Wednesday 20 December 2023

इंडिया : चार बैठकों के बाद भी न नेता तय न रणनीति



जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ। इंडिया गठबंधन की बहुप्रतीक्षित बैठक  चाय - पानी के बाद एक सामूहिक चित्र खिंचवाकर समाप्त हो गई। कहा जा रहा था कि इसमें  संयोजक के साथ ही लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे का आधार निश्चित कर लिया जाएगा। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद 7 दिसंबर को जो बैठक आयोजित थी वह ज्यादातर घटक दलों के नेताओं द्वारा आने में असमर्थता व्यक्त किए जाने से रद्द कर दी गई। कांग्रेस उस समय तीन राज्यों की करारी पराजय के बाद सदमे में थी। बहरहाल , गत दिवस दिल्ली  में विपक्षी दलों के शीर्ष नेता जमा हुए। इस बैठक का उद्देश्य 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तिकड़ी बनाने से रोकने हेतु सेनापति और रणनीति तय करना था किंतु दोनों ही काम नहीं हो सके । जिसकी मुख्य वजह ये रही कि बाकी के दलों में कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के प्रति झिझक कम होने का नाम नहीं ले रही। इसका प्रमाण तब मिल गया जब बैठक के पूर्व शिवसेना (उद्धव) के मुखपत्र सामना में साफ - साफ लिखा गया कि इंडिया 27 घोड़ों वाला रथ है किंतु इसका कोई सारथी नहीं होने से वह जमीन में धंस गया है। इसी के साथ कांग्रेस पर भी  तंज कसा गया कि बजाय 150 सीटें जीतने की कार्ययोजना बनाने के वह 138 साल पूरे होने के जश्न में डूबी हुई है। स्मरणीय है पार्टी के प्रवक्ता संजय राउत काफी समय से उद्धव ठाकरे को संयोजक बनाने की मांग कर रहे हैं। यद्यपि उसका किसी भी घटक दल ने समर्थन नहीं किया जिससे लगता है कि उन सबमें  विश्वास की कमी है। इसका प्रमाण भी तब मिल गया जब कांग्रेस की तरफ से तो  संयोजक का नाम तय करने की पहल नहीं हुई किंतु प.बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बैनर्जी ने प्रधानमंत्री के लिए श्री खरगे का नाम प्रस्तावित कर दिया । कांग्रेस के लिए ये एक असहज करने वाली बात थी जिसे राहुल गांधी के अलावा किसी और का नाम  मंजूर ही नहीं है। इसीलिए बैठक के बाद खरगे जी ने ये मुद्दा चुनाव के बाद बहुमत आने तक के लिए छोड़ने की बात कह डाली किंतु संयोजक तय करने में क्या अड़चन थी , ये बताने वाला कोई नहीं है। इसी तरह सीटों के बंटवारे को लेकर भी कोई ठोस नीति बनाने की बजाय राज्य स्तर पर रास्ता निकालने की बात कही गई और क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले 6 राज्यों के लिए अनौपचारिक समिति भी बनाई गई जो 14 जनवरी तक निर्णय करेगी। लेकिन इसका आधार तय नहीं होने से अनिश्चितता बनी रहेगी । सबसे बड़ी बात ये रही कि जब ममता ने श्री खरगे का नाम प्रधानमंत्री के लिए आगे बढ़ाया तब आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने तो बिना देर लगाए समर्थन कर दिया किंतु अन्य दलों के नेताओं ने चुप्पी साधे रखी। स्मरणीय है इंडिया के अस्तित्व में आने के पहले ममता ने जिस तीसरे मोर्चे की कोशिश की थी उसमें श्री केजरीवाल भी साथ थे। यद्यपि तृणमूल नेत्री मन ही मन खुद भी प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की इच्छा रखती हैं किंतु राहुल का सीधा विरोध करने के बजाय उन्होंने श्री खरगे का कंधा उपयोग करने की चाल चली। इसका मकसद किसी भी तरह से श्री गांधी को रोकना है। संयोजक का मसला अनसुलझा रहने का कारण भी कांग्रेस ही है जो किसी भी स्थिति में लगाम दूसरे किसी दल के नेता के हाथ नहीं देना चाहती। रही बात सीटों के बंटवारे की तो जब तक गठबंधन का कोई चेहरा तय नहीं होता तब तक इस बारे में आगे बढ़ना संभव नहीं होगा।  राज्य स्तर पर गठबंधन की जो बात उठी वही सबसे बड़ी अड़चन है क्योंकि कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में इसी मुद्दे पर जमकर टकराव होगा। हाल ही में हुए म.प्र विधानसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी और जनता दल (यू) ने कांग्रेस द्वारा  बेरूखी दिखाई जाने के बाद अपने उम्मीदवार उतारे थे। अब सवाल ये है कि अखिलेश यादव और नीतीश कुमार क्रमशः उ.प्र और बिहार में कांग्रेस को कितनी सीटें देंगे ? ये प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि जिस आधार पर अपने प्रभावक्षेत्र वाले राज्यों में कांग्रेस अपना हाथ ऊपर रखना चाहती है वही नजरिया  क्षेत्रीय दलों का उनके वर्चस्व वाले राज्यों में है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 350 सीटों पर खुद लड़ना चाहती है जबकि बाकी के दल उसे 250 से ज्यादा देने राजी नहीं हैं। इस मुकाबले के लिए भाजपा ने अपनी मैदानी तैयारियां लगभग पूरी कर ली हैं। ऐसे में यदि इंडिया गठबंधन बेनतीजा  बैठकें ही करता रहा तो आम जनता के मन में उसके प्रति विश्वसनीयता नहीं बन पाएगी। ये सवाल तो उठने ही लगा है कि जो नेता गठबंधन का संयोजक तय नहीं कर पा रहे वे भला प्रधानमंत्री के नाम पर कैसे एकमत हो सकेंगे ?

-रवीन्द्र वाजपेयी 

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