरकार बांट देगी , इलाज भी करवा दिया जाएगा । लेकिन आर.टी.ओ नामक कुख्यात व्यवस्था में सुधार का कोई ठोस उपाय किए बिना इस तरह के हादसों की पुनरावृत्ति असंभव है। ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि राजमार्गों पर वाहनों की जांच करने वाले परिवहन विभाग के दस्ते अवैध वसूली में ही लिप्त रहते हैं। कई स्थानों पर तो  परिवहन विभाग के लोगों द्वारा अपने निजी लोगों को आर. टी.ओ दस्ते के तौर पर खड़ा कर काली कमाई की जाती है। ओवर लोडिंग के अलावा बिना वाहन बीमा , परमिट और ड्राइविंग लाइसेंस के  वाहन चालन आम बात है। व्यवसायिक वाहनों की जांच यदि सही तरीके से हो  तो आधे से ज्यादा चलने लायक नहीं निकलेंगे। आजकल कम उम्र के बच्चों द्वारा दोपहिया तो क्या चार पहिया वाहन चलाए जाने का चलन बढ़ गया है । ऐसे वाहन चालक आए दिन दुर्घटना का कारण बनते हैं। उच्चस्तरीय राजमार्गों के विकास की वजह से सड़क यातायात काफी बढ़ा है । उसी के साथ दुर्घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं जिनमें प्रतिवर्ष लाखों लोगों की जान चली जाती है। इन सबसे बचा जा सकता है ,बशर्ते परिवहन विभाग अपने दायित्व का सही तरीके से निर्वहन करे । लेकिन ये तभी संभव है जब सरकार में बैठे महानुभाव इस महकमे को दुधारू गाय समझना बंद करें । जब तक आर.टी.ओ से मुफ्त बसों की मांग नेता बिरादरी करती रहेगी तब तक न परिवहन विभाग का भ्रष्टाचार रुकेगा और न अवैध रूप से चल रहे वाहनों से होने वाली जानलेवा दुर्घटनाएं। 


-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 December 2023

गठबंधन में बिखराव का कारण बन सकती है राहुल की न्याय यात्रा


कांग्रेस नेता राहुल गांधी आगामी 14 जनवरी से न्याय यात्रा पर निकलने वाले हैं। 6,200 किलोमीटर की यह यात्रा मणिपुर से शुरुआत के बाद  नागालैंड, असम, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात  होते हुए  20 मार्च को मुंबई में समाप्त होगी। इसके पहले श्री गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो  यात्रा की थी जिसमें वे 3500 किमी पैदल चले थे। लेकिन न्याय यात्रा के कुछ हिस्सों में वे वाहन का उपयोग भी करेंगे। गौरतलब है यह यात्रा  इंडिया गठबंधन के आकार लेने के बाद होने जा रही है किंतु इसका आयोजन कांग्रेस द्वारा किया जा रहा है । ये प.बंगाल , झारखंड  और बिहार जैसे राज्यों से भी गुजरेगी जहां गठबंधन में शामिल दलों का शासन है। जाहिर है इसका उद्देश्य कांग्रेस को मजबूती प्रदान करना है। उस दृष्टि से देखें तो भारत जोड़ो यात्रा का असर  मिला - जुला ही कहा जाएगा क्योंकि कांग्रेस ने इसके बाद तेलंगाना में तो सरकार बनाई किंतु छत्तीसगढ़ और राजस्थान उसके हाथ से निकल गए । वहीं म.प्र में जीत की उम्मीदों पर पानी फिर गया। स्मरणीय है म.प्र और राजस्थान के बड़े हिस्से से  भारत जोड़ो यात्रा निकली थी । इस प्रकार ये कहना गलत होगा कि उस यात्रा के बाद राहुल की छवि एक परिपक्व नेता में बदल गई । तेलंगाना के अलावा म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो उन्होंने धुंआधार प्रचार और रोड शो किए ही साथ ही वे मिजोरम में भी कांग्रेस की विजय हेतु अभियान पर गए। इन पांच राज्यों में केवल दक्षिण का तेलंगाना ही कांग्रेस के कब्जे में आ सका जबकि हिन्दी पट्टी के तीन प्रमुख राज्यों में कांग्रेस को जिस तरह की हार देखने मिली उसके कारण  हिमाचल और कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से  बाहर करने के बाद अन्य विपक्षी दलों पर हावी होने की उसकी कोशिश धरी की धरी रह गई। चुनाव परिणाम आने के बाद इंडिया गठबंधन की जो बैठक हुई उसमें ममता बैनर्जी ने प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर  मल्लिकार्जुन खरगे का नाम उछालकर  स्पष्ट कर दिया कि गठबंधन के भीतर ही श्री गांधी की  क्षमता पर अविश्वास है। उक्त प्रस्ताव का अरविंद केजरीवाल ने भी समर्थन किया था। सही बात ये है कि कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन के संयोजक और सीटों के बंटवारे के लिए फार्मूला तय करने के काम को ये सोचकर टाला कि चार राज्यों में विजय हासिल करने के बाद गठबंधन में शामिल दल उसके इशारे पर नाचने मजबूर हो जाएंगे । स्मरणीय है कर्नाटक और हिमाचल का चुनाव भी भाजपा ने प्रधानमंत्री के नाम को सामने रखकर ही लड़ा था ।  हार के बाद राजनीतिक विश्लेषकों ने ये कहना शुरू कर दिया कि मोदी मैजिक असरकारक नहीं रहा। लेकिन भाजपा इससे हताश नहीं हुई और उसने म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मोदी की गारंटी के नारे पर कांग्रेस को पूरी तरह धराशायी कर दिया। तेलंगाना में भी उसकी सीटें और मत प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इन परिणामों से नीतीश कुमार ,ममता बैनर्जी , अखिलेश यादव , अरविंद केजरीवाल जैसे क्षेत्रीय छत्रप भी गठबंधन में कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के प्रति अनिच्छुक नजर आने लगे। 19 दिसंबर की बैठक के पहले शिवसेना के मुखपत्र सामना में कांग्रेस को लेकर की गई तीखी टिप्पणी अपने आप में बहुत कुछ कह गई। ऐसे में श्री गांधी की न्याय यात्रा के जरिए कांग्रेस के वर्चस्व को साबित करने का जो दांव चला जा रहा है वह कितना कारगर होगा यह तो समय बताएगा किंतु  इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि यह  गठबंधन के बिखराव का कारण बन सकता है। बिहार में जद (यू) में चल रही खींचातानी के बीच ये अटकल लगाई जा रही है कि नीतीश फिर पलटी मारेंगे। हालांकि भाजपा इस बार उनको साथ लेने के प्रति उत्साहित नहीं है किंतु नीतीश का इतिहास देखते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि वे लोकसभा चुनाव के पहले ऐसा कुछ कर सकते हैं जिससे कांग्रेस को झुकने के लिए मजबूर किया जा सके । ये देखते हुए  न्याय यात्रा का समय रणनीतिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। एक तरफ जहां भाजपा जनवरी के अंत तक 2019 में  हारी हुई लोकसभा सीटों पर प्रत्याशी घोषित करने का संकेत दे रही है तब कांग्रेस की शक्ति और संसाधन इस यात्रा के प्रबंधन में खर्च होंगे। 22 जनवरी को अयोध्या में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद भाजपा उसका लाभ लेने के लिए योजनाबद्ध तरीके से जुटी है । होना तो ये चाहिए ऐसे समय बजाय यात्रा के राहुल गठबंधन के सदस्यों के बीच सामंजस्य बनाकर सीट बंटवारे का आधार तय करते हुए अपने नेतृत्व के प्रति उनमें भरोसा पैदा करते । लेकिन ऐसा लगता है न तो वे और न ही उनकी पार्टी दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ पा रही है। इसलिए 3 दिसंबर के पहले तक जो राजनीतिक विश्लेषक श्री गांधी की शान में कसीदे पढ़ते थे , उनके सुर बदल गए हैं। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 26 December 2023

अयोध्या न जाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे विपक्षी नेता


कांग्रेस दावा करती है कि राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर बनाने की परिस्थिति ही न बनती यदि स्व.राजीव गांधी राम लला की मूर्तियों पर लगे ताले न खुलवाते। लेकिन जब राम जन्मभूमि पर बना बाबरी ढांचा हटाकर  राम मंदिर बनाने की मांग उठी तो कांग्रेस पीछे हट गई। 6 दिसंबर 1992 को जब कारसेवकों ने वह ढांचा धराशायी कर दिया तब कांग्रेस के प्रधानमंत्री स्व. पी.वी नरसिम्हा राव ने उसे दोबारा खड़ा करने का आश्वासन सार्वजनिक रूप से  दिया था। उस घटना के बाद रामसेतु और भगवान राम के अस्तित्व सहित राम लला का मामला अदालतों में चला तब भी कांग्रेस के वरिष्ट नेता बतौर अधिवक्ता विरोध में पैरवी करने खड़े हुए। हालांकि चुनाव के दौरान राहुल गांधी अयोध्या से प्रचार शुरू करने जाते रहे और देश भर के मंदिरों में पूजा - अर्चना करते हुए खुद को हिंदू साबित करने का प्रयास भी करते दिखे परंतु  उसका न उनको लाभ मिला और न ही कांग्रेस पार्टी को। म.प्र के हालिया विधानसभा चुनाव में पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए गए कमलनाथ ने तो खुद को भाजपा से बड़ा हिंदूवादी प्रचारित करने के लिए तरह - तरह के हथकंडे अपनाए किंतु  कोई प्रभाव नहीं पड़ा । इसकी वजह हिंदुत्व के प्रति कांग्रेस का दोहरा रवैया है । 2014 के बाद  ए.के. एंटोनी समिति द्वारा दी गई समझाइश के बाद कांग्रेस ने नर्म हिंदुत्व अपनाने का स्वांग रचा किंतु उसके भीतर ही इसे लेकर असमंजस है। सबसे बड़ा मजाक तो ये हुआ कि केरल में एंटोनी जी का बेटा ही भाजपा में  आ गया। कर्नाटक में सरकार बनते ही कांग्रेस ने जिस तरह का मुस्लिम तुष्टिकरण शुरू किया उससे साफ है कि राहुल और उनकी बहिन प्रियंका का हिंदू धर्म के प्रति झुकाव महज दिखावा है।  आगमी 22 जनवरी को अयोध्या में राम लला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने को लेकर कांग्रेस में जो अनिश्चितता और अनिर्णय नजर आ रहा है वह हिंदुत्व के प्रति उसके उपेक्षा पूर्ण रवैये का ज्वलंत प्रमाण है। उसकी देखासीखी अन्य विपक्षी दल भी उक्त आयोजन के निमंत्रण को स्वीकार करने के प्रति ढुलमुल बने हुए हैं। इस मामले में वामपंथियों की तारीफ करने होगी जिनकी ओर से वृंदा करात और सीताराम येचुरी ने दो टूक इंकार कर दिया। जहां तक बात कपिल सिब्बल की है तो राम मंदिर के विरुद्ध अदालत में खड़े होने के अपराधबोध के चलते वे अयोध्या जाने की हिम्मत ही नहीं कर पा रहे। सपा भी तय नहीं कर पा रही कि वह अयोध्या में आयोजित ऐतिहासिक समरोह में शिरकत करे या न करे। उसके एक नेता स्वामी प्रसाद मौर्य तो हिन्दू धर्म को धोखा बताने पर आमादा हैं । रामचरित मानस की प्रतियां जलाने जैसा घृणित अपराध करने के बावजूद अखिलेश यादव द्वारा उनको पार्टी में बनाए रखना हिन्दू विरोधी मानसिकता का परिचायक है। शरद पवार की बेटी और एनसीपी की कार्यकारी अध्यक्ष सुप्रिया सुले ने भी उक्त समारोह के राजनीतिकरण का बहाना बनाकर अयोध्या जाने में अरुचि दिखाई है।  वहीं इंडिया गठबंधन के कुछ और सदस्य भी न जाने का बहाना ढूंढ़ रहे हैं। ज्यादातर को इस बात की शिकायत है कि राम लला की प्राण प्रतिष्ठा और राम मंदिर के निर्माण का श्रेय भाजपा अकेले लूटकर 2024 के लोकसभा चुनाव में हिंदुओं को  अपने पक्ष में गोलबंद करना चाह रही है किंतु गैर भाजपा दल जब मुस्लिम तुष्टीकरण करने के लिए सारी मर्यादाएं तोड़ रहे हैं तब उसकी प्रतिक्रिया तो होगी ही। तमिलनाडु के द्रमुक मुख्यमंत्री का बेटा सनातन को डेंगू ,मलेरिया और कोरोना बताकर खत्म करने की बात करे और कांग्रेस अध्यक्ष के बेटे द्वारा उसका समर्थन किए जाने के बाद भी कांग्रेस सहित इंडिया गठबंधन के घटक दल मुंह में दही जमाए  बैठे रहें तो सनातन धर्म के  अनुयायी स्वाभाविक रूप से हिंदुत्व की बात करने वाली भाजपा के साथ खड़े होंगे। म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जबरदस्त पराजय का कारण सनातन के विरोध के कारण हिन्दुओं में उत्पन्न गुस्सा भी रहा। ये देखते हुए विपक्षी पार्टियों द्वारा राम लला की प्राण प्रतिष्ठा के ऐतिहासिक उत्सव का बहिष्कार  अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसी मूर्खता होगी। उनको ये नहीं भूलना चाहिए कि राम मंदिर आंदोलन का विरोध करने की उनकी गलती के कारण ही भाजपा देखते - देखते देश की सबसे ताकतवर पार्टी बन गई। और ये भी कि हिन्दुत्व अब राजनीति नहीं अपितु राष्ट्रहित से जुड़ा मुद्दा बन चुका है।  विपक्ष का बैर भाजपा से हो सकता है किंतु मुस्लिम वोटों के हाथ से खिसकने के भय से यदि वे अयोध्या जाने से बच रहे हैं तो फिर ये मान लेने में कुछ भी गलत नहीं है कि उसके नेताओं की बुद्धि और विवेक दोनों नष्ट हो चुके हैं। 


-रवीन्द्र वाजपेयी 



म.प्र में मंत्रीमंडल के गठन के पीछे भाजपा की दूरगामी सोच


कांग्रेस नेता राहुल गांधी बीते काफी समय से संसद और अन्य स्थानों पर जो ओबीसी राग अलाप रहे थे , वह कांग्रेस के गले पड़ गया। भाजपा ने म.प्र में ओबीसी की सबसे प्रमुख यादव जाति का मुख्यमंत्री और छत्तीसगढ़ में उपमुख्यमंत्री बनाकर अपनी सोशल इंजीनियरिंग का डंका पीट दिया। जातिगत जनगणना का जो वायदा कांग्रेस ने चुनाव घोषणापत्र में किया था उसकी भी हवा निकल गई । वह मुद्दा जितनी तेजी से उठा उतनी ही तेजी से धड़ाम हो गया। गत दिवस म.प्र मंत्रीमंडल के विस्तार में भी भाजपा ने ओबीसी पर विशेष ध्यान दिया और 12 मंत्री इस वर्ग के बनाकर लोकसभा चुनाव के लिए अपनी रणनीति का संकेत दे दिया ।  प्रदेश में कुल 35 मंत्री बनाए जा सकते हैं जिनमें से मुख्यमंत्री और 2 उपमुख्यमंत्री के अलावा 28 मंत्री बनाए जाए के बाद अब 4 स्थान मंत्रीमंडल में रिक्त हैं। जिनको संभवतः लोकसभा चुनाव के बाद भरे जाने की नीति बनाई गई है। ये भी मुमकिन है कि कुछ युवा विधायकों को और भी शामिल किया जाए जिनकी क्षमता का आकलन केंद्रीय नेतृत्व करेगा । बहरहाल , फिलहाल तो जातीय संतुलन के लिहाज से भाजपा ने बाजी मार ली है। यद्यपि कांग्रेस ने आदिवासी नेता प्रतिपक्ष और ओबीसी प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही ब्राह्मण को उप नेता प्रतिपक्ष बनाकर मुकाबले में खड़ा होने का प्रयास तो किया है किंतु तीनों चेहरे ऐसे नहीं हैं जो लोकसभा चुनाव में उसकी नैया पार लग सकें। मंत्रीमंडल के गठन में  भले ही 10 दिन का समय लगा लेकिन क्षेत्रीय संतुलन के साथ ही वरिष्टता और नए खून को समुचित महत्व देकर पार्टी ने भविष्य की व्यूह रचना जमा ली है। उसकी तुलना में कांग्रेस अभी तक पराजय के झटके से उबर नहीं पा रही। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को पूरी तरह किनारे किए जाने के बाद नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करने वाला कोई वरिष्ट नेता नजर नहीं आ रहा। प्रदेश में पार्टी का संगठन पूरी तरह से बिखरा हुआ है। छिंदवाड़ा छोड़कर बाकी एक भी जिला नहीं है जहां कांग्रेस का एक छत्र प्रभाव हो। विधानसभा चुनाव में ज्यादातर दिग्गज हार चुके हैं और जो जीते वे अब हथियार उठाने लायक नहीं रहे। ऐसे में भाजपा सरकार का नया मंत्रीमंडल लोकसभा चुनाव के मद्देनजर एक मजबूत दस्ते की तरह है जो  प्रदेश में उसको और ताकतवर बनाने में सहायक होगा। कांग्रेस दरअसल इस समय निहत्थी है क्योंकि वह राहुल की भारत जोड़ो यात्रा पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गई थी। हिमाचल और कर्नाटक की जीत को भी उसी से जोड़कर देखा जा रहा था। इसी वजह से इंडिया गठबंधन में  उसने बड़े भाई की भूमिका निभाने का दबाव बनाया किंतु म. प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में करारी हार के बाद पार्टी में सन्नाटा छा गया। गठबंधन में शामिल बाकी दलों ने चुनाव परिणाम आते ही कांग्रेस पर हमला बोल दिया। 19 दिसंबर को इंडिया की जो बैठक हुई उसमें प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने तो गठबंधन की ओर से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का नाम प्रस्तावित कर राहुल गांधी को हाशिए पर धकेलने का जो दांव चला उसे समर्थन देने में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक क्षण भी नहीं गंवाया। बैठक में मौजूद अन्य दलों के नेताओं में से किसी ने भी ममता और अरविंद की उस जुगलबंदी का विरोध नहीं किया जिसे मौन समर्थन ही कहा जायेगा । हालांकि श्री खरगे ने चुनाव के बाद प्रधानमंत्री तय होने की बात कहकर मुद्दे को टालने की कोशिश की लेकिन तीर तो धनुष से निकल ही चुका था। बहरहाल , कांग्रेस तीन राज्यों में मिली पराजय के बाद पूरी तरह हताश नजर आ रही है। दूसरी तरफ भाजपा तिहरी जीत की खुशी में डूबी रहने की बजाय लोकसभा चुनाव की मोर्चेबंदी में जुट चुकी है। म. प्र में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के बाद मंत्रीमंडल के सदस्यों का जिस तरह चयन हुआ उससे ये बात स्पष्ट है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व 2024 की रणभूमि में अपनी सेना और उसके नायकों की तैनाती काफी सोच - समझकर कर रही है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी सरकार का नेतृत्व तय करते समय बहुत ही दूरदर्शिता दिखाई गई। सबसे बड़ी बात ये रही कि जिन दिग्गजों को अपरिहार्य माना जाता था उनको दौड़ से बाहर कर ये संदेश दे दिया गया कि भाजपा के पास वैकल्पिक नेतृत्व की कमी नहीं है। पार्टी ने पीढ़ी परिवर्तन की प्रक्रिया को जिस चतुराई से शुरू किया वह अन्य पार्टियों के लिए सबक है। विशेष तौर पर कांग्रेस के लिए जो कुछ नेताओं के शिकंजे से बाहर ही नहीं निकल पाती। हालांकि म.प्र जनसंघ के जमाने से हिंदुत्ववादी राजनीति का गढ़ रहा है लेकिन वह मध्य भारत और मालवा अंचल तक ही सीमित था परंतु भाजपा ने समूचे प्रदेश में अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं। ये देखते हुए लोकसभा चुनाव में प्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटें जीतने का जो दावा पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया वह सच हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई उसके बाद छिंदवाड़ा के मतदाताओं में कमलनाथ को लेकर जो आकर्षण था उसका भी ढलान पर आना तय है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 25 December 2023

मस्जिद में अजान देने वाले की हत्या आतंकवादियों की बौखलाहट का प्रमाण


कश्मीर घाटी के बारामूला में मस्जिद से अजान दे रहे एक पूर्व पुलिस अधिकारी को आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया। बीते काफी समय से घाटी में पाकिस्तान प्रवर्तित आतंकवादी निर्दोष नागरिकों की  बेरहमी से हत्या कर रहे हैं।  पुलिस कर्मियों के साथ ही छुट्टी पर घर लौटे फौजी भी उनका निशाना बनते हैं। बीच - बीच में कुछ ऐसे लोग भी गोलियों के शिकार बने जिनका शासन या प्रशासन से कोई संबंध नहीं है। अनेक मर्तबा मस्जिदों पर भी वे धावा बोल चुके हैं। उल्लेखनीय ये है कि इस्लाम के नाम पर आतंक का सहारा लेने वाले मुसलमानों की जान लेने में भी नहीं हिचक रहे। जिस पूर्व पुलिस अधिकारी को गत दिवस बारामूला में गोली मारी गई वह मस्जिद में नमाज के लिए अजान दे रहा था , जो इस्लाम के नजरिए से बड़ा ही पवित्र कार्य होता है। ऐसे व्यक्ति को मौत के घाट उतारने वाले लोग कानून की नजर में तो अपराधी हैं ही किंतु इस्लाम की स्थापित मान्यताओं के तहत भी गुनहगार कहे जाएंगे। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को समाप्त करने और राज्य का विभाजन किए जाने के फैसले को सही बताए जाने  के बाद घाटी  में सक्रिय भारत विरोधी तत्वों की बौखलाहट बढ़ गई है। न्यायालय के आदेश पर विधानसभा चुनाव की तैयारी भी की जाने लगी है। संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान राज्य में परिसीमन संबंधी व्यवस्था भी पारित कर ली गई। इसके बाद वहां की  राजनीति पर कुंडली मारकर बैठे अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के होश उड़े हुए हैं। जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा भी लौटाया जा रहा है। लेकिन जम्मू अंचल में विधानसभा सीटें बढ़ जाने से अलगाववादी चिंतित हैं । राज्य की राजनीति में घाटी का जो दबदबा था वह खत्म तो मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही होने लगा था। रही - सही कसर पूरी हो गई धारा 370 हटाए जाने के बाद बने हालातों से। सर्वोच्च न्यायालय में उस निर्णय के विरुद्ध दायर याचिकाओं के निपटारे तक घाटी में कार्यरत पाकिस्तान समर्थक नेताओं और संगठनों की उम्मीदें जीवित थीं  किंतु फैसला आने के बाद वे हताश हो उठे। उसके बाद से घाटी में फौजी काफिले पर हमले जैसी घटनाएं देखने मिल रही हैं। लेकिन मस्जिद में अजान दे रहे पूर्व पुलिस अधिकारी की हत्या निश्चित रूप से साबित करती है कि आतंकवादी बदहवासी पर उतर आए हैं। दरअसल ये सब राज्य में पिछले चार वर्षों के दौरान बने शांतिपूर्ण वातावरण को खत्म कर एक बार फिर घाटी को हिंसा की आग में झोंकने का षडयंत्र है । इसे अलगाववादी नेता और उनकी पार्टियां परदे के पीछे रहते हुए समर्थन और सहायता दे रही हैं। ये वही तबका है जिसने चेतावनी दी थी कि कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद वहां तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा। लेकिन केंद्र सरकार की तगड़ी मोर्चेबंदी के कारण जब उस फैसले के बाद कश्मीर घाटी में भारत विरोधी ताकतों की कमर टूटने लगी और आम जनता को केंद्र सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ बिना भ्रष्टाचार के मिलने लगा तो घाटी के अंदरूनी इलाकों तक में लोग खुश हुए किंतु अलगाववादी इस बदलाव को बर्दाश्त नहीं पा रहे थे। और इसीलिए वे कभी छोटी तो कभी बड़ी घटना के जरिए भय का माहौल बनाए रखने की कोशिशें करते रहे। सेना द्वारा किसी आतंकवादी को मारे जाने पर हल्ला मचाने वाले अब्दुल्ला और मुफ्ती ब्रांड नेताओं द्वारा न तो किसी शिक्षक की हत्या पर आंसू बहाए गए न ही वर्दीधारी पुलिस कर्मी अथवा फौजी जवान या अधिकारी की। गत दिवस बारामूला में की गई हत्या मस्जिद में की गई किंतु घाटी के नेताओं ने मुंह में दही जमा रखा है। इस सबसे लगता है कि ज्यों - ज्यों चुनाव की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी त्यों - त्यों घाटी को अशांत करने वाली घटनाएं दोहराई जा सकती हैं। धारा 370 हटाए जाने के बाद से जम्मू कश्मीर में पर्यटन उद्योग में जिस तरह का उछाल आया वह इस दावे को सही साबित करने के लिए पर्याप्त है कि घाटी में आतंकवादी ताकतें कमजोर हुई हैं। इसका कारण जनता का भी उनसे दूरी बनाना है । उसे ये बात  समझ में आने लगी है कि आतंकवाद के रहते उसके जीवन में शांति और समृद्धि नहीं आ सकती। घाटी के नेताओं को यही बात अखर रही है। पाकिस्तान भी ये देखकर हैरान है कि अब उसके भेजे आतंकवादियों को जनता का पहले जैसा सहयोग नहीं मिल रहा। कुल मिलाकर 370 हटाए जाने का दर्द छोटी - छोटी घटनाओं के तौर पर देखने मिलता रहेगा । इसलिए केंद्र सरकार को पूरी तरह सतर्क रहना होगा क्योंकि आतंकवादी और अलगाववादी ताकतें बौखलाहट में किसी भी हद तक जा सकती हैं।


-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 23 December 2023

कर्ज : विकास के लिए अच्छा किंतु खैरात के लिए नुकसानदेह


एक तरफ तो अनेक विश्वस्तरीय संगठन भारत की आर्थिक प्रगति की प्रशंसा करते हैं। विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बाद जल्द ही उसके तीसरे स्थान पर पहुंचने की संभावना है। भारत के प्रति विदेशी निवेशकों का आकर्षण बढ़ा है। विदेशी मुद्रा भंडार रिकॉर्ड स्तर से भी ऊपर है। शेयर बाजार नई ऊंचाइयां छूने लगा है। चीन से निकलीं अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत का रुख किया है। मोबाइल फोन उत्पादन के पश्चात भारत अब ऑटोमोबाइल उद्योग में भी विश्वस्तरीय हो रहा है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में तो दबदबा पहले से ही था किंतु  अंतरिक्ष और सैन्य उपकरणों के मामले में भी भारत ने ऊंची छलांग लगाई है। बावजूद इसके अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा बढ़ते हुए कर्ज पर दी गई चेतावनी चर्चा का विषय  है।  तमाम विशेषज्ञों ने उसके पक्ष - विपक्ष में अपने विचार रखे हैं। केंद्र सरकार ने स्पष्टीकरण दिया कि  हालात नियंत्रण में हैं क्योंकि कुल कर्ज में विदेशी  हिस्सेदारी बहुत कम है ।  बड़ा हिस्सा भारतीय स्रोतों से लिए जाने से परेशानी नहीं होगी। आंकड़ों के अनुसार देश के हर नागरिक पर 1.50 लाख रु. का कर्ज है। उल्लेखनीय है डा.मनमोहन सिंह की सरकार ने जो कर्ज लिया वह पहले से तीन गुना अधिक था। नरेंद्र मोदी के  कार्यकाल में उसमें तीन गुनी वृद्धि और हो जाने से वह भारी - भरकम नजर आने लगा। मुद्रा कोष को चिंता है कि भारत इसी गति से कर्ज लेता रहा तो  श्रीलंका सरीखे हालात पैदा हो सकते हैं। दरअसल  1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार के वित्तमंत्री रहते हुए डा. सिंह द्वारा आर्थिक सुधारों की जो शुरुआत की उसने पूंजी को महत्वपूर्ण बना दिया । जिस शेयर बाजार पर पैसे वालों का एकाधिकार  था उसमें मध्यम वर्ग का प्रवेश होने लगा । बैंकों में जमा राशि पर ब्याज घटने से घरेलू बचत का रुख पूंजी बाजार की तरफ हो गया। उदारीकरण ने उधारीकरण को भी बढ़ावा दिया जिससे न सिर्फ सरकार अपितु आम उपभोक्ता में भी कर्ज लेकर जरूरतें पूरी करने की प्रवृत्ति जागी। परिणामस्वरूप चारों तरफ विकास के नाम पर समृद्धि नजर आने लगी। जिस साधारण नौकर पेशा की पहिचान  साइकिल थी  ,वह कर्ज के बल पर स्कूटर  और मोटर सायकिल से बढ़ते हुए छोटी कार तक आ पहुंचा। 20 साल पहले तक जितने युवाओं के पास सायकिल थी उससे ज्यादा के पास आज मोटर सायकिल है। दुनिया के सर्वाधिक मोबाइल फोन उपभोक्ता इस देश में हैं। झुग्गियों में भी टीवी की मौजूदगी है। इसके अलावा देश में विश्वस्तरीय राजमार्गों का निर्माण हो सका। पुल  , फ्लायओवर , नई रेल लाइनें, हवाई सेवा का विस्तार , विशाल हवाई अड्डे , बंदरगाह , पांच सितारा होटल , पर्यटन केंद्रों पर बढ़ती भीड़ , विदेश यात्रा का बढ़ता चलन , उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने वालों की बढ़ती संख्या  कर्ज की सहज उपलब्धता के कारण ही संभव हो सकी।  साथ ही अनेक ऐसे कार्य किए गए  जो  आय का साधन बनते जा रहे हैं।  सच तो यह है कि कर्ज चाहे घरेलू हो या विदेशी , यदि उसका उपयोग अनुत्पादक कार्यों में होता है तब वह समस्या बनता है किंतु अधोसंरचना जैसे प्रकल्पों में उसे इस्तेमाल करें तो कालांतर में वह समृद्धि का आधार बनता है। मसलन राजमार्गों के उन्नयन में लगाया गया धन टोल टैक्स के जरिए तो लौटता ही है उसकी वजह से परिवहन और ऑटोमोबाइल उद्योग भी तेज गति से आगे बढ़ा है। आधुनिक  स्टेडियम बनाने से विश्वस्तरीय आयोजन संभव होते हैं जिनसे खेल और खिलाड़ियों के विकास के साथ ही मोटी कमाई होती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही में संपन्न क्रिकेट  विश्व  कप है जिससे बीसीसीआई को करोड़ों की आय हुई और आज वह दुनिया का सबसे धनवान खेल संगठन है। आईपीएल का सफल आयोजन भी अच्छे स्टेडियम होने के कारण ही संभव हो सका जिसने इंग्लिश काउंटी जैसे क्लब क्रिकेट की चमक फीकी कर दी। लेकिन चिंता का विषय केंद्र और  राज्यों की वे योजनाएं हैं जिनके जरिए लोगों को विभिन्न नामों से  नगद राशि , मुफ्त अनाज  और घर ,  सायकिल , स्कूटी, टीवी , सस्ती और मुफ्त बिजली तथा रसोई गैस आदि  मिलती हैं । इनके जरिए   राजनीतिक दल चुनाव तो जीत जाते हैं लेकिन इनका बोझ करदाताओं पर पड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है पेट्रोल और डीजल पर लगाया जाने  वाला भारी - भरकम कर। जीएसटी लागू होने पर इसे एक देश , एक कर का नाम दिया गया  परंतु राज्यों की जिद में उक्त दोनों को जीएसटी में शामिल नहीं किया जाता ताकि उनकी आय न घटे । लेकिन वही सरकारें वोट बैंक को लुभाने के लिए दोनों हाथों से लुटाती हैं तब उनको घाटे की फिक्र नहीं रहती। हो सकता है हालिया विधानसभा चुनावों में मुफ्त खैरातों की बाढ़ के कारण मुद्रा कोष को चिंता हुई हो क्योंकि ये चलन बढ़ता ही जा रहा है। म.प्र के नए मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव ने सत्ता संभालते ही  नौकरशाहों को बुलाकर आय बढ़ाने के रास्ते खोजने कहा किंतु वे तो निहायत ही सीमित हैं। ऐसे में सरकारों को अनुत्पादक खर्च रोकने पर ध्यान देना चाहिए। प्रधानमंत्री स्वयं भी मुफ्तखोरी के विरुद्ध चेतावनी दे चुके हैं किंतु उनकी अपनी सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारें भी  सबक नहीं ले रहीं , जो समझ से परे है। समय आ गया है जब चुनाव जीतने हेतु की जाने वाली मुफ्त योजनाओं की प्रतिस्पर्धा रोकी जाए। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का अपना नजरिया हो सकता है किंतु उसकी चेतावनी में छिपे खतरे को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 22 December 2023

ईडी के समन से आखिर कब तक बचेंगे केजरीवाल


दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल दिल्ली शराब घोटाले से संबंधित पूछताछ हेतु ईडी द्वारा भेजे गए समन की उपेक्षा करते हुए 10 दिनों के लिए अज्ञात स्थान पर चले गए जहां वे विपश्यना का अभ्यास करेंगे । कुछ माह पहले भी उन्हें ईडी द्वारा समन भेजा गया था किंतु श्री केजरीवाल ने उसे राजनीतिक करार देते हुए आने से इंकार कर दिया। ताजा समन पर उनकी आपत्ति लगभग पुरानी ही है। इस बार भी उसे राजनीतिक बनाते हुए उन्होंने ये कहा है कि ईडी ने उनके द्वारा पूर्व में उठाई गई आपत्तियों का निराकरण नहीं किया । इसके अलावा ये भी स्पष्ट नहीं है कि उनसे पूछताछ मुख्यमंत्री की हैसियत से होगी अथवा आम आदमी पार्टी संयोजक के रूप में ? ईडी के बुलावे पर उन्होंने ये भी कहा कि उनके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब वे स्वयं को पारदर्शी मानते हैं तब उनको ईडी के सामने जाने में क्या परेशानी है ? इस बारे में जानकारों का कहना है कि ईडी को चूंकि समन का पालन न करने वाले की गिरफ्तारी का अधिकार नहीं है इसीलिए श्री केजरीवाल उसकी अवहेलना करने का साहस दिखा सके। कुछ लोगों का ये भी मानना है कि वे इस बात से भयभीत हैं कि पूछताछ के दौरान ही ईडी उनको गिरफ्तार कर सकती है और वैसा होने पर उनके और आम आदमी पार्टी के लिए अकल्पनीय परेशानी उत्पन्न हो सकती हैं। लोकसभा चुनाव जैसे - जैसे नजदीक आ रहे हैं वैसे - वैसे आम आदमी पार्टी की चिंता बढ़ रही हैं । श्री केजरीवाल के दाहिने हाथ कहे जाने वाले मनीष सिसौदिया और बेहद आक्रामक नेता संजय सिंह पहले से ही जेल में हैं। ऐसे में यदि मुख्यमंत्री भी गिरफ्तार हुए तो उनकी सरकार के सामने जबरदस्त संकट आ खड़ा होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इंडिया गठबंधन का सदस्य होने के बावजूद आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच रिश्ते खटास भरे हैं। लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे के सवाल पर दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी कांग्रेस के लिए सीटें छोड़ने के प्रति अनिच्छुक है। दिल्ली प्रदेश के तमाम दिग्गज भी आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन के विरुद्ध हैं। शराब घोटाले में हो रही कार्रवाई का भी अनेक कांग्रेसी नेताओं ने समर्थन किया है। इन परिस्थितियों में श्री केजरीवाल का गिरफ्तार होना कांग्रेस के लिए तो फायदेमंद रहेगा किंतु आम आदमी पार्टी की ऐंठ खत्म हो जावेगी। 19 दिसंबर को दिल्ली में हुई इंडिया गठबंधन की बैठक में प.बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल नेत्री ममता बैनर्जी द्वारा नरेंद्र मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री पद हेतु कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का नाम प्रस्तावित किए जाने पर श्री केजरीवाल ने जिस तत्परता से उसका समर्थन किया उससे कांग्रेस के साथ ही नीतीश कुमार और अखिलेश यादव भी खफा हैं। ऐसे में यदि ईडी द्वारा उनको गिरफ्तार किया गया तो हो सकता है उनको कांग्रेस सहित उक्त नेताओं का वैसा समर्थन मिलना संदिग्ध है जिसकी उन्हें अपेक्षा होगी। यही वजह है कि वे विपश्यना के बहाने 10 दिन के लिए दिल्ली से बाहर चले गए। लेकिन कहावत है बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी, और उस दृष्टि से श्री केजरीवाल ईडी के बुलावे को कब तक टालते रहेंगे ये सोचने वाली बात है। यदि समन के पीछे राजनीति होने के उनके आरोप को सही मान लें तब भी किसी कानूनी प्रक्रिया से वे ज्यादा समय तक नहीं बच सकेंगे। और उनके इर्दगिर्द शक का घेरा बड़ा होता जाएगा। उन्हीं की तरह झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी ईडी के समन की अवहेलना करते हुए गैर हाजिरी के लिए नए - नए बहाने खोज रहे हैं। जहां तक बात श्री केजरीवाल की है तो एक बात तो उन्हें माननी ही होगी कि शराब घोटाले में गिरफ्तार हुए उनके उपमुख्यमंत्री श्री सिसौदिया और सांसद श्री सिंह की जमानत अदालतों द्वारा लगातार रद्द की जाती रही है। ऐसे में शराब घोटाले के संबंध में आए समन को राजनीति से प्रेरित बताने का दिल्ली के मुख्यमंत्री का प्रयास गले नहीं उतर रहा। बेहतर तो यही होगा कि वे विपश्यना  से लौटने के बाद खुद ईडी के सामने प्रस्तुत हों और उसके सवालों का उत्तर दें क्योंकि वे ज्यादा समय तक उससे बच नहीं सकेंगे।

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रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 21 December 2023

सस्ते न्याय के बिना आजादी अधूरी है



लोकसभा में गत दिवस भारतीय न्याय संहिता , भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम विधेयक पारित हो गए। अब इनको राज्यसभा में भी पेश किया जाएगा । उसकी स्वीकृति के बाद राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होकर ये कानून का रूप ले लेंगे । ब्रिटिश काल के दंड संहिता और साक्ष्य संबंधी कानूनों को बदलने की मांग लंबे समय से चली आ रही थी। राजद्रोह जैसे कानूनों के दुरुपयोग का मुद्दा भी गर्माता रहा। इसके साथ ही अदालत में प्रकरण की सुनवाई का अंतहीन सिलसिला भी न्याय प्रणाली के प्रति गुस्से में वृद्धि का कारण बनता गया।  सुनवाई होने के बाद फैसला सुनाने की अवधि निश्चित न होने से भी आशंकाएं जन्म लेती थीं। कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं है कि भले ही 1947 में भारत ने अंग्रेजों से आजादी हासिल कर ली और 26 जनवरी 1950 से अपना संविधान लागू होने के बाद हम सार्वभौमिक गणराज्य की हैसियत में आ गए किंतु  कानूनों का  अंबार न सिर्फ आम जनता अपितु कानूनविदों के लिए भी मुश्किलें खड़ी करता रहा है। इसी तरह तमाम दावों के बावजूद न्याय प्रणाली पर भी अंग्रेजी राज की छाया बनी हुई है। सैकड़ों अपराधिक कानून ऐसे रहे जो कभी उपयोग में नहीं आने के बाद भी किताबों की शोभा बढ़ाते हैं । उनके दुरुपयोग की शिकायतें भी यदाकदा आती रहीं। राजद्रोह भी उनमें से ही है। सवाल ये उठता है कि आज तक इस बारे में क्यों नहीं सोचा गया , और यदि सोचा गया तो समुचित कदम उठाने से परहेज करने की वजह क्या रही ? बीते 75 सालों में न्याय व्यवस्था में समयानुसार बदलाव और सुधार हेतु अनेक समितियां और आयोग बने । उनकी रिपोर्ट और अनुशंसा पर समाज और संसद तक में विमर्श हुआ। कुछ पर अमल भी किया गया किंतु न्याय प्रणाली में परिस्थितिजन्य सुधार के प्रति साहस की बजाय उदासीनता का आलम बरकरार रहा।  रोचक बात ये है कि कानून मंत्री के पद पर देश के अनेक प्रख्यात अधिवक्ताओं के पदस्थ रहने के बाद भी कानूनों का जो ढांचा अंग्रेज छोड़ गए थे उसको भारतीय जरूरतों और हालातों के अनुसार ढालने के प्रति उदासीनता ही बरती गई। कई बार तो ऐसा लगा जैसे कानूनों की किताबों को धार्मिक ग्रंथ मानकर उनमें बदलाव को पाप समझा जाता रहा। बहरहाल , वर्तमान केंद्र सरकार की प्रशंसा करनी होगी जिसने अपना दूसरा कार्यकाल खत्म होने के पहले यह क्रांतिकारी कदम उठाकर न्याय प्रणाली में महत्वपूर्ण सुधार करने का साहस दिखाया। हालांकि ऐसे कार्यों का आम जनता द्वारा समुचित संज्ञान नहीं लिया जाता किंतु कानून और न्याय व्यवस्था से जुड़े वर्ग में  निश्चित रूप से इन विधेयकों का स्वागत किया जावेगा। इनके पारित होने के बाद कई स्थापित परिभाषाएं और अवधारणाएं बदल जाएंगी। कानूनों  की अधिकता के साथ ही उनमें व्याप्त जटिलता और   फैसले में विलंब जैसी विसंगति दूर करने के लिए उठाए गए इस कदम का सकारात्मक असर देखने मिलेगा  । यद्यपि अभी भी कतिपय  न्यायाधीशों में अंग्रेजी राज वाली श्रेष्ठता का भाव देखने मिलता है किंतु दूसरी तरफ न्यायाधीशों की नई पीढ़ी में अनेक चेहरे ऐसे भी हैं जो आम जनता की पीड़ा को गंभीरता से महसूस करते हुए संवेदनशीलता का परिचय देते हैं। सही बात ये है कि अंग्रेजों के समय अदालतों में बैठे मी लॉर्ड नस्लीय भेदभाव की मानसिकता से प्रेरित होने के कारण भारतीयों के प्रति अनुदार रहते थे । आजादी के बाद उस स्थिति में तो सुधार हुआ है परंतु न्याय प्राप्त करने की प्रक्रिया इतनी कठिन और महंगी है कि आम जनता आज भी खून के आंसू रोने बाध्य है। नए विधेयकों के कानून में तब्दील होने के बाद निश्चित तौर पर अनेक स्वागत योग्य बदलाव देखने मिलेंगे किंतु केंद्र सरकार को चाहिए वह न्याय प्राप्त  करने में आने वाले खर्च को कम करने संबंधी कदम भी उठाए। वकीलों की आसमान छूती फीस के कारण अनेक लोग अदालत जाने का साहस ही नहीं बटोर पाते। ये आरोप भी लगते रहे हैं  कि न्यायाधीश लाखों रुपए प्रतिदिन की फीस लेने वाले दिग्गज अधिवक्ताओं से प्रभावित होकर फैसले देते हैं। केंद्र सरकार आम जनता के कल्याण के लिए अनेक योजनाओं का संचालन करती है। अच्छा हो आम जनता को सस्ता  न्याय दिलवाने के लिए भी कोई योजना बने क्योंकि इसके बिना आजादी अधूरी ही कही जाएगी।


-रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 20 December 2023

इंडिया : चार बैठकों के बाद भी न नेता तय न रणनीति



जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ। इंडिया गठबंधन की बहुप्रतीक्षित बैठक  चाय - पानी के बाद एक सामूहिक चित्र खिंचवाकर समाप्त हो गई। कहा जा रहा था कि इसमें  संयोजक के साथ ही लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे का आधार निश्चित कर लिया जाएगा। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद 7 दिसंबर को जो बैठक आयोजित थी वह ज्यादातर घटक दलों के नेताओं द्वारा आने में असमर्थता व्यक्त किए जाने से रद्द कर दी गई। कांग्रेस उस समय तीन राज्यों की करारी पराजय के बाद सदमे में थी। बहरहाल , गत दिवस दिल्ली  में विपक्षी दलों के शीर्ष नेता जमा हुए। इस बैठक का उद्देश्य 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तिकड़ी बनाने से रोकने हेतु सेनापति और रणनीति तय करना था किंतु दोनों ही काम नहीं हो सके । जिसकी मुख्य वजह ये रही कि बाकी के दलों में कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के प्रति झिझक कम होने का नाम नहीं ले रही। इसका प्रमाण तब मिल गया जब बैठक के पूर्व शिवसेना (उद्धव) के मुखपत्र सामना में साफ - साफ लिखा गया कि इंडिया 27 घोड़ों वाला रथ है किंतु इसका कोई सारथी नहीं होने से वह जमीन में धंस गया है। इसी के साथ कांग्रेस पर भी  तंज कसा गया कि बजाय 150 सीटें जीतने की कार्ययोजना बनाने के वह 138 साल पूरे होने के जश्न में डूबी हुई है। स्मरणीय है पार्टी के प्रवक्ता संजय राउत काफी समय से उद्धव ठाकरे को संयोजक बनाने की मांग कर रहे हैं। यद्यपि उसका किसी भी घटक दल ने समर्थन नहीं किया जिससे लगता है कि उन सबमें  विश्वास की कमी है। इसका प्रमाण भी तब मिल गया जब कांग्रेस की तरफ से तो  संयोजक का नाम तय करने की पहल नहीं हुई किंतु प.बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बैनर्जी ने प्रधानमंत्री के लिए श्री खरगे का नाम प्रस्तावित कर दिया । कांग्रेस के लिए ये एक असहज करने वाली बात थी जिसे राहुल गांधी के अलावा किसी और का नाम  मंजूर ही नहीं है। इसीलिए बैठक के बाद खरगे जी ने ये मुद्दा चुनाव के बाद बहुमत आने तक के लिए छोड़ने की बात कह डाली किंतु संयोजक तय करने में क्या अड़चन थी , ये बताने वाला कोई नहीं है। इसी तरह सीटों के बंटवारे को लेकर भी कोई ठोस नीति बनाने की बजाय राज्य स्तर पर रास्ता निकालने की बात कही गई और क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले 6 राज्यों के लिए अनौपचारिक समिति भी बनाई गई जो 14 जनवरी तक निर्णय करेगी। लेकिन इसका आधार तय नहीं होने से अनिश्चितता बनी रहेगी । सबसे बड़ी बात ये रही कि जब ममता ने श्री खरगे का नाम प्रधानमंत्री के लिए आगे बढ़ाया तब आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने तो बिना देर लगाए समर्थन कर दिया किंतु अन्य दलों के नेताओं ने चुप्पी साधे रखी। स्मरणीय है इंडिया के अस्तित्व में आने के पहले ममता ने जिस तीसरे मोर्चे की कोशिश की थी उसमें श्री केजरीवाल भी साथ थे। यद्यपि तृणमूल नेत्री मन ही मन खुद भी प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की इच्छा रखती हैं किंतु राहुल का सीधा विरोध करने के बजाय उन्होंने श्री खरगे का कंधा उपयोग करने की चाल चली। इसका मकसद किसी भी तरह से श्री गांधी को रोकना है। संयोजक का मसला अनसुलझा रहने का कारण भी कांग्रेस ही है जो किसी भी स्थिति में लगाम दूसरे किसी दल के नेता के हाथ नहीं देना चाहती। रही बात सीटों के बंटवारे की तो जब तक गठबंधन का कोई चेहरा तय नहीं होता तब तक इस बारे में आगे बढ़ना संभव नहीं होगा।  राज्य स्तर पर गठबंधन की जो बात उठी वही सबसे बड़ी अड़चन है क्योंकि कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में इसी मुद्दे पर जमकर टकराव होगा। हाल ही में हुए म.प्र विधानसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी और जनता दल (यू) ने कांग्रेस द्वारा  बेरूखी दिखाई जाने के बाद अपने उम्मीदवार उतारे थे। अब सवाल ये है कि अखिलेश यादव और नीतीश कुमार क्रमशः उ.प्र और बिहार में कांग्रेस को कितनी सीटें देंगे ? ये प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि जिस आधार पर अपने प्रभावक्षेत्र वाले राज्यों में कांग्रेस अपना हाथ ऊपर रखना चाहती है वही नजरिया  क्षेत्रीय दलों का उनके वर्चस्व वाले राज्यों में है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 350 सीटों पर खुद लड़ना चाहती है जबकि बाकी के दल उसे 250 से ज्यादा देने राजी नहीं हैं। इस मुकाबले के लिए भाजपा ने अपनी मैदानी तैयारियां लगभग पूरी कर ली हैं। ऐसे में यदि इंडिया गठबंधन बेनतीजा  बैठकें ही करता रहा तो आम जनता के मन में उसके प्रति विश्वसनीयता नहीं बन पाएगी। ये सवाल तो उठने ही लगा है कि जो नेता गठबंधन का संयोजक तय नहीं कर पा रहे वे भला प्रधानमंत्री के नाम पर कैसे एकमत हो सकेंगे ?

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 19 December 2023

हंगामा : इसीलिए अब संसद न प्रेरित करती है और न प्रभावित



लोकसभा और राज्यसभा के दर्जनों विपक्षी सांसदों को मौजूदा सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया। आज की मिलाकर ये संख्या 141 हो चुकी है। लोकसभा में दो युवकों की घुसपैठ के बाद से विपक्ष सरकार पर आक्रामक है। गृहमंत्री से बयान की मांग  अनसुनी किए जाने से नाराज विपक्षी सांसद गर्भगृह में आकर सदन की कार्यवाही बाधित कर रहे थे। सरकार का कहना है कि लोकसभा सचिवालय पूरी घटना की जांच कर रहा है जिसके पूरा होते ही गृहमंत्री सदन को  जानकारी देंगे। वैसे इतने अधिक सदस्यों का एक साथ निलंबन अभूतपूर्व है। इसके औचित्य को लेकर सवाल उठना भी स्वाभाविक है। ऐसा लगता है कि सरकार शीतकालीन सत्र के बचे हुए दिनों में  लंबित विधायी कार्य पूरे करा लेना चाहती है। चूंकि इसके बाद लोकसभा का  सत्र फरवरी में होगा जिसमें नई सरकार के बनने तक खर्च चलाने के लिए कामचलाऊ बजट स्वीकृत करवाने के अलावा विदाई का माहौल रहेगा । इसलिए सही मायनों में इस लोकसभा का ये अंतिम कामकाजी सत्र ही है। ये देखते हुए इसका सुचारू रूप से चलना बेहद जरूरी है किंतु हमेशा की तरह गतिरोध जारी है। संसद में विपक्ष का हमलावर होना अनपेक्षित नहीं है। जनहित के मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करना उसका दायित्व है। लेकिन इसके लिए संसदीय प्रणाली में जो अपेक्षित तौर - तरीके हैं उन्हीं का उपयोग किया जाना चाहिए । हालांकि इस स्थिति के लिए केवल विपक्ष को कसूरवार ठहराना सही नहीं होगा क्योंकि अनेक मामलों में सत्ता पक्ष की हठधर्मिता भी उसे आंदोलित होने बाध्य कर देती है। बीते कुछ वर्षों में ये देखने मिला है कि सदन के निर्बाध संचालन में सत्ता और विपक्ष दोनों की रुचि नहीं है। सरकार चाहती है कि उसके द्वारा प्रस्तुत विधेयक और प्रस्ताव बिना बहस के पारित हो जाएं। दूसरी तरफ विपक्ष भी हंगामे में उलझकर बहस का अवसर गंवा देता है। ये स्थिति संसदीय प्रणाली के लिए बेहद नुकसानदेह है। एक समय ऐसा था जब संसद में महत्वपूर्ण विषयों पर होने वाली बहस सुनने के लिए दर्शक दीर्घाएं भरी होती थीं। लेकिन अब तो ये आलम है कि टेलीविजन पर सदन की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होने पर भी लोग उसे देखने में रुचि नहीं रखते। दूसरी बात ये भी है कि अब दोनों पक्षों के पास अच्छे वक्ताओं का अभाव हो गया है। दोनों ओर से तीखे - तीखे शब्दबाण तो खूब चलते हैं लेकिन भाषा की गरिमा का ध्यान नहीं रखा जाता। कभी - कभी लगता है कि राजनीतिक दल ही अपने सांसदों को मर्यादाहीन व्यवहार की छूट देते हैं । इस मामले में दोनों पक्ष बराबर के दोषी कहे जा सकते हैं। विपक्ष ये आरोप लगाता है कि सदन से निलंबन और ऐसे ही अन्य कड़े कदम आसंदी द्वारा उसी के सांसदों के विरुद्ध उठाए जाते हैं जबकि सत्ता पक्ष के  आपत्तिजनक व्यवहार को नजरंदाज किया जाता है।   इस बारे में रोचक बात ये है कि प्रत्येक सत्र के पहले अध्यक्ष सभी दलों की बैठक बुलाकर सदन को ठीक से चलाने हेतु सहयोग मांगते हैं किंतु अपवादस्वरूप कुछ अवसरों को छोड़कर एक भी दिन ऐसा नहीं जाता जब शोर - शराबा न होता हो। इससे ज्यादा विडंबना क्या होगी कि राष्ट्रपति के अभिभाषण तक पर विपक्ष सदन में अनुपस्थित हो जाए। सांसदों के इसी गैर जिम्मेदाराना आचरण के कारण आम जनता के मन में संसद के प्रति सम्मान लगातार घटता जा रहा है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि बीते अनेक वर्षों से संसद के दोनों सदनों में सिवाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक भी लंबा भाषण सुनने नहीं मिला। विपक्ष में सबसे ज्यादा प्रतीक्षा राहुल गांधी के भाषण की रहती थी जो बोलते तो तैश में हैं किंतु विषयवस्तु से भटककर हर बात को अडानी पर ले जाने की गलती कर बैठते हैं । वैसे कांग्रेस के पास लोकसभा में शशि थरूर जैसे अनुभवी सदस्य हैं किंतु उनको समुचित अवसर नहीं मिलता। राज्यसभा में तो विपक्ष के एक से एक कद्दावर सदस्य हैं किंतु उनकी प्रतिभा हंगामे में दबकर रह जाती है। जनता के मन में इस बात को लेकर काफी गुस्सा है कि जिस संसद के संचालन पर प्रतिदिन करोड़ों रुपए खर्च होते हैं उसका ज्यादातर समय हंगामे में नष्ट हो जाता है। गर्भगृह में जाकर होहल्ला न करने के बारे में अनेक बार आम सहमति बनाई जा चुकी है किंतु उसका उल्लंघन करना सांसद अपना अधिकार समझते हैं। यही कारण है कि संसद अब न प्रेरित करती है और न ही प्रभावित। ऐसे में जब किसी को सर्वश्रेष्ठ सांसद घोषित किया जाता है तब आश्चर्य के साथ ही हंसी भी आती है। दरअसल  राजनीतिक दल उम्मीदवार तय करते समय  जीतने की क्षमता का आकलन तो करते हैं किंतु ये नहीं देखा जाता कि वह संसद में बैठने लायक है भी या नहीं । मौजूदा विवाद के लिए सत्ता और प्रतिपक्ष एक - दूसरे पर दोषारोपण करते हुए खुद को दूध का धुला साबित करने का प्रयास कर रहे हैं किंतु यथार्थ ये है कि इस दुरावस्था के लिए सभी बराबर के जिम्मेदार हैं । आज जो सत्ता में हैं वे भी विपक्ष में रहते हुए यही करते थे और जो विपक्ष में हैं उनका इतिहास भी इसी तरह का है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 18 December 2023

विपक्षी एकता में सीटों का बंटवारा और संयोजक पद बन रहा बाधक


आगामी लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत को रोकने के लिए बनाए गए विपक्षी गठबंधन इंडिया की जो बैठक कल होने जा रही है उसमें सीटों के बंटवारे के फार्मूले के साथ ही संयोजक का नाम भी तय होना है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में  कांग्रेस तीन प्रमुख राज्यों में भाजपा के हाथों बुरी तरह पराजित हो गई। हालांकि तेलंगाना में वह जीत  गई किंतु छत्तीसगढ़ और राजस्थान  गंवाने से अन्य दलों को उस पर हावी होने का मौका मिल गया। म. प्र में भी वह तमाम अनुकूलताओं के बावजूद भाजपा को सत्ता से बाहर नहीं कर सकी। जिन तीन राज्यों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा वहां उसने अन्य विपक्षी दलों के साथ सीटों का बंटवारा करने से इंकार कर दिया था।  कमलनाथ , भूपेश बघेल और अशोक गहलोत जीत के प्रति इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने इंडिया गठबंधन के किसी भी सहयोगी के लिए सीटें छोड़ने की जरूरत नहीं समझी। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि उनमें से जो भी दल मैदान में उतरे उन्हें मिले मतों का प्रतिशत इतना कम है कि  जहां भी उसकी भाजपा के साथ सीधी टक्कर है वहां इन दलों के साथ सीटों के बंटवारे की कोई गुंजाइश नहीं है। गुजरात , हिमाचल , हरियाणा , उत्तराखंड जैसे राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच ही चुनावी जंग सीमित रहती है। दूसरी तरफ जनता दल (यू) , और राजद बिहार में  तथा समाजवादी पार्टी उ.प्र में कांग्रेस को उसी की भाषा में उत्तर देते हुए बता रही है कि इन राज्यों में वह घुटनों के बल चलने की स्थिति में है। इसलिए यदि वह उन्हें अपने प्रभावक्षेत्र में सीटें नहीं देगी तो वे भी बिहार और उ.प्र में उसके साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे। उल्लेखनीय है कि म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कुल 66 लोकसभा सीटें हैं जबकि उ.प्र की 80 और बिहार की 40 मिलाकर 120 सीटें हैं । कांग्रेस इन दोनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों के रहमो - करम पर पूरी तरह निर्भर है। 2019 में अमेठी  से राहुल गांधी बुरी तरह पराजित हुए थे। वहीं रायबरेली से सोनिया गांधी महज इसलिए जीत सकीं क्योंकि सपा - बसपा ने उनके विरुद्ध प्रत्याशी नहीं उतारा। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन इतना दयनीय रहा कि सपा और बसपा लोकसभा चुनाव में उसके साथ जुड़ने से कतरा रही हैं। ऐसी ही स्थिति बिहार में है। वहां नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के रवैए से खुश नहीं हैं।  इंडिया गठबंधन पर कब्जा करने की कांग्रेस की मंशा से नीतीश कुमार का पारा चढ़ा हुआ है। वे इस बात से भी काफी रूष्ट हैं कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बहाने कांग्रेस ने गठबंधन का काम आगे बढ़ने से रोक दिया। उनका सोचना गलत नहीं है। दरअसल कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस के दिमाग में ये बात बैठ गई कि  गठबंधन के बाकी दलों को उसका नेतृत्व स्वीकार करना चाहिए क्योंकि भले ही उ.प्र और बिहार में उसकी स्थिति बेहद कमजोर हो तथा गुजरात , म.प्र, राजस्थान , छत्तीसगढ़ , हिमाचल और उत्तराखंड जैसे राज्यों में पिछले लोकसभा चुनाव में उसकी स्थिति बहुत खराब रही किंतु विधानसभा चुनाव में वह भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी है और उसे मिलने वाले मतों का प्रतिशत भी ठीक- ठाक है। हालिया विधानसभा चुनाव में  कांग्रेस का ये दावा सही साबित हुआ । महाराष्ट्र में भी वह शरद पवार और उद्धव ठाकरे के मुकाबले ज्यादा सीटों पर अड़ेगी। इसी तरह का पेंच फंसा है गठबंधन के संयोजक को लेकर। हालांकि कांग्रेस ने इस बारे में कहा तो कुछ भी नहीं किंतु उसकी दिली तमन्ना है कि  संयोजक पद उसी के पास आए जिससे कि लोकसभा चुनाव की रणनीति तय करने में उसका हाथ ऊंचा रहे । टिकटों के बंटवारे में भी कांग्रेस अपना वर्चस्व चाहती है , जिसे लेकर नीतीश , ममता , पवार , अखिलेश और केजरीवाल चौकन्ने हैं।  चूंकि राहुल और प्रियंका के धुआंधार प्रचार के बाद भी हिन्दी पट्टी के तीन प्रमुख राज्यों में कांग्रेस के हाथ सफलता नहीं लगी इसलिए गैर कांग्रेसी विपक्षी पार्टियां भी ऐंठने की स्थिति में आ गई हैं । उधर नीतीश कुमार की अपनी स्थिति बिहार में दिन ब दिन बिगड़ रही है। ऐसे में उनकी कोशिश है कि वे किसी तरह से इंडिया के संयोजक बन जाएं जिससे राष्ट्रीय राजनीति का बड़ा चेहरा बन सकें ।  कल मंगलवार को होने वाली बैठक में क्या होता है उस पर सभी की निगाहें लगी हैं। हिमाचल और कर्नाटक की जीत के बाद जो उत्साह विपक्ष में उत्पन्न हुआ था वह तीन राज्यों में भाजपा की धमाकेदार जीत से कम हो गया है। जिसकी छाया बैठक में जरूर नजर आयेगी।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 17 December 2023

दिग्विजय और कमलनाथ के शिकंजे से मुक्त होकर कांग्रेस ने अक्लमंदी दिखाई





       आखिरकार कांग्रेस ने उस बोझ को उतार फेंका जिसे वह न चाहते हुए भी ढो रही थी। ऐसा करना उसके लिए जरूरी था या मजबूरी ये तो वही जाने । लेकिन बीते तीन दशक से प्रदेश कांग्रेस दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की बंधुआ बनकर रह गई थी। स्व.अर्जुन सिंह के रहते तक तो फिर भी गनीमत रही किंतु उनके अवसान के उपरांत उक्त ये दोनों मठाधीश पार्टी संगठन पर  कुंडली मारकर ऐसे बैठे कि बाकी किसी को पनपने ही नहीं दिया। परिणामस्वरूप कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई। स्व. इंदिरा गांधी की कृपा से 1980 में छिंदवाड़ा से सांसद बनने के बाद श्री नाथ अंगद के पैर की तरह जम गए। इसी तरह दिग्विजय को अर्जुन सिंह ने रिश्तेदारी के चलते मुख्यमंत्री बनवा दिया जबकि दावा स्व.माधवराव  सिंधिया और स्व.सुभाष यादव का था। 

         उसके बाद कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जो जुगलबंदी चली उसने प्रदेश में कांग्रेस की समूची राजनीति को अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया। 2003 के विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद  उसको 2018 में सरकार बनाने का मौका मिला किंतु  चुनाव में पार्टी का चेहरा बनाए गए ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनने से रोकने उक्त दोनों नेताओं ने जबरदस्त मोर्चेबंदी की । बावजूद इसके कि वे राहुल गांधी की पसंद थे । इस प्रकार श्री नाथ की मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा तो पूरी हुई परंतु उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पूरी तरह चित्त हो गई। छिंदवाड़ा में श्री नाथ के पुत्र नकुल भी इसलिए जीत सके क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां सभा नहीं की। वहीं गुना से श्री सिंधिया भी हार गए। 

          लेकिन कमलनाथ का राजयोग महज 15 महीने में ही खत्म हो गया और ज्योतिरादित्य ने उनका तख्ता पलटते हुए भाजपा का दामन थाम लिया। होना तो ये चाहिए था कि गांधी परिवार उस अवसर का लाभ लेकर दिग्विजय - कमलनाथ के शिकंजे से पार्टी को मुक्त करवा लेता। लेकिन दोनों ने हाईकमान को झांसा देते हुए श्री सिंह के खासमखास गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनवा दिया जबकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर श्री नाथ ही बने रहे। दरअसल उन्होंने गांधी परिवार सहित पार्टी हाईकमान के अन्य नेताओं को आश्वस्त कर दिया कि वे 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने में सक्षम हैं ।

        उल्लेखनीय है आर्थिक दृष्टि से काफी समृद्ध होने के साथ औद्योगिक जगत में भी श्री नाथ के काफी नजदीकी रिश्ते हैं। जिन गौतम अडानी के विरुद्ध राहुल गांधी दिन - रात चिल्लाया करते हैं उनके बारे में श्री नाथ ने आज तक कुछ नहीं बोला। पार्टी ने उनके आश्वासन पर भरोसा करते हुए 2023 के चुनाव के लिए उनको पूरी छूट दे दी। पार्टी के भीतर अनेक युवा चेहरे श्री नाथ और दिग्विजय के विरुद्ध आवाज उठाते रहे किंतु उन सभी को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया । चुनाव की समूची व्यूह रचना श्री नाथ ने अपने हाथ में ले ली और दिग्विजय सिंह घूम - घूमकर उनके पक्ष में माहौल बनाने में जुटे रहे। उम्मीदवारों के चयन से लेकर प्रचार तक पर  दिग्विजय और कमलनाथ हावी रहे। आखिर में तो पूरा नियंत्रण श्री नाथ ने ले लिया और दिग्विजय तक को किनारे करने से बाज नहीं आए। पार्टी के केंद्रीय पर्यवेक्षक रणदीप सुरजेवाला तक निठल्ले बैठे रहे। 

        श्री नाथ इस हद तक स्वेच्छाचारी हो चले थे कि चुनाव की घोषणा के पूर्व भोपाल में आयोजित इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन की रैली तक रद्द कर दी। और तो और सपा तथा जनता दल (यू) को चार - छह सीटें देना तो दूर उल्टे अखिलेश यादव के प्रति बेहद सस्ते शब्दों का प्रयोग कर आग में घी डाल दिया। उनकी कार्यप्रणाली से गांधी परिवार तक अप्रसन्न था किंतु चाहकर भी कुछ न कर सका क्योंकि म.प्र में कांग्रेस में उनके सिवाय कोई और नजर ही नहीं आता था। लेकिन 3 दिसंबर की दोपहर होते - होते तक उनका कथित आभामंडल पराजय के अंधकार में डूब गया। 
 
       20 साल पहले कांग्रेस ने दिग्विजय का पराभव देखा और अब कमलनाथ भी उसी गति को प्राप्त हुए। इस दौरान  भाजपा ने दूसरी पीढ़ी को आगे लाने की कार्य योजना को तो सफलता के साथ लागू कर दिया किंतु  कांग्रेस अधेड़ से बूढ़े होते दो नेताओं के शिकंजे में फंसकर छटपटाती रही। अब , जब सब कुछ लूट चुका तब जाकर पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को होश आया या यूं कहें कि हिम्मत हुई दिग्विजय और कमलनाथ से पिंड छुड़ाने की। गत दिवस जीतू पटवारी , उमंग सिंगार और हेमंत कटारे को क्रमशः प्रदेश अध्यक्ष ,नेता प्रतिपक्ष और उप नेता प्रतिपक्ष बनाकर पार्टी हाईकमान ने लंबे समय बाद अक्लमंदी का परिचय दिया। हालांकि इन तीनों से 2024 के महा - मुकाबले में किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद करना तो उन्हें दबाव में डालने का  कारण बनेगा किंतु कम से कम पार्टी में ये संदेश तो गया कि नई पीढ़ी के लिए भी गुंजाइश है और नौजवानों की भावनाओं और अपेक्षाओं को समझने वाला प्रदेश नेतृत्व आ गया है। 

         यद्यपि कांग्रेस से ये अपेक्षा करना तो व्यर्थ है कि वह किसी से कुछ सीखेगी क्योंकि उसमें श्रेष्ठता का भाव आज भी यथावत है किंतु इतना तो कहा ही सकता है कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के चेहरे देखते - देखते जो ऊब पार्टी के भीतर महसूस की जाती थी उससे तो आजादी मिलेगी।  भाजपा ने सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान को हटाकर नया नेतृत्व जिस तरह दिया उसके बाद कांग्रेस के लिए भी ऐसा ही करना मजबूरी बन गया था किंतु एक झटके में तीन युवा चेहरे सामने लाकर आलाकमान ने निश्चित रूप से जो साहस दिखाया उसके लिए वह बधाई का पात्र है।

इस नई टीम के समक्ष कुछ महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव की चुनौती खड़ी होगी  किंतु  थके और लगातार हारते आ रहे दो नेताओं से मुक्त होकर कांग्रेस में जितना भी उत्साह आएगा वह भविष्य की दृष्टि से उसकी सेहत सुधारने में सहायक होगा , इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 16 December 2023

शाही मस्जिद के सर्वेक्षण में अड़ंगेबाजी छोड़ सहयोग करें मुस्लिम धर्मगुरु


सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मथुरा स्थित श्रीकृष्ण जन्मभूमि  से सटी शाही मस्जिद के सर्वेक्षण पर रोक लगाने से इंकार किए जाने के बाद अब इस विवाद के हल का रास्ता खुल गया है। स्मरणीय है हिन्दू पक्ष द्वारा लंबे समय से मांग की जा रही थी कि वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद की तरह से ही मथुरा की शाही मस्जिद का भी सर्वेक्षण कर  पता किया जाए कि वहां हिन्दू मंदिर के प्रतीक चिन्ह हैं। मुस्लिम पक्ष इसका विरोध करता आ रहा है। हाल ही में  अलाहाबाद उच्च न्यायालय के सर्वेक्षण संबंधी आदेश को मुस्लिम पक्ष ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी किंतु उसने भी  रोक लगाने से मना कर दिया। दरअसल मुस्लिम पक्ष 1991 के प्लेस  ऑफ वर्शिप एक्ट के आधार पर  तर्क देता है कि 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी धार्मिक स्थल को किसी अन्य के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता।  इस बारे में उल्लेखनीय है कि श्री कृष्ण जन्मभूमि मंदिर  लगभग 11 एकड़ में है जबकि उससे लगी शाही मस्जिद के पास 2.37 एकड़ भूमि है। हिन्दू पक्ष का दावा है कि इस भूमि पर भी मंदिर था जिसे औरंगजेब के  शासन में मस्जिद का रूप दे दिया गया। इसीलिए उसकी दीवारों पर हिन्दू मंदिरों में प्रयुक्त होने वाले कमल और त्रिशूल आदि के चिन्ह अंकित हैं। इस प्रकार  ज्ञानवापी की तरह से ही शाही मस्जिद के बारे में भी हिन्दू पक्ष का दावा है कि वह  मंदिर का ही हिस्सा है जिसे मुगल काल में जबरदस्ती मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया । ज्ञानवापी में  तो शिवलिंग के अलावा जिस तरह से दीवारों और  स्तंभों पर हिन्दू धार्मिक चिन्ह बने दिखे ठीक वैसे ही शाही मस्जिद के भीतर होने की बात हिन्दू पक्ष कह रहा है। इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि मुस्लिम धर्मगुरु और वक्फ बोर्ड जैसी संस्था द्वारा  सर्वेक्षण के काम में अड़ंगा  लगाने से  हिन्दू पक्ष के दावों में सच्चाई लगती है। वैसे भी सर्वविदित है कि काशी विश्वनाथ और श्री कृष्ण जन्मभूमि से सटी मस्जिद बनाने के पीछे तत्कालीन मुस्लिम शासकों का उद्देश्य हिन्दू धर्मावलंबियों को आतंकित करना ही था। विश्वनाथ मंदिर पर तो अनेक बार आक्रमण किए गए। आजादी के बाद से  ही कहा जा रहा है कि हिंदुओं के प्रमुख आराध्य श्री राम , श्री कृष्ण और महादेव शिव से जुड़े पवित्र धर्मस्थलों पर बनी मस्जिदें मंदिरों का ही हिस्सा हैं इसलिए वह स्थान हिंदुओं को लौटा दिया जाए किंतु मुस्लिम समुदाय का एक भी व्यक्ति उस हेतु राजी नहीं हुआ। अयोध्या  विवाद  का हल भी बाबरी ढांचे में मिले हिन्दू प्रतीक चिन्हों के आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया गया । उसी के बाद से ज्ञानवापी और शाही मस्जिद के मामले ने जोर पकड़ा और  वह निचली अदालतों से होता हुआ सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा जिसने दोनों जगहों पर सर्वेक्षण के आदेश दिए ताकि वास्तविक स्थिति का पता लग सके । होना तो ये  चाहिए था  कि मुस्लिम धर्मगुरु अपने समुदाय को ये समझाइश देते कि सर्वेक्षण के आधार पर यदि हिन्दू पक्ष का दावा सही साबित होता है तो बजाय हठधर्मिता के उन्हें वे स्थान हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। वैसे तो मुस्लिम शासकों के दौर में पूरे देश के भीतर हजारों मंदिर ध्वस्त किए गए किंतु अयोध्या , काशी और मथुरा चूंकि सनातन धर्मियों की आस्था के बड़े केंद्र हैं इसलिए उन पर बनाई मस्जिदें भावनाओं को आहत करने वाली हैं। बेहतर तो यही होगा कि मुस्लिम पक्ष  सर्वेक्षण के कार्य में सहयोग करे क्योंकि अदालत बिना पुख्ता सबूत के  कोई भी फैसला नहीं करेगी । अयोध्या का मामला भी बाबरी ढांचा गिरने के कई दशक बाद  तभी निपटा जब पुरातत्व सर्वेक्षण में उसके हिन्दू मंदिर होने के प्रमाण सामने आए। ज्ञानवापी और शाही मस्जिद में भी यदि हिन्दू  मंदिर होने के साक्ष्य मिलते हैं तब अक्लमंदी तो यही  होगी कि मुस्लिम धर्मगुरु स्वेच्छा से वे स्थल हिंदुओं को सौंपकर सद्भावना का वातावरण बनाने आगे आएं। इतिहास की गलतियों को सुधारकर अनेक समस्याओं से बचा जा सकता है। मुस्लिम समुदाय को ये जानना चाहिए कि कांग्रेस सहित अनेक राजनीतिक दलों द्वारा छद्म धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण के कारण उसको मुख्य धारा में शामिल नहीं होने दिया गया । उसी का परिणाम है कि वह धार्मिक कट्टरता में फंसकर शिक्षा के क्षेत्र में बेहद पीछे रह गया। यदि वह अभी भी उन्हीं बेड़ियों में जकड़ा रहकर अकबर और औरंगजेब के दौर से बाहर नहीं निकला तो फिर उसको अपनी बेहतरी के बारे में सोचना बंद कर देना चाहिए। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 15 December 2023

संसद में घुसने वालों के पीछे छिपी ताकतों का पर्दाफाश भी जरूरी


लोकसभा में कुछ युवकों के दर्शक दीर्घा से कूदकर सदन में आ जाने और रंगीन धुआं छोड़ने वाली स्मोक गन का उपयोग करने के बाद पूरे देश में संसद की सुरक्षा को लेकर सवाल उठ रहे हैं। इन युवकों के कुछ साथी सदन के बाहर प्रांगण में नारेबाजी के साथ रंगीन धुआं उड़ाते रहे। इस वारदात को अंजाम देने वाले सभी 6 आरोपी पुलिस की गिरफ्त में आ चुके हैं। जिन सुरक्षा कर्मियों की लापरवाही से दो युवक जूते में छिपाकर स्मोक गन दर्शक दीर्घा तक ले जा सके वे सभी निलंबित कर दिए गए।  गत दिवस संसद में इसे लेकर खूब हंगामा हुआ। विपक्ष ने गृहमंत्री अमित शाह से त्यागपत्र मांगा जो स्वाभाविक भी था।  सबसे ज्यादा उंगलियां मैसूर से  भाजपा के सांसद प्रताप सिम्हा पर उठ रही हैं जिनकी सिफारिश पर सदन में कूदे युवकों को प्रवेश पत्र जारी हुआ था। आम तौर पर सभी सांसद अपने क्षेत्र के लोगों के अलावा परिचितों को संसद की कार्रवाई देखने हेतु प्रवेश पत्र जारी करने की अनुशंसा करते हैं। लेकिन जूते के भीतर स्मोक गन छिपाकर ले जाने के लिए सुरक्षा जांच में लापरवाही ही  जिम्मेदार मानी जाएगी। बावजूद इसके श्री सिम्हा से पूछताछ होनी चाहिए और यदि ऐसा लगे कि उन्होंने प्रवेश पत्र जारी करवाने में किसी भी प्रकार की लापरवाही बरती तो उनकी सदस्यता समाप्त किए जाने के साथ ही जो भी उचित दंड हो दिया जावे  , ताकि बाकी सांसद  सतर्क हो जाएं। गृहमंत्री श्री शाह को भी घटना की विस्तृत जानकारी संसद के माध्यम से देश को देते हुए आश्वस्त करना चाहिए कि संसद की सुरक्षा में कोई कमी नहीं छोड़ी जावेगी। वारदात में शरीक सभी लोग तानाशाही नहीं चलेगी जैसे नारे लगाते हुए खुद को बेरोजगारी से त्रस्त बता रहे थे। शहीदे आजम भगतसिंह के नाम पर बने किसी संगठन से इनका जुड़ाव बताया जा रहा हैं। रोचक तथ्य ये है कि वे सभी अलग - अलग - अलग स्थानों के रहने वाले हैं और सोशल मीडिया के जरिए संपर्क में आए। लेकिन उन्होंने संसद में घुसकर हंगामा करने और स्मोक गन का उपयोग कर सनसनी फैलाने का फैसला क्यों किया ये गंभीर प्रश्न है। पकड़ी गई महिला की दिल्ली में हुए सरकार विरोधी आंदोलनों में उपस्थिति से ये संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि उसके विपक्ष , विशेष रूप से वामपंथी संगठनों से रिश्ते हैं। अनेक विपक्षी नेताओं ने पकड़े गए लोगों को भटका हुआ बताकर बचाव भी किया और ये प्रचारित करने की कोशिश की कि बेरोजगारी से बढ़ते तनाव के कारण वे ऐसा कदम उठाने मजबूर हुए। यद्यपि ये दलील किसी के गले नहीं उतर रही क्योंकि ये युवक संसद के बाहर अर्थात जंतर - मंतर पर भी धरना - प्रदर्शन कर सकते थे। यदि उनका उद्देश्य महज चर्चाओं में आने का था तो उसके लिए वे और भी कोई उपाय तलाश सकते थे। उन सभी पर यूएपीए जैसे सख्त कानून के अंतर्गत कार्रवाई की जा रही है। लेकिन विपक्ष के कुछ नेताओं सहित वामपंथी रुझान वाले यूट्यूब चैनल चलाने वाले पत्रकारों ने उनका बचाव करते हुए इस कृत्य को  युवाओं में बढ़ते असंतोष का प्रदर्शन बताया जिससे  लगने लगा है कि ये भी शाहीन बाग जैसे किसी प्रयोग की कोशिश है जिसे कांग्रेस , वामपंथी और मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों का मिला जुला समर्थन था। दिल्ली में साल भर चले किसान आंदोलन के बारे में  भी  जब ये कहा गया कि उसमें खालिस्तानी तत्व घुस आए हैं तो उसे किसानों को बदनाम करने का सरकारी षडयंत्र बताया गया किंतु गणतंत्र दिवस के दिन लाल किले पर उत्पात होने और कुछ निहंगों द्वारा वहां तिरंगे वाली जगह धार्मिक ध्वज फहराए जाने के बाद  किसान नेताओं के सामने सिवाय माफी मांगने के और कोई चारा नहीं बचा। लेकिन महेंद्र सिंह टिकैत को उस घटना के पीछे भी रास्वसंघ का हाथ दिखाई दिया। जेएनयू, जामिया मिलिया , उस्मानिया , अलीगढ़ मुस्लिम और जादवपुर  विवि में भारत विरोधी नारे  , नागरिकता कानून और कृषि कानून जैसे अनेक मामलों में हुए आंदोलन को जिस योजनाबद्ध तरीके से प्रचार दिया गया उसके पीछे मोदी सरकार की छवि जनविरोधी बनाने की कार्ययोजना ही रही। हालिया विधानसभा चुनाव में भाजपा को तीन राज्यों में मिली सफलता ने कुंठित मानसिकता वाले पत्रकारों और उनके सरपरस्त विपक्षी राजनेताओं के पेट में जो मरोड़ पैदा किया उसकी प्रतिक्रिया इस तरह की वारदातों के रूप में  सामने आती रहेगी ।किसान आंदोलन के समर्थन में अमेरिका , कैनेडा और ब्रिटेन में हुए आंदोलन इसका प्रमाण थे। संसद में घुसे युवकों ने भले ही कोई हिंसा न की हो किंतु उनका अपराध राष्ट्रविरोधी कृत्य है जिसकी कड़ी सजा उनको तो मिलेगी ही किंतु इस प्रयास के पीछे जिन लोगों का दिमाग है उनकी गर्दन पर भी फंदा कसा जाना चाहिए। अफजल गुरु जैसे गद्दार से सहानुभूति रखने वाले नए - नए रूपों में  सामने आते हैं। 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 14 December 2023

चुनाव तो जीत लिए लेकिन अब रेवड़ियों का इंतजाम करने में पसीने छूटेंगे



पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सम्पन्न होने के बाद मुख्यमंत्री भी शपथ ले चुके हैं। जल्द ही मंत्रीमंडल भी आकार ले लेंगे। मिजोरम तो ज्यादा चर्चा में नहीं रहा किंतु तेलंगाना , म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में लोगों की उत्सुकता बनी रही। भाजपा और कांग्रेस जीत हार का विश्लेषण करने में जुटी हैं जिससे कि लोकसभा चुनाव के लिए सटीक रणनीति बनाई जा सके। इसमें दो राय नहीं हैं कि हिमाचल और कर्नाटक में मिली हार के बाद भाजपा दबाव में थी। उधर विपक्ष भी इंडिया गठबंधन के रूप में एकजुट होने लगा था। लेकिन तीन राज्यों की जीत ने भाजपा का मनोबल बढ़ा दिया है। और इसीलिए पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने मुख्यमंत्री चयन करने में सबको चौंका दिया। कांग्रेस द्वारा उक्त चारों राज्यों में जातीय जनगणना करवाए जाने का जो वायदा किया उसका उद्देश्य ओबीसी और दलितों को लुभाना था। इसीलिए तीन राज्यों में भाजपा द्वारा क्रमशः आदिवासी , ओबीसी और सवर्ण मुख्यमंत्री बनाए जाने के साथ ही जो दो - दो मुख्यमंत्री बनाए गए उनमें भी जातीय संतुलन का जबरदस्त ध्यान रखा जिसके कारण जाति की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दल सकते में आ गए हैं। लेकिन असली मुद्दा जो उक्त चार राज्यों में चर्चित रहा वह था मुफ्त उपहारों का ऐलान। तेलंगाना में के. सी राव की बीआरएस सत्ता में थी जबकि म.प्र में भाजपा और राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ कांग्रेस के कब्जे में थे। इन चारों राज्यों की सरकारों ने जनकल्याण के नाम पर जिस तरह की योजनाएं और कार्यक्रम लागू कर किए उनकी वजह से सरकारी खजाने पर जबरदस्त बोझ पड़ रहा था। रही - सही कसर पूरी कर दी चुनावी वायदों ने। हालांकि चुनाव परिणामों से मिले संकेत विरोधाभासी हैं। उदाहरण के लिए म.प्र अकेला राज्य है जहां मुफ्त और नगद राशि देने वाली योजनाएं भाजपा की सत्ता में वापसी का आधार बन गईं किंतु तेलंगाना , राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकारों द्वारा दोनों हाथों से खजाना लुटाए जाने के बावजूद वे बुरी तरह चुनाव हार गईं। इसीलिए म.प्र में शिवराज सरकार की जिस लाड़ली बहना योजना को चुनाव जिताऊ माना गया उस पर अनेक भाजपा नेताओं ने ही सवाल खड़े करते हुए कहा कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो भाजपा विपक्ष में रहते हुए ही जीती । इसका अर्थ ये हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चला गया मोदी की गारंटी वाला दांव ज्यादा कारगर साबित हुआ। तेलंगाना में चूंकि भाजपा का संगठन उतना सुदृढ़ नहीं है वरना वहां भी भाजपा को सत्ता मिलती। बहरहाल, अब भाजपा और कांग्रेस दोनों के सामने ये समस्या आ खड़ी हुई है कि वे उन वायदों को कैसे पूरा करेंगे जबकि खजाना तो पहले से ही खस्ता हालत में हैं। जो जानकारी आई है उसके अनुसार उक्त राज्यों में वेतन और पेंशन बांटने में रुकावट आ रही है । विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के अन्तर्गत मिलने वाली धनराशि महीनों से हितग्राहियों के खाते में जमा नहीं हुई। शिवराज सिंह इस बात को संभवतः भांप चुके थे इसीलिए उन्होंने भूतपूर्व होने के दो दिन पहले ही लाड़ली बहना की राशि हितग्राहियों के खातों में जमा करवा दी। इस चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने जिस तरह के मुफ्त उपहारों का वायदा किया उनको पूरा करने के लिए संसाधन कहां से आयेंगे इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। इस बारे में रोचक बात ये है कि विपक्ष में बैठी पार्टी सत्ता पक्ष पर खजाना खाली करने का आरोप लगाती है किंतु सत्ता में आने के लिए वह भी ऐसे ही प्रलोभन देने में पीछे नहीं रहती। उदाहरण के लिए म.प्र को ही लें तो यहां चुनाव के कई महीने पहले कांग्रेस नेत्री प्रियंका वाड्रा ने उन्हीं पांच गारंटियों का ऐलान कर दिया जिनके दम पर पार्टी को हिमाचल और कर्नाटक में सफलता हासिल हुई थी। भाजपा चूंकि उक्त राज्य गंवा चुकी थी अतः उसने बिना देर लगाए लाड़ली बहना योजना लागू कर दी और 450 रु. में रसोई गैस सिलेंडर देना शुरू कर दिया। हालांकि कांग्रेस ने ओल्ड पेंशन योजना लागू करने का वायदा भी किया किंतु शिवराज सरकार ने जो पहल की उसके कारण कांग्रेस के वायदे हवा में झूलते रह गए। अब आम जनता सवाल पूछ रही है कि यदि गैस सिलेंडर 450 रु. में देने से सरकार को कोई नुकसान नहीं होता तो फिर सभी को ये फायदा मिलना चाहिए और यदि नुकसान हो रहा है तो कितने समय तक वह ये बोझ उठा सकेगी , ये सवाल राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनता जा रहा है। प्रधानमंत्री श्री मोदी खुद रेवड़ी राजनीति की आलोचना कर चुके हैं । लेकिन जिस तरह आरक्षण के बारे में कोई भी पार्टी किसी प्रकार का खतरा नहीं उठाना चाहती ठीक वैसे ही मुफ्त उपहारों की योजनाओं को शुरू करने के बाद रोकना या वापस लेना खतरे से खाली नहीं है। ऐसा लगता है सर्वोच्च न्यायालय को ही स्वतः संज्ञान लेते हुए इस बंदरबांट पर रोक लगानी पड़ेगी वरना आर्थिक प्रगति के सारे आंकड़े मुफ्तखोरी के खेल में उलझकर रह जाएंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 13 December 2023

भाजपा एक साथ मंडल और कमंडल दोनों को साध रही


म.प्र में आज मोहन यादव के अलावा छत्तीसगढ़ में  विष्णु देव साय ने मुख्यमंत्री की शपथ ले ली। इन दोनों का चयन चौंकाने वाला बताया जा रहा था। पहले आदिवासी और फिर ओबीसी मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने विपक्ष के  जातीय जनगणना वाले मुद्दे की हवा निकाल दी। लेकिन उससे भी बड़ा दांव चल दिया राजस्थान में जहां पहली  बार विधायक बने भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाकर  इस अवधारणा को गलत साबित कर दिया कि भाजपा में सवर्ण जातियों को पीछे धकेला जा रहा है।  इस प्रकार जिस सोशल इंजीनियरिंग का ढिंढोरा पीटकर विपक्षी पार्टियां भाजपा को ओबीसी और दलित विरोधी बनाती रहीं उसे भाजपा ने ज्यादा बेहतर तरीके से लागू किया है। नब्बे के दशक में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की , उसी समय भाजपा का राम मंदिर मुद्दा भी गरमा उठा और लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से रथ यात्रा लेकर अयोध्या के लिए निकल पड़े। राजनीतिक विश्लेषकों ने तब ये कहा था कि मंडल का जवाब भाजपा ने कमंडल के रूप में दिया क्योंकि तमाम सनातनी साधु - संत राम मंदिर के कारण भाजपा के साथ खड़े हो गए थे । ये कहना भी पूरी तरह सही होगा कि भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में वह रथ यात्रा नींव का पत्थर साबित हुई। लेकिन जल्द ही पार्टी के वैचारिक अभिभावक रास्वसंघ को ये महसूस होने लगा कि मंडलवादी ताकतों के क्षेत्रीय वर्चस्व को तोड़ने के लिए समाज के जातीय संतुलन और समरसता को ध्यान में रखते हुए ही आगे बढ़ा जा सकता है। और उसी का परिणाम है कि उ.प्र जैसे राज्य में भाजपा ने जातीय राजनीति करने वाली सपा और बसपा  का आभामंडल फीका कर दिया। छोटी - छोटी अनेक जातियों और उपजातियों को अपने साथ जोड़कर भाजपा ने जो सार्थक प्रयोग किया वह कारगर होने लगा और अब कोई उसे सवर्ण और व्यापारी वर्ग की पार्टी नहीं कहता । म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के साथ ही विधानसभा अध्यक्ष पद हेतु चयन करते हुए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने पीढ़ी परिवर्तन को तो ध्यान रखा ही किंतु सबसे ज्यादा महत्व दिया जातिगत संतुलन को जिसकी पूरे देश में  चर्चा हो रही है। कांग्रेस ही नहीं बल्कि नीतीश कुमार ,  अखिलेश यादव  , मायावती और तेजस्वी  यादव जैसे नेता तक हतप्रभ हैं । ये देखते हुए कहा जा सकता है कि आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने हिंदुत्व के अपने परंपरागत मुद्दे के साथ ही मंडलवादी ताकतों से उनका मुख्य हथियार छीन लिया है। उल्लेखनीय है आगामी 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर का शुभारंभ होने जा रहा है। संघ परिवार उस आयोजन को ऐतिहासिक बनाने के लिए जी जान से जुटा हुआ है। करोड़ों लोगों को पीले चावल भेजकर आमंत्रित किया जा रहा है। निश्चित रूप से यह आयोजन धार्मिक के साथ ही राजनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण होगा । प्रधानमंत्री  को विरोधी कुशल इवेंट मैनेजर कहा करते हैं जो काफी हद तक सच भी है क्योंकि वे ऐसे किसी भी अवसर को भव्य और स्मरणीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। तीन राज्यों में भाजपा की शानदार जीत के बाद मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री चयन में जिस सूझबूझ का परिचय दिया गया वह इस बात का प्रमाण है कि भाजपा की निगाहें भविष्य पर हैं। जिस चतुराई से बेहद साधारण परिस्थिति से उठे लोगों को सत्ता के सिंहासन पर आसीन करवाया  गया उसमें सामाजिक समरसता और जातीय संतुलन के साथ ही हिंदुत्व की विचारधारा की झलक साफ नजर आती है। हिमाचल और कर्नाटक जीतने के बाद कांग्रेस के  जो हौसले सातवें आसमान पर   थे वे तीन राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद  धरती पर आ गिरे । बावजूद इसके कि  वह तेलंगाना में सरकार बनाने में सफल रही। दरअसल उत्तर भारत के तीन राज्यों में भाजपा द्वारा बड़े बहुमत के साथ सत्ता हासिल करने से कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष मनोवैज्ञानिक दबाव में आ गया है। इसका प्रमाण चुनाव परिणाम आने के बाद हुई बयानबाजी से मिला । यही नहीं इंडिया नामक गठबंधन भी  आकार लेने के पहले ही बिखराव का शिकार होता लग रहा है। राहुल गांधी को अपनी पूर्व निर्धारित विदेश यात्रा रद्द करनी पड़ी। कुछ समय पहले तक ये लगने लगा था कि मोदी लहर कमजोर पड़ने लगी है।लेकिन तीन राज्यों की जीत के बाद भाजपा ने उस आशंका को निराधार साबित कर दिया। जनवरी में राम मंदिर का शुभारंभ निश्चित रूप से उसके पक्ष में  लहर उत्पन्न करेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने भी धारा 370 हटाए जाने को विधि सम्मत बताकर प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा को और बढ़ा दिया ।

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रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 12 December 2023

मोहन यादव का चयन भविष्य को ध्यान में रखकर किया गया : एक तीर से कई निशाने साधे गए


भाजपा द्वारा म.प्र में ओबीसी मुख्यमंत्री बनाए जाने की संभावना के साथ ही ये भी माना जा रहा था कि लोकसभा चुनाव तक शिवराज सिंह चौहान ही बने रहेंगे ताकि उनकी लोकप्रियता का लाभ  लिया जा सके। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने सभी अनुमान ध्वस्त करते हुए उनकी ही सरकार में उच्च शिक्षा मंत्री रहे मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनवा दिया। साथ ही  जातीय संतुलन का ध्यान रखते हुए जगदीश देवड़ा और राजेंद्र शुक्ल को उपमुख्यमंत्री और नरेंद्र सिंह तोमर को विधान सभा अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी। मंत्रीमंडल के बारे में शपथ ग्रहण के समय ही स्थिति स्पष्ट होगी क्योंकि आज की भाजपा में महत्वपूर्ण  निर्णयों को लेकर अंत तक गोपनीयता बनाए रखी जाती है। मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल रहे अन्य नेताओं के भविष्य को लेकर अटकलें लगाई जाने लगी हैं। दरअसल पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को श्री चौहान के विकल्प के तौर पर ऐसे नेता की तलाश थी जो प्रतिबद्धता , योग्यता और क्षमता तीनों कसौटियों पर खरा साबित होने के साथ ही जातीय समीकरणों के लिहाज से भी स्वीकार्य हो। 58 वर्षीय श्री यादव अभाविप और भाजपा के साथ ही  रास्वसंघ से भी जुड़े रहे। ये देखते हुए उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता प्रमाणित है। कांग्रेस द्वारा ओबीसी को लुभाने के लिए जो दांव चले जा रहे थे उनको बेअसर करने के लिए भाजपा ने ये पैंतरा चल दिया । सच तो ये है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व और रास्वसंघ दीर्घकालीन लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। बीते दस सालों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने भाजपा को भविष्य की पार्टी बनाने की जो कार्ययोजना बनाई उसे लागू करने में कुछ गलतियां भी हुईं ।  जिनकी वजह से अनेक राज्यों में पार्टी को नुकसान उठाने पड़े  किंतु उन गलतियों को सुधारने की प्रक्रिया भी उतनी ही तेजी से चलने की वजह से ही वह राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती से अपने पैर जमाए रखने में सफल है। म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान 2018 में हाथ से निकाल जाने के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां कांग्रेस को चारों खाने चित्त कर दिया। और पांच साल बाद तीनों में शानदार जीत हासिल कर  दिखा दिया कि गलतियों से कैसी सीखा जा सकता है।  लेकिन पार्टी नेतृत्व इस जीत से संतुष्ट होने के बजाय भविष्य की तैयारी में जुट गया जिसका प्रमाण छत्तीसगढ़ और म.प्र में मुख्यमंत्री का चयन है। वैसे भी म.प्र जनसंघ के जमाने से ही हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए अनुकूल  रहा है। ऐसे में यहां के राजनीतिक घटनाक्रम का प्रभाव अन्य राज्यों में भी होता है। और इसीलिए इस बार पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसे  राजनीतिक समीकरण बिठाए जिससे पड़ोसी प्रदेश प्रभावित हों। मुख्यमंत्री के रूप में मोहन यादव का चयन यह दर्शाने का प्रयास भी है कि भाजपा में नेता पार्टी संचालित नहीं करते अपितु पार्टी नेताओं को चलाती है। शिवराज सिंह भी जब मुख्यमंत्री बने थे तब उनके पास संगठन और सांसदी का अनुभव तो था किंतु प्रशासनिक नहीं । लेकिन उसके बाद भी वे 18 साल से ज्यादा मुख्यमंत्री रहे और कार्यकाल के आखिरी चुनाव में भी पार्टी को जबरदस्त सफलता दिलवाई। उस दृष्टि से देखें तो श्री यादव के पास तो मंत्री पद का अनुभव भी है और उनके साथ बने दोनों उपमुख्यमंत्री भी तजुर्बेकार  हैं। कुछ महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव की हलचल शुरू हो जाएगी । ऐसे में श्री यादव के सामने दोहरी चुनौती है। पहली तो शिवराज सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं को जारी रखना और दूसरी लोकसभा चुनाव में 2018 के प्रदर्शन को दोहराना। जहां तक दूसरी का सवाल है तो उसमें तो उनको ज्यादा परेशानी नहीं होगी क्योंकि लोकसभा का मुकाबला तो मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा किंतु  लोक लुभावन योजनाओं और कार्यक्रमों की निरंतरता के साथ चुनाव घोषणापत्र में किए गए वायदों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना बड़ी समस्या है । इस स्थिति से नए मुख्यमंत्री कैसे निपटते हैं उस पर काफी कुछ निर्भर करेगा । मंत्रीमंडल का गठन होने के बाद उनकी टीम की क्षमता का आकलन किया जा सकेगा। लेकिन भाजपा आलाकमान ने जो फैसला म.प्र के बारे में किया उसने विरोधियों से ज्यादा समर्थकों को हैरान कर दिया । हालांकि  सब कुछ बहुत सोच - समझकर किया गया है और इसके पीछे अगले एक दशक की कार्य योजना है। ऐसे समय जब प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता वृद्धावस्था के कारण थके नजर आने लगे हैं और दूसरी पंक्ति का नेतृत्व पनपने ही नहीं दिया गया तब भाजपा के पास म.प्र को अपना अभेद्य दुर्ग बनाने का स्वर्णिम अवसर है। निवर्तमान मुख्यमंत्री श्री चौहान ने पार्टी को समाज के पिछड़े वर्गों से जोड़ने का जो कारनामा कर दिखाया उसके कारण श्री यादव को काफी सहूलियतें भी हैं। वे चूंकि पार्टी की विचारधारा और कार्य संस्कृति से भली - भांति  परिचित हैं इसलिए सफल मुख्यमंत्री साबित होंगे ये उम्मीद की जा सकती  है। 


-रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 11 December 2023

जहां हुए बलिदान मुखर्जी.....



सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धारा 370 हटाए जाने को संविधान सम्मत ठहराए जाने से एक देश दो विधान जैसी विसंगति एक अंतिम संस्कार हो गया। ये राष्ट्रवाद की पोषक ताकतों की बड़ी जीत  तथा कश्मीर की आजादी के नाम पर देश को तोड़ने का षडयंत्र रचने वाली टुकड़े - टुकड़े गैंग की जोरदार पराजय है।

आखिरकार 70 साल बाद डा.मुखर्जी का बलिदान सार्थक हुआ :-

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। संसद में अपने भाषण में उन्होंनें धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू कश्मीर की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि ''या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूंगा''। डॉ. मुखर्जी अपने संकल्प को पूरा करने के लिये 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 23 जून 1953 को जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। जेल में उनकी मृत्यु ने देश को हिलाकर रख दिया और परमिट सिस्टम समाप्त हो गया। उन्होंने कश्मीर को लेकर एक नारा दिया था,“नहीं चलेगा एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान”

छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री भाजपा की दूरगामी सोच का संकेत


भाजपा ने छत्तीसगढ़ में  विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री बनाकर उन नेताओं और राजनीतिक दलों को संदेश दे दिया  जिन्होंने पिछले कुछ समय से जाति के नाम पर समाज को विभाजित करने का खेल शुरू कर दिया था । जातीय जनगणना के मुद्दे को चुनावी वायदा बनाने वाले राहुल गांधी जैसे नेता के लिए श्री साय का चयन एक तमाचा है, जो इन दिनों ओबीसी का झुनझुना बजाते घूम रहे हैं। भाजपा द्वारा आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री देना इस राज्य में ईसाई मिशनरियों और उनकी छत्रछाया में पनप रहे नक्सलियों को ये इशारा है कि अब उनसे आमने - सामने का मुकाबला करने वाली ताकत खड़ी हो गई है। हालांकि लगातार 15 साल तक भाजपा ने गैर आदिवासी डा.रमन सिंह को मुख्यमंत्री बनाए रखा । लेकिन बीते कुछ सालों के भीतर रास्वसंघ ने आदिवासी अंचलों में अपना जनाधार तेजी से बढ़ाया जिसका प्रमाण कुछ समय पहले तब मिला जब हिंदुओं का धर्मांतरण करने पहुंचे ईसाई मिशनरीज को ग्रामीण जनों ने खदेड़ दिया। सही बात तो ये है कि छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी समस्या धर्मांतरण और नक्सलवाद से मुक्ति पाना है। और इसीलिए संघ की पसंद के ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया गया जो आदिवासी होने के साथ ही जनाधार भी रखता हो और वैचारिक प्रतिबद्धता भी। श्री साय उस दृष्टि से बेहद उपयुक्त हैं। उनका परिवार संघ और भाजपा की विचारधारा से लंबे समय तक जुड़ा रहा है उनके पिता और वे स्वयं सांसद , विधायक और मंत्री रहे हैं। श्री साय छत्तीसगढ़ में पार्टी के अध्यक्ष भी रहे । सबसे बड़ी बात उनकी साफ - सुथरी छवि है। कहने को नवगठित छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री स्व .अजीत जोगी भी आदिवासी कहे जाते थे किंतु  ईसाई  होने के कारण वे  हिन्दू परंपराओं से जुड़े मूल आदिवासियों के बीच पैठ न बना सके। यही वजह रही कि उनके राज में कांग्रेस का जनाधार खिसकता चला गया। अंततः उनको भी कांग्रेस  से हटना पड़ा और उन्होंने अपनी पार्टी भी बनाई जिसे बाद में भाजपा की बी टीम कहकर कांग्रेस ने प्रचारित किया  क्योंकि उसकी वजह से कांग्रेस के वोट बंटने का लाभ भाजपा को मिलता रहा। 2018 में भाजपा के विरुद्ध सत्ता विरोधी रुझान चरम पर जा पहुंचा और कांग्रेस भारी बहुमत के साथ सत्ता में आ गई। लेकिन उससे यहीं चूक हो गई और उसने भूपेश बघेल को सत्ता में बिठा दिया जो पिछड़ी जाति के हैं।  कांग्रेस यह भूल गई कि उसे बस्तर के आदिवासी इलाकों से जबर्दस्त सफलता मिली थी । यद्यपि श्री बघेल ने भाजपा से हिंदुत्व का मुद्दा छीनने का जबरदस्त प्रयास किया जिसके कारण वे पूरे देश में ये माहौल बनाने में सफल हुए कि छत्तीसगढ़ में भाजपा की वापसी असंभव है। जिस तरह की  योजनाएं उनके द्वारा  लागू की गईं उनका विरोध करना भाजपा के लिए भी संभव नहीं था किंतु श्री बघेल जरूरत से ज्यादा आत्ममुग्ध हो गए और पार्टी संगठन पर भी पूरा कब्जा कर लिया। कांग्रेस हाईकमान ने भी उनको कुछ ज्यादा ही महत्व दिया जिसके चलते टी. एस.सिंहदेव को ढाई साल बाद मुख्यमंत्री बनाए जाने का वायदा रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया। इसके कारण कांग्रेस ऊपर से तो मजबूत नजर आती रही किंतु भीतर से उसकी जड़ें कमजोर होने लगीं। और जब सनातन के विरोध का मुद्दा उठा तब पार्टी ने जिस तरह का गैर जिम्मेदाराना आचरण किया उसने श्री बघेल की हिंदुत्व समर्थक छवि को नुकसान पहुंचाया । बची - खुची कसर पूरी कर दी उनके पिता द्वारा सनातन धर्म विरोधी बयान देकर जिसका प्रतिवाद न मुख्यमंत्री कर सके और न ही कांग्रेस पार्टी। यही कारण रहा कि चुनाव शुरू होने के काफी समय बाद तक कांग्रेस का  मजबूत किला मनाकर जिस  छत्तीसगढ़ को भाजपा के लिए अपराजेय माना जाने लगा था , उसने कांग्रेस को पूरी तरह नकार दिया। शहरी क्षेत्रों के साथ ही सरगुजा और बस्तर जैसे आदिवासी वर्चस्व वाले इलाकों में भी भाजपा को जो जबरदस्त समर्थन मिला उसने उन राजनीतिक विश्लेषकों को भी चौंका दिया जो मतगणना की सुबह तक कांग्रेस सरकार की वापसी सुनिश्चित बता रहे थे। इसमें दो मत नहीं है कि म.प्र,  और राजस्थान में कांग्रेस की विजय को लेकर शंकाएं थीं किंतु छत्तीसगढ़ में तो ज्यादातर भाजपाई ही अपनी जीत के प्रति नाउम्मीद थे। लेकिन रास्वसंघ की जमीनी मेहनत और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की आत्मविश्वास भरी व्यूह रचना ने चमत्कार कर दिखाया । अमित शाह ने तो श्री साय के चुनाव प्रचार के दौरान ही मतदाताओं से कहा था कि वे उनको जिता दें तो बड़ा आदमी बनाने के जिम्मेदारी मेरी है। इसका संकेत साफ था कि भाजपा आदिवासी मुख्यमंत्री बनाएगी जबकि कांग्रेस भूपेश बघेल के आभामंडल को ही जीत का नुस्खा मानकर आत्ममुग्ध बनी रही। श्री साय का मुख्यमंत्री बनना भाजपा की दूरगामी राजनीति का संकेत है जिसका प्रभाव झारखंड , बिहार , म.प्र और उड़ीसा के आदिवासी अंचलों में पड़े बिना नहीं रहेगा। इसके जरिए जातीय जनगणना  की पैरोकार कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियों को भाजपा ने ये बता  दिया कि सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति में वह उन सबसे ज्यादा सिद्धहस्त है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 9 December 2023

हर छापे पर हल्ला मचाने वाली कांग्रेस इस मामले में खामोश क्यों


झारखंड से कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य और उड़ीसा के बड़े शराब व्यापारी धीरज साहू के  विभिन्न ठिकानों पर  पड़े आयकर के छापों में  अब तक 300 करोड़ रुपए नगद प्राप्त हो चुके हैं। ये गिनती कहां जाकर रुकेगी कहना मुश्किल है। संभवतः आयकर छापों में मिली नगदी की ये सबसे बड़ी राशि है। इसके पूर्व प.बंगाल के एक मंत्री और कन्नौज के इत्र व्यापारी के यहां पड़े छापे में भी बड़े पैमाने पर नगदी जप्त की गई थी। पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार पर ये आरोप लगाए जाते रहे हैं कि वह आयकर , सीबीआई और ईडी जैसे विभागों का इस्तेमाल विपक्ष को डराने के लिए करती है। इस बारे में ये कहना गलत नहीं है कि मोदी सरकार के राज में विपक्षी नेताओं के अलावा अनेक ऐसे लोगों के यहां  छापे पड़े जिनको विपक्ष के नजदीक माना जाता है। छत्तीसगढ़  विधानसभा चुनाव के पूर्व भी ईडी ने वहां छापेमारी की। महाराष्ट्र में शिवसेना नेता संजय राउत सहित उद्धव ठाकरे सरकार के दो मंत्री भी जेल जा चुके हैं।  दिल्ली सरकार के दो मंत्रियों सहित उसके राज्यसभा सदस्य संजय सिंह भी जेल में हैं। संदर्भित प्रकरण में जिस मात्रा में नगदी बरामद हुई वह निश्चित रूप से काला धन ही है। लेकिन ऐसे छापों को लेकर सरकार पर हमला करने वाली कांग्रेस  जिस तरह से मौन साधकर बैठी है उससे उसका अपराध बोध उजागर होता है। जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार अभी नोट गिनने में जांच एजेंसी को दो - तीन दिन और लगेंगे। इस छापे का अंतिम परिणाम क्या होगा ये तो बाद में पता चलेगा किंतु किसी भी व्यवसायी के पास इतनी बड़ी रकम होने से साधारण बुद्धि वाला भी ये मानेगा कि यह वैध कमाई  नहीं है। शराब व्यवसाय में तो वैसे भी काली कमाई की बड़ी भूमिका रहती है। राजनीतिक पार्टी को चंदा देने वालों में शराब माफिया सबसे आगे रहता है। कांग्रेस द्वारा श्री साहू को राज्यसभा की सदस्यता प्रदान करना  इस बात को दर्शाता है कि वह पार्टी को आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराता रहा होगा। यद्यपि शराब व्यवसायी को राज्यसभा में भेजने का ये पहला उदाहरण नहीं है । विजय माल्या ने राज्यसभा की सीट हासिल करने के लिए निर्दलीय के साथ भाजपा विधायकों तक को खरीद लिया था। अनेक उद्योगपति और बड़े वकील राजनीतिक दलों के सदस्य न होते हुए भी राज्यसभा की सीट पा जाते हैं। कपिल सिब्बल कांग्रेस छोड़ने के बाद समाजवादी पार्टी की मदद से राज्यसभा में आ गए किंतु वे उसके सदस्य नहीं हैं। स्व.राम जेठमलानी और स्व.राहुल बजाज को शिवसेना ने संसद के उच्च सदन की सदस्यता प्रदान की। लेकिन  श्री साहू  को संसद में भेजने का संकेत साफ है । हमारे देश की चुनावी व्यवस्था में काले धन की भूमिका लगातार बढ़ती जा रही है। सोचने वाली बात ये है कि श्री साहू जैसे व्यवसायियों के पास अरबों रुपए इस तरह रखे रहते हों तो इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि वे सांसद बनने के लिए संबंधित राजनीतिक पार्टी  को कितना धन देते होंगे। अनेक शराब और खनिज व्यवसायी राजनीतिक दलों से बाकायदा टिकिट हासिल कर विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़कर जीतकर सदन में बैठते हैं। कुछ तो मंत्री भी बन जाते हैं। चूंकि चुनाव में धन की भूमिका बढ़ती ही जा रही है इसलिए इस प्रकार के लोगों की मदद चाहे - अनचाहे राजनीतिक दलों को लेनी पड़ती है। श्री साहू के यहां बड़ी मात्रा में नगदी बरामद होने से ये आशंका भी बढ़ रही है कि या तो शराब व्यवसाय के अलावा  उनके पास और भी काले धंधे हैं या फिर ये रकम किसी राजनेता के जरिए उनके पास जमा की गई होगी जिसका उपयोग लोकसभा चुनाव में किया जाने वाला हो। उल्लेखनीय है आम आदमी पार्टी पर भी ये आरोप है कि दिल्ली में नई शराब नीति के जरिए उसने गोवा और पंजाब चुनाव के लिए धन जुटाया था। सही बात तो ये है कि लगभग सभी राजनीतिक दल अवैध तरीकों से धन कमाने वाले तत्वों से चंदा लेते हैं । शराब और खनन माफिया तो राजनीतिक बिरादरी का अभिन्न हिस्सा है। उस दृष्टि से धीरज साहू तो महज बानगी है। यदि पूरे देश पर नजर डालें तो उस जैसे दर्जनों कारोबारी मिल जाएंगे जो अपनी काली कमाई से राजनीतिक पार्टियों को उपकृत करने में आगे रहते हैं। जाहिर है ये उपकार निःस्वार्थ नहीं होता। उसके बदले वे क्या हासिल करते हैं ये किसी से छिपा नहीं है। गत दिवस तृणमूल कांग्रेस की लोकसभा सदस्य महुआ मोइत्रा की सदस्यता भी जिस कारण गई उसके पीछे भी एक उद्योगपति से उनके संबंध ही थे जिन्हें उन्होंने    संसद की वेबसाइट का पासवर्ड दे दिया था जिससे वे दुबई में बैठे - बैठे उनके नाम से प्रश्न लोकसभा सचिवालय भेजा करते थे। कुल मिलाकर श्री साहू के यहां पड़े छापे ने एक बार फिर राजनीतिक दलों और काले धंधों वालों का संबंध उजागर कर दिया है।  हर छापे के बाद केंद्र सरकार पर हमले करने वाली कांग्रेस इस मामले में जिस तरह शांत है उससे भी बहुत कुछ जाहिर हो रहा है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 8 December 2023

तीन राज्य हार जाने से इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की वजनदारी घटी




ऐसा लगता है इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन का जन्म सही मुहूर्त में नहीं हुआ । तभी तो उसकी गाड़ी अभी से हिचकोले खाने लगी है। हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों को 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल माना जा रहा था। उस दृष्टि से विपक्षी एकता के लिए ये चुनाव नुकसानदेह रहे। तेलंगाना में कांग्रेस ने जिस बीआरएस से सत्ता छीनी वह  भाजपा विरोधी होने से विपक्षी ही कहलाएगी। लेकिन म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन में शामिल दलों के बीच सीटों का बंटवारा नहीं होने से भाजपा विरोधी मतों में विभाजन से कांग्रेस का नुकसान तो हुआ ही , अविश्वास की खाई और चौड़ी हो गई। सपा , आम आदमी पार्टी और जनता दल (यू) ने कांग्रेस से कुछ सीटें मांगी थीं । लेकिन उसने किसी को भाव नहीं दिया। यहां तक कि भोपाल में होने वाली इंडिया की रैली भी रद्द कर गठबंधन के सदस्य दलों से दूरी बना ली। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और कमलनाथ के बीच तो तीखी टिप्पणियों का आदान - प्रदान भी चला। उक्त तीनों राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह हारी जिसके बाद  गठबंधन में शामिल ज्यादातर दलों ने उसे अहंकारी तक बता डाला। यही नहीं तो 6 दिसंबर को गठबंधन के सदस्यों की जो बैठक श्री खरगे ने आमंत्रित की थी उसमें आने से भी विपक्ष के ज्यादातर दिग्गजों ने इंकार कर दिया। उनका कहना था कि बैठक की तिथि तय करने से पहले किसी से सलाह नहीं ली गई । उसके बाद बैठक टालनी पड़ी जिससे कांग्रेस की जमकर किरकिरी हुई। बाद में पता चला कि राहुल गांधी को चूंकि 8 दिसंबर को विदेश यात्रा पर निकलना है इसलिए बैठक 6 तारीख को रख ली गई। अनेक नेताओं ने श्री गांधी की विदेश यात्राओं पर भी सवाल दागे। अगली बैठक कब और कहां होगी ये निश्चित नहीं है। कांग्रेस इसे लेकर बेहद चौकन्नी है क्योंकि अगली बैठक में गठबंधन के संयोजक का नाम तय होने के साथ ही लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे का फार्मूला तय किया जाना है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले दिन से संयोजक बनने के लिए लालायित हैं । लेकिन शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने उद्धव ठाकरे का नाम उछालकर खींचातानी और बढ़ा दी। शरद पवार भी अपनी पार्टी में हुई  टूटन से उबर नहीं पा रहे। उधर ममता बैनर्जी प.बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी गठबंधन के लिए लोकसभा सीट छोड़ने के बारे में पहले से ही नकारात्मक रवैया दिखाती आई हैं। यही हालात केरल के हैं जहां वाममोर्चा और कांग्रेस एक दूसरे के विरुद्ध तलवारें भांजते रहते हैं। उत्तर भारतीय राज्यों में  इंडिया गठबंधन के अनेक घटक दल मजबूत स्थिति में होने से कांग्रेस को उपकृत करने से हिचक रहे हैं। म.प्र में कमलनाथ और अखिलेश यादव के बीच चले शब्द बाणों के  दौरान ही श्री यादव  उ.प्र में लोकसभा सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस से वैसा ही व्यवहार किए जाने की धमकी दे चुके हैं। यहां तक कि उ.प्र कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय के प्रति  चिरकुट जैसा शब्द तक उनके द्वारा प्रयोग किया गया। पांच राज्यों के चुनाव के बाद इंडिया गठबंधन के सदस्य कांग्रेस पर दबाव बनाने में जुट गए हैं । जिस तरह की बयानबाजी हो रही है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि 2024 में भाजपा को रोकने के लिए विपक्ष इंडिया गठबंधन के बैनर तले एकत्रित तो होना चाहता है लेकिन ज्यादातर पार्टियां कांग्रेस के वर्चस्व को स्वीकार करने के प्रति अनिच्छुक हैं । ऊपर से आए दिन आने वाले गैर जिम्मेदाराना बयान भी इस गठबंधन के भविष्य को संकट में डाल देते हैं। मसलन संसद में एक द्रमुक सांसद ने उत्तर भारत को गौमूत्र राज्य कहकर उनका उपहास किया। जबरदस्त विरोध के बाद उन्होंने अपने बयान को वापस लेते हुए माफी भी मांगी । लेकिन उसके पीछे स्वेच्छा न होकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन की समझाइश थी जो अपने बेटे के सनातन संबंधी बयान के कारण उत्तर भारत में घृणा का पात्र बने हुए हैं। ये विवाद ठंडा भी नहीं हुआ था कि तेलंगाना के नए मुख्यमंत्री कांग्रेस नेता रेवंत रेड्डी ने निवर्तमान मुख्यमंत्री के. सी.राव को बिहार से जोड़ते हुए उन्हें कुर्मी बताकर टिप्पणी की कि तेलंगाना का डी.एन.ए बिहार से बेहतर है। उक्त बयान आए दो दिन बीत गए किंतु कांग्रेस ने उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जाहिर है बिहार से तेलंगाना का डी.एन.ए बेहतर होने संबंधी बयान पर कांग्रेस और नीतीश के बीच नाराजगी और बढ़ सकती है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि 3 दिसंबर के बाद  राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने मौन साध रखा है। सही बात तो ये है कि उनके पास बोलने के लिए कुछ है ही नहीं। भाजपा के हमलों को झेलना तो ठीक किंतु इंडिया गठबंधन के घटक दलों के नेताओं द्वारा कांग्रेस पर जो आक्रमण किए जा रहे हैं ,  उनका निशाना दरअसल राहुल ही हैं। घटक दल कांग्रेस को जिस प्रकार घेरने लगे हैं उससे ऐसा लगता है संयोजक पद और सीटों के बंटवारे को लेकर होने वाली बैठक में जबरदस्त खींचातानी होगी। वैसे भी सनातन  और डी. एन.ए जैसे मुद्दों पर कांग्रेस की खामोशी उसके लिए मुसीबत का कारण बन गई है। हिन्दी पट्टी के तीन प्रमुख राज्य हार जाने के बाद उसके भाव वैसे भी गिरे हुए हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 7 December 2023

म.प्र में दिग्विजय - कमलनाथ का युग खत्म : कांग्रेस में नए नेतृत्व का अभाव



म.प्र देश का वह राज्य है जहां राजनीति पूरी तरह दो ध्रुवीय हो चुकी है। एक जमाना था जब जनसंघ के अलावा समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा के भी कुछ गढ़ थे। अनेक निर्दलीय विधायकों ने भी लंबे समय तक प्रदेश की राजनीति को प्रभावित किया। 1968 में बनी संविद सरकार बहुदलीय राजनीति का ही उदाहरण था। बाद में 1977 में जनता पार्टी की सरकार में भी जनसंघ और  समाजवादी विचारधारा के लोग शामिल हुए। लेकिन उस पार्टी के टूटने और जनसंघ का भाजपा के रूप में पुनर्जन्म होने के पश्चात समाजवादी खेमा बिखराव का शिकार हुआ और धीरे - धीरे उसका अस्तित्व केवल कागजों तक सीमित हो गया। यही हाल दलित राजनीति की प्रतिनिधि बसपा का देखने मिला । आदिवासियों के बीच गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और जयस जैसे संगठन उभरे किंतु एक - दो चुनाव में  ताकत दिखाने के बाद  वोट कटवा बनकर रह गए। हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव के बाद जो परिदृश्य उभरा उससे साफ हो गया कि प्रदेश के मतदाताओं ने तीसरी ताकत को पूरी तरह तिरस्कृत कर दिया। 2018 में सपा , बसपा और निर्दलीय मिलाकर  अन्य की संख्या 7 थी जबकि इस चुनाव में भारत आदिवासी पार्टी नामक नए उभरे दल का एक उम्मीदवार जीता और 229 सीटों में 163 भाजपा तथा 66 कांग्रेस को मिल गईं। इसके बाद से अब भविष्य के चुनावों के मद्देनजर ये कहा जा सकता है कि जनता तीसरी ताकत को भाव देने के पक्ष में नहीं है। सिंगरौली में आम आदमी पार्टी की रानी अग्रवाल के महापौर चुने जाने के बाद उसके उदय के दावे होने लगे थे किंतु विधानसभा चुनाव में वे चौथे स्थान पर आईं। इससे लगता है लोकसभा चुनाव में भी प्रदेश के मतदाता भाजपा और कांग्रेस में से ही चयन करेंगे। ये देखते हुए विधानसभा चुनाव के ताजा परिणाम के बाद कांग्रेस के भविष्य पर पूरे प्रदेश की निगाहें लगी है। 2019 में कमलनाथ की सरकार होने के बाद भी भाजपा ने छिंदवाड़ा छोड़कर सभी 28 लोकसभा सीटें जीत लीं थीं। यहां तक कि गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया और भोपाल से दिग्विजय सिंह जैसे दिग्गज बुरी तरह परास्त हुए। बाद में श्री सिंधिया ने भाजपा में शामिल होकर उस सरकार को चलता किया। लेकिन मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद भी कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने रहे। और पूरा संगठन उनके इशारों पर नाचता रहा। चुनाव संचालन का हर कार्य उनके निर्देशन में हुआ। ये कहने में कुछ भी गलत न होगा कि उनको दिग्विजय सिंह का पूरा साथ मिला जो श्री नाथ को बड़ा भाई कहते आए हैं । हालांकि 2018 के पहले तक दोनों के बीच ये अघोषित समझौता था कि श्री सिंह जहां प्रदेश की राजनीति चलाएंगे वहीं कमलनाथ राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रहेंगे। चूंकि दिग्विजय की छवि हिंदू विरोधी बन गई इसलिए कांग्रेस ने 2018 में श्री सिंधिया को बतौर मुख्यमंत्री पेश किया जिसका लाभ भी हुआ किंतु दिग्विजय एक बार फिर सिंधिया परिवार और मुख्यमंत्री पद के बीच आ गए और श्री नाथ की ताजपोशी करवा दी । उससे खिन्न ज्योतिरादित्य ने बगावत कर दी । सरकार चली जाने के बाद से श्री नाथ  म.प्र में पूरा समय देकर 2023 के चुनाव के लिए तैयारियां करते रहे और बतौर मुख्यमंत्री वे पार्टी के निर्विवाद चेहरे बने। दिग्विजय भी पूरी तरह उनके साथ थे,  लेकिन 3 दिसंबर को जो नतीजे आए उनमें कांग्रेस की लुटिया पूरी तरह डूब गई। छिंदवाड़ा छोड़ बाकी जिलों में उसका सूपड़ा साफ हो गया। अपराजेय कहे जाने वाले  बड़े - बड़े कांग्रेसी दिग्गज हार गए। नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह के अलावा दिग्विजय सिंह के अनुज और भतीजे भी पराजय का शिकार बने। 2003 , 2008 और 2013 में भी कांग्रेस हारी थी किंतु तब उसके पास श्री सिंह , श्री नाथ और श्री सिंधिया के अलावा भी अनेक युवा चेहरे थे जिनकी जड़ें प्रदेश की राजनीति में गहराई तक जम चुकी थीं। लेकिन बीते पांच साल में कमलनाथ ने एक - एक कर सबको किनारे लगा दिया। यहां तक कि  दिग्विजय सिंह को कमजोर करने में भी पीछे नहीं रहे। यही वजह है कि आज कांग्रेस के पास कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो पार्टी को इस दुर्दशा से बाहर लाने में सक्षम हो। अजय सिंह राहल जैसे कुछ छत्रप जीतकर विधानसभा में आए जरूर किंतु वे अतीत में भी विफल साबित हो चुके हैं। यहां तक कि विंध्य अंचल में भी उनका वैसा प्रभाव नहीं रहा जैसा उनके स्वर्गीय पिता अर्जुन सिंह का था। यही स्थिति दूसरी पंक्ति के पार्टी नेताओं की है। इस सबके कारण म.प्र में कांग्रेस के पास वैकल्पिक नेतृत्व का अभाव हो गया है। गत दिवस कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कमलनाथ से म.प्र में पराजय के कारणों के साथ ही नए प्रदेश अध्यक्ष के लिए नाम पूछे। हालांकि अभी तक श्री नाथ ने पद नहीं छोड़ा लेकिन उनके सामने भी समस्या है कि वे अपने उत्तराधिकारी के तौर पर किसका नाम आगे बढ़ाएं ? इस विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ का  युग समाप्त हो गया है। लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस को नया नेतृत्व मिलने की संभावना है । लेकिन इन दोनों ने पार्टी को इतनी खराब स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया कि उसके लिए लोकसभा के लिए मजबूत उम्मीदवार ढूढ़ना कठिन हो गया है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 6 December 2023

ईवीएम पर ठीकरा फोड़ने से दूर नहीं होगी कांग्रेस की दुर्दशा


तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की  पराजय का विश्लेषण सभी अपने - अपने तरीके से कर रहे हैं। म.प्र में तो शिवराज सरकार की लाड़ली बहना योजना को भाजपा की जीत का कारण बताया जा रहा है किंतु छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस वैसी ही योजनाएं लागू करने के बाद भी  हार गई । इन परिणामों ने ये साबित कर दिया कि उत्तर भारतीय राज्यों में कांग्रेस का जनाधार तेजी से सिमट रहा है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा भी म.प्र और राजस्थान के जिन अंचलों से गुजरी , उनमें कांग्रेस का  सफाया हो गया। इंडिया गठबंधन में शामिल अन्य विपक्षी पार्टियां कांग्रेस के अहंकार को इस पराजय के लिए जिम्मेदार बता रही हैं। कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं होगा कि मतदाताओं ने राजस्थान और छत्तीसगढ़ में  कांग्रेस की मुफ्त योजनाओं को ठुकराकर भी भाजपा को अपना समर्थन दिया। कर्मचारियों को  पुरानी पेंशन का लालच देना भी काम नहीं आया । सच ये है कि  कांग्रेस जनभावनाओं को समझ पाने में पूरी तरह असमर्थ है। कहने को तो भाजपा ने भी  प्रधानमंत्री के चेहरे को ही सामने रखा और मोदी की गारंटी के नाम पर मतदाताओं को इस बात के लिए आश्वस्त करने का प्रयास किया कि वह जो वायदे कर रही है वे पूरे होंगे। लेकिन  सबसे बड़ी बात है राष्ट्रवाद और हिंदुत्व ,  जिसका दिखावा तो कांग्रेस भी बहुत करने लगी है किंतु उसका मन साफ नहीं है। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बेटे द्वारा सनातन को खत्म करने वाली टिप्पणी  का समर्थन किए जाने वाले बयान पर उनसे सवाल किए जाने की हिम्मत किसी की नहीं हुई । लेकिन कमलनाथ द्वारा ये कहे जाने पर कि देश की आबादी में 82 फीसदी हिन्दू हैं तो वह हिन्दू राष्ट्र कहलाएगा ही ,  तो पार्टी के तमाम नेता उनकी आलोचना पर उतर आए।  ऐसे में कांग्रेस नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम की ये टिप्पणी सच्चाई के काफी करीब प्रतीत होती है कि सनातन का श्राप कांग्रेस की हार का कारण बना। इस बारे में ये बात भी ध्यान देने योग्य है कि राहुल गांधी द्वारा ओबीसी को लुभाने के लिए जातीय जनगणना का को लॉलीपॉप दिखाया गया उसे भी मतदाताओं ने भाव नहीं दिया। दरअसल कांग्रेस चूंकि सत्य को स्वीकार करने का नैतिक साहस खो चुकी है इसलिए  वह इस वास्तविकता से आंखें चुरा लेती है कि गांधी परिवार का आकर्षण ढलान पर है। और इसीलिए अब उसके नेता घिसे - पिटे बहाने के तौर पर ईवीएम ( इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन ) पर अपना गुस्सा उतारने लगे हैं। म.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का कहना है कि जिस उपकरण में भी चिप लगी हो उससे छेड़छाड़ मुमकिन है । इसी तरह प्रदेश में  कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कमलनाथ भी घुमा फिराकर यही कह रहे हैं। कांग्रेस के अनेक प्रवक्ता टीवी चैनलों पर पार्टी की हार के लिए वोटिंग मशीनों में हेराफेरी का मुद्दा उठाकर मतपत्रों से चुनाव करवाए जाने की मांग दोहरा रहे हैं। लेकिन ये प्रलाप केवल उन्हीं राज्यों में सुनाई दे रहा है जिनमें कांग्रेस को पराजय झेलनी पड़ी। हिमाचल , कर्नाटक और तेलंगाना में  मिली जीत के बाद किसी भी कांग्रेसी या अन्य नेता ने ईवीएम पर शंका व्यक्त की हो ऐसा देखने में नहीं आया। दिल्ली और  पंजाब में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक विजय पर भी कांग्रेस ने वोटिंग मशीन पर शक नहीं जताया। प.बंगाल के विधानसभा चुनाव में तृणमूल की आंधी में कांग्रेस और वामपंथी एक भी सीट नहीं जीत सके थे । केरल में भी हर चुनाव में सत्ता बदलने के रिवाज को तोड़ते हुए वामपंथी सरकार की वापसी पर कांग्रेस ने चुनाव प्रक्रिया पर किसी भी तरह से  ऐतराज जताया हो ये किसी ने नहीं सुना। लेकिन जब किसी चुनाव में भाजपा को जीत हासिल होती है तो कांग्रेस बलि के बकरे के तौर पर ईवीएम मशीन पर ठीकरा फोड़ने लगती है। म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मतदाताओं द्वारा पूरी तरह नकारे जाने के बाद उसको चाहिए वह ईमानदारी से अपनी कमजोरियों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने का प्रयास करे। उसे इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि इंडिया गठबंधन के अन्य घटक दल कांग्रेस की हार के जो कारण बता रहे हैं उनमें  अहंकार और क्षेत्रीय दलों की उपेक्षा मुख्य हैं। ऐसे में  बेहतर यही होगा कि कांग्रेस तीनों राज्यों में अपनी पराजय के जमीनी कारणों का  ईमानदारी से विश्लेषण कर उनमें सुधार करने के लिए आवश्यक कदम उठाते हुए जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप आचरण करे। केवल भाजपा और मोदी को कोसने से उसके दुरावस्था दूर होने वाली नहीं है। उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि 2004 और 2009 में उसके नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार भी ईवीएम से निकले जनादेश का ही परिणाम थी ।


-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 5 December 2023

विपक्षी एकता के ढांचे में दरार चौड़ी होने की आशंका


पांच  राज्यों में से मिजोरम को छोड़ भी दें तो म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस जिस तरह औंधे मुंह गिरी उसने राहुल गांधी के  उठते हुए राजनीतिक ग्राफ को एक बार फिर ढलान की और धकेल दिया है। ऐसे में भाजपा  उनका उपहास करे तो बात समझ में भी आती है किंतु अब विपक्ष के बाकी दल भी  कांग्रेस के बहाने राहुल की खिंचाई करने में जुट गए जिससे इंडिया नामक  विपक्षी गठबंधन में बिखराव के संकेत मिलने लगे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने 6 दिसंबर को इंडिया की जो बैठक बुलाई उसमें आने से  प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने  मना कर दिया वहीं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भी अनिच्छुक बताए जाते हैं। इसीलिए बैठक रद्द करने की नौबत आ गई। नीतीश कुमार तो इंडिया गठबंधन की निष्क्रियता को लेकर कांग्रेस पर पहले ही शब्दबाण छोड़ते रहे हैं।  ज्यादातर विपक्षी दलों को इस बात की शिकायत है  कि हिमाचल और कर्नाटक विधानसभा चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस विशेष रूप से राहुल का रवैया पूरी तरह बदल गया है। उत्तर भारत के तीनों राज्यों में सपा , जनता दल (यू) और आम आदमी पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहती थीं परंतु उसने किसी को घास नहीं डाली। उल्टे कांग्रेस  विपक्षी दलों को ये एहसास करवाने में जुट गई कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद श्री गांधी प्रधानमंत्री श्री मोदी के विकल्प के तौर पर उभरे हैं और जनता में उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है। कर्नाटक चुनाव में पार्टी को मिली कामयाबी के बाद भाजपा विरोधी कुछ यू ट्यूबर पत्रकारों को राहुल के पक्ष में माहौल बनाने का अघोषित ठेका दे दिया गया । लेकिन म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की जो दुर्गति मतदाताओं ने की उसके बाद  उसकी बेरूखी झेलते आ रहे विपक्षी दल बीते दो दिनों से ऐंठते नजर आ रहे हैं। ममता ने तो साफ कह दिया कि ये भाजपा की जीत नहीं , कांग्रेस की हार है। नीतीश कुमार , अखिलेश यादव , के.सी त्यागी , अरविंद केजरीवाल सहित इंडिया गठबंधन के शेष घटक दल भी कांग्रेस की खुलकर इस बात के लिए आलोचना कर रहे हैं कि वह गठबंधन धर्म का पालन करने की बजाय एकला चलो की जो नीति अपना रही है वह  श्री मोदी को तीसरी पारी खेलने का अवसर प्रदान करने में सहायक बनेगी। एक भी विपक्षी दल ऐसा नहीं है जिसने तेलंगाना की विजय के लिए राहुल या कांग्रेस को बधाई दी हो । लेकिन तीन अन्य राज्यों में उसकी शिकस्त का मजाक उड़ाने के साथ ही आलोचनात्मक टिप्पणियों की बाढ़ जिस तरह से आई है उसे देखते  कांग्रेस  इंडिया की लगाम अपने हाथ में रखने का जो प्रयास करने लगी थी उसे जरूर धक्का लगा है। नीतीश कुमार को इस गठबंधन का जन्मदाता माना जाता है किंतु उसके संयोजक सहित अन्य नीतिगत मुद्दों पर कांग्रेस ने  जिस प्रकार से हावी होने की कोशिश की उससे बाकी पार्टियां चौकन्नी हो उठी थीं । लेकिन श्री गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के अलावा  हिमाचल तथा कर्नाटक में कांग्रेस की  जीत के बाद उसकी वजनदारी अचानक से बढ़ने लगी। कांग्रेस थोड़ा बड़प्पन दिखाते हुए  तीन राज्यों के चुनाव में  छोटे विपक्षी दलों को भी साथ ले लेती तो भले ही  भाजपा का विजय रथ रोकना संभव न हो पाता परंतु विपक्षी एकता में दरार नहीं पड़ती और हार का जिम्मा सामूहिक होता। लेकिन कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व छोटी सी बात नहीं भांप सका। दूसरी तरफ पार्टी के प्रादेशिक नेता भी अपनी ऐंठ में रहे और ये कहते हुए गठबंधन से  मुकर गए कि वह तो लोकसभा चुनाव के लिए है। उल्लेखनीय है चुनाव के पहले भोपाल में  इंडिया गठबंधन की एक संयुक्त रैली आयोजित की गई थी किंतु कमलनाथ ने इस डर से उसे रद्द करवा दिया कि कहीं कांग्रेस पर अन्य विपक्षी दलों के लिए कुछ सीटें छोड़ने का दबाव न बन जाए। बाद में जब सपा के साथ बात टूटी तब कमलनाथ ने कौन अखिलेश - वखलेश जैसी सस्ती टिप्पणी कर आग में घी डाल दिया। राहुल द्वारा श्री यादव को फुसलाने का प्रयास भी हुआ किंतु सपा अध्यक्ष ने कांग्रेस पर धोखेबाज होने का आरोप लगाते हुए म.प्र में धुआंधार प्रचार किया। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस को खूब गरियाया। चुनाव परिणाम आने तक कांग्रेस  इस बात के प्रति आश्वस्त थी कि म.प्र और छत्तीसगढ़ के साथ ही तेलंगाना में भी वह जीत जाएगी और तब शायद उसे किसी से गठजोड़ की ज़रूरत ही न पड़े किंतु उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया और तेलंगाना में मिली शानदार जीत के बावजूद वह शेष तीनों राज्यों में मुंह के बल गिरी। ये देखते हुए तीन राज्यों में कांग्रेस की हार इंडिया गठबंधन के विघटन की शुरुआत बन जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए जिसके लिए कांग्रेस का  अहंकार और राहुल गांधी सहित उनके परिवार की सामंतवादी सोच सबसे ज्यादा जिम्मेदार होगी।


- रवीन्द्र वाजपेयी