Thursday 7 December 2023

म.प्र में दिग्विजय - कमलनाथ का युग खत्म : कांग्रेस में नए नेतृत्व का अभाव



म.प्र देश का वह राज्य है जहां राजनीति पूरी तरह दो ध्रुवीय हो चुकी है। एक जमाना था जब जनसंघ के अलावा समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा के भी कुछ गढ़ थे। अनेक निर्दलीय विधायकों ने भी लंबे समय तक प्रदेश की राजनीति को प्रभावित किया। 1968 में बनी संविद सरकार बहुदलीय राजनीति का ही उदाहरण था। बाद में 1977 में जनता पार्टी की सरकार में भी जनसंघ और  समाजवादी विचारधारा के लोग शामिल हुए। लेकिन उस पार्टी के टूटने और जनसंघ का भाजपा के रूप में पुनर्जन्म होने के पश्चात समाजवादी खेमा बिखराव का शिकार हुआ और धीरे - धीरे उसका अस्तित्व केवल कागजों तक सीमित हो गया। यही हाल दलित राजनीति की प्रतिनिधि बसपा का देखने मिला । आदिवासियों के बीच गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और जयस जैसे संगठन उभरे किंतु एक - दो चुनाव में  ताकत दिखाने के बाद  वोट कटवा बनकर रह गए। हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव के बाद जो परिदृश्य उभरा उससे साफ हो गया कि प्रदेश के मतदाताओं ने तीसरी ताकत को पूरी तरह तिरस्कृत कर दिया। 2018 में सपा , बसपा और निर्दलीय मिलाकर  अन्य की संख्या 7 थी जबकि इस चुनाव में भारत आदिवासी पार्टी नामक नए उभरे दल का एक उम्मीदवार जीता और 229 सीटों में 163 भाजपा तथा 66 कांग्रेस को मिल गईं। इसके बाद से अब भविष्य के चुनावों के मद्देनजर ये कहा जा सकता है कि जनता तीसरी ताकत को भाव देने के पक्ष में नहीं है। सिंगरौली में आम आदमी पार्टी की रानी अग्रवाल के महापौर चुने जाने के बाद उसके उदय के दावे होने लगे थे किंतु विधानसभा चुनाव में वे चौथे स्थान पर आईं। इससे लगता है लोकसभा चुनाव में भी प्रदेश के मतदाता भाजपा और कांग्रेस में से ही चयन करेंगे। ये देखते हुए विधानसभा चुनाव के ताजा परिणाम के बाद कांग्रेस के भविष्य पर पूरे प्रदेश की निगाहें लगी है। 2019 में कमलनाथ की सरकार होने के बाद भी भाजपा ने छिंदवाड़ा छोड़कर सभी 28 लोकसभा सीटें जीत लीं थीं। यहां तक कि गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया और भोपाल से दिग्विजय सिंह जैसे दिग्गज बुरी तरह परास्त हुए। बाद में श्री सिंधिया ने भाजपा में शामिल होकर उस सरकार को चलता किया। लेकिन मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद भी कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने रहे। और पूरा संगठन उनके इशारों पर नाचता रहा। चुनाव संचालन का हर कार्य उनके निर्देशन में हुआ। ये कहने में कुछ भी गलत न होगा कि उनको दिग्विजय सिंह का पूरा साथ मिला जो श्री नाथ को बड़ा भाई कहते आए हैं । हालांकि 2018 के पहले तक दोनों के बीच ये अघोषित समझौता था कि श्री सिंह जहां प्रदेश की राजनीति चलाएंगे वहीं कमलनाथ राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रहेंगे। चूंकि दिग्विजय की छवि हिंदू विरोधी बन गई इसलिए कांग्रेस ने 2018 में श्री सिंधिया को बतौर मुख्यमंत्री पेश किया जिसका लाभ भी हुआ किंतु दिग्विजय एक बार फिर सिंधिया परिवार और मुख्यमंत्री पद के बीच आ गए और श्री नाथ की ताजपोशी करवा दी । उससे खिन्न ज्योतिरादित्य ने बगावत कर दी । सरकार चली जाने के बाद से श्री नाथ  म.प्र में पूरा समय देकर 2023 के चुनाव के लिए तैयारियां करते रहे और बतौर मुख्यमंत्री वे पार्टी के निर्विवाद चेहरे बने। दिग्विजय भी पूरी तरह उनके साथ थे,  लेकिन 3 दिसंबर को जो नतीजे आए उनमें कांग्रेस की लुटिया पूरी तरह डूब गई। छिंदवाड़ा छोड़ बाकी जिलों में उसका सूपड़ा साफ हो गया। अपराजेय कहे जाने वाले  बड़े - बड़े कांग्रेसी दिग्गज हार गए। नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह के अलावा दिग्विजय सिंह के अनुज और भतीजे भी पराजय का शिकार बने। 2003 , 2008 और 2013 में भी कांग्रेस हारी थी किंतु तब उसके पास श्री सिंह , श्री नाथ और श्री सिंधिया के अलावा भी अनेक युवा चेहरे थे जिनकी जड़ें प्रदेश की राजनीति में गहराई तक जम चुकी थीं। लेकिन बीते पांच साल में कमलनाथ ने एक - एक कर सबको किनारे लगा दिया। यहां तक कि  दिग्विजय सिंह को कमजोर करने में भी पीछे नहीं रहे। यही वजह है कि आज कांग्रेस के पास कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो पार्टी को इस दुर्दशा से बाहर लाने में सक्षम हो। अजय सिंह राहल जैसे कुछ छत्रप जीतकर विधानसभा में आए जरूर किंतु वे अतीत में भी विफल साबित हो चुके हैं। यहां तक कि विंध्य अंचल में भी उनका वैसा प्रभाव नहीं रहा जैसा उनके स्वर्गीय पिता अर्जुन सिंह का था। यही स्थिति दूसरी पंक्ति के पार्टी नेताओं की है। इस सबके कारण म.प्र में कांग्रेस के पास वैकल्पिक नेतृत्व का अभाव हो गया है। गत दिवस कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कमलनाथ से म.प्र में पराजय के कारणों के साथ ही नए प्रदेश अध्यक्ष के लिए नाम पूछे। हालांकि अभी तक श्री नाथ ने पद नहीं छोड़ा लेकिन उनके सामने भी समस्या है कि वे अपने उत्तराधिकारी के तौर पर किसका नाम आगे बढ़ाएं ? इस विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ का  युग समाप्त हो गया है। लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस को नया नेतृत्व मिलने की संभावना है । लेकिन इन दोनों ने पार्टी को इतनी खराब स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया कि उसके लिए लोकसभा के लिए मजबूत उम्मीदवार ढूढ़ना कठिन हो गया है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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