Friday 30 September 2022

कांग्रेस का मौजूदा संकट गांधी परिवार के प्रति असंतोष का परिणाम



 कांग्रेस के भीतर हालिया राजनीतिक घटनाचक्र जिस तेजी से घूमा वह पार्टी के लिए नई बात है क्योंकि अब तक  छोटे से छोटे निर्णय को भी गांधी परिवार के जिम्मे छोड़ने की परिपाटी रही है | राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से बचने के लिये राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जिस तरह का खेल रचा उसके बाद  पूरे देश में कांग्रेसजन उनको गद्दार बताने लगे |  बीते रविवार जयपुर में आलाकमान द्वारा भेजे गए पर्यवेक्षकों के साथ मुख्यमंत्री समर्थक विधायकों और मंत्रियों ने बहुत ही अपमानजनक व्यवहार किया परन्तु पार्टी नेतृत्व ने केवल तीन नेताओं को नोटिस देने की औपचारिकता निभाई | हालाँकि सर्वविदित है कि बिना श्री गहलोत के किसी मंत्री  या विधायक की हिम्मत नहीं थी जो  पर्यवेक्षकों को ठेंगे पर रखते हुए विधायक दल की बैठक का बहिष्कार करता  | बहरहाल सोनिया गांधी से माफी मांगने के बाद श्री गहलोत ने  अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा करते हुए ये भी कह  दिया कि उन्होंने मुख्यमंत्री बने रहने का फैसला श्रीमती गांधी पर ही छोड़ दिया है | दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह राहुल गांधी की भारत  जोड़ो यात्रा छोड़कर दिल्ली आ पहुंचे और आज नामांकन भरने वाले थे  | कहा जा रहा था  कि श्री गहलोत के पीछे हट जाने के बाद गांधी परिवार के विश्वस्त होने के कारण उन्हें ये दायित्व सौंपा जायेगा |  गांधी परिवार का ठप्पा लगा होने से उनकी जीत में संदेह भी नहीं था  | लेकिन बात यहीं नहीं थमी क्योंकि जी 23 के नेता आनंद शर्मा के घर हुए जमावड़े में मनीष तिवारी , पृथ्वीराज चव्हाण , भूपिंदर सिंह हुड्डा ने  तय  किया कि  गांधी परिवार की कठपुतली प्रत्याशी का विरोध किया जावेगा | संभवतः मनीष को असंतुष्ट गुट मैदान में उतारेगा | इस बैठक के बाद आनंद शर्मा ने  दिल्ली में श्री गहलोत  के ठिकाने पर जाकर उनसे मुलाकात भी की | यदि असंतुष्ट गुट श्री तिवारी अथवा किसी अन्य को उतारता है तब मुकाबला रोचक  हो जायेगा | इसीलिए आनंद शर्मा और  श्री गहलोत की भेंट को लेकर पार्टी के भीतर काफी सुगबुगाहट है क्योंकि मुख्यमंत्री बने रहने का फैसला श्रीमती गांधी पर छोड़ने की बात कहने के बावजूद  श्री गहलोत ने पद छोड़ने का कोई  संकेत न देकर अनिश्चितता बनाये रखी है | श्रीमती गांधी ने उन्हें मिलने के  लिए दिन भर जिस तरह से इंतजार करवाया उससे  उनको निश्चित रूप से नीचा देखना पड़ा | लेकिन श्री पायलट को भी श्रीमती गांधी की तरफ से कोई आश्वासन मिलने के संकेत नहीं आये | श्री गहलोत ने माफीनामे रूपी चाल से अपनी गद्दी बचाने का जो प्रयास किया वह कितना कारगर होगा ये फ़िलहाल स्पष्ट नहीं है | लेकिन उनको  गांधी परिवार की नजरों में गिरने का एहसास हो गया  है क्योंकि कहाँ तो उनको पार्टी का मुखिया बनाया जा रहा था और कहाँ श्रीमती गांधी ने उन्हें मिलने का समय देने में 12 घंटे लगाये | ये भी  हो सकता है कि अध्यक्ष का चुनाव होने तक गांधी परिवार राजस्थान में यथास्थिति बनाये रखे ताकि गहलोत खेमा गड़बड़ न कर पाए | लेकिन आनंद शर्मा का गत दिवस दिल्ली में उनसे मिलना नयी पटकथा का आधार बन सकता है | इसी के साथ ये खबर भी आ गई कि दिग्विजय सिंह की बजाय गांधी परिवार ने मल्लिकार्जुन खडगे पर दांव लगाने की सोची है क्योंकि श्री सिंह अपने विवादस्पद बयानों के कारण पार्टी को मुसीबत में डालते रहे हैं | और  कल तक जोर - शोर से मैदान में उतरने का हौसला दिखा रहे दिग्विजय आज श्री खडगे के प्रस्तावक बनने राजी हो गये | नामांकन का आज आखिरी दिन है | चूंकि शशि थरूर ने भी चुनाव लड़ने का पक्का इरादा जताया है इसलिए 8 अक्टूबर को नाम वापसी के बाद  ही स्थिति साफ़ होगी | बहरहाल इस समूचे घटनाक्रम से कांग्रेस कितनी ताकतवर हुई ये तो समय बताएगा लेकिन गांधी परिवार की धाक को जबरदस्त धक्का पहुंचा है |  एक तरफ तो राहुल गांधी आंतरिक लोकतंत्र लाने की बात करते हैं दूसरी तरफ उनका परिवार अपनी मर्जी के विरुद्ध एक बात भी  सहने राजी नहीं है | राजस्थान में जो हुआ उसका ठीकरा  कुछ विधायकों और मंत्रियों पर फूटे या श्री गहलोत पर परन्तु  जिस तरह से केन्द्रीय पर्यवेक्षकों की उपेक्षा हुई वह सीधे – सीधे इस बात का संकेत थी कि प्रथम परिवार की अवहेलना करने वाली मानसिकता पार्टी में जड़ें जमा चुकी है | शायद यही सोचकर दिग्विजय से कहलवाया गया कि जो भी अध्यक्ष बने उसे गांधी परिवार के अधीन रहकर ही काम करना होगा | दरअसल कांग्रेस में आज जो आंतरिक खींचतान है वह सैद्धांतिक न होकर गांधी परिवार के वर्चस्व के प्रति उपजी असहमति का परिणाम है | जी 23 में शामिल नेताओं ने कभी भी पार्टी की नीतियों से नाराजगी नहीं जताई | उनकी मांग सदैव ये रही कि संगठन के विधिवत चुनाव कराये जावें | कांग्रेस कार्यसमिति में होने वाले मनोनयन पर भी उँगलियाँ उठती रही हैं | ऐसे में जब श्री गांधी भारत जोड़ो यात्रा में व्यस्त हों तब अध्यक्ष के चुनाव के समानांतर राजस्थान में पैदा हुआ राजनीतिक संकट केवल श्री गहलोत और श्री पायलट के बीच का शीतयुद्ध नहीं  अपितु गांधी परिवार की पसंद को खुलकर नकारे जाने के दुस्साहस के तौर पर सामने आया है | गांधी परिवार से अध्यक्ष नहीं बनाने का राहुल का निर्णय वाकई लाभदायक होता लेकिन चुनाव शुरू होने के पहले ही जिस तरह की घटनाएँ घट गईं उनकी वजह से सारा किया धरा व्यर्थ हो रहा है | श्री गहलोत का अध्यक्ष बनना सुनिश्चित होने के बाद जिस तरह से बाजी पलटती जा रही है वह आज नहीं तो कल जी 23 के विस्तार  के रूप में सामने आ सकती है | और यदि इस गुट की तरफ से कोई मैदान में उतरा तो बड़ी बात नहीं 1969 में हुए कांग्रेस विभाजन की कहानी फिर दोहराई जाए | संयोग ये है कि तब भी उसका कारण गांधी परिवार था और मौजूदा संकट भी उसी के इर्द  - गिर्द मंडरा रहा है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 29 September 2022

उधमपुर में धमाके : विधानसभा चुनाव में व्यवधान की कोशिश



कल सुबह इस्लामिक संगठन पी.एफ.आई पर प्रतिबंध लगा और कल ही रात और  आज सुबह जम्मू के निकट उधमपुर में बम विस्फोट हुए | हालाँकि इसमें किसी की मौत की खबर तो नहीं हैं | कश्मीर घाटी के प्रवेश द्वार पर किये गये धमाके पी.एफ.आई की करतूत है या किसी अन्य आतंकवादी संगठन की , ये तो जांच में पता चल सकेगा लेकिन ऐसे समय जब जम्मू कश्मीर में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के कारण प्रशासनिक और राजनीतिक गतिविधियाँ तेजी पर हों तब हिन्दू बहुल ऊधमपुर में हुए बम विस्फोट साधारण नहीं माने जा सकते | स्मरणीय है अबकी बार वहां के राजनीतिक समीकरण काफी बदले हुए होगे | मसलन कांग्रेस  के सबसे बड़े नेता गुलाम नबी आजाद ने पार्टी छोड़ने के बाद अपना नया दल गठित कर लिया है | और जो नया परिसीमन हुआ उसके अनुसार जम्मू अंचल में सीटों की संख्या बढ़ने से मुस्लिम बहुल घाटी का वर्चस्व पहले जैसा नहीं रहेगा | इसके अलावा केंद्र सरकार ने वाल्मीकि समाज के उन लोगों को मताधिकार दे दिया जो तीन पीढ़ी पहले पंजाब से सफाई मजदूर के तौर पर लाये गये थे |  उनके परिजन सफाई कर्मी की सरकारी नौकरी तो पाते रहे लेकिन आज तक इस वर्ग को मत देने का अधिकार नहीं मिला | इसी तरह जो शरणार्थी विभाजन के बाद पाकिस्तान से आये उनको भी जम्मू कश्मीर का नागरिक नहीं माना गया |  अब इनके नाम भी मतदाता सूची में दर्ज हो गए हैं | यही नहीं तो जिन कश्मीरी पंडितों को 1990 में घाटी छोड़ने पर मजबूर किया गया था वे भी बाहर से आकर मतदान कर सकेंगे | ताजा खबर ये है कि बकरवाल और गुज्जर जैसी घुमंतू जातियों को आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था भी की जा रही है | जैसी कि खबर है घाटी के भीतर नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के अलावा अन्य छोटी  – छोटी पार्टियों में गठबंधन के प्रयास कारगर नहीं हो पा रहे | गुलाम नबी के अलग दल बना लेने के बाद ये संभावना भी बन रही है कि उनका भाजपा से गठबंधन हो सकता है | यदि ऐसा हुआ तब घाटी के भीतर अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के दबदबे में कमी आना तय है | कांग्रेस के ज्यादातर नेता श्री आजाद के साथ आ जाने से पार्टी के पास कोई बड़ा प्रभावशाली चेहरा बचा ही नहीं है | धारा 370 हटने के बाद कोरोना आ गया जिसकी वजह से  पर्यटन उद्योग पर बुरा असर पड़ा | लेकिन हालात सामान्य होते ही सैलानी टूट पड़े जिससे दो दशक का रिकॉर्ड टूट गया | अमरनाथ यात्रा भी एक प्राकृतिक विपदा को छोड़कर निर्विघ्न सम्पन्न होने से धरती का स्वर्ग कही जाने वाली घाटी में चिर – परिचित बहार लौट आई है | कानून व्यवस्था की स्थिति काफी सुधरी  है | यद्यपि अभी भी आतंकवादी यदा - कदा घाटी में रह रहे हिन्दुओं  की हत्या कर देश के बाकी हिस्सों में बसे कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटने का इरादा त्यागने की चेतावनी देने से बाज नहीं आते लेकिन सुरक्षा बल भी आये दिन उन्हें मारकर उनकी कमर तोड़ रहे हैं | इस वजह से जुमे की नमाज के बाद मस्जिदों से निकली भीड़ न तो पाकिस्तानी झंडा लहराती है और न ही भारत विरोधी नारे लगाने का साहस कोई करता है | श्रीनगर के हृदयस्थल लाल चौक पर स्वाधीनता दिवस के दिन तिरंगा उतारकर पाकिस्तानी ध्वज फहराने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ी |  इस वर्ष तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर शोभा यात्रा भी निकली और खीर भवानी में पूजा करने कश्मीर के साथ ही बाहर से भी हिन्दू श्रृद्धालु बड़ी संख्या में एकत्र हुए | इस तरह  कश्मीर घाटी पूरी तरह न सही किन्तु काफी हद तक नियन्त्रण में आ चुकी है | अब तो पाक नियंत्रित कश्मीर  के निकट तक पर्यटकों को जाने की अनुमति दी जा रही है | सरकारी नौकरियों के लिए आयोजित परीक्षाओं में कश्मीरी युवा खुलकर भाग ले रहे हैं | केंद्र सरकार द्वारा संचालित विकास योजनाओं के लिए मिल रहे धन की वजह से घाटी में उत्साह का संचार हुआ है | राष्ट्रपति शासन लगने के बाद श्रीनगर से दिल्ली तक के राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण तीव्र गति से चलने से  घाटी का शेष भारत से सम्पर्क और करीबी हो रहा है | रेल सुविधा से भी घाटी को जोड़ने का काम तेजी पर  है | हालाँकि बीच में हुई  सिलसिलेवार घटनाओं के बाद घाटी में रहने वाले हिन्दू सरकारी अमले ने जम्मू स्थानान्तरण करने की जिद ठान ली थी | इसे लेकर भाजपा को उनका विरोध भी झेलना पड़ा | बड़ी संख्या ऐसे कर्मचारियों की है जो घाटी छोड़कर जम्मू में आने के बाद वापस जाने का नाम नहीं  ले रहे | यही बात देश भर में फैले कश्मीरी पंडितों के साथ भी है जो तमाम आश्वासनों के बाद भी घाटी आकर अपने उजड़े आशियाने को आबाद करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे | इस बारे में ये कहना भी गलत न होगा कि राज्य में चुने हुए जनप्रतिनिधि न होने से जनता और प्रशासन के बीच संवादहीनता भी अनेक समस्याओं का कारण बनती है | इसलिए ये अपेक्षा की जा रही है कि चुनी हुई सरकार बनने के बाद हालात और सुधरेंगे | इसी डर से आतंकवादी संगठन चुनाव प्रक्रिया में व्यवधान डालने से बाज नहीं आयेंगे | उन्हें पता है कि राज्य में स्थायी तौर  पर शान्ति - व्यवस्था कायम हो गयी  तब उनका कारोबार सिमटते देर नहीं लगेगी | सैयद अली शाह गिलानी की मौत और यासीन मलिक के जेल जाने के बाद से घाटी में अलगाववादी ताकतें पूर्व की तरह ताकतवर नहीं रहीं |  उनकी स्थिति दरअसल बिना राजा की फौज जैसी हो गई जिसे आतंकवादी हजम नहीं कर पा रहे और इसीलिए वे विधानसभा चुनाव में व्यवधान डालने का हरसंभव प्रयास करेंगे | उधमपुर में किये गये धमाके उसी की शुरुआत हो सकती है | सुरक्षा बलों को इस बारे में काफी सतर्कता बरतनी होगी क्योंकि अलगाववाद रूपी दिए की लौ का बुझने से पहले तेज होना अस्वाभाविक नहीं है |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 28 September 2022

पीएफआई पर प्रतिबंध : सही समय पर उठाया गया सही कदम



आज सुबह भारत सरकार ने पीएफ़आई (पापुलर फ्रंट ऑफ इण्डिया) सहित कुछ और संगठनों को पांच सालों के लिए प्रतिबंधित कर दिया | बीते कुछ दिनों से चल रही देशव्यापी छापेमारी में बड़ी संख्या में उक्त संगठनों के कार्यकर्ता गिरफ्तार हो चुके हैं | उनसे बरामद चीजों से ये संदेह पुख्ता हो गया है कि उनकी गतिविधियों का दूरगामी उद्देश्य इस देश में इस्लामी राज स्थापित करना था  | देश भर में फैला इनका नेटवर्क मुस्लिम युवकों को संगठित उपद्रव करने हेतु प्रेरित और प्रशिक्षित करता रहा है | सी.ए.ए और एन.आर.सी के विरोध में  दिल्ली के शाहीन बाग़ के अलावा जामिया मिलिया विवि , जेएनयू , अलीगढ़ मुस्लिम विवि , उस्मानिया विवि. और जादवपुर विवि के अलावा देश के विभिन्न शहरों में जो हिंसक आन्दोलन और हिंसक वारदातें हुईं उनमें उक्त संगठनों की भूमिका का संदेह था | इसी तरह कर्नाटक से उठे हिजाब विवाद को भड़काने में भी पीएफआई का हाथ स्पष्ट है  | उल्लेखनीय है सिमी जैसे मुस्लिम संगठन पर 2014 में मनमोहन सरकार ने जो रोक लगाई थी उसे मोदी सरकार ने जारी रखा है | सिमी पर भी ये आरोप था कि वह सामाजिक संगठन होने की आड़ में इस्लामिक आतंकवाद की जड़ों को सींच रहा था | शुरुआत में पीएफआई ने भी खुद को सामाजिक संगठन बताया था | लेकिन धीरे – धीरे ये पता चला कि उसकी गतिविधियाँ सिमी जैसी ही हैं | बावजूद उसके पुख्ता सबूत नहीं मिलने की वजह से जांच  एजेंसियां और सरकार कुछ कर पाने में असमर्थ थे | लेकिन हालिया छापों में जो प्रमाण मिले उनके बाद केंद्र सरकार ने आज ये कड़ा निर्णय लिया | पीएफआई और उसके साथ प्रतिबंधित सहयोगी संगठनों को विदेशी सहायता मिलने के साक्ष्य भी जाँच एजेंसियों के हत्थे लगे हैं | ये जानकारी भी मिली कि निकट भविष्य में उनके द्वारा बड़े नेताओं की हत्या जैसी साजिश रची जा रही थी | इसमें दो राय नहीं है कि देश भर में अनेक इस्लामिक संगठनों की गतिविधियाँ संदेहास्पद हैं | अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठाकर ये संगठन देश में अस्थिरता फैलाने का काम कर रहे हैं | विशेष तौर पर सीमावर्ती राज्यों में उनकी गतिविधियाँ पूरी तरह से देश हित के विरुद्ध हैं | ये कहना भी गलत न होगा कि देश में लालू , मुलायम ,  ममता और दिग्विजय जैसे राजनेता महज वोटों के लालच में मुस्लिम संगठनों को अपने कन्धों पर बिठाने में रत्ती भर संकोच नहीं करते | यही वजह है कि पीएफ़आई  सरीखे संगठनों  के विरुद्ध इनके मुंह से एक शब्द नहीं निकलता | बीते कुछ समय से पीएफआई पर छापे मारकर उसके सैकड़ों कार्यकर्ताओं को जेल भेजा गया लेकिन विपक्ष ने उस पर कोई प्रतिक्रया नहीं दी क्योंकि वैसा करने पर मुस्लिम मतों की नाराजगी का अंदेशा था | तुष्टीकरण की इसी प्रवृत्ति ने देश के अनेक हिस्सों में जनसँख्या का संतुलन इस हद तक बिगाड़ दिया है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में कोई गैर मुस्लिम वहां से चुनाव जीत ही नहीं सकता | लोकतान्त्रिक देश होने से भारत में सभी को अपने धर्म के पालन की सुविधा है | लेकिन ये प्रमाणित हो चुका है कि जिस भी हिस्से में हिन्दू  अल्पसंख्यक होते हैं वहां अलगाववादी ताकतें पैर ज़माने लगती हैं | ये बात केवल मुस्लिमों पर ही लागू होती हो ऐसा नहीं है | कुछ उत्तर पूर्वी राज्यों में जहां ईसाई आबादी की बहुलता है वहां भी अलगाववादी मानसिकता पनपी | सही बात तो ये है कि भारत की अखंडता को भंग करने वाली विदेशी शक्तियां इस मानसिकता को पोषित करने में सहायक है | जिस तरह धर्मांतरण के लिए ईसाई सगठनों को विदेशी मदद मिलती है उसी तरह इस्लामी देश भारत को  इस्लाम के रंग में रंगने हेतु भरपूर धन भेजते हैं | पीएफआई जैसे संगठन उसी के बल पर इतने सक्रिय और शक्तिशाली बन बैठे | इस बारे में कश्मीर घाटी का उदाहरण प्रासंगिक होगा जहाँ के अलगाववादी नेताओं को मिलने वाली विदेशी सहायता के रास्ते बंद किये जाते ही उनकी कमर टूटने लगी | पीएफआई जैसे संगठनों ने ही मस्जिदों से नमाज पढ़कर निकलते समय पत्थरबाजी और आगजनी जैसी हरकतों को प्रायोजित किया | सिर तन से जुदा जैसे उन्मादी कृत्य को अंजाम देने के पीछे ऐसे ही संगठन काम करते हैं | मुस्लिम समाज के धर्मगुरु भी इन संगठनों की करतूतों की जैसी  अनदेखी करते हैं उससे भी संदेह पैदा होता है | मदरसों की जांच में जो  खुलासे हो रहे हैं उनकी वजह से भी मुस्लिम समाज की छवि पर दाग लगे हैं | ये सही है कि अशिक्षा के कारण मुस्लिम समुदाय मुल्ला – मौलवियों के साथ ही आतंकवाद को  बढ़ावा देने वाले पीएफआई सरीखे संगठनों के शिकंजे में जकड़  जाता है | | कश्मीर घाटी में हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने युवकों को पैसे देकर सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने के लिए उकसाया जिसकी देखा - सीखी देश भर में पत्थरबाजी मुस्लिम समुदाय की पहिचान बन गई | भले ही इस समाज के कुछ धर्मगुरु और बुद्धिजीवी दिखावे के लिए इन घटनाओं की निंदा कर देते हों किन्तु उसे रोकने के लिए जैसे कदम उठाये जाने चाहिए थे उनसे वे सदैव बचते रहे |  दुर्भाग्य की बात ये है कि मुस्लिम समाज में शिक्षा ग्रहण करने के बाद आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सुदृढ़ हो चुके लोग भी अलगवावादी मानसिकता के विरुद्ध खुलकर बोलने का साहस नहीं करते | पीएफआई पर प्रतिबंध लगने का स्वागत मुस्लिम समुदाय के पढ़े – लिखे लोगों द्वारा किया जाए तो निश्चित तौर पर वह मुसलमानों के हित में ही होगा | काग्रेस नेता दिग्विजय सिंह रास्वसंघ के विरुद्ध तो बहुत कुछ बोला करते हैं लेकिन बीते अनेक दिनों से पीएफआई पर हो रही छापों की कार्रवाई पर उन्होंने एक शब्द तक नहीं कहा | और तो और छापों के विरोध में पीएफआई द्वारा आयोजित केरल बंद के दिन राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा स्थगित रखी गयी | आतंकवाद की समस्या किसी एक या कुछ राजनीतिक दलों की नहीं , अपितु समूचे  देश की है | कश्मीर में हिन्दुओं की हत्याओं का जिक्र आने पर अनेक लोग ये सफाई देते है कि आतंकवादियों के हाथों मरने वालों में कश्मीरी मुसलमान भी कम न थे | लेकिन उसके बावजूद घाटी के मुसलमान कभी आतंकवादियों के विरुद्ध खुलकर सड़कों पर नहीं उतरे | उलटे किसी आतंकवादी को सुरक्षा बलों द्वारा घेरे जाने पर वे उसे बचकर निकलने का अवसर देने के लिए पत्थर फेंकने जैसी हरकत में जुट जाते | केंद्र सरकार ने पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों पर प्रतिबंध लगाकर सही काम किया गया है जिसका राजनीति से ऊपर उठकर स्वागत किया जाना जाना चाहिये | लेकिन ऐसा संभव नहीं लगता क्योंकि कांग्रेस के सांसद के. सुरेश ने पीएफआई के साथ ही रास्वसंघ पर भी प्रतिबन्ध लगाये जाने की मांग जो कर डाली | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 27 September 2022

पंजाब की गलती राजस्थान में भी दोहरा रही कांग्रेस



दो साल पहले जब सचिन पायलट अपने साथी विधायकों को लेकर हरियाणा के एक होटल में जा बैठे थे तब उन्हें गद्दार की जिस उपाधि से विभूषित किया गया वह आज भी उनके माथे पर चस्पा है | लेकिन उस समय जिन अशोक गहलोत ने राजनीतिक कौशल से न सिर्फ अपनी सरकार बचाई  अपितु कांग्रेस हाईकमान का विश्वास भी अर्जित किया , वे  आज की  तारीख में उनसे भी बड़े गद्दार माने जा रहे हैं | फर्क इतना है कि सचिन की बगावत मुख्यमंत्री बनने के लिए थी वहीं श्री गहलोत का विद्रोह मुख्यमंत्री बने रहने के लिए है | दूसरा अंतर ये है कि श्री पायलट पर  आरोप था कि वे सत्ता की खातिर भाजपा की गोद में जा बैठे हैं और इसीलिए उन्होंने भाजपा शासित हरियाणा में डेरा जमाया जबकि  उस संकट के समय श्री गहलोत ने अपने साथ वाले विधायकों को राजस्थान में ही रखा था | जाहिर है संख्याबल न जुटा पाने के कारण सचिन को हथियार डालने पड़े | प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री जैसे ओहदे से हटकर वे महज विधायक रह गये | उनकी नाराजगी इस बात पर थी कि 2018 में उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस ने राज्य की सत्ता हासिल की थी इसलिए मुख्यमंत्री पद भी उन्हीं को मिलना था परन्तु आखिर में श्री गहलोत ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया | हालाँकि उन्हें उपमुख्यमंत्री पद दे दिया गया लेकिन श्री गहलोत ने उनके पर कतरने में कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी | वे अपनी शिकायतें राहुल गांधी तक पहुंचाते रहे जो पार्टी में युवाओं को आगे लाने की मानसिकता से काम कर रहे थे किन्तु श्री  गहलोत को हिलाने का साहस वे नहीं कर सके | उसी  समय पंजाब में भी  अमरिंदर सिंह और नवजोत सिद्धू के बीच शीत युद्ध जोरों पर था | कांग्रेस हाईकमान ने वहां पहले तो श्री सिद्धू को प्रदेश संगठन की बागडोर सौंप दी और बाद में मुख्यमंत्री भी बदल दिया | लेकिन राजस्थान में श्री पायलट की महत्वाकांक्षाओं  को शांत करने की दिशा में कारगर कदम उठाने में वह असफल रहा | एक बात  स्पष्ट तौर पर देखी गई कि राहुल और प्रियंका वाड्रा का झुकाव सचिन के प्रति था लेकिन श्री गहलोत ने सोनिया गांधी का भरोसा हासिल कर रखा था | ये भी कहा जाता है कि कांग्रेस का खर्चा - पानी श्री गहलोत ही उठाते रहे हैं | हकीकत जो भी हो लेकिन सचिन की बगावत के बाद कांग्रेस  हाईकमान ने उनको न सिर्फ माफ़ कर दिया  अपितु उन्हें दुलारा – पुचकारा भी | जिसकी वजह से श्री गहलोत को ये लग गया कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अनुशासनहीनता को दबाने में विफल रहा | जी – 23  नामक असंतुष्टों के ऐलानिया विरोध पर भी जिस तरह का मौन गांधी परिवार ने साधा  उससे भी ये बात  साबित हो गई कि उसका दबदबा पहले जैसा नहीं रहा | इसीलिये जब राहुल ने अध्यक्ष पद पर दोबारा बैठने से इंकार किया तब सोचा गया  कि किसी ऐसे व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष बनाया जाए जो परिवार का वफादार  रहे | लेकिन सवाल ये है कि इस हेतु श्री गहलोत को ही क्यों चुना गया जबकि आगामी साल राज्य में चुनाव होने वाले हैं | पार्टी के पास अनेक ऐसे वरिष्ट नेता हैं जिनके पास  बड़ी  जिम्मेदारी नहीं होने से वे इस पद का दायित्व अच्छी तरह संभाल सकते थे | वैसे भी सब कुछ करना तो सोनिया जी , राहुल और प्रियंका को ही है | श्री गहलोत ने जब अध्यक्ष बनने हामी भरी तब उन्हें ये उम्मीद थी कि वे मुख्यमंत्री भी बने  रहेंगे | लेकिन भारत जोड़ो यात्रा के प्रबंधक दिग्विजय सिंह के ज़रिये जैसे ही ये सुरसुरी छुड़वाई गई कि एक व्यक्ति एक पद का  निर्णय लागू होने के कारण उनको सत्ता त्यागनी होगी वैसे ही  रायता फैलना शुरू हुआ |  और जिस व्यक्ति को गांधी परिवार का सबसे विश्वस्त समझकर राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये जाने की योजना मूर्तरूप लेने जा रही थी उसी ने बागी तेवर दिखा दिए | दरअसल गांधी परिवार ने सबसे बड़ी गलती ये की कि एक व्यक्ति एक पद के बारे में उसे सीधे श्री गहलोत से चर्चा करनी थी किन्तु उसने दिग्विजय जैसे विघ्नसंतोषी को आगे किया जिनके कारण पार्टी ने म.प्र में सरकार गंवा दी | साथ ही उनसे उनके उत्तराधिकारी के बारे में बात करनी थी लेकिन ऐसा न करते हुए सीधे मुख्यमंत्री बदलने की कवायद शुरू कर दी जबकि विधायक दल की बैठक बुलाये जाने तक तो श्री गहलोत ने अध्यक्ष पद का नामांकन तक नहीं भरा था | चुनाव होने के पहले ही उनको हटाये जाने की जल्दबाजी क्यों की गई इसका उत्तर किसी के पास नहीं है | पंजाब में अमरिंदर जैसे वरिष्ट नेता को अस्थिर करने के लिए नवजोत जैसे नौसिखिया को लाने का दुष्परिणाम देखने के बाद भी कांग्रेस आलाकमान ने कुछ  नहीं सीखा | सुनील  जाखड़ को हटाकर श्री सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाना और कैप्टन की जगह चरनजीत चन्नी की ताजपोशी ने पंजाब में कांग्रेस को कहीं का नहीं  छोड़ा | ऐसे में वही कहानी राजस्थान में दोहराने का कोई मतलब नहीं था | सचिन की बगावत के बावजूद उन्हें आश्वासन देते रहना गलत था | श्री गहलोत विधायक दल और सरकार पर अपनी पकड़ साबित कर चुके थे जबकि सचिन के साथ इतने विधायक भी नहीं जुट सके कि वे   सरकार के लिये खतरा बन  सकते | वरना तो दो साल पहले ही श्री  गहलोत भूतपूर्व हो चुके होते | राजस्थान में कांग्रेस का ये संकट सुलझेगा या और उलझेगा ये गांधी परिवार की निर्णय क्षमता पर निर्भर  है | हालाँकि इस बारे में अब तक का अनुभव तो निराश करने वाला रहा है | दो साल पहले इस राज्य में श्री पायलट ही बागी थे लेकिन अब श्री गहलोत भी उसी जमात में शामिल  हो गये हैं | पार्टी के सामने निश्चित रूप से बड़ी दुविधा है | इस विवाद से राजस्थान में जो नुकसान होगा वह तो अपनी जगह है लेकिन दूसरे राज्यों में भी आलाकमान की कमजोरी के चलते नाराज नेता बगावत का झंडा उठा लें तो अचरज नहीं होगा | छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टी.एस सिंहदेव का झगड़ा जारी है | पुरानी कहावत है जब केन्द्रीय सत्ता कमजोर होती है तब सूबे सिर उठाते हैं | कांग्रेस भी आज उसी स्थिति से गुजर रही है | जिसे आज्ञाकारी मानकर पार्टी की कमान सौंपने की तैयारी की जा रही थी उसने तो पहले ही उद्दंडता का परिचय दे डाला | गांधी परिवार कहने को तो आज भी कांग्रेस में सबसे ताकतवर कहा जाता है परन्तु  राजस्थान जैसी एक दो घटनाएँ और हो गईं तब 2024 आते – आते तक उसके राष्ट्रीय विकल्प बनने की संभावनाएं लगभग समाप्त हो चुकी होंगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 26 September 2022

गहलोत ने गांधी परिवार तक को ठेंगा दिखा दिया



राजस्थान में चल रहे राजनीतिक नाटक के कारण राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की चर्चा कम हो गई है | पहले पूरी पार्टी का ध्यान राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव पर केन्द्रित हो गया | राहुल द्वारा मना करने के बाद गांधी परिवार के भरोसेमंद अशोक गहलोत का नाम प्रमुखता से उछला | दूसरी तरफ केरल के सांसद और जी 23 से जुड़े शशि थरूर ने भी चुनाव लड़ने की इच्छा जताई | म.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री और यात्रा के संयोजक दिग्विजय सिंह सहित कुछ और नाम भी चर्चा में आये | लेकिन मामला तब पेचीदा हुआ जब पहले दिग्विजय और बाद में राहुल ने कह दिया कि अध्यक्ष बनने पर श्री गहलोत को मुख्यमंत्री पद छोड़ना होगा | हालाँकि उन्होंने  इसके विरोध में अनेक दृष्टांत और तर्क दिये लेकिन  जब उनको लगा कि राजस्थान का राज हाथ से चला जायेगा तब उन्होंने  मनमाफिक उत्तराधिकारी चुनने की इच्छा जताते हुए  आलाकमान पर दबाव बना दिया | गत दिवस जयपुर में नया मुख्यमंत्री चुनने  कांग्रेस विधायक दल की बैठक होनी थी | दिल्ली से पर्यवेक्षक भी पहुंच गए | लेकिन जादूगर से राजनेता बने श्री गहलोत ने हाथ की वह सफाई दिखाई कि देखने वाले हतप्रभ रह गये | जैसे ही संकेत आया कि आलाकमान ने सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने का मन बना लिया है वैसे ही पहले तो श्री गहलोत ने कहा कि बैठक में एक लाइन का प्रस्ताव लाकर निर्णय आलाकमान पर छोड़ दिया जावेगा लेकिन दूसरी तरफ समर्थक विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष के पास उनको मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के विरोध में इस्तीफ़ा लेकर भेज दिया |  बैठक में सचिन पायलट और पर्यवेक्षक बैठे रह गये लेकिन गहलोत समर्थक विधायक पहुंचे ही नहीं जिससे वह रद्द कर दी गई | गहलोत खेमे ने दूसरा पैंतरा ये चला कि मुख्यमंत्री बदलने का निर्णय राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के बाद हो | शायद श्री गहलोत को  आशंका हो चली है कि उन्हें अध्यक्ष का चुनाव हरवाकर राजनीतिक दृष्टि से निहत्था कर दिया जावेगा | इसीलिये चुनाव होने तक  सत्ता नहीं छोड़ने की शर्त उनकी तरफ से आ गई | समूचा घटनाचक्र  जिस तेजी से घूमा उससे  साबित हो गया कि श्री गहलोत आलाकमान पर पूरी तरह हावी हैं | जिस तरह से उनकी ओर से श्री पायलट को सत्ता से बाहर रखने की जिद पकड़ ली गई उससे ये लगता है कि गांधी परिवार के करीबी कहे जाने वाले इस नेता ने उसकी कोई न कोई नस दबा रखी है वरना क्या वजह है कि राहुल और प्रियंका की इच्छा के बावजूद श्री पायलट को हाशिये पर  धकेलने में वे लगातार कामयाब होते रहे हैं | उन्हें पता है कि यदि परिवार चाह लेगा तब उनका अध्यक्ष बनना तय है परन्तु तब तक मुख्यमंत्री बने रहने की जिद ये दर्शाने के लिए काफी है कि वे गांधी परिवार के घटते प्रभाव को भांप चुके हैं | ऐसे समय जब राहुल पार्टी को मजबूती देने के लिए पदयात्रा के जरिये पसीना बहा रहे हैं तब राजस्थान में पार्टी की लड़ाई इस तरह से सामने आ जाना उनके प्रयासों को मिट्टी में मिला सकता है | विधायकों द्वारा  थोक में इस्तीफ़ा देने की पेशकश दरअसल ये दिखाने की कोशिश है कि राजस्थान में श्री गहलोत की मर्जी चलेगी न कि आलाकमान की | इसे बगावत कहें या  चेतावनी इसका विश्लेषण करने वाले कर रहे होंगे लेकिन श्री गहलोत ने अपने पैंतरे से गांधी परिवार के साथ ही पूरी पार्टी को ये सन्देश दे दिया है कि वे कठपुतली नहीं रहेंगे | मुख्यमंत्री कौन बनेगा इस सवाल से भी बड़ी बात अब ये उठ खडी हुई है कि  श्री गहलोत द्वारा गांधी परिवार को चुनौती दिए जाने के बावजूद भी क्या वह उनको पार्टी का अध्यक्ष बनाने तैयार होगा ? राजनीति के जानकार ये भी कह रहे हैं कि अध्यक्ष न बनने की रणनीति के तहत ही श्री गहलोत ने ये दांव चला है | यदि वे अपनी जिद पूरी करने में कामयाब हो गये तब श्री पायलट के सामने ज्योतिरादित्य सिंधिया का रास्ता अपनाने का विकल्प ही बचेगा जिन्हें म.प्र की सत्ता में आने से रोकने में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने ऐसी ही चालें चली थीं | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

पहले अपने परिवार को तो एकजुट कर लें चौटाला



हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में लम्बी कैद काटकर रिहा होते ही फिर सक्रिय हो उठे | गत दिवस अपने पिता पूर्व उप प्रधानमंत्री स्व. देवीलाल की 109 वीं जयन्ती पर राज्य के फतेहाबाद में उन्होंने विपक्षी दलों का जो सम्मलेन किया वह इस आधार पर विफल कहा जा सकता है क्योंकि लगभग डेढ़ दर्जन विपक्षी नेताओं को आमन्त्रण दिए जाने के बावजूद उनमें से पहुंचे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार , उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और एनसीपी प्रमुख शरद पवार ही वे चेहरे रहे जिनकी राजनीतिक अहमियत है | जहाँ तक बात अकाली दल के सुखबीर सिंह बादल और सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का सवाल है तो इनकी हैसियत अब पिछलग्गू से ज्यादा नहीं रह गई है | शिवसेना ने अपना नुमाइंदा भेजकर रस्म अदायगी कर दी | लेकिन कांग्रेस , टीआरएस , सपा , बसपा , बीजद , तृणमूल और आम आदमी पार्टी जैसी विपक्षी पार्टियों  की अनुपस्थिति ने श्री चौटाला के उत्साह पर पानी फेर दिया | सही बात तो ये है कि इसके जरिये वे हरियाणा में अपनी ताकत दिखाना चाहते थे | चौधरी देवीलाल की विरासत के दावेदार रहे ओमप्रकाश अनेक वर्षों तक जेल में रहने के कारण राज्य में आप्रसंगिक हो चुके हैं  |  उनके परिवार में भी बिखराव आ चुका है | जिस भाजपा को कल के सम्मलेन में कोसा गया उसी के साथ हरियाणा में उनके पौत्र  दुष्यंत उपमुख्यमंत्री बने हुए हैं | भले ही नीतीश , तेजस्वी और शरद पवार ने मंच से भाषण दिए लेकिन विपक्षी एकता की धुरी बनने की जो योजना श्री चौटाला ने बनाई वह कारगर नहीं हो सकी | वैसे भी विपक्ष की एकता मेंढक तोलने जैसी  होती जा रही है | कहने को तो सब भाजपा को हराने का दम भरते हैं लेकिन महत्वाकांक्षाओं की टकराहट के चलते एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली स्थिति बनी हुई है | हरियाणा की राजनीति में कांग्रेस ही भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी रही है | ऐसे में उसके बिना श्री चौटाला की कोशिश का असर उनके  राज्य में ही संभव नहीं दिखता | देखने वाली बात ये भी है कि उनकी अपनी छवि बेहद दागदार रही है जिसकी वजह से अनेक विपक्षी नेता सम्मेलन से कटे रहे | सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि जब वे अपने परिवार को ही एक मंच पर लाने में कामयाब नहीं हो पा रहे तब बाकी विपक्षी दल भी भला उन्हें भाव क्यों देने लगे ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

पहले अपने परिवार को तो एकजुट कर लें चौटाला



हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में लम्बी कैद काटकर रिहा होते ही फिर सक्रिय हो उठे | गत दिवस अपने पिता पूर्व उप प्रधानमंत्री स्व. देवीलाल की 109 वीं जयन्ती पर राज्य के फतेहाबाद में उन्होंने विपक्षी दलों का जो सम्मलेन किया वह इस आधार पर विफल कहा जा सकता है क्योंकि लगभग डेढ़ दर्जन विपक्षी नेताओं को आमन्त्रण दिए जाने के बावजूद उनमें से पहुंचे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार , उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और एनसीपी प्रमुख शरद पवार ही वे चेहरे रहे जिनकी राजनीतिक अहमियत है | जहाँ तक बात अकाली दल के सुखबीर सिंह बादल और सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का सवाल है तो इनकी हैसियत अब पिछलग्गू से ज्यादा नहीं रह गई है | शिवसेना ने अपना नुमाइंदा भेजकर रस्म अदायगी कर दी | लेकिन कांग्रेस , टीआरएस , सपा , बसपा , बीजद , तृणमूल और आम आदमी पार्टी जैसी विपक्षी पार्टियों  की अनुपस्थिति ने श्री चौटाला के उत्साह पर पानी फेर दिया | सही बात तो ये है कि इसके जरिये वे हरियाणा में अपनी ताकत दिखाना चाहते थे | चौधरी देवीलाल की विरासत के दावेदार रहे ओमप्रकाश अनेक वर्षों तक जेल में रहने के कारण राज्य में आप्रसंगिक हो चुके हैं  |  उनके परिवार में भी बिखराव आ चुका है | जिस भाजपा को कल के सम्मलेन में कोसा गया उसी के साथ हरियाणा में उनके पौत्र  दुष्यंत उपमुख्यमंत्री बने हुए हैं | भले ही नीतीश , तेजस्वी और शरद पवार ने मंच से भाषण दिए लेकिन विपक्षी एकता की धुरी बनने की जो योजना श्री चौटाला ने बनाई वह कारगर नहीं हो सकी | वैसे भी विपक्ष की एकता मेंढक तोलने जैसी  होती जा रही है | कहने को तो सब भाजपा को हराने का दम भरते हैं लेकिन महत्वाकांक्षाओं की टकराहट के चलते एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली स्थिति बनी हुई है | हरियाणा की राजनीति में कांग्रेस ही भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी रही है | ऐसे में उसके बिना श्री चौटाला की कोशिश का असर उनके  राज्य में ही संभव नहीं दिखता | देखने वाली बात ये भी है कि उनकी अपनी छवि बेहद दागदार रही है जिसकी वजह से अनेक विपक्षी नेता सम्मेलन से कटे रहे | सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि जब वे अपने परिवार को ही एक मंच पर लाने में कामयाब नहीं हो पा रहे तब बाकी विपक्षी दल भी भला उन्हें भाव क्यों देने लगे ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 24 September 2022

हिन्दुओं के विरुद्ध वैश्विक षडयंत्र का हिस्सा हैं ये हमले



पूरी दुनिया में भारतीय मूल के लोगों  की मौजूदगी जिस तेजी से बढ़ी उसके बाद उसे वैश्विक समुदाय कहना गलत न होगा | सबसे महत्वपूर्ण ये है कि भारतवंशी तीसरी दुनिया कहे जाने अविकसित या विकासशील देशों में ही नहीं वरन अमेरिका , कैनेडा , ब्रिटेन , ऑस्ट्रेलिया आदि में भी बड़ी संख्या में न सिर्फ रह रहे हैं बल्कि अपनी योग्यता  और परिश्रम के बल पर सम्मान और समृद्धि  अर्जित करने में सफल रहे हैं | अनेक  देशों के शासन तन्त्र में भी उनका महत्वपूर्ण स्थान है | एक जमाना था जब ब्रिटिश सत्ता के अधीन भारत से श्रमिकों को मॉरीशस , सूरीनाम , और कैरीबियन द्वीप समूह ( वेस्ट इंडीज ) ले जाया गया था | उन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा गया | गिरमिटिया शब्द अंग्रेजी के एग्रीमेंट का अपभ्रंश है | लेकिन  ब्रिटिश सत्ता के छल के चलते वे वापस नहीं आ सके और आज  मॉरीशस सहित अनेक  कैरीबियन देशों के राष्ट्राध्यक्ष बन जाने के बाद भी भारत को अपने पूर्वजों की भूमि मानकर भावुक  हो उठते हैं | उनके नामकरण भी हिन्दू देवी देवताओं के नाम पर होना  दर्शाता है  कि भारत उनकी भावनाओं में गहराई तक समाया है | कालान्तर में गुजरात के व्यवसायी अफ्रीकी देशों में कारोबार के सिलसिले में जाने लगे | चूंकि वे देश भी ब्रिटेन के उपनिवेश थे इसलिए आवागमन सुलभ था | धीरे – धीरे वे वहीं बसते गये | महात्मा गांधी के वकालत हेतु दक्षिण अफ्रीका जाने के पीछे भी गुजराती समुदाय ही था | समय के साथ उन्हीं में से कुछ  ने ब्रिटेन में कामकाज जमाया तो कुछ दुस्साहसी कैनेडा और अमेरिका में जाकर बसते गए | हांगकांग , मलेशिया , सिंगापुर , आस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड में पीढ़ियों से रह रहे  भारतीय मूल के ज्यादातर लोग ब्रिटिश सत्ता के दौरान ही वहां जा बसे थे | आजादी के बाद परिदृश्य में धीरे – धीरे बदलाव होता गया | पहले  उच्च शिक्षा के लिये विदेश जाना शुरू हुआ जिनमें  से ज्यादातार बेहतर अवसरों के कारण वहीं बसते चले गये | लेकिन बीते तीन दशक में विकसित देशों में भारत में  शिक्षित नौजवान पीढ़ी ने भी अपनी क्षमता और योग्यता का डंका पीटा | हालाँकि इसमें उदारवादी अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण की बड़ी भूमिका रही | बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में भी  अपना कारोबार जमाया तब उन्हें लगा कि यहाँ भी प्रतिभाएं हैं और फिर जो सिलसिला शुरू हुआ वह रुकने का नाम नहीं ले रहा | अप्रवासी भारतीय समुदाय का हमारी अर्थव्यवस्था में उल्लखेनीय योगदान है और सौभाग्य से ये राष्ट्रप्रेम से भरी हुई है | भारत सरकार ने इसी कारण  अप्रवासी विभाग बनाकर इनका लाभ लेने की नीति बनाई जो काफी हद तक सफल भी है | लेकिन बीते कुछ सालों से ऐसा लगने लगा है कि भारतीय मूल के लोगों की समृद्धि और उन देशों की व्यवस्था में बढ़ती दखल से वहाँ के स्थानीय रहवासी ईर्ष्यालु होने लगे हैं | नस्लीय भावना का प्रदर्शन भी गाहे - बगाहे होता रहा जिसे गंभीरता से नहीं लिया गया | लेकिन बीते कुछ महीनों से ब्रिटेन , ऑस्ट्रेलिया , अमेरिका और कैनेडा में जिस तरह भारतीय समुदाय के ऊपर हमले हो रहे हैं वह  सुनियोजित षडयंत्र  है | विशेष रूप से हिन्दू धर्मस्थलों पर जिस तरह से आक्रमण हो रहे हैं  उससे लगता है इस्लामिक आतंकवाद ने भारत  विरोधी अपनी गतिविधियों का विकेंद्रीकरण वैश्विक स्तर पर करना शुरू कर दिया है | ब्रिटेन में हिन्दू समुदाय के मंदिरों पर जिस तरह आक्रमण किये जा रहे हैं  वे नस्लीय घृणा के साथ ही  इस्लामी आतंकवाद का हिस्सा है | इसकी बुनियाद में पश्चिम एशिया से पैदा हुआ शरणार्थी  संकट है जिसके चलते लाखों की संख्या में सीरिया साहित अन्य अरब देशों से मुस्लिम आबादी भागकर यूरोपीय देशों के साथ ही अमेरिका और कैनेडा में जाकर जम गई | कुछ समय तक तो इनका आचरण नियन्त्रण में रहा लेकिन जैसे ही इनकी संख्या बढ़ी वैसे ही ये नासूर बनने लगे | जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार यूरोपीय देश इन मुस्लिम शरणार्थियों को  बसाकर पछता रहे हैं | इनके आने से उनकी आन्तरिक शान्ति और सुरक्षा खतरे में पड़ रही है |  लेकिन बीते कुछ समय से देखने में आ रहा है कि उक्त जिन भी देशों में भारत से गए हिन्दू बड़ी संख्या में हैं जिन्होंने अपनी संस्कृति को जीवंत बनाये रखने के लिए मन्दिर और प्रार्थना स्थल बना रखे हैं उन पर इस्लामी समुदाय के लोगों द्वारा हमले होने लगे हैं | ये भी कहा जा सकता है कि कैनेडा ,अमेरिका , ब्रिटेन से ऑस्ट्रेलिया तक एक जैसी घटनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि ये सब किसी योजना का हिस्सा है क्योंकि इन सबमें साम्यता साफ़ नजर आ रही है |  अब तक ये माना जाता था कि तीसरा विश्वयुद्ध ईसाइयत और इस्लाम के बीच होगा | इस्लामिक  आतंकवाद के सारे बड़े प्रवक्ता इसीलिये अमेरिका को सबसे बड़ा दुश्मन मानते आये हैं | लेकिन विकसित देशों में अपने संयमित आचरण की वजह से एक तरफ जहाँ भारतीय मूल के लोगों का  सत्ता और समाज दोनों में सम्मान बढ़ता जा रहा है वहीं मुस्लिम देशों से आये लोगों को शक की  निगाह से देखा जाता है | इस्लामी संगठनों ने शायद इसीलिये अपने निशाने हिन्दुओं पर केन्द्रित कर दिए जिससे वे नस्लीय उग्रवाद के प्रवर्तक ईसाई संगठनों की सहानुभूति अर्जित कर सकें | सच्चाई जो भी हो लेकिन जिस तरह से हाल ही में भारतीय मूल के हिन्दुओं और उनके आस्था केन्द्रों को विदेशों में निशाना बनाया जाने लगा है वह साधारण बात नहीं है | इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि भारत के भीतर इस्लामिक आतंकवाद की जड़ों में जिस तरह से मठा डाला जा रहा है उसकी प्रतिक्रिया देश के बाहर रह रहे हिन्दुओं पर हमलों के रूप में सामने आ रही है | हालाँकि वहां के सामाजिक , राजनीतिक और आर्थिक दायरे में भारतीय मूल के लोगों की पकड़ इतनी मजबूत है कि आसानी से उनका मनोबल नहीं टूटेगा | लेकिन इन घटनाओं को आने वाले बड़े खतरे का संकेत मानकर भारत सरकार को उन देशों की सरकारों के साथ समन्वय बनाकर भारतीय समुदाय की सुरक्षा का इंतजाम करना चाहिये ताकि समस्या और बड़ी न होने पाए |

- रवीन्द्र वाजपेयी


                 

Friday 23 September 2022

संघ प्रमुख और इलियासी की भेंट : विवाद के बीच संवाद



जिस दिन पूरे देश में आतंकवादी मुस्लिम संगठन पी.एफ़.आई ( पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया ) के ठिकानों पर छापे के साथ ही उसके प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार किया गया उसी दिन रास्वसंघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने दिल्ली में मुस्लिम इमाम संगठन के प्रमुख डा. उमर अहमद इलियासी के साथ बंद कमरे में चर्चा करने के साथ ही निकटवर्ती मदरसे में छात्रों के साथ संवाद किया | अखिल भारतीय इमाम संगठन के मुख्यालय में आयोजित इस बैठक में जिस सौहार्द्र का आदान - प्रदान हुआ वह महज औपचारिकता थी या हिन्दुओं के सबसे बड़े सामाजिक संगठन तथा मुस्लिम इमामों के मुखिया द्वारा आपसी चर्चा से गलतफहमियां दूर करने का  प्रयास , ये तो आने वाले समय में पता चलेगा परन्तु  जिस तरह डा. इलियासी  ने संघ प्रमुख को राष्ट्र पिता और राष्ट्र ऋषि कहा वह चौंकाने वाला है | प्राप्त  जानकारी के अनुसार ये मुलाकात मुस्लिम धर्मगुरु के आमन्त्रण पर हुई थी जिसमें विवादास्पद मुद्दों के अलावा अन्य सामयिक विषयों पर विचारों का आदान – प्रदान हुआ | डा. इलियासी का ये कहना संघ के दृष्टिकोण का समर्थन  है कि हमारा डीएनए एक ही है किन्तु इबादत का तरीका अलग है | कुछ समय पहले कांग्रेस के पूर्व वरिष्ट नेता गुलाम नबी आजाद ने भी स्वीकार किया था कि सैकड़ों साल पहले तक उनके पूर्वज हिन्दू थे | संघ प्रमुख के  मस्जिद और मदरसे में जाने से भी बड़ी बात  डा. इलियासी द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शान में कसीदे पढ़ना रही | शायद इसीलिये असदुद्दीन ओवैसी इसको पचा नहीं सके और उन्होंने  उन्हें जमीनी हकीकत से अनभिज्ञ व्यक्ति  बताया | हालाँकि अन्य मुस्लिम संगठनों की प्रतिक्रिया अब तक नहीं आई | शायद वे मुलाकात के भावी परिणामों का आकलन करने के बाद कुछ कहें | लेकिन ऐसे समय जब  हिजाब ,  ज्ञानवापी , कृष्ण जन्मभूमि , मदरसों का सर्वे , सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दों पर मुसलिम समुदाय के मन में जहर भरा जा रहा हो तब सबसे बड़े हिन्दू संगठन के प्रमुख का  इमामों के मुखिया से मिलने के साथ मस्जिद और मदरसे में जाना साधारण बात नहीं है | उल्लेखनीय है भाजपा ने भी हाल ही में मुस्लिमों के बीच स्नेह यात्रा निकालने का फैसला किया है | साथ ही इस समुदाय के पसमांदा वर्ग के उत्थान पर भी ध्यान देने की पहल की  जो  एक तरह से हिन्दुओं की अन्य पिछड़ी जातियों जैसा ही है | ये भी उल्लेखनीय है कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के बैनर तले मुसलमानों को  संघ  के नजदीक लाने का प्रकल्प चलाने वाले वरिष्ट प्रचारक इन्द्रेश भी  डा. भागवत के साथ इमामों के मुख्यालय गये थे | देश भर से मिल रहे संकेतों से लगता है कि मुसलमानों के बीच भी ये विचार जोर पकड़ने लगा है कि मजहब के नाम पर अशिक्षा , पिछड़ेपन और गरीबी में जीते रहने के बजाय मुख्यधारा में शरीक होकर सामाजिक और आर्थिक विकास की राह पर आगे बढ़ा जाए | ये बात भी एक वर्ग को महसूस होने लगी है कि उनके थोक समर्थन के बल पर अनेक नेता और पार्टियां सत्ता के शिखर तक जा पहुँची  किन्तु मुसलमानों की दशा में ख़ास सुधार नहीं हुआ | दरअसल  मुसलमान मुल्ला – मौलवियों और राजनेताओं रूपी दो पाटों की बीच फंसकर रह गए | धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक जैसे शब्दों के जरिये उन्हें राष्ट्रीय धारा से दूर रखा जाता रहा | मुस्लिम समुदाय में जब भी किसी बड़े सुधार की सम्भावना बनी तब - तब उसे कुचल दिया गया | स्व. राजीव गांधी की सरकार ने शाहबानो मामले में  सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पलटकर जो ऐतिहासिक भूल की उसकी वजह से ही हिंदुओं का राजनीतिक ध्रुवीकरण होने लगा | समय आ गया है जब मुस्लिम समाज अपने धर्म का पालन करने के साथ ही डा. इलियासी द्वारा कही गयी इस बात को समझे कि भारत में रहने वाले 99 फीसदी मुस्लिमों के पूर्वज हिन्दू थे | इस बारे में इंडोनेशिया का उदाहरण सामने है जहाँ के लोग मुस्लिम होने के बाद भी रामलीला करते हैं | उनका साफ़ कहना है कि सदियों पहले उनके पूर्वजों ने इस्लाम स्वीकार किया किन्तु  हिन्दू संस्कृति नहीं त्यागी | भारत के मुसलमानों को भी इस बात से प्रेरणा लेनी चाहिए | रास्वसंघ ने तो सदैव कहा है कि हिन्दू , धर्म नहीं अपितु राष्ट्रीयता है और  भारत में रहने वाले सभी लोग हिन्दू हैं चाहे वे किसी भी धर्म या पूजा पद्धति का पालन करते हों | यद्यपि उक्त मुलाकात के फलितार्थ पर तत्काल कोई निष्कर्ष  निकालना जल्दबाजी होगी परन्तु इस तरह के संवाद से व्यर्थ की  गलत फहमियां दूर की जा सकती हैं |  मुस्लिम समुदाय के साथ सबसे बड़ी परेशानी ये रही है कि वह राजनीतिक नेतृत्व के लिहाज से शून्य है | पहले कांग्रेस और बाद में लालू – मुलायम जैसे नेताओं ने उसका भयादोहन किया और अब वही काम ओवैसी कर रहे हैं | लेकिन किसी ने भी उन्हें शिक्षा के जरिये बौद्धिक और आर्थिक विकास हेतु प्रेरित नहीं किया | मदरसों का उपयोग धर्मान्धता फ़ैलाने के लिए किये जाने का दुष्परिणाम मुस्लिम युवाओं का आतंकवादी संगठनों के साथ जुड़ने के तौर पर देखने मिला | जम्मू  कश्मीर में तो एक पूरी पीढ़ी उसका शिकार हो गई | धीरे  – धीरे ही सही इस समुदाय के एक वर्ग को गलतियों का एहसास होने लगा है | हालाँकि इसमें बहुत कम लोग शामिल हैं जिनके सामाजिक  प्रभाव के बारे में पक्के तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता |  बड़ी बात नहीं ओवैसी और अन्य मुस्लिम धर्मगुरु डा. इलियासी के पीछे पड़ जाएं क्योंकि उन जैसे कुछ और धर्मगुरु यदि साहस के साथ आगे आये तो बहुतों की दुकानों पर ताले लटक जायंगे | पीएफआई जैसे आतंकवादी संगठन की बड़े पैमाने पर घेराबंदी के समानांतर संघ प्रमुख और इमामों के प्रमुख की अन्तरंग भेंट निश्चित तौर पर किसी सुखद बदलाव का संयोग बन सकती है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 22 September 2022

हिजाब : ईरान में विरोध , हिन्दुस्तान में समर्थन



इसे संयोग ही कहेंगे कि एक तरफ जहाँ भारत जैसे धर्म निरपेक्ष कहे जाने वाले देश में मुस्लिम महिलाओं द्वारा उपयोग किये जाने वाले हिजाब को इस्लामिक अनिवार्यता के तौर पर मान्यता दिए जाने के मुद्दे  पर सर्वोच्च न्यायालय में बहस चल रही है वहीं दूसरी तरफ कट्टर इस्लामी देश ईरान की महिलायें सड़कों पर उतरकर न सिर्फ हिजाब जला रही हैं वरन अपने बाल कैंची  से काटते हुए उसके चित्र सोशल मीडिया पर प्रसारित करने का दुस्साहस भी कर रही हैं | उल्लेखनीय है ईरान में हिज़ाब का उल्लंघन करने वाली महिला को कैद के साथ ही  जुर्माना और कोड़े मारने तक का प्रावधान है |  पुलिस वाले ऐसी किसी भी महिला को गिरफ्तार कर लेते हैं जिसने हिजाब सही तरीके से नहीं पहना हो | हिजाब विरोधी आन्दोलन की शुरुआत 22 वर्षीय माहसा अमीनी नामक युवती की मौत के बाद हुई जिसे गलत तरीके से हिजाब का उपयोग करने के आरोप में गिरफ्तार कर बुरी तरह पीटा गया | हालत बिगड़ने पर उसे अस्पताल में दाखिल किया गया जहाँ वह चल बसी | इस घटना से नाराज होकर देश भर में महिलाओं ने सड़कों पर उतरकर हिजाब जलाकर और अपने बाल काटकर इस्लाम के नाम पर फैलाये जा रहे पुलिसिया आतंक के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया | हालाँकि ईरान की सरकार आन्दोलन को कुचलने में जुटी हुई है और अब तक पांच लोग मारे भी जा चुके हैं | लेकिन इसकी  वजह से इस्लामी देशों में महिलाओं पर होने वाले  अत्याचारों का मामला एक बार फिर वैश्विक परिदृश्य पर छा गया है | रोचक बात ये है कि भारत में कर्नाटक के एक शिक्षण  संस्थान द्वारा कुछ मुस्लिम छात्राओं द्वारा हिजाब के उपयोग  पर रोक लगाये जाने से सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था | संस्थान ने गणवेश का हवाला दिया तो उन मुस्लिम छात्राओं ने धार्मिक अनिवार्यता बताते हुए उसके उपयोग की जिद पकड़ ली | अनुमति न मिलने पर अनेक छत्राओं ने पढाई हेतु आना बंद कर दिया | यहाँ तक कि परीक्षा तक छोड़ दी | मौलिक अधिकारों के साथ बात धार्मिक स्वतंत्रता तक जा पहुँची | कर्नाटक उच्च न्यायालय ने जब हिजाब पर लगी रोक हटाने से इंकार कर दिया तब मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुँच गया जहाँ इस पर बहस चल रही है | मुस्लिम पक्ष हिजाब  पर रोक को धार्मिक स्वतंत्रता का हनन  बता रहा है वहीं राज्य  सरकार शिक्षण संस्थान में  गणवेश की अनिवार्यता पर बल दे रही है | मामले में रोचक मोड़ तब आया जब उसके अधिवक्ता ने ईरान में महिलाओं द्वारा किये जा रहे आन्दोलन का हवाला देते हुए तर्क दिया कि जब इस्लामी देश में हिजाब को लेकर महिलाएं खुलकर सामने आ चुकी हैं तब भारत में इसे लेकर की जा रही जिद बेमानी है | मामला देश की सबसे बड़ी अदालत के सामने विचाराधीन होने से उसके वैधानिक पहलुओं पर टिप्पणी करना तो उचित न होगा लेकिन बड़ा सवाल ये है कि भारत में इस्लाम के जो प्रवक्ता हैं वे ईरान की घटना पर चुप क्यों हैं ? ऐसे में सोचने वाली बात ये है कि  जब एक कट्टर मुस्लिम देश में महिलाएं खुलकर हिजाब के विरोध में खडी हो गईं हैं तब भारत में उसकी अनिवार्यता पर अड़ियलपन दिखाना अटपटा लगता  है | आश्चर्य तो तब होता है जब विदेश से उच्च शिक्षा हासिल करने वाले असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग भी इस्लामिक कट्टरता की वकालत करते हैं | इस बारे में ताजा प्रकरण जम्मू कश्मीर का है | एक सरकारी विद्यालय में छात्रों से गांधी जी के प्रिय भजन रघुपति राघव राजा राम गवाए जाने पर पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने ऐतराज जताते हुए इसे राज्य के अल्पसंख्यक स्वरूप को बदलने का भाजपाई प्रयास बताया वहीं दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ये कहते हुए सामने आये कि वे भी भजन गाते हैं और इसमें कुछ भी बुराई नहीं है क्योंकि अजमेर शरीफ जाने से कोई हिन्दू , मुसलमान नहीं हो जाता | हालाँकि फारुख बहुत बड़े नाटकबाज है और  गिरगिट की तरह रंग बदलने  में माहिर हैं | महबूबा को दिया उनका जवाब  विधानसभा के आगामी चुनाव में जम्मू के हिन्दू बहुल इलाकों में अपने लिए समर्थन जुटाने का दांव भी हो सकता है | लेकिन जिस तरह इस्लामिक रवायतों को लेकर कट्टरता का प्रदर्शन मुस्लिम संगठन और धर्मगुरु करते हैं उससे इस समुदाय का फायदा कम नुकसान ज्यादा हो रहा है | मुस्लिम महिलाओं के सामने भी ये अवसर है मजहब के नाम पर बनाई गईं बेड़ियों से निकलने का | ईरान में जो हो रहा है  उसका अंजाम अभी कोई नहीं बता सकता क्योंकि वहां की सरकार आन्दोलन को कुचलने का हरसंभव प्रयास करेगी | लेकिन ये बात साबित हो गई कि 1979 तक आधुनिकता के दौर में जी रहे ईरान को अयातुल्ला खोमैनी ने जिस तरह इस्लामिक कट्टरता में जकड़ा उसके प्रति ईरानी जनमानस में दबी हुई नाराजगी हिजाब विरोधी इस मुहिम के रूप में सामने आई है | ये भी स्मरणीय है कि इस्लामिक तौर - तरीकों से चलने वाले संयुक्त अरब अमीरात में शामिल देशों के अलवा दुनिया भर के मुस्लिमों के सबसे बड़े आस्था केंद्र सऊदी अरब में भी महिलाओं को आज़ादी देने की शुरुआत हो चुकी है | शाह के दौर का ईरान आधुनिकता के मामले में किसी पश्चिमी देश से कम न था | ईराक में भी सद्दाम हुसैन के दौर में महिलाओं को पर्याप्त आजादी हासिल थी | लेकिन पता नहीं क्यों हमारे देश के मुस्लिम धर्मगुरु बजाय आगे ले जाने के अपने समाज को पीछे ले जाने में जुटे रहते हैं | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनेक मर्तबा कहा है कि मुस्लिम युवाओं को कुरान और कम्प्यूटर दोनों से नाता जोड़ना चाहिए | ईरान में जो हो रहा है वह भारत में भी हो ये जरूरी नहीं। लेकिन एक ऐसे देश की महिलाओं की आवाज को सुनना और समझना तो बनता है जो इस्लाम के नाम पर सत्ता चला रहा है | क्या भारत के मुस्लिम धर्मगुरुओं और ओवैसी जैसे नेताओं में इतना साहस है कि वे ईरान की महिलाओं के विरोध में मुंह खोल सकें ?   

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 21 September 2022

बिन चन्दा सब सून : चुनाव आयोग की बात अच्छी किन्तु मानेगा कौन



चुनाव आयोग ने केन्द्रीय विधि मंत्री किरण रिजजू को जन प्रतिनिधित्व कानून  में संशोधन कर राजनीतिक दलों को मिलने वाले व्यक्तिगत नगद चंदे की अधिकतम सीमा 2 हजार रु. के साथ ही कुल जमा चंदे में नगदी का हिस्सा  अधिकतम  20 करोड़ रु. करने की सिफारिश की है | आयोग का मानना है इससे पारदर्शिता आने के साथ ही  काले धन के  उपयोग पर रोक लगाना भी सम्भव होगा | हालाँकि व्यवसायिक लेन देन में भी 20 हजार तक के नगद भुगतान की अनुमति है | लेकिन राजनीतिक पार्टियाँ बड़े चंदे को भी 20 हजार की शक्ल में विभाजित कर चुनाव आयोग की आँखों में धूल झोंकती हैं | देखना ये  है कि आयोग ने उपरोक्त अनुशंसा आत्मप्रेरणा से की या इसके पीछे अन्य कोई कारण है ? वैसे उसके द्वारा हाल ही में सैकड़ों ऐसे दलों का पंजीयन रद्द कर दिया गया जो चंदे संबंधी नियमों का पालन नहीं कर रहे थे | आयकर विभाग ने भी अनेक  दलों के ठिकानों पर छापे मारकर  खुलासा किया कि उनका गठन  काले धन को सफ़ेद करने के लिये किया गया था | विधि मंत्री को भेजी गयी उक्त सिफारिश के संदर्भ में ये भी देखना होगा कि आयोग ने इस बारे में मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से परामर्श किया या नहीं क्योंकि  कानून में संशोधन जिस संसद में होगा उसमें चन्दा बटोरने वाले राजनीतिक दलों के सांसद ही तो बैठे हैं | ऐसे में क्या वे ऐसे किसी बदलाव को लागू करेंगे जिससे उनके अपने हाथ बंध जाएँ | उल्लेखनीय है राजनीतिक दलों द्वारा अपने दैनिक कामकाज के अलावा चुनाव के लिए चन्दा उगाही की जाती है | एक समय था जब उन पर कोई रोक टोक  नहीं होती थी | लेकिन कालान्तर में चुनाव सुधारों की प्रक्रिया के चलते उनको अपने हिसाब – किताब का ब्यौरा आयकर विभाग को देने की व्यवस्था हुई | चुनावी बांड नामक प्रणाली भी अस्तित्व में आईं | उद्योगपतियों को इस बारे में प्रोत्साहित किया जाने लगा कि वे राजनीतिक दलों को चैक से चन्दा दें परन्तु जितने सुधार हुए उतने ही अन्य रास्ते भी खोज लिए गए काले धन में चन्दा लेने के | इस बारे में कहना सही है कि राजनीतिक संरक्षण में ही तो काला धन पैदा होता है इसलिए उसके बिना राजनीति की कल्पना करना सपने देखने जैसा होगा |  भले ही स्व. टी.एन. शेषन ने चुनावी खर्च को कम करने की दिशा में काफी उपाय किये और मैदानी प्रचार पर भी अनेकानेक बंदिशें लगाईं किन्तु आयोग द्वारा तय की  जाने वाली खर्च की राशि में चुनाव लड़ने से बड़ा झूठ दूसरा नहीं हो सकता | ऐसे में चुनाव आयोग द्वारा नगद चंदे की राशि 2 हजार करने और कुल नगद चंदे की सीमा 20 करोड़ करने के सुझाव को सरकार किस हद तक मानेगी ये कोई नहीं बता सकता |  यदि इस सुझाव के पीछे सरकार की कोशिश है तब हो सकता है मामला संसद में विचार हेतु आये भी लेकिन उसका स्वीकृत होना संभव नहीं लगता क्योंकि राजनीतिक दलों को चैक जैसे माध्यम से चंदा देने वाले  कितने भी  ज्यादा हों लेकिन बिना काले धन के उनकी गाड़ी नहीं चल सकती | काले धन का स्वरूप केवल नगदी ही नहीं अपितु संसाधन  के तौर पर भी होता है | मसलन नेताओं द्वारा उपयोग की जाने वाले महंगी गाड़ियाँ और हेलीकाप्टर अक्सर  धनकुबेर मित्रों के होते हैं | आलीशान होटलों में ठहरने का खर्च वहन करने वाला भी अप्रत्यक्ष तौर पर चन्दा ही देता है | नेतागण आजकल हवाई जहाज की यात्रा भी काफी करने लगे हैं | उनके  हवाई टिकिटों का भुगतान किसके द्वारा किया जाता है इसकी खोजबीन होने पर बहुत से छुपे रुस्तम सामने आये बिना नहीं रहेंगे | ये देखते हुए चुनाव आयोग ने जो अनुशंसा कानून मंत्री को भेजी है वह सैद्धांतिक तौर पर भले ही उचित लगे लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से उसका पालन आज के समय में लगभग असंभव है | आयोग द्वारा चुनाव खर्च कम करने के लिए उठाये गए क़दमों का असर सतही तौर पर भले नजर आता हो लेकिन विधानसभा और लोकसभा चुनाव हेतु  तय की जाने वाले खर्च सीमा किसी मजाक से कम नहीं है | आयकर छापों में ये बात भी सामने आई है कि अनेक छोटे – छोटे दलों ने मुखौटा कंपनियों की तर्ज पर काले धन को सफ़ेद करने का कारोबार कर रखा था | इस मामले में हमाम में सभी के नग्न होने वाली उक्ति भी काफी हद तक लागू होती है क्योंकि चंदे के धंधे में सभी  की चाल , चरित्र और चेहरा एक जैसा है | और ये भी सही है कि आम जनता भी चमक दमक से प्रभावित होती है | सीधे – सादे , उज्ज्वल छवि और बेदाग़ चरित्र वाले ज्यादातर निर्दलीय  उम्मीदवारों का हश्र किसी से छिपा नहीं है | राज्यसभा में उद्योगपतियों को भेजे जाने के पीछे भी  उनके द्वारा दिया जाने वाला चन्दा ही है | वरना  समाजवादी पार्टी द्वारा पूंजीवादी अनिल अम्बानी को उच्च सदन में भेजे जाने का क्या औचित्य था ? इसी तरह आम आदमी पार्टी ने भी अपने संस्थापकों को दरकिनार करते हुए अनेक धनकुबेरों को राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की | कहने का आशय ये है कि चुनाव आयोग कितनी भी सख्ती करे और संसद भी  कानून में चाहे जैसा बदलाव कर ले किन्तु जब तक  राजनीतिक दल  ईमानदार नहीं होंगे तब तक सारे  प्रयास केवल कागजों में रहेंगे |  राजनीतिक दल जिस तरह विचारधारा की बजाय पेशेवर और व्यवसायिक लोगों के हाथ में जा रहे हैं उसे देखते हुए  कहना गलत न होगा कि भविष्य में उन्हें भी कारपोरेट जगत की लिमिटेड कंपनी मानकर शेयर बाजार का हिस्सा बनाया जाए ताकि चंदा देने वाले निवेशक के तौर पर खुलकर उनमें पैसा लगा सकें | वैसे भी राजनीतिक दल चंदा देने वालों के हितों का वैसे ही  ध्यान रखते हैं जिस तरह कम्पनियाँ अपने अंश धारकों का | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 20 September 2022

सांसदों – विधायकों की तरह ही सरकारी पदों को भरने की व्यवस्था हो



 
म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गत दिवस प्रदेश के लाखों बेरोजगार युवाओं की नाराजगी  दूर करते हुए म.प्र लोक सेवा आयोग के अलावा व्यवसायिक परीक्षा मंडल के जरिये होने वाली सरकारी भर्तियों में सामान्य वर्ग के लिए अधिकतम आयु सीमा 40 से  बढाकर 43 और आरक्षित तबके के लिए 45 की जगह 48 वर्ष कर दी | ये सुविधा केवल एक बार के लिए होगी | कोरोना काल में भर्ती हेतु की जाने वाले परीक्षा एवं अन्य प्रक्रिया  संपन्न नहीं हो पाने की वजह से हजारों युवा अधिकतम आयु सीमा पार करने की वजह से सरकारी नौकरी के लिए अयोग्य हो गये | ये देखते हुए मुख्यमंत्री का निर्णय हर दृष्टि से उचित और स्वागत योग्य है | वैसे भी  विधानसभा चुनाव करीब होने के कारण  इस वर्ष सरकारी सौगातों की बरसात होना अपेक्षित है |  बेरोजगारों का गुस्सा दूर करने के लिए और भी घोषणाएं की गईं | ये भी कहा जा रहा है कि विभिन्न सरकारी विभागों में खाली पड़े पदों पर भर्त्ती की प्रक्रिया भी जल्द पूरी की जावेगी | कुल मिलाकर मामला राजनीतिक लक्ष्यों पर केन्द्रित है | जहां तक बात कोरोना काल में भर्ती न हो पाने के कारण आयु सीमा बढ़ाने की है तो वह पूरी तरह न्यायोचित कही जावेगी लेकिन इसके लिये इतना समय क्यों गंवाया गया , ये सोचने वाली बात है | ये सवाल पहले भी उठता रहा है कि जब प्रदेश में लोक सेवा आयोग और व्यवसयिक परीक्षा मंडल जैसी पूर्णकालिक सरकारी  संस्थाएं कार्यरत हैं तब  हजारों पद खाली क्यों रहते हैं ? कार्मिक प्रशासन के पास सेवा निवृत्त होने वाले कर्मचारी या अधिकारी की पूरी जानकारी रहती है | इसी वजह से किसी कर्मचारी को निर्धारित तिथि से एक भी दिन अतिरिक्त सेवा में नहीं रखा जाता | लेकिन  सेवा काल समाप्त होने की अग्रिम जानकारी होने पर भी रिक्त हुए स्थान को तत्काल भरने की पुख्ता व्यवस्था विकसित क्यों नहीं की जाती , इस प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिए | इस बारे में दो उदाहरण दिए जा सकते हैं | पहला तो ये कि किसी सांसद - विधायक की मृत्यु या उसके द्वारा स्तीफा दिए जाने के कारण रिक्त हुए स्थान को भरने के लिए छह माह में उपचुनाव करवाया जाता है | संसद के सचिवालय में राज्यसभा से निवृत्त होने वाले सांसदों का पूरा रिकॉर्ड होने के कारण समय के पहले ही नए सदस्यों का चुनाव करवा लिया जाता है | दूसरा उदाहरण संघ लोकसेवा आयोग का है जिसके द्वारा ली जाने वाली लिखित परीक्षाएं और साक्षात्कार समय पर होने के साथ ही परिणाम की घोषणा  और नियुक्तियाँ भी अपवाद छोड़कर नियत समय पर होती हैं |  लेकिन राज्यों में इस बारे में घोर लापरवाही देखने मिलती है | अव्वल तो परीक्षाएं समय पर आयोजित नहीं होतीं और हो जाने के बाद उनके परिणाम , साक्षात्कार और फिर नियुक्तियों में लगने वाले समय की सीमा नहीं है | कोरोना काल तो असाधारण परिस्थिति थी लेकिन उसके पूर्व भी न सिर्फ म.प्र अपितु पड़ोसी राज्यों में भी बेरोजगार युवाओं को जिस तरह अनिश्चितता में जीने मजबूर किया जाता रहा वह शर्मनाक भी है और दर्दनाक भी | चुनाव घोषणापत्र में लाखों सरकारी नौकरियों का वायदा तो होता है लेकिन उसे पूरा करने की जो समय सीमा बताई जाती है उसका पालन शायद ही किसी राज्य में होता होगा | म.प्र में 1 लाख पदों पर इस वर्ष भर्ती किये जाने की बात कही जा रही है | ये पद अब तक खाली क्यों हैं इसकी जवाबदेही किसी की नहीं है | प्रदेश में  विधानसभा के दो दर्जन से ज्यादा उपचुनाव कोरोना प्रकोप की छाया में करवाए गए किन्तु सरकारी नौकरियों की चयन प्रक्रिया  रुकी रही | अधिकतम आयु सीमा एक बार के लिए बढाने  से हजारों युवाओं के सपने बिखरने से रुक जायेंगे लेकिन उनकी ज़िन्दगी के जो साल बेरोजगारी में रहते हुए गुजरे वे तो नहीं लौटेंगे | 43 और 48  वर्ष की आयु में परीक्षा देने वाले अभ्यर्थी को सफल होने के बाद भी नियुक्ति पाने में कितना समय लगेगा ये भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता | ऐसे में उसके पास नौकरी करने  के लिए बहुत कम साल बचेंगे जिसका असर सेवा निवृत्ति से जुड़े लाभों पर पड़ना तय है | ये देखते हुए कहना पड़ेगा कि लोकतंत्र के तीन अंगों में अधिकारों और अवसरों को लेकर विषमता बनी हुई है | विधायिका अपने अधिकारों और सुख सुविधाओं के प्रति तो  बेहद सतर्क और सजग रहती है लेकिन कार्यपालिका और न्यायपालिका में खाली  पड़े पदों के बारे में वैसा ही जिम्मेदार रवैया नजर नजर नहीं आता | देश में आईएएस , आईपीएस और उनके समकक्ष कहे जाने वाले पदों को छोड़ दें तो अन्य वर्गों के कर्मचारियों और अधिकारियों खास तौर पर राज्य सरकारों के अमले में लाखों पद खाली पड़े रहते हैं | वोट बैंक की राजनीति के चलते नये – नये जिले बना तो दिए जाते हैं किन्तु उनका प्रशासनिक ढांचा आधा - अधूरा रखा जाता है | बढ़ती जनसँख्या के मद्देनजर नये – नये थाने खोल दिए जाते हैं किन्तु उनमें पर्याप्त बल न होने से वे अपने दायित्व का समुचित निर्वहन नहीं कर पा रहे | नए – नए मेडीकल कालेज प्रारम्भ किये जा रहे हैं लेकिन शिक्षक नहीं हैं | विद्यालयीन स्तर से लेकर तो विश्वविद्यालयों तक में अस्थायी संविदा शिक्षकों से काम चलाया जा रहा है | ये स्थिति किसी भी शासन व्यवस्था के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती | इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि सर्वोच्च न्यायालय से लेकर तो निचले स्तर की अदालतों तक में न्यायाधीशों के पद बड़ी संख्या में रिक्त पड़े हैं जिसकी  वजह से लंबित प्रकरणों के ढेर लगते जा रहे हैं | देश और जनता दोनों के हित में है कि सरकारी अमले में खाली पदों को जितनी जल्दी  हो सके भरा जावे क्योंकि इसकी वजह से शासकीय योजनाओं और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन पर विपरीत असर पड़ता है | म.प्र के मुख्यमंत्री श्री चौहान द्वारा अधिकतम आयु सीमा में एक बार के लिए की गयी वृद्धि एक आपातकालीन अनिवार्यता है जिस पर किसी को ऐतराज नहीं होगा | लेकिन समय आ गया है जब सरकारी पदों को खाली रखने वाली मौजूदा संस्कृति को तिलांजलि देकर प्रशासनिक व्यवस्था को पेशवर तौर पर दक्ष बनाया जाए | यदि किसी पद की जरूरत नहीं है तो उसे समाप्त कर  दिया जावे और यदि है तो उसे निश्चित समय सीमा के भीतर भरने की  अनिवार्यता होनी चाहिए | देश के राष्ट्रपति का पद जब एक दिन भी रिक्त  नहीं रहता तब किसी छोटे से कर्मचारी और अधिकारी की कुर्सी सूनी  पड़ी रहे , ये सरकार में बैठे हुक्मरानों के लिए बड़ी चुनौती है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 19 September 2022

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने ही उठाया कालेजियम पर सवाल



 न्यायाधीशों को नियुक्त करने वाली मौजूदा कालेजियम व्यवस्था पर समय – समय पर सवाल उठते रहे हैं | सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहते हुए मार्कंडेय काटजू द्वारा की गयी अंकल जज वाली टिप्पणी भी एक  समय काफी चर्चा का विषय बनी थी | इस बारे में उल्लेखनीय है कि कालेजियम व्यवस्था के विकल्प के तौर पर संसद द्वारा बनाये गये न्यायिक नियुक्ति आयोग को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही रद्द कर दिया गया था |  हालाँकि उसके बाद भी न्यायाधीश समुदाय के बीच इस विषय पर अंतर्विरोध सामने आते रहे हैं जिसके कारण न्याय जगत में भी कालेजियम व्यवस्था को लेकर बहस चला करती है | ताजा प्रसंग गत दिवस म.प्र के जबलपुर नगर में देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश और न्यायिक क्षेत्र में अपनी विद्वता के लिए प्रतिष्ठित  स्व. जे.एस.वर्मा स्मृति व्याख्यान के अवसर पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश संजय किशन कौल द्वारा न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए कालेजियम व्यवस्था के मुद्दे पर पुनर्विचार की जरूरत बताये जाने का है | जब श्री कौल ऐसा कह रहे थे तब देश के उपराष्ट्रपति और पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहे जगदीप धनखड़ भी मंच पर उपस्थित थे | ये टिप्पणी इसलिए भी  गौरतलब है  क्योंकि  श्री कौल ने सर्वोच्च न्यायालय में कुछ न्यायाधीशों की वरिष्टता को नजरंदाज करते हुए कनिष्ट न्यायाधीशों को पदोन्नत करने की सिफारिश पर भी आपत्ति व्यक्त की थी |  2019 में कालेजियम द्वारा अपनी ही दो सिफारिशों को बदल दिये जाने पर भी न्यायिक जगत की अनेक हस्तियों ने आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की थीं |  ये पहला अवसर नहीं है जब न्यायाधीशों की नियुक्ति और पदोन्नति को लेकर न्यायपालिका के भीतर ही मतभेद उभरे हों | उपराष्ट्रपति के सामने ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा कालेजियम व्यवस्था को न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए खतरा बताये जाने से निश्चित तौर पर इस बारे में चली आ रही बहस जोर पकड़ सकती है | सबसे रोचक बात ये है कि कालेजियम व्यवस्था का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है | मोदी सरकार ने लोकसेवा आयोग की तर्ज पर एक न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया जिसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिरे से खारिज कर दिया गया | उसके बाद से न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका दोनों  के बीच खींचातानी के साथ पक्षपात के आरोप – प्रत्यारोप भी चलते रहे हैं | वैसे भी न्यायपालिका में परिवारवाद के बोलबाले के लिए कालेजियम व्यवस्था को ही जिम्मेदार माना जाता है | अनेक ऐसे खानदान  हैं  जिनकी चार – चार पीढ़ियों को न्यायाधीश बनने का अवसर मिला वहीं अनेक योग्य व्यक्ति महज इसलिए वंचित रह गये क्योंकि कालेजियम में उनका पक्ष रखने वाले नहीं थे | चूंकि ये मुद्दा आम जनता से जुड़ा नहीं है और अधिकतर राजनेता न्यायिक प्रशासन के बारे में ज्यादा नहीं जानते इसलिए इस बारे में राजनीतिक मंचों पर चर्चा कम ही होती है |  संसद के दोनों  सदनों के अलावा अधिकांश राज्यों  की विधानसभाओं से अनुमोदन हो जाने के  राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 31 दिसंबर, 2014 को भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया गया | लेकिन अक्टूबर 2015 में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा इस आयोग को असंवैधानिक ठहराते हुए उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति और पदोन्नति के साथ ही स्थानान्तरण का अधिकार कालेजियम के पास ही रखने का फैसला कर डाला | दरअसल 1970 के आसपास  उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में पारदर्शिता के अभाव को लेकर चिंता व्यक्त की जाने लगी थी | और तब ये बात उठी कि इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश से परामर्श लिया जाना चाहिए |  1993 में जाकर कालेजियम नमाक मौजूदा व्यवस्था अस्तित्व में आई | लेकिन इसकी अन्तर्निहित बुराइयों और कमियों के बारे में न्यायपालिका के भीतर से ही आलोचना के स्वर सुनाई देने लगे | सबसे महत्वपूर्ण बात ये रही कि सर्वोच्च न्यायालय के अनेक न्यायाधीशों ने पद पर रहते हुए ही कालेजियम व्यवस्था को निष्पक्ष और पारदर्शी नियुक्तियों में बाधक बताया | उच्च न्यायालय के अनेक न्यायाधीशों ने तो वरिष्टता के उल्लंघन से नाराज होकर त्यागपत्र तक दे दिया | अब श्री कौल ने देश के उपराष्ट्रपति और म.प्र उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की उपस्थिति में कालेजियम व्यवस्था पर पुनर्विचार को न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए जरूरी बताकर ठहरे हुए पानी को हिलाने का प्रयास किया है | चूंकि उपराष्ट्रपति अधिवक्ता होने के नाते लम्बे समय तक न्यायपालिका से जुड़े रहे हों इसलिए वे  इस मुद्दे को आगे बढ़ाएंगे ये भी श्री कौल की मंशा रही होगी | इस बारे में विचारणीय  है कि सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पद बड़ी संख्या में रिक्त हैं | जिसके कारण अदालतों में लंबित मामले बढ़ते जा रहे हैं | कालेजियम से नियुक्तियां होने के कारण सरकार और न्यायपालिका के बीच समन्वय का अभाव रहता है जिसके कारण भी नियुक्तियों में देरी होती है |  पक्षपात और राजनीतिक प्रतिबद्धता भी नियुक्तियों में पारदर्शिता को प्रभावित करती है | ये सब देखते हुए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग नामक व्यवस्था को पुनर्जीवित किया जाना न्यायपालिका की प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रखने के लिए जरूरी है | श्री कौल की  संदर्भित टिप्पणी हालाँकि उनके भाषण का एक अंश मात्र है लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने ही न्यायपालिका की विश्वसनीयता जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कालेजियम व्यवस्था पर उंगली उठाई है तब भी अगर न्यायपालिका के ऊंचे पदों पर विराजमान महानुभाव इस बारे में समयानुकूल निर्णय नहीं लेते तो विश्वसनीयता का ये संकट और भी गहराता जायेगा |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 17 September 2022

जगन और नवीन से सीखें उत्तरी राज्यों के मुख्यमंत्री



उद्योग धंधे आर्थिक विकास की आधारभूत आवश्यकता हैं लेकिन वह तभी सम्भव है जब उसके लिए  धन हो | इसीलिये आजकल सभी सरकारें निवेशकों की मिजाजपुर्सी में लगी रहती हैं | बड़े  – बड़े सम्मलेन बुलाकर उद्योगपतियों को सहयोग , संरक्षण और रियायतों के आश्वासन दिए जाते हैं | चीन में हुए आर्थिक विकास की देखासीखी सर्वसुविधा सम्पन्न औद्योगिक क्षेत्र भी विकसित किये जा रहे हैं | धीरे – धीरे ये समझ में आने लगा है कि केवल बातों के जमा खर्च से जनता को अपने पक्ष में बनाये रखना संभव नहीं है | सूचना क्रांति और सोशल मीडिया के विकास के कारण सत्ता में बैठे लोगों के कार्यों की समीक्षा हर समय होती रहती है | इसलिए दुनिया भर की आर्थिक गतिविधियाँ बिना देर किये सबकी जानकारी में आ जाती हैं | इसका ताजा उदाहरण है 2022 में जनवरी से जुलाई तक देश में आये औद्योगिक निवेश के आंकड़ों की राज्यवार जानकारी का सार्वजनिक हो जाना | इसके अनुसार 1.71 लाख करोड़ के निवेश में आंध्र ने 40 हजार करोड़ और उड़ीसा ने 36 हजार करोड़  हासिल कर सबको चौंका दिया | सबसे ज्यादा आबादी वाले उ.प्र और बिहार इस दौड़ में काफी पीछे हैं | औद्योगिक दृष्टि से अग्रणी राज्य महाराष्ट्र और गुजरात भी आन्ध्र और उड़ीसा से पिछड़ गए | निश्चित रूप से इन राज्यों के मुख्यमंत्री क्रमशः जगनमोहन रेड्डी और नवीन पटनायक बधाई के हकदार हैं क्योंकि निवेशकों को आकर्षित करने में राज्य सरकार की नीति और नौकरशाही दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है | इस बारे में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस.एम. कृष्णा और अविभाजित आन्ध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का उल्लेख प्रासंगिक होगा जिन्होंने अपने शासनकाल में भविष्य को देखने की बुद्धिमत्ता दिखाई और क्रमशः बेंगुलुरु और हैदराबाद को सूचना तकनीक पर आधारित उद्योगों का केंद्र बना दिया | आज ये  दोनों शहर पूरी दुनिया में जाने – पहिचाने जाते हैं और बीते तीन दशक के भीतर इनकी वजह से पूरे देश की अर्थव्यवस्था को ताकत मिली | इनके पहले भी अनेक मुख्यमंत्री हुए जिन्होंने राजनीतिक उठापटक के बावजूद अपने राज्य की आर्थिक प्रगति को सबसे ऊपर रखा जिसके अनुकूल परिणाम भी आये | एक समय था जब पंजाब ने कृषि के साथ ही उद्योगों के क्षेत्र में भी सराहनीय प्रगति की थी | हरियाणा जब अलग राज्य बना तो उसने भी दिल्ली से निकटता का लाभ उठाया | स्व. बंशीलाल ने बतौर मुख्यमंत्री  इस राज्य के आर्थिक विकास को जो ऊँचाइयाँ प्रदान कीं वे सबके सामने हैं | गुजरात के  मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने भी ये साबित किया कि केवल वोट बैंक की राजनीति ही  लोकप्रियता का आधार नहीं होती | विकास के मायने भी बदलते जा रहे हैं | सड़क , बिजली , पानी कहने को तो सामान्य बातें हैं लेकिन  ये विकास की मूलभूत जरूरतें हैं | ये भी देखने वाली बात है कि कहाँ और कौन सा उद्योग लगाया जाना चाहिए |  मसलन पर्यटन भी वह क्षेत्र है जिससे बड़ी मात्रा में रोजगार बढ़ता है तथा सरकार को भी अच्छी खासी आय होती है | राजस्थान इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जिसका बड़ा हिस्सा रेगिस्तानी होने से पानी और हरियाली का अभाव था | लेकिन समुचित सुविधाओं के विकास ने पूरे राज्य को सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बना दिया | अधिकृत आंकड़ों के  अनुसार भारत में आने वाले ज्यादातर विदेशी पर्यटक राजस्थान जाये बिना नहीं रहते | ये देखते हुए वहां बड़े – बड़े होटलों ने अपना कारोबार जमाया | पूर्व राजा -  महाराजाओं ने भी अपने महलों और हवेलियों आदि को होटल का रूप देकर आय के साधन तलाश लिए | दो – तीन साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घरेलू पर्यटन विकसित करने हेतु भारत दर्शन कार्यक्रम के तहत लोगों से ये अपील की कि वे विदेशों का आकर्षण त्यागकर पहले अपना देश तो देखें |  आशय ये है कि  चिमनी से निकलता धुँआ ही अब उद्योगों का प्रतीक नहीं रहा |  सवाल ये है कि उ.प्र और बिहार जैसे राज्य जहाँ के करोड़ों लोग रोजगार की तलाश में बाहर जाते हैं तब वे जन - संसाधन रूपी  पूंजी को अपनी ताकत क्यों नहीं बनाते ? प्रधानमंत्री bhee अपनी विदेश यात्राओं में भारत के विशाल  मानव संसाधन का बखान करना नहीं  भूलते | एक समय था जब उक्त दोनों राज्यों में  वहाँ के परम्परागत उद्योगों में  आसानी से रोजगार  उपलब्ध था | लेकिन राजनेताओं की रुचि आर्थिक  विकास से ज्यादा वोट बैंक का जुगाड़ करने में होने से सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य अपने राजनीतिक महत्व का  विकास के लिए उपयोग करने में विफल रहे | इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण फूलपुर , रायबरेली , और अमेठी हैं जहाँ  से क्रमशः पं. जवाहरलाल नेहरु , इंदिरा गांधी और राजीव गांधी लोकसभा सांसद रहे | उनके अलावा विजय लक्ष्मी पंडित , शीला कौल , सोनिया गांधी , कैप्टन सतीश शर्मा और  राहुल गांधी ने उन सीटों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया | उनके प्रयासों से कुछ प्रतीकात्मक उद्योग भी आये लेकिन  इतने नामचीन सांसदों के रहते जैसा विकास अपेक्षित था , उसका अभाव है | इसके विपरीत नरेंद्र मोदी ने महज आठ साल में न सिर्फ वाराणसी अपितु पिछड़ेपन के प्रतीक पूर्वांचल में विकास की बयार बहा दी | देखने वाली बात ये है कि आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के मुख्यमंत्री राष्ट्रीय राजनीति से दूर ही रहते हैं | श्री पटनायक तो बेहद अन्तर्मुखी होते हुए भी लगातार पांचवी मर्तबा मुख्यमंत्री बने और निकट भविष्य में भी उनके हारने की सम्भावना न के बराबर है | इसी तरह आंध्र के  युवा मुख्यमंत्री जगनमोहन भी अपने सूबे के प्रति अपने दयित्व का निर्वहन कर रहे हैं | वैसे भी अपने राज्य के प्रति स्वार्थी होना दक्षिण भारत की राजनीति की खूबी है जिसका उत्तर भारतीय राज्यों में अभाव है । दरअसल यहाँ के मुख्यमंत्री बने  नेताओं को  राष्ट्रीय नेता बन जाने की इतनी जल्दबाजी रहती है कि वे राज्य के विकास की जिम्मेदारी को नजरंदाज करते रहे हैं |  हालाँकि अनेक राजनेताओं का ये मानना है कि विकास के भरोसे चुनाव नहीं जीते जा सकते | उसकी तुलना में जातीय समीकरण कहीं ज्यादा कारगर साबित हुए हैं |  मोदी – शाह की जोड़ी ने भाजपा को भी सोशल इंजीनियरिंग पर ध्यान  देने के लिये तैयार किया जो उसकी सफलता का आधार है | लेकिन सत्ता की राजनीति करने वालों को ये समझना चाहिए कि वे मुफ्त उपहारों की खैरात बांटने का मौजूदा  फार्मूला स्थायी सफलता नहीं दिलवा सकेगा क्योंकि बिना आर्थिक विकास के रोजगार सृजन संभव नहीं |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 16 September 2022

समूचे विपक्ष को भाजपा का एजेंट बताकर जयराम ने चला दाँव



कांग्रेस के थिंक टैंक में शामिल जयराम रमेश गंभीर किस्म के नेता हैं और राजनीतिक मामलों में काफ़ी सोच – समझकर बोलते हैं | गत दिवस उन्होंने  बिना लाग - लपेट के कह दिया कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का उद्देश्य विपक्षी एकता न होकर पार्टी को मजबूत करना है | उल्लेखनीय है वे इस यात्रा का प्रबंधन देख रहे हैं | बात को स्पष्ट करते हुए श्री रमेश ने कहा कि सभी पार्टियों ने अतीत में कभी न कभी कांग्रेस को कमजोर करने का काम किया है | सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि श्री रमेश ने सीपीएम पर निशाना साधते हुए उसे भाजपा की ए टीम बताया | स्मरणीय है कि जब ममता बैनर्जी ने प. बंगाल में कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस बनाई थी तब उनका आरोप था कि काँग्रेस सीपीएम की बी टीम है | वह बात विगत विधानसभा चुनाव में सही साबित हुई जब प. बंगाल में कांग्रेस और वाममोर्चा ने मिलकर ममता के विरुद्ध मोर्चा बनाया | लेकिन दूसरी तरफ केरल में कांग्रेस और वाम  मोर्चा एक दूसरे के  ऐलानिया दुश्मन हैं | श्री रमेश द्वारा की गई यह टिप्पणी  किसी कांग्रेस नेता द्वारा वामपंथी दल पर किया गया सबसे तीखा हमला कहा जा सकता है | वे यहाँ तक बोल गए कि सीपीएम राष्ट्रीय स्तर पर तो कांग्रेस का समर्थन करना चाहती है किन्तु केरल में उसने भाजपा से समझौता कर रखा है | वे ये कहने से भी नहीं चूके कि वामपंथी दलों सहित अन्य विपक्षी दलों ने भी कांग्रेस को रोकने किसी न किसी रूप में भाजपा से हाथ मिला रखा है | उन्होंने सीपीम के बारे में इस तरह की टिप्पणी उस वक्त की जब श्री गांधी की यात्रा सीपीएम की सत्ता वाले राज्य केरल में ही है जहां की वायनाड  सीट से ही वे सांसद भी हैं | यदि ये टिप्पणी यात्रा के दूसरे प्रभारी दिग्विजय सिंह द्वारा की जाती तब शायद उसे गंभीरता से न लिया गया होता लेकिन श्री रमेश की छवि को देखते हुए ये माना जा सकता है कि उन्होंने विपक्षी दलों ख़ास तौर पर सीपीएम के बारे में जो कहा वह श्री गांधी की भावी राजनीति का हिस्सा है | ऐसे समय जब पूरे देश में विपक्षी एकता की कोशिशें चल रही हैं तब यात्रा के मुख्य प्रबंधक द्वारा विपक्षी दलों पर ये आरोप लगाना कि सभी ने किसी न किसी रूप में भाजपा से हाथ मिला रखा है , उन्हें ये एहसास करवाने का दांव हो सकता है  कि भाजपा का विरोध बिना कांग्रेस को केंद्र में रखे असम्भव है | वैसे श्री रमेश का ये कटाक्ष वास्तविकता के धरातल पर इसलिए सही प्रतीत होता है कि कांग्रेस ही  एकमात्र पार्टी है जिसने कभी भी भाजपा के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गठजोड़ नहीं किया जबकि वामपंथी दलों के अलावा समाजवादी विचारधारा से निकले सभी दलों ने उसकी संगत की  है | आज विपक्ष की एकता का झंडा उठाये फिर रहे नेताओं में ममता , नीतीश , केसीआर भी अतीत में भाजपा से हाथ मिला चुके हैं | तमिलनाडु की दोनों प्रमुख पार्टियाँ भी केंद्र की राजनीति में भाजपा की सहयोगी रह चुकी हैं | यहाँ तक कि जम्मू कश्मीर में भाजपा की दुश्मन नंबर एक नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी तक ने उसके साथ केंद्र और राज्य में सत्ता सुख लूटा | विपक्ष के वे दल जो अब तक भाजपा की संगत से अछूते रहे उनका राष्ट्रीय राजनीति में खास महत्व नहीं है | आम आदमी पार्टी का जहाँ तक सवाल है वह वैसे तो भाजपा से टकराने का दम भरती है लेकिन उसका भी असली निशाना  कांग्रेस ही है जिसे कमजोर किये बिना अरविन्द केजरीवाल की राष्ट्रीय विकल्प बनने की महत्वाकांक्षा अधूरी रहेगी | बीते कुछ सालों में मुस्लिमों के नेता के तौर पर उभर रहे असदुद्दीन ओवैसी पर तो सभी  विरोधी सभी दल आरोप लगाते हैं कि वे भाजपा के एजेंट हैं और मुस्लिम मतों में बंटवारा  करवाकर उसे जितवाने में सहायक बनते हैं | हरियाणा में 25 सितम्बर को स्व. देवीलाल की जयन्ती पर उनके बड़े बेटे पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला द्वारा विपक्षी नेताओं का जो जमावड़ा किया जा रहा है उसमें भी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को नहीं बुलाया गया जबकि विपक्ष के अधिकांश बड़े चेहरे उसमें शामिल होने की स्वीकृति दे चुके हैं | गौरतलब है श्री चौटाला के पोते दुष्यंत हरियाणा की वर्तमान सरकार में भाजपा के साथ उपमुख्यमंत्री बने हुए हैं | इस प्रकार  श्री रमेश की टिप्पणी के गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं जिसके जरिये उन्होंने वामपंथियों सहित समूचे विपक्ष पर ये तोहमत लगा दी कि उन सभी ने भाजपा के साथ हाथ मिला रखा हैं | देखने वाली बात ये होगी कि विपक्ष उनकी इस बात पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करता है क्योंकि केरल से निकलने के बाद श्री गांधी की यात्रा ज्योंही कर्नाटक , आंध्र और तेलंगाना में प्रविष्ट होगी त्योंही उनका सामना उन क्षेत्रीय दलों से भी होने लगेगा जो भाजपा के विरोधी तो हैं लेकिन कांग्रेस को भी अपने प्रभावक्षेत्र में पाँव जमाने की जगह  देने तैयार नहीं हैं | हो सकता है  इसीलिये श्री रमेश ने टिप्पणी के जरिये इन दलों को कठघरे में खड़ा करने का पैंतरा चला हो | हालाँकि श्री गांधी ने यात्रा में अभी तक केवल भाजपा और रास्वसंघ पर ही निशाने साधे हैं लेकिन अब तक वे ये एहसास उत्पन्न नहीं कर सके कि 2024 के महा मुकाबले में वे ही नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष का चेहरा बनेंगे | ऐसे समय में जब विपक्षी खेमे के अनेक छत्रपों द्वारा भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की भरसक कोशिश चल रही है तब श्री रमेश के मुंह से समूचे विपक्ष पर भाजपा से हाथ मिलाये रखकर कांग्रेस को रोकने जैसा आरोप साधारण बात नहीं है | इस टिप्पणी को  उनकी निजी राय बताकर पल्ला झाड़ लेना भी कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा श्री क्योंकि वे आजकल 24 घंटे श्री गांधी के साथ ही बने हुए हैं | देखना ये है कि ममता , नीतीश और केसीआर जैसे विपक्षी एकता के पैरोकार श्री रमेश के आरोप पर क्या सफाई देते हैं जिसकी वजह से पूरे विपक्ष की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ गई  है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 15 September 2022

राहुल की यात्रा के दौरान बिखराव होना कांग्रेस के लिए चिंता का विषय



कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर उनके विरोधी ये कटाक्ष करते रहे हैं कि भारत जोड़ो यात्रा से पहले उनको कांग्रेस जोड़ो अभियान चलाना चाहिए था | इसके पीछे कांग्रेस में चल रही अंतर्कलह बताई जा रही है | ये भी सुनने में आ रहा है कि जी 23  नामक असंतुष्ट नेताओं के समूह द्वारा विरोध का जो झंडा उठाया गया उससे निपटने में नाकाम गाँधी परिवार ने राहुल की पांच महीने चलने वाली भारत जोड़ो यात्रा का कार्यक्रम बनाया | जो जानकारी आई उसके अनुसार कांग्रेस के वरिष्ट नेता दिग्विजय सिंह और जयराम रमेश बीते अनेक माह से इस यात्रा को पेशेवर तरीके से संपन्न करवाने के काम में जुटे हुए थे | जबकि इसी दौरान पहले कपिल  सिब्बल और उनके बाद  गुलाम नबी आजाद जैसे दो ऐसे नेता कांग्रेस छोड़ गए जो गांधी परिवार के बेहद विश्वासपात्र माने जाते थे | इनके अलावा कुछ और नेताओं का गांधी परिवार के एकाधिकार के विरुद्ध जुबानी  हमला सार्वजनिक रूप से जारी रहा | इस संकट को हल करने में पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी के अलावा राहुल और प्रियंका वाड्रा ने कुछ ठोस कदम उठाये हों ऐसा नजर नहीं आता | राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच चल रही खींचातानी अब मंत्रियों पर जूते – चप्पल फेंके जाने तक बढ़ चुकी है | छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टी. एस . सिंहदेव के बीच रस्साखींच थमने का नाम नहीं ले रही | हिमाचल में आनंद शर्मा कोप भवन में बैठे हैं | गुजरात में भगदड़ लगातार जारी है  | अन्य राज्यों से भी ऐसी ही खबरें लगातार आ ही रही थीं कि गत दिवस गोवा में कांग्रेस के 11 में से 8 विधायक भाजपा में शामिल हो गए | स्मरणीय है विधानसभा चुनाव की टिकिट देते समय कांग्रेस ने इन विधायकों को वफादारी की शपथ दिलवाई थी | इस समय पार्टी  का पूरा ध्यान श्री गांधी की  यात्रा पर केन्द्रित है | उसके तमाम नेता और कार्यकर्ता इस ऊम्मीद को पाल बैठे हैं कि इसके पूरा होने तक कांग्रेस और राहुल दोनों 2024 के लोकसभा  चुनाव में नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने लायक शक्ति अर्जित कर लेंगे और जो जनता कांग्रेस से दूर हो चली थी वह दोबारा उसके साथ जुड़ जायेगी | राजनीतिक नेता का जनता से सीधा संवाद हर दृष्टि से लाभदायक होता है | हालांकि इसके तौर – तरीके  समय , काल और परिस्थिति पर निर्भर करते हैं किन्तु प्रत्यक्ष रूप से लोगों के बीच जाना सूचना क्रांति के इस युग में भी सर्वोत्तम है | लेकिन इसी के साथ ये भी देखना चाहिए कि आगे पाट पीछे सपाट वाली स्थिति न बने | गोवा में जो कुछ हुआ उसके लिए कांग्रेस समर्थक भाजपा द्वारा की जाने वाली सौदेबाजी पर उंगली उठा रहे हैं | लेकिन जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार वहां पार्टी के भीतर खींचातानी काफी समय से चली आ रही थी जिसे दूर करने में हाईकमान द्वारा जो कि वास्तविक रूप में गांधी परिवार ही है , कुछ ख़ास नहीं किया गया | ये इसलिए सही लगता है कि आगामी वर्ष  विधानसभा चुनाव का सामना करने वाले राज्यों में राजस्थान भी है जहाँ पार्टी के दो बड़े नेताओं के बीच वर्चस्व की जंग बिना रुके जारी है और जिसे जब मौका मिलता है दूसरे पक्ष पर धारदार हमला कर देता है | राजस्थान की ताजा घटना वाकई पार्टी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए | अपनी ही सरकार के मंत्री पर जूते फेंकने वालों ने सचिन पायलट के समर्थन में नारे लगाकर अपने इरादे जाहिर कर दिए | बाद में मंत्री महोदय ने भी बिना नाम लिये चुनौती भरे शब्दों में श्री पायलट को ललकारा | इस बारे में रोचक बात ये है कि श्री पायलट और श्री गहलोत दोनों गांधी परिवार के करीबी हैं। लेकिन उनके बीच का झगड़ा दूर करने में किसी की भी रूचि नहीं है | बावजूद इसके कि चुनावी वर्ष में इस तरह के विवाद किसी भी दल के लिए नुकसानदेह होते हैं | ये सब देखते हुए लगता है जैसे कांग्रेस श्री गांधी की यात्रा से ऐसा कोई ब्रह्मास्त्र प्राप्त होने की उम्मीद लगाये बैठी है जिसके प्रयोग से वह अपने राजनीतिक शत्रुओं को चारों खाने चित्त कर देगी | लेकिन वह भूल जाती है कि शत्रु पर विजय तभी प्राप्त होती है जब घरेलू मोर्चे पर भी मजबूती रहे | उस लिहाज से कांग्रेस को अपनी अंदरूनी हालत पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए था ,बजाय श्री गांधी को केंद्र बिंदु में रखने के | भारत जोड़ो यात्रा पार्टी का एक कार्यक्रम है जिसकी उपयोगिता और संभावित लाभों से इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु उसके फेर में बाकी सब उपेक्षित कर दिया गया तो यात्रा के अंत तक बहुत कुछ हाथ से निकल चुका होगा | केवल भाजपा पर खरीद फरोख्त करने का आरोप लगाने से कांग्रेस अपनी दशा नहीं सुधार सकेगी क्योंकि उसका भाजपा से सीधा मुकाबला तो म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ही रह गया है । हिमाचल और गुजरात में आप आदमी पार्टी ने मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है | बाकी के ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियाँ भाजपा के लिए कांग्रेस से बड़ी चुनौती हैं | ऐसे में अगर कांग्रेस से नेताओं  का निकलना  इसी तरह जारी रहा तब उसको विपक्षी दल भी कितना वजन देंगे ये प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण है | ये देखते हुए कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह राहुल की यात्रा रूपी मोर्चे पर पूरा ध्यान केन्द्रित करने की बजाय अपने संगठन को बिखरने से बचाने पर भी ध्यान दे | उसे इस बात का फैसला भी करना होगा कि श्री गांधी की भारत जोड़ो यात्रा उनको मजबूत करने के लिए हो रही है या फिर कांग्रेस को ? 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 14 September 2022

हिन्दी भाषियों को हीन भावना से बचना चाहिये



1949 में आज ही  के दिन संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया था। 1953 में उसकी महत्ता स्वीकारते हुए 14 सितम्बर को राजभाषा दिवस घोषित कर दिया गया। इस प्रकार  यह एक तरह से हिन्दी का शासकीय जन्मदिवस है। समय के साथ इसका विस्तार राजभाषा सप्ताह , पखबाड़ा और माह के रूप में भी हो गया। कहने को तो हिन्दी के  लिये ये गौरव की बात है कि अनेकानेक प्रादेशिक भाषाओं के होते हुए भी  सरकारी प्रेरणा से  देश भर में उसका प्रशस्तिगान होता है। अनगिनत आयोजनों में हिन्दी की सहजता और सरलता के बखान के साथ ही उसकी  स्वीकार्यता का संकल्प दोहराया जाता है। प्रतियोगिताएँ , पुरस्कार  , सम्मान  , गोष्ठियां , कवि सम्मलेन, पोस्टर - बैनर , जैसे अनेक ऐसे कर्मकांड किये जाते हैं जिनसे हम सब बखूबी परिचित हैं। लंबे समय से केंद्र  सरकार के सभी विभागों  तथा उपक्रमों में राजभाषा अधिकारी पदस्थ  हैं जिनका कार्य हिन्दी में कामकाज में वृद्धि के लिये गैर हिन्दी भाषियों को हिन्दी में प्रशिक्षित करना है। राजभाषा अधिकारियों को रखे जाने से शासकीय कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग काफी बढ़ा भी। यद्यपि भाषावार प्रान्तों के गठन की भूल का खामियाजा देश आज तक भुगत रहा है । राजनीति ने जाति और धर्म की तरह से ही भाषा को भी वोट बैंक का जरिया  बना दिया। तमिलनाडु में जहाँ हिन्दी का सर्वाधिक विरोध होता  है  वहां  के लोग अंग्रेजी  पटर-पटर करने वालों का विरोध नहीं करते। कुछ समय पहले हिन्दी लादने के विरोध में पूर्व केंद्रीय मंत्री डी. राजा ने तो अलग तमिल देश की धमकी तक दे डाली। महाराष्ट्र में शिवसेना और मनसे भी मराठी भाषा के नाम पर लोगों को  भड़काने से बाज नहीं आतीं। इससे प्रोत्साहित होकर अन्य राज्यों में भी  क्षेत्रीय भाषा को राजनीतिक मुद्दा बनाने का कुचक्र रचा जाने लगा है। इस सम्बन्ध में संतोष का विषय है कि उत्तर भारतीय राज्यों में न्यायालयों के अतिरिक्त ही  राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर की  प्रतियोगी परीक्षाओं में भी हिन्दी को मान्यता  मिल गयी है। इन सबसे  हिन्दी के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है। लेकिन दूसरा पक्ष  चिंता भी पैदा कर रहा है। और वह है हिन्दी भाषियों के ही  एक बड़े वर्ग द्वारा उसकी उपेक्षा जो काफी हद तक  हीनभावना से प्रेरित है। उल्लेखनीय है पहले संपन्न वर्ग में ही अंग्रेजी का आकर्षण था क्योंकि वह अभिजात्यता की प्रतीक मानी जाती है। लेकिन बीते कुछ दशकों में मध्यम वर्ग में भी जिस तरह अंग्रेजी के प्रति अनुराग बढ़ा उसके कारण हिन्दी का अधिक नुकसान हो रहा है। शिक्षा के अँग्रेजी माध्यम को सफलता की  सीढ़ी मान लेने की सोच  के परिणामस्वरुप विद्यालयीन  शिक्षा का स्वरूप ही पूरी तरह से  बदल गया जिससे जहाँ देखो वहाँ कान्वेंट स्कूल के बोर्ड टंग गये। यद्यपि इनमें अध्ययनरत कमजोर आर्थिक स्थिति वाले बच्चे काम चलाऊ अंग्रेजी  ही सीख जाएँ तो भी उसका लाभ है परंतु अंग्रेजी माध्यम के मोहपाश में बंधने के बाद हिन्दी भाषी प्रान्तों के बच्चे अंग्रेजी तो सीख नहीं पाते किंतु हिन्दी में भी कमजोर हो जाते हैं। इस स्थिति के लिये  शिक्षा प्रणाली के साथ माता - पिता भी कम दोषी दोषी  नहीं हैं जिन्होंने अंग्रेजी की मृगमरीचिका में अपनी संतानों को उनकी  मातृभाषा से ही अनजान बना दिया। ये कहना न तो गलत है और न ही अहंकार कि हिन्दी का खात्मा किसी के लिये सम्भव  नहीं  है क्योंकि यही ऐसी भाषा है जो पूरे देश में समझी जाती  है।  जिन दक्षिणी राज्यों में उसका विरोध सतह पर दिखाई देता है वहां के लोग उत्तर  भारत में आकर नौकरी करने में तनिक भी  संकोच नहीं करते। इसी तरह उप्र और बिहार जैसे विशुद्ध हिन्दी भाषी प्रदेशों के मजदूर बिना स्थानीय भाषा सीखे ही दक्षिण  ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर के राज्यों में भी कार्य करते हैं। कोरोना के दौरान लॉक डाउन की वजह से  काम बंद हो जाने पर  जब महानगरों से मजदूरों का पलायन हुआ तब ये वास्तविकता सामने आई कि हिन्दी विरोधी  राज्यों में भी हिन्दी बोलने वाले श्रमिकों का कोई विरोध नहीं है। ये  देखते हुए हिन्दी भाषी लोगों को अपनी भाषा के प्रति हीन भावन से मुक्त होना चाहिए । अंग्रेजी को बतौर भाषा सीखना अच्छा है लेकिन उसी में डूब जाने  की प्रवृत्ति हमारे सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए खतरा है। क्योंकि भाषा के साथ आने वाले साहित्य और संस्कृति का प्रभाव पीढिय़ों तक बना रहता है जिससे कालांतर में उसे अपनाने वाला  समाज अपनी पहिचान खो बैठता है। अनेक देशों  में विदेशी भाषा के आधिपत्य ने उनकी जड़ों को  नष्ट कर दिया। हिन्दी  दिवस के नाम पर होने वाले सभी आयोजन  उसके प्रचार - प्रसार की दृष्टि से तो अच्छे हैं किंतु हिन्दी भाषी लोग जब तक मातृभाषा के प्रति आकर्षित नहीं होते तब तक उसको सरकारी संरक्षण  कितना भी मिलता रहे लेकिन  राष्ट्रभाषा होने के बाद भी वह उपेक्षित ही रहेगी। ऐसे में हिन्दी भाषी ही यदि उसे ईमानदारी से अपना लें तो उसका विरोध धीरे - धीरे खत्म होता जाएगा। इसीलिए आज के दिन का सबसे सरल सन्देश यही है कि हिन्दी की बातें कम करें लेकिन  हिन्दी में बातें ज्यादा करें ।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 13 September 2022

पुतिन ने रूस को आगे कुआ पीछे खाई वाली स्थिति में फंसा दिया



जब यूक्रेन पर रूस ने हमला किया तब लग रहा था कि वह इकतरफा मुकाबला है  | इसलिए जब उसके राष्ट्रपति जेलेंस्की ने मुकाबला करने की जिद पकड़ी तो उसे मूर्खता कहा गया | प्रारंभ में रूसी फौजों ने तेजी से यूक्रेन के इलाकों पर कब्जा करना शुरू कर दिया वहीं  वायुसेना ने भी भीतरी हिस्सों में तबाही मचाकर अव्यवस्था का माहौल बना दिया | लाखों लोग बेघरबार हो गए | बड़ी संख्या में शरणार्थी भागकर पड़ोसी देशों में जाने लगे | पहले – पहल  लग रहा था कि अमेरिका और उसके साथी देश यूक्रेन में सेनायें भेजकर रूस को सबक सिखायेंगे | लेकिन ऐसा नहीं होने से यूक्रेन के पराजित होने की आशंका बढ़ने लगी | यद्यपि उसे सैन्य साजो – सामान की  आपूर्ति के अलावा भरपूर आर्थिक मदद दी जाती रही जिसके दम पर उसने रूस के मुकाबले का हौसला दिखाया | सबसे बड़ी बात ये  रही कि यूक्रेन की जनता ने जबरदस्त देशभक्ति का परिचय दिया | रूसी हमले लगातार जारी हैंलेकिन यूक्रेन का मनोबल कायम है जिसके दम पर उसने रूसी सेनाओं को अपनी राजधानी कीव तक पहुंचने से रोक रखा है | यद्यपि ये मान लेना जल्दबाजी होगी कि रूस पूरी तरह विफल हो गया किन्तु ये कहना भी गलत न होगा कि अपार सैन्य शक्ति के बावजूद राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अपने इरादे में सफल नहीं हो सके हैं | प्रारंभ में तो आर्थिक प्रतिबंधों के रूप में उनको विश्व बिरादरी का विरोध सहना पड़ा परन्तु  अब रूस के भीतर भी उनके प्रति नाराजगी बढ़ने लगी है | हालाँकि उन्हें हटाये जाने की संभावना तो नजर नहीं आ रही क्योंकि रूस की कुख्यात ख़ुफ़िया एजेंसी केजीबी के मुखिया रहे पुतिन इस तरह के षडयंत्रों से अच्छी तरह वाकिफ हैं | लेकिन जनता के स्तर पर रूस में विरोध के संकेत मिलने लगे हैं | इसका कारण जनजीवन का प्रभावित होना है | आर्थिक प्रतिबंधों के कारण निर्यात ठंडा  होने से एक तरफ जहां रूस की  आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है वहीं दूसरी तरफ आयात रुकने से जरूरी चीजों की किल्लत है | जब तक साम्यवादी शासन रहा तब तक जनता  सरकार के इशारों पर नाचने मजबूर थी | लेकिन बीते तीन दशक में इस देश ने दुनिया के माहौल को देखा और जाना | पर्यटकों के साथ ही बड़ी संख्या में व्यवसायी रूस आने जाने लगे जिसकी वजह से  समाज की सोच में भी  खुलापन आया वरना साम्यवादी व्यवस्था के एकाएक धराशायी होने के बाद आम रूसी नागरिकों को आटे -  दाल का भाव तक नहीं मालूम था | पूंजीवाद की चमक के साथ ही उपभोक्तावादी संस्कृति भी पनपी जिसने रूस को  दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिये प्रेरित किया | हालाँकि साम्यवादी दौर में पली – बढ़ी पीढ़ी आज भी बंद दरवाजे वाली  मानसिकता से प्रेरित है लेकिन नई पीढ़ी वैश्विक माहौल के साथ सामंजस्य बनाते हुए पश्चिमी सोच से प्रभावित है | यही कारण है कि  प्रखर राष्ट्रवाद के बावजूद आम रूसी यूक्रेन पर हमला करने के औचित्य को नहीं समझ सका | पुतिन ने हालांकि ये कदम रूस  के दीर्घकालिक आर्थिक और सामरिक हितों की खातिर उठाया लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि जिस तरह अमेरिका वियतनाम  पराजित होकर निकला था  उसी  त्रासदी से पुतिन को भी रूबरू होना पड़ेगा | ताजा खबरों के मुताबिक रूस इस जंग में थका – थका नजर आने लगा है | राष्ट्रपति पुतिन अब तक अपनी सेना को भी इस लड़ाई के उद्देश्य से सहमत नहीं करवा सके | यही वजह है कि जब यूक्रेनी जनता ने उसके  टैंको के सामने आकर प्रतिरोध किया तब बजाय उन्हंा उड़ा देने के टैंक या तो रुक गए या लौट गए | बीते कुछ दिनों से आ रही खबरों के अनुसार अनेक सीमावर्ती गाँवों को यूक्रेनी सेना ने रूसी कब्जे से खाली करवा लिया है | इस बात की भी पुष्टि हो गई है कि हवाई हमलों और मिसाइलों का सहारा लेने के बाद भी रूस के सैनिक बड़ी संख्या में मारे गये जिसकी वजह से पुतिन को वैसा ही विरोध झेलना पड़ रहा है जैसा अमेरिका में  वियतनाम युद्ध के दौरान और हालिया सालों में अफगानिस्तान में उसके सैनिकों के हताहत होने पर देखने मिला | कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि पुतिन ने भी वहीं गलती कर डाली जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मन तानाशाह हिटलर कर बैठा था | उल्लेखनीय है हिटलर ने युद्धोन्माद में रूस पर चढ़ाई कर तो दी और शुरू – शुरू में उसकी फौजें आगे बढ़ती भी गईं किन्तु जैसे – जैसे समय बीतता गया वे रूस के भीतर उलझकर रह गईं जिसका अंत जर्मनी की पराजय  के रूप में देखने मिला | छह महीनों में रूस ने यूक्रेन में ढांचागत नुकसान तो जबरदस्त कर दिया परन्तु उसके हाथ ऐसी कोई सफलता नहीं लगी जिससे वह जीत के प्रति आश्वस्त हो सके | आने वाले दिनों में इस जंग की दिशा क्या होगी ये कहना कठिन है | लेकिन परमाणु युद्ध की धमकी देने के बाद भी यदि पुतिन यूक्रेन को घुटनाटेक नहीं करवा सके तो ये मानने में कुछ भी गलत नहीं है कि उनका आकलन सतही तौर पर गलत साबित हो गया | उन्हें लगता था कि यूक्रेन की आंतरिक व्यवस्थाओं को तहस  नहस करने से जनता त्रस्त होकर जेलेंस्की के खिलाफ खड़ीं जायेगी | लेकिन केजीबी के पूर्व प्रमुख होने के नाते उन्हें सोवियत संघ को  अफगानिस्तान में मिले कटु  अनुभवों से सबक लेना चाहिए था जिसमें वे चूक गए | भले ही रूस में साम्यवाद दफन हो चुका है लेकिन ऐसा लगता है पुतिन दोबारा सोवियत संघ जैसी  व्यवस्था को जन्म देना चाहते हैं | यूक्रेन उसका सबसे प्रमुख घटक रहा जिसके पास प्राकृतिक और आर्थिक संसाधन प्रचुर मात्रा में होने के साथ ही भौगोलिक स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है | यही वजह है कि वह अभी तक पुतिन के अहंकारी रवैये के विरुद्ध तनकर खड़ा हुआ है | यदि रूस हताशा में कोई बड़ा कदम उठाये तभी वह यूक्रेन पर पूर्ण विजय की बात  सोच सकता है किन्तु आज की स्थिति में पुतिन भी उस तानाशाह की तरह हो गये हैं  जो सता के नशे में चूर होकर शेर की पीठ पर बैठ तो गया लेकिन अब उतरना उसके लिए खतरे से खाली नहीं है | युद्ध विशेषज्ञों का कहना है कि वे यूक्रेन को डरा धमकाकर रूस के आर्थिक और सामरिक हितों की रक्षा करना चाहते थे लेकिन अमेरिका और उसके साथी देशों ने ऐसा होने नहीं दिया | यद्यपि विश्व युद्ध की  आशंका को टालने के लिए वे खुलकर  लड़ने तो नहीं आये परन्तु जिस तरह वियतनाम युद्ध के  समय  रूस और चीन ने वहां के साम्यवादी गुरिल्लों को पीछे से सहायता देकर  लड़ते रहने का हौसला दिया ठीक उसी नीति पर चलते हुए अमेर्रिकी गुट के देश यूक्रेन को टेका लगाये हुए हैं | दूसरी  तरफ पुतिन के साथ दिक्कत ये हैं कि इस युद्ध में सैन्य मुकाबले के अलावा मनोवैज्ञानिक लड़ाई में उलझ गए हैं जिसमें आगे कुआ और पीछे खाई है | यहाँ उल्लेख करना जरूरी है कि पुतिन के करीबी आधा दर्जन बड़े उद्योगपति बीते छह माह में रहस्यमय तरीके से मौत के मुंह में समा चुके हैं |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 12 September 2022

ताकि हमारे युवाओं को उच्च शिक्षा हेतु विदेश न जाना पड़े



हमारे देश में विश्वस्तरीय कारें बन रही हैं | मोबाइल उत्पादन में भी हम सबसे आगे निकल आये हैं | सॉफ्टवेयर बनाने के काम में भी भारत दुनिया भर में अग्रणी है | हमारे अंतरिक्ष केंद्र अब दूसरे देशों के उपग्रह प्रक्षेपित करने में सक्षम है | ब्रह्मोस मिसाइल और तेजस लड़ाकू विमान के जरिये हम रक्षा उपकरणों के निर्यात में भी आगे बढ़ रहे हैं | अमेरिका , कैनेडा , ब्रिटेन , जर्मनी , आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में भारतीय चिकित्सक , अन्तरिक्ष वैज्ञानिक , साफ्टवेयर इंजीनियर और वितीय विशेषज्ञ बड़ी संख्या में कार्यरत हैं | गूगल और माइक्रोसाफ्ट जैसी विश्वस्तरीय कम्पनियों के उच्च प्रबन्धन में भी भारतीय लोगों की मौजूदगी देखे जा सकती है | कहने का आशय ये है कि वर्तमान विश्व में भारत से गये लोग अपनी योग्यता और परिश्रम के बलबूते सम्मान , प्रसिद्धि और धन अर्जित कर रहे हैं | अमेरिका के राष्ट्रपति की सलाहकार मंडली में अनेक भारतीय  महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठे हैं | ब्रिटेन में तो भारतीय  मूल के ऋषि सुनाक प्रधानमंत्री बनते – बनते रह गये | लेकिन इसके साथ ही ये बात भी  सामने  आई है कि लाखों भारतीय छात्र प्रतिवर्ष उच्च शिक्षा ग्रहण करने विदेश जाते हैं | बीते साल के आंकड़ों के अनुसार अमेरिका ,ब्रिटेन , ऑस्ट्रेलिया , कैनेडा और जर्मनी में ही लगभग 6 लाख भारतीय विद्यार्थी थे | इस साल की शुरुआत में जब रूस द्वारा किये गए हमले के बाद यूक्रेन में हालात बिगड़ने लगे तब वहां से हजारों भारतीय छात्रों की वापसी के लिए केंद्र सरकार को जबरदस्त मशक्कत करनी पड़ी थी | कोरोना काल के दौरान अमेरिका सहित अन्य देशों ने वीसा देना बंद कर दिया था परन्तु ताजा खबरों के अनुसार इस साल अमेरिका ने भारतीय छात्रों को दिए जाने वीसा की संख्या बढ़ाकर दोगुनी कर दी है | इसे भारत के प्रति अमेरिका के दोस्ताना रवैये के तौर पर देखा जा रहा है | लेकिन सवाल ये है कि विकास के बड़े – बड़े दावों के बावजूद हमारे देश में उच्च शिक्षा के इतने प्रबंध नहीं हो सके जिससे विदेश जाकर पढ़ने का चलन बढ़ता ही जा रहा है | इसके अलावा समाज के एक तबके में विदेश जाकर पढ़ना प्रतिष्ठा सूचक माना जाता है | यदि छात्र उन  तकनीकी और वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा प्राप्त करने विदेश जावे जिसकी सुविधा  भारत में न हो , तब तो समझा जा सकता है लेकिन महज दिखावे और रईसी के लिए विदेशों में शिक्षा हासिल करना अटपटा लगता है | इस बारे में चिंता का विषय ये भी है कि विदेशों में शिक्षा करने वाले ज्यादातर युवा वहीं काम करने लगते हैं जिससे उनकी प्रतिभा का लाभ देश को नहीं मिल पाता | प्रतिभा पलायन का ये सिलसिला उन मेधावी छात्रों और शोधकर्ताओं के साथ भी जुड़ा है जो भारत में शिक्षित होने के बाद बेहतर अवसर की तलाश में परदेस जाकर बस जाते हैं | ये सब देखने के बाद जरूरत इस बात की है कि हमारे देश में न सिर्फ ज्यादा से ज्यादा उच्च शिक्षण संस्थान खोले जाएँ अपितु जो पहले से मौजूद हैं उनका स्तर इस हद तक ऊंचा किया जावे जिससे न सिर्फ हमारे छात्रों का विदेश जाना रुक जाए बल्कि विदेशी छात्र यहाँ शिक्षा और शोध हेतु आने लगें | भारत में आईआईटी और आईआईएम की अनेक शाखाएँ वैश्विक मापदंडों पर खरी उतरती हैं | इनमें विकासशील देशों के छात्र और शोधार्थी आते भी हैं लेकिन सभी के साथ ये स्थिति नहीं है | और यही विचार का विषय होना  चाहिए | इस बारे में उल्लेखनीय है कि अमेरिका के सुप्रसिद्ध हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पास इतना संचित धन है कि उसे पूंजी बाजार में निवेश करने से करोड़ों डालर प्रतिवर्ष की आय होती है | जिसका स्रोत विदेशी छात्रों से मिलने वाले शुल्क के अलावा शोध और पेटेंट से होने वाली कमाई है | हमारे देश में आईआईटी और आईआईएम भी पेशेवर  सेवाओं से धनोपार्जन करते हैं लेकिन कुछ को छोड़कर जितने भी सरकारी विश्वविद्यालय हैं उनमें से अधिकतर धनाभाव से जूझने के कारण पूर्णकालिक प्राध्यापक तक नहीं रख पाते  | संविदा नियुक्ति पर आने वाले शिक्षक अपने भविष्य को लेकर ही चिंतित बने रहते हैं जिससे अध्यापन और शोध दोनों पर बुरा असर पड़ रहा है | ऐसे में समय की मांग है कि  उच्च शिक्षा के क्षेत्र में वैश्विक स्तर के अनुरूप संस्थान विकसित  किये जाएँ | जिस तरह विज्ञान और अनुसन्धान के क्षेत्र में देश अपनी खुद की व्यवस्था कर रहा है ठीक वैसी ही सोच उच्च शिक्षा के लिए भी होनी चाहिए | आजकल  देश में निजी क्षेत्र के अनेकानेक विश्वविद्यालय संचालित हो रहे हैं लेकिन उनमें से ज्यादातर  गुणवत्ता युक्त शिक्षा की बजाय व्यवसायीकरण में लिप्त हैं | आजादी के 75 साल का जश्न शिक्षा के स्वदेशीकरण के बिना अधूरा है | यूक्रेन संकट से सबक लेकर हमें अपने देश में उच्च शिक्षा के वे सारे प्रबंध युद्धस्तर पर करने चाहिए जिससे हमारी युवा पीढी़ को पढ़ने के लिए वतन से दूर न जाना पड़े | अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में नस्लीय हमलों की घटनाएँ  जिस तेजी से बढ़ती जा रही हैं उन्हें भविष्य का संकेत मानकर समुचित कदम उठाना जरूरी है |  इसके लिए सबसे पहले ये विश्वास पैदा करना होगा  कि भारत में वैश्विक स्तर की शिक्षा संभव है |  लेकिन इसके लिए नितिन गडकरी जैसे किसी सक्षम और दूरदृष्टि रखने वाले प्रशासक की जरूरत है |  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का जो नारा दिया है उस पर काफी काम होने के दावे किये जाते हैं लेकिन ये पता चलते ही कि लाखों छात्रों ने विदेशों का रुख किया तब ये सोचने को बाध्य होना पड़ता है कि बीते 75 सालों में शिक्षा के क्षेत्र में वैश्विक मापदंडों की बराबरी करने के प्रति हम कहीं न कहीं उदासीन रहे | लेकिन अब जबकि हम वैश्विक शक्ति के तौर पर तेजी से उभर रहे हैं तब भारत उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी आकर्षण का केंद्र बने ये आवश्यक प्रतीत होता है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 10 September 2022

सांसदों की संख्या ही नहीं गुणवत्ता में भी वृद्धि हो



दिल्ली में राष्ट्रपति भवन से इण्डिया गेट तक जाने वाले मार्ग का नाम राजपथ से बदलकर कर्तव्य पथ होने के साथ ही  समूचे इलाके का पूरा स्वरूप ही बदल दिया गया है | सेन्ट्रल विस्टा प्रकल्प के अंतर्गत न सिर्फ संसद अपितु सचिवालय सहित अनेक महत्वपूर्ण शासकीय कार्यालय एक जगह लाये जा रहे हैं | संसद का शीतकालीन सत्र भी नई संसद में होगा | तकरीबन 19 एकड़ में फ़ैली इस  परियोजना में उप राष्ट्रपति और  प्रधानमंत्री के आवास भी बनाये गये हैं | आम जनता के आमोद - प्रमोद को दृष्टिगत रखते हुए सभी राज्यों के व्यंजनों के स्टाल लगाये जायेंगे | अभी तक सचिवालय के तौर पर उपयोग हो रहे नॉर्थ और साउथ ब्लॉक संग्रहालय में बदल जायेंगे  |  कुल मिलाकर ये व्यवस्था केन्द्रीय सत्ता के विभिन्न अंगों में बेहतर समन्वय और प्रशासनिक कसावट लाने के उद्देश्य से बनाई गई है | मौजूदा संसद भवन में स्थानाभाव महसूस किया जाने लगा था | उसके समीप बनाई गई एनेक्सी भी बढ़ती संसदीय जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रही थी | सबसे बड़ी समस्या विभिन्न मंत्रालयों के अलग – अलग भवनों में होने से थी जिसकी वजह से सुरक्षा प्रबन्ध पर भी खर्च ज्यादा होता रहा | लेकिन सेंट्रल विस्टा के निर्माण के पीछे सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य है सांसदों की संख्या में वृद्धि होने पर उनके बैठने के लिए पर्याप्त स्थान की व्यवस्था | हालाँकि इस बारे में अभी तक कोई नीतिगत संकेत तो सामने नहीं आये लेकिन प्रधानमंत्री नर्रेंद्र मोदी की कार्यशैली चौंकाने वाले बड़े निर्णय करने की रही  है | और जैसी कि चर्चा है उसके मुताबिक 2024 का लोकसभा चुनाव वर्तमान 545 की बजाय ज्यादा सीटों के लिए करवाया जा सकता है और उसके लिए बाकायदा संसद में प्रस्ताव लाकर नए सिरे से परिसीमन कराया जाएगा | निश्चित रूप से ये मोदी सरकार का तुरुप का पत्ता होगा जिसका विरोध विपक्ष भी नहीं कर  सकेगा क्योंकि लोकसभा  की सीटें बढ़ने से उसके अवसर भी बढ़ जायेंगे |  प्रश्न ये है कि इसकी जरूरत क्या है तो इस बारे में हुए अनेक अध्ययनों में ये बात निकलकर आ चुकी है कि देश की जनसंख्या के मद्देनजर लोकसभा की सदस्य संख्या में वृद्धि आवश्यक है | ये कितनी हो ये विचार का मुद्दा हो सकता है लेकिन नई लोकसभा में 888 सांसदों के बैठने की व्यवस्था किये जाने से इस दिशा में बड़ा निर्णय होने की प्रबल संभावना है | हालाँकि सांसदों की संख्या में वृद्धि से वेतन - भत्तों , यात्रा और आवास पर होने वाला खर्च भी बढ़ेगा परंतु मतदाताओं की संख्या हर चुनाव में बढ़ती जा रही है जिसे देखते हुए संसद में उनके प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ाया जाना उचित ही कहा जाएगा | लेकिन केवल संख्या बढाने मात्र से सांसदों की कार्य शैली में सुधार हो जायेगा और वे जनता के प्रति पहले से अधिक जवाबदेह हो जायेंगे ये उम्मीद पाल लेना अपने आप को धोखा देना होगा | दुर्भाग्य से आजादी के 75 वर्ष बाद भी हमारे देश में ज्यादातार जनप्रतिनिधि कसौटी पर खरे नहीं उतरे | इसका सबसे बड़ा कारण उनमें सीखने की प्रवृत्ति का अभाव है | संसद का पुस्तकालय बहुत ही समृद्ध है लेकिन अवकाश के समय सेंट्रल हॉल अथवा कैंटीन में बतियाते सांसद तो बहुतेरे मिल जायंगे परन्तु  पुस्तकालय में वैसी भीड़ शायद ही किसी ने देखी होगी | नए - नवेले  सांसदों को पुराने सांसदों के अलावा संसद में अधिकारी रहे पूर्व नौकरशाह संसदीय प्रक्रिया का प्रशिक्षण देते हैं | लेकिन इसका समुचित लाभ होता नहीं दिखाई देता | यही वजह है कि संसद और सांसदों के प्रति आम जनता के मन में अपेक्षित सम्मान नहीं रहा | मोदी सरकार ने संसद में होने वाले कामकाज की मात्रा बढ़ाई है | अनेक अवसरों पर सदन अतिरिक्त घंटों तक कार्यरत रहा | इसका लाभ भी हुआ लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि संसद में शोरशराबा तो दोनों पक्षों से होता है लेकिन अच्छे भाषण सुनने नहीं मिलते | राष्ट्रपति के  अभिभाषण और  बजट जैसे विषयों पर भी औपचारिकता ही पूरी की जाती है | उस दृष्टि से प्रधानमंत्री से ये अपेक्षा की जाती है कि वे भाजपा के सांसदों और मंत्रियों की गुणवत्ता में सुधार की दिशा में भी कदम उठायें |  ये कहना गलत न होगा कि सांसदों की संख्या में वृद्धि से राजनीतिक दलों को भले ही ज्यादा उम्मीदवार उतारने की सुविधा मिल जायेगी किंतु बहस का स्तर नहीं सुधरा तब उसका लाभ ही क्या ? भाजपा से ये उम्मीद इसलिए है क्योंकि वह अपने आपको सबसे अलग बताने का दावा करती है और उसकी एक स्पष्ट और स्थायी विचारधारा भी है | 21 वीं सदी के भारत को यदि विश्व का सिरमौर बनना है  तब संसद और सांसद उससे अछूते रहें , ये संभव नहीं है | प्राधानमंत्री हर चीज  पर बारीकी से नजर रखते हैं | ऐसे में उन्हें भाजपा के भीतर अच्छे जनप्रतिनिधि तैयार करने पर भी ध्यान देना चाहिए | भारत में  नई पीढ़ी की सोच  , जानकारी और अपेक्षाएं भी समय के साथ बदल रही हैं | ऐसे में पुराने ढर्रे की संसद और सांसद उसे  प्रभावित नहीं कर सकेंगे | आजकल हर जगह ये सुनने को मिलता है कि अच्छे लोगों को राजनीति में आना चाहिए | लेकिन ऐसा न होने देने के लिए राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं क्योंकि उनकी नजर में योग्यता का मापदंड शैक्षणिक योग्यता , पेशेवर अनुभव और उज्ज्वल छवि की बजाय चुनाव जीतने की क्षमता बन गयी है | होना तो ये चाहिए कि सांसदों की गुणवत्ता में सुधार सभी राजनीतिक दलों के चिंतन का विषय बने | लेकिन सत्ता में होने से भाजपा की जिम्मेदारी है कि वह इसको राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनाकर संसदीय राजनीति को उच्च कोटि का बनाने आगे आये | प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री मोदी ने अनेक नवाचार किये हैं | यदि वे सांसदों की गुणवत्ता में सुधार का बीड़ा उठा लें  तो नये संसद भवन से नई राजनीति की शुरुवात हो सकती है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 9 September 2022

पादरी के चोंगे में छिपे भ्रष्टाचार और विदेशी तार का पर्दाफाश जरूरी



म.प्र और छत्तीसगढ़ में ईसाई मिशनरियों की अनेक संस्थाएं कार्यरत हैं | इसका मुख्य कारण यहाँ आदिवासियों की बड़ी जनसंख्या होना है | ब्रिटिश राज में योजनाबद्ध तरीके से सुदूर इलाकों तक में इन संस्थानों की नींव रखी गई थी | शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के नाम पर भोले – भाले आदिवासी समुदाय में धर्म परिवर्तन का अभियान चलाया गया | धीरे – धीरे उनके मन में ये बात बिठाई जाने लगी कि उनके देवी – देवता तथा पूजा पद्धति  हिन्दुओं से अलग है | पूर्वोत्तर राज्यों में जो अलगाववाद फैला उसका बड़ा कारण वहां के मूल आदिवासी समुदाय का धर्मांतरण ही रहा | म.प्र और छत्तीसगढ़ के साथ ही महाराष्ट्र , बिहार , झारखण्ड , उड़ीसा जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में ईसाई मिशनरियों के प्रभावक्षेत्र में ही नक्सली गतिविधियों का फैलना महज संयोग नहीं   अपितु देश को आन्तरिक रूप से कमजोर करने हेतु रचित षडयंत्र का हिस्सा है | इस बारे में उल्लेखनीय है कि अंग्रेज जाने के पहले भारत में ईसाइयत की जड़ें मजबूत करने के लिए चर्चों को बहुत बड़ी मात्रा में जमीनें दे गए थे | जिनका उपयोग विद्यालयों , अनाथालयों , छात्रावासों और अस्पतालों के लिए भी किया जाने लगा | लेकिन इनका चरम उद्देश्य अंततः धर्मांतरण ही है | यह विडंबना ही है कि अंग्रेजों से मुक्त होने  के बाद भी हम मानसिक तौर पर हीन भावना से नहीं उबर सके जिसका लाभ उठाकर ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों में समाज के अभिजात्य वर्ग ने अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया | इसका नुकसान ये हुआ कि अंग्रेजी भाषा और संस्कृति युक्त शिक्षा प्राप्त कर प्रगति की दौड़ में आगे निकले लोग शासन और प्रशासन में जम गए जिसका लाभ ईसाई मिशनरियों ने जमकर उठाया | ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि मिशनरियों को बड़ी मात्रा में विदेशों से धन मिलता रहा है जिसका उपयोग ईसाइयत के प्रसार के लिए किया जाता रहा | जब तक अंग्रेजी ज़माने के पादरी रहे तब तक तो इन संस्थाओं का काम केवल ईसाइयत का प्रचार – प्रसार रहा लेकिन जैसे – जैसे आजाद भारत में तैयार पादरी चर्चों और उनके द्वारा संचालित संस्थाओं  से जुड़े  वैसे – वैसे उनमें जमीन – जायजाद की हेराफेरी , गबन , नन बनी महिलाओं के  यौन  शोषण जैसी  बातें भी सामने आने लगीं | पहले - पहल तो धर्म के नाम पर लोग चुप रहे लेकिन जब पानी सिर से ऊपर आने लगा तब  ईसाई समाज के भीतर से भी पादरियों एवं संस्थानों के पदाधिकरियों के काले कारनामों के विरुद्ध आवाजें उठने लगीं | हालाँकि इन्हें दबाने का काम भी होता रहा किन्तु चोरी के माल में बंटवारे के झगड़े के कारण बहुत सी बातें सामने आने लगीं | हालाँकि  ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वोट बैंक की राजनीति करने वाले सत्ताधीशों ने ईसाई मिशनरियों के भ्रष्टाचार के प्रति आंखें मूंदें रखीं | चर्चों की जमीनों की बंदरबांट होती रही और शासन – प्रशासन चुपचाप देखते रहे क्योंकि मिशनरियों द्वारा पढ़ाये नेता और अधिकारी समूचे तंत्र पर हावी जो रहे | इसका ताजा प्रमाण है म.प्र के जबलपुर शहर में गत दिवस एक वरिष्ट ईसाई बिशप पी.सी सिंह के यहाँ आर्थिक अपराध विंग ( ईओडब्ल्यू ) द्वारा मारा गया छापा | इस दौरान उनके यहाँ से 1 करोड़ 65 लाख रु. नगद , 9 आलीशान कारें और 80 लाख के आभूषणों के अलावा 18 हजार डालर विदेशी मुद्रा के रूप में मिले | करोड़ों रूपये की जमीन -  जायजाद के दस्तावेज भी जांच दल ने जप्त किये हैं | चूंकि श्री सिंह जर्मनी में हैं इसलिए उनसे पूछताछ उनके लौटने पर होगी | एक साधारण से पादरी के यहाँ इतनी बड़ी मात्रा में मिली नगदी और सबसे बड़ी बात विदेशी मुद्रा का पाया जाना अनेकानेक संदेहों को जन्म देने वाला है | सबसे रोचक बात ये है कि जिस चर्च से आरोपी बिशप जुड़े हैं उसी के सदस्यों की शिकायत पर उनके यहाँ फीस घोटाले की जाँच हेतु दबिश दी गई थी लेकिन ईओडब्ल्यू टीम की आँखें फटी रह गईं जब फीस घोटाले संबंधी दस्तावेजों के अलावा अनपेक्षित रूप से करोड़ों रूपये की नगदी के साथ ही बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा मिली | जिससे लगता है बिशप के तार विदेशों से जुड़े भी हो सकते हैं | उनके पासपोर्ट आदि की जांच से भी बहुत से तथ्य उजागर होंगे | इस छापे के बाद ये बात सामने आई है कि श्री सिंह के विरूद्ध देश के अनेक हिस्सों में 99 आपराधिक प्रकरण लंबित हैं | ज़ाहिर है शासन - प्रशासन में अपने रुतबे के कारण वे अभी तक बचते रहे | हालाँकि वे अपने बचाव में ईसाई होने के कारण प्रताड़ित होने का शिगूफा छोड़ सकते थे लेकिन उनकी गर्दन में फंदा डालने वाले चूंकि उन्हीं की  संस्थाओं से जुड़े लोग हैं इसलिए वे प्रदेश सरकार पर ईसाई  विरोधी होने का आरोप भी नहीं लगा सकेंगे | जिस प्रकार की  खबरें उक्त  छापे के बाद छन – छनकर आ रही हैं उनसे  लगता है ईसाई मिशनरियों के कारोबार में धर्मांतरण के साथ ही भारी भ्रष्टाचार भी है | चर्चों से जुड़ी संपत्तियों का भूमाफिया के साथ मिलकर पादरियों ने जिस प्रकार व्यवसायीकरण किया है वह उन शर्तों का खुला उल्लंघन है जो इनके  आवंटन से जुडी हुई हैं |  ये सब देखते हुए कहना गलत न होगा कि ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित संस्थाओं में भारी अनियमितताएं हैं और पादरी का चोंगा पहिनकर धर्मगुरु बने लोग न सिर्फ धर्मांतरण के षडयंत्र में लिप्त हैं अपितु आर्थिक अपराधों में भी उनकी सक्रिय भूमिका है | 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद से हजारों ऐसी ही धार्मिक एवं स्वयंसेवी संस्थाओं का असली चेहरा सामने आया जिसके बाद उनको मिलने वाली विदेशी सहायता पर रोक लगा दी गयी | ईसाई समाज के भीतर भी ऐसे अनेक फर्जी लोग निकले जो सेवा प्रकल्प के नाम पर विदेशी सहायता का जुगाड़ करने के बाद उसका उपयोग ईसाइयत के प्रचार – प्रसार हेतु करते थे | ये सब देखते हुए जरूरी हो गया है  कि केंद सरकार की जांच एजेंसियां चर्चों की संपत्तियों के गोलमाल के साथ ही ईसाई संस्थानों के कारोबार की सूक्ष्म जांच करवाएं क्योंकि ये बात अनेक मामलों में सामने आ चुकी है कि सेवा की आड़ में धर्मांतरण का जो खेल चल रहा है उसकी वजह से राष्ट्रविरोधी ताकतें मजबूत हो रही हैं | बिशप पी. सी . सिंह की सम्पन्नता के साथ ही उनके यहाँ बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा की जप्ती से अनेक सवाल खड़े हो गए हैं | सबसे बड़ी बात ये बात ये है कि उनके विरुद्ध उनके समाज के लोगों ने ही शिकायतें जाँच एजेंसियों को भेजी हैं | यदि इस दिशा में निडर होकर जांच की जावे तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आयेंगें | धर्म परिवर्तन की आड़ में देश को भीतर से कमजोर कर रहे तत्वों का पर्दाफाश राष्ट्रहित में होगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी