Monday 19 September 2022

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने ही उठाया कालेजियम पर सवाल



 न्यायाधीशों को नियुक्त करने वाली मौजूदा कालेजियम व्यवस्था पर समय – समय पर सवाल उठते रहे हैं | सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहते हुए मार्कंडेय काटजू द्वारा की गयी अंकल जज वाली टिप्पणी भी एक  समय काफी चर्चा का विषय बनी थी | इस बारे में उल्लेखनीय है कि कालेजियम व्यवस्था के विकल्प के तौर पर संसद द्वारा बनाये गये न्यायिक नियुक्ति आयोग को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही रद्द कर दिया गया था |  हालाँकि उसके बाद भी न्यायाधीश समुदाय के बीच इस विषय पर अंतर्विरोध सामने आते रहे हैं जिसके कारण न्याय जगत में भी कालेजियम व्यवस्था को लेकर बहस चला करती है | ताजा प्रसंग गत दिवस म.प्र के जबलपुर नगर में देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश और न्यायिक क्षेत्र में अपनी विद्वता के लिए प्रतिष्ठित  स्व. जे.एस.वर्मा स्मृति व्याख्यान के अवसर पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश संजय किशन कौल द्वारा न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए कालेजियम व्यवस्था के मुद्दे पर पुनर्विचार की जरूरत बताये जाने का है | जब श्री कौल ऐसा कह रहे थे तब देश के उपराष्ट्रपति और पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहे जगदीप धनखड़ भी मंच पर उपस्थित थे | ये टिप्पणी इसलिए भी  गौरतलब है  क्योंकि  श्री कौल ने सर्वोच्च न्यायालय में कुछ न्यायाधीशों की वरिष्टता को नजरंदाज करते हुए कनिष्ट न्यायाधीशों को पदोन्नत करने की सिफारिश पर भी आपत्ति व्यक्त की थी |  2019 में कालेजियम द्वारा अपनी ही दो सिफारिशों को बदल दिये जाने पर भी न्यायिक जगत की अनेक हस्तियों ने आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की थीं |  ये पहला अवसर नहीं है जब न्यायाधीशों की नियुक्ति और पदोन्नति को लेकर न्यायपालिका के भीतर ही मतभेद उभरे हों | उपराष्ट्रपति के सामने ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा कालेजियम व्यवस्था को न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए खतरा बताये जाने से निश्चित तौर पर इस बारे में चली आ रही बहस जोर पकड़ सकती है | सबसे रोचक बात ये है कि कालेजियम व्यवस्था का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है | मोदी सरकार ने लोकसेवा आयोग की तर्ज पर एक न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया जिसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिरे से खारिज कर दिया गया | उसके बाद से न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका दोनों  के बीच खींचातानी के साथ पक्षपात के आरोप – प्रत्यारोप भी चलते रहे हैं | वैसे भी न्यायपालिका में परिवारवाद के बोलबाले के लिए कालेजियम व्यवस्था को ही जिम्मेदार माना जाता है | अनेक ऐसे खानदान  हैं  जिनकी चार – चार पीढ़ियों को न्यायाधीश बनने का अवसर मिला वहीं अनेक योग्य व्यक्ति महज इसलिए वंचित रह गये क्योंकि कालेजियम में उनका पक्ष रखने वाले नहीं थे | चूंकि ये मुद्दा आम जनता से जुड़ा नहीं है और अधिकतर राजनेता न्यायिक प्रशासन के बारे में ज्यादा नहीं जानते इसलिए इस बारे में राजनीतिक मंचों पर चर्चा कम ही होती है |  संसद के दोनों  सदनों के अलावा अधिकांश राज्यों  की विधानसभाओं से अनुमोदन हो जाने के  राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 31 दिसंबर, 2014 को भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया गया | लेकिन अक्टूबर 2015 में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा इस आयोग को असंवैधानिक ठहराते हुए उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति और पदोन्नति के साथ ही स्थानान्तरण का अधिकार कालेजियम के पास ही रखने का फैसला कर डाला | दरअसल 1970 के आसपास  उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में पारदर्शिता के अभाव को लेकर चिंता व्यक्त की जाने लगी थी | और तब ये बात उठी कि इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश से परामर्श लिया जाना चाहिए |  1993 में जाकर कालेजियम नमाक मौजूदा व्यवस्था अस्तित्व में आई | लेकिन इसकी अन्तर्निहित बुराइयों और कमियों के बारे में न्यायपालिका के भीतर से ही आलोचना के स्वर सुनाई देने लगे | सबसे महत्वपूर्ण बात ये रही कि सर्वोच्च न्यायालय के अनेक न्यायाधीशों ने पद पर रहते हुए ही कालेजियम व्यवस्था को निष्पक्ष और पारदर्शी नियुक्तियों में बाधक बताया | उच्च न्यायालय के अनेक न्यायाधीशों ने तो वरिष्टता के उल्लंघन से नाराज होकर त्यागपत्र तक दे दिया | अब श्री कौल ने देश के उपराष्ट्रपति और म.प्र उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की उपस्थिति में कालेजियम व्यवस्था पर पुनर्विचार को न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए जरूरी बताकर ठहरे हुए पानी को हिलाने का प्रयास किया है | चूंकि उपराष्ट्रपति अधिवक्ता होने के नाते लम्बे समय तक न्यायपालिका से जुड़े रहे हों इसलिए वे  इस मुद्दे को आगे बढ़ाएंगे ये भी श्री कौल की मंशा रही होगी | इस बारे में विचारणीय  है कि सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पद बड़ी संख्या में रिक्त हैं | जिसके कारण अदालतों में लंबित मामले बढ़ते जा रहे हैं | कालेजियम से नियुक्तियां होने के कारण सरकार और न्यायपालिका के बीच समन्वय का अभाव रहता है जिसके कारण भी नियुक्तियों में देरी होती है |  पक्षपात और राजनीतिक प्रतिबद्धता भी नियुक्तियों में पारदर्शिता को प्रभावित करती है | ये सब देखते हुए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग नामक व्यवस्था को पुनर्जीवित किया जाना न्यायपालिका की प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रखने के लिए जरूरी है | श्री कौल की  संदर्भित टिप्पणी हालाँकि उनके भाषण का एक अंश मात्र है लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने ही न्यायपालिका की विश्वसनीयता जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कालेजियम व्यवस्था पर उंगली उठाई है तब भी अगर न्यायपालिका के ऊंचे पदों पर विराजमान महानुभाव इस बारे में समयानुकूल निर्णय नहीं लेते तो विश्वसनीयता का ये संकट और भी गहराता जायेगा |

-रवीन्द्र वाजपेयी

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