Tuesday 27 September 2022

पंजाब की गलती राजस्थान में भी दोहरा रही कांग्रेस



दो साल पहले जब सचिन पायलट अपने साथी विधायकों को लेकर हरियाणा के एक होटल में जा बैठे थे तब उन्हें गद्दार की जिस उपाधि से विभूषित किया गया वह आज भी उनके माथे पर चस्पा है | लेकिन उस समय जिन अशोक गहलोत ने राजनीतिक कौशल से न सिर्फ अपनी सरकार बचाई  अपितु कांग्रेस हाईकमान का विश्वास भी अर्जित किया , वे  आज की  तारीख में उनसे भी बड़े गद्दार माने जा रहे हैं | फर्क इतना है कि सचिन की बगावत मुख्यमंत्री बनने के लिए थी वहीं श्री गहलोत का विद्रोह मुख्यमंत्री बने रहने के लिए है | दूसरा अंतर ये है कि श्री पायलट पर  आरोप था कि वे सत्ता की खातिर भाजपा की गोद में जा बैठे हैं और इसीलिए उन्होंने भाजपा शासित हरियाणा में डेरा जमाया जबकि  उस संकट के समय श्री गहलोत ने अपने साथ वाले विधायकों को राजस्थान में ही रखा था | जाहिर है संख्याबल न जुटा पाने के कारण सचिन को हथियार डालने पड़े | प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री जैसे ओहदे से हटकर वे महज विधायक रह गये | उनकी नाराजगी इस बात पर थी कि 2018 में उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस ने राज्य की सत्ता हासिल की थी इसलिए मुख्यमंत्री पद भी उन्हीं को मिलना था परन्तु आखिर में श्री गहलोत ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया | हालाँकि उन्हें उपमुख्यमंत्री पद दे दिया गया लेकिन श्री गहलोत ने उनके पर कतरने में कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी | वे अपनी शिकायतें राहुल गांधी तक पहुंचाते रहे जो पार्टी में युवाओं को आगे लाने की मानसिकता से काम कर रहे थे किन्तु श्री  गहलोत को हिलाने का साहस वे नहीं कर सके | उसी  समय पंजाब में भी  अमरिंदर सिंह और नवजोत सिद्धू के बीच शीत युद्ध जोरों पर था | कांग्रेस हाईकमान ने वहां पहले तो श्री सिद्धू को प्रदेश संगठन की बागडोर सौंप दी और बाद में मुख्यमंत्री भी बदल दिया | लेकिन राजस्थान में श्री पायलट की महत्वाकांक्षाओं  को शांत करने की दिशा में कारगर कदम उठाने में वह असफल रहा | एक बात  स्पष्ट तौर पर देखी गई कि राहुल और प्रियंका वाड्रा का झुकाव सचिन के प्रति था लेकिन श्री गहलोत ने सोनिया गांधी का भरोसा हासिल कर रखा था | ये भी कहा जाता है कि कांग्रेस का खर्चा - पानी श्री गहलोत ही उठाते रहे हैं | हकीकत जो भी हो लेकिन सचिन की बगावत के बाद कांग्रेस  हाईकमान ने उनको न सिर्फ माफ़ कर दिया  अपितु उन्हें दुलारा – पुचकारा भी | जिसकी वजह से श्री गहलोत को ये लग गया कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अनुशासनहीनता को दबाने में विफल रहा | जी – 23  नामक असंतुष्टों के ऐलानिया विरोध पर भी जिस तरह का मौन गांधी परिवार ने साधा  उससे भी ये बात  साबित हो गई कि उसका दबदबा पहले जैसा नहीं रहा | इसीलिये जब राहुल ने अध्यक्ष पद पर दोबारा बैठने से इंकार किया तब सोचा गया  कि किसी ऐसे व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष बनाया जाए जो परिवार का वफादार  रहे | लेकिन सवाल ये है कि इस हेतु श्री गहलोत को ही क्यों चुना गया जबकि आगामी साल राज्य में चुनाव होने वाले हैं | पार्टी के पास अनेक ऐसे वरिष्ट नेता हैं जिनके पास  बड़ी  जिम्मेदारी नहीं होने से वे इस पद का दायित्व अच्छी तरह संभाल सकते थे | वैसे भी सब कुछ करना तो सोनिया जी , राहुल और प्रियंका को ही है | श्री गहलोत ने जब अध्यक्ष बनने हामी भरी तब उन्हें ये उम्मीद थी कि वे मुख्यमंत्री भी बने  रहेंगे | लेकिन भारत जोड़ो यात्रा के प्रबंधक दिग्विजय सिंह के ज़रिये जैसे ही ये सुरसुरी छुड़वाई गई कि एक व्यक्ति एक पद का  निर्णय लागू होने के कारण उनको सत्ता त्यागनी होगी वैसे ही  रायता फैलना शुरू हुआ |  और जिस व्यक्ति को गांधी परिवार का सबसे विश्वस्त समझकर राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये जाने की योजना मूर्तरूप लेने जा रही थी उसी ने बागी तेवर दिखा दिए | दरअसल गांधी परिवार ने सबसे बड़ी गलती ये की कि एक व्यक्ति एक पद के बारे में उसे सीधे श्री गहलोत से चर्चा करनी थी किन्तु उसने दिग्विजय जैसे विघ्नसंतोषी को आगे किया जिनके कारण पार्टी ने म.प्र में सरकार गंवा दी | साथ ही उनसे उनके उत्तराधिकारी के बारे में बात करनी थी लेकिन ऐसा न करते हुए सीधे मुख्यमंत्री बदलने की कवायद शुरू कर दी जबकि विधायक दल की बैठक बुलाये जाने तक तो श्री गहलोत ने अध्यक्ष पद का नामांकन तक नहीं भरा था | चुनाव होने के पहले ही उनको हटाये जाने की जल्दबाजी क्यों की गई इसका उत्तर किसी के पास नहीं है | पंजाब में अमरिंदर जैसे वरिष्ट नेता को अस्थिर करने के लिए नवजोत जैसे नौसिखिया को लाने का दुष्परिणाम देखने के बाद भी कांग्रेस आलाकमान ने कुछ  नहीं सीखा | सुनील  जाखड़ को हटाकर श्री सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाना और कैप्टन की जगह चरनजीत चन्नी की ताजपोशी ने पंजाब में कांग्रेस को कहीं का नहीं  छोड़ा | ऐसे में वही कहानी राजस्थान में दोहराने का कोई मतलब नहीं था | सचिन की बगावत के बावजूद उन्हें आश्वासन देते रहना गलत था | श्री गहलोत विधायक दल और सरकार पर अपनी पकड़ साबित कर चुके थे जबकि सचिन के साथ इतने विधायक भी नहीं जुट सके कि वे   सरकार के लिये खतरा बन  सकते | वरना तो दो साल पहले ही श्री  गहलोत भूतपूर्व हो चुके होते | राजस्थान में कांग्रेस का ये संकट सुलझेगा या और उलझेगा ये गांधी परिवार की निर्णय क्षमता पर निर्भर  है | हालाँकि इस बारे में अब तक का अनुभव तो निराश करने वाला रहा है | दो साल पहले इस राज्य में श्री पायलट ही बागी थे लेकिन अब श्री गहलोत भी उसी जमात में शामिल  हो गये हैं | पार्टी के सामने निश्चित रूप से बड़ी दुविधा है | इस विवाद से राजस्थान में जो नुकसान होगा वह तो अपनी जगह है लेकिन दूसरे राज्यों में भी आलाकमान की कमजोरी के चलते नाराज नेता बगावत का झंडा उठा लें तो अचरज नहीं होगा | छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टी.एस सिंहदेव का झगड़ा जारी है | पुरानी कहावत है जब केन्द्रीय सत्ता कमजोर होती है तब सूबे सिर उठाते हैं | कांग्रेस भी आज उसी स्थिति से गुजर रही है | जिसे आज्ञाकारी मानकर पार्टी की कमान सौंपने की तैयारी की जा रही थी उसने तो पहले ही उद्दंडता का परिचय दे डाला | गांधी परिवार कहने को तो आज भी कांग्रेस में सबसे ताकतवर कहा जाता है परन्तु  राजस्थान जैसी एक दो घटनाएँ और हो गईं तब 2024 आते – आते तक उसके राष्ट्रीय विकल्प बनने की संभावनाएं लगभग समाप्त हो चुकी होंगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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