Tuesday 13 September 2022

पुतिन ने रूस को आगे कुआ पीछे खाई वाली स्थिति में फंसा दिया



जब यूक्रेन पर रूस ने हमला किया तब लग रहा था कि वह इकतरफा मुकाबला है  | इसलिए जब उसके राष्ट्रपति जेलेंस्की ने मुकाबला करने की जिद पकड़ी तो उसे मूर्खता कहा गया | प्रारंभ में रूसी फौजों ने तेजी से यूक्रेन के इलाकों पर कब्जा करना शुरू कर दिया वहीं  वायुसेना ने भी भीतरी हिस्सों में तबाही मचाकर अव्यवस्था का माहौल बना दिया | लाखों लोग बेघरबार हो गए | बड़ी संख्या में शरणार्थी भागकर पड़ोसी देशों में जाने लगे | पहले – पहल  लग रहा था कि अमेरिका और उसके साथी देश यूक्रेन में सेनायें भेजकर रूस को सबक सिखायेंगे | लेकिन ऐसा नहीं होने से यूक्रेन के पराजित होने की आशंका बढ़ने लगी | यद्यपि उसे सैन्य साजो – सामान की  आपूर्ति के अलावा भरपूर आर्थिक मदद दी जाती रही जिसके दम पर उसने रूस के मुकाबले का हौसला दिखाया | सबसे बड़ी बात ये  रही कि यूक्रेन की जनता ने जबरदस्त देशभक्ति का परिचय दिया | रूसी हमले लगातार जारी हैंलेकिन यूक्रेन का मनोबल कायम है जिसके दम पर उसने रूसी सेनाओं को अपनी राजधानी कीव तक पहुंचने से रोक रखा है | यद्यपि ये मान लेना जल्दबाजी होगी कि रूस पूरी तरह विफल हो गया किन्तु ये कहना भी गलत न होगा कि अपार सैन्य शक्ति के बावजूद राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अपने इरादे में सफल नहीं हो सके हैं | प्रारंभ में तो आर्थिक प्रतिबंधों के रूप में उनको विश्व बिरादरी का विरोध सहना पड़ा परन्तु  अब रूस के भीतर भी उनके प्रति नाराजगी बढ़ने लगी है | हालाँकि उन्हें हटाये जाने की संभावना तो नजर नहीं आ रही क्योंकि रूस की कुख्यात ख़ुफ़िया एजेंसी केजीबी के मुखिया रहे पुतिन इस तरह के षडयंत्रों से अच्छी तरह वाकिफ हैं | लेकिन जनता के स्तर पर रूस में विरोध के संकेत मिलने लगे हैं | इसका कारण जनजीवन का प्रभावित होना है | आर्थिक प्रतिबंधों के कारण निर्यात ठंडा  होने से एक तरफ जहां रूस की  आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है वहीं दूसरी तरफ आयात रुकने से जरूरी चीजों की किल्लत है | जब तक साम्यवादी शासन रहा तब तक जनता  सरकार के इशारों पर नाचने मजबूर थी | लेकिन बीते तीन दशक में इस देश ने दुनिया के माहौल को देखा और जाना | पर्यटकों के साथ ही बड़ी संख्या में व्यवसायी रूस आने जाने लगे जिसकी वजह से  समाज की सोच में भी  खुलापन आया वरना साम्यवादी व्यवस्था के एकाएक धराशायी होने के बाद आम रूसी नागरिकों को आटे -  दाल का भाव तक नहीं मालूम था | पूंजीवाद की चमक के साथ ही उपभोक्तावादी संस्कृति भी पनपी जिसने रूस को  दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिये प्रेरित किया | हालाँकि साम्यवादी दौर में पली – बढ़ी पीढ़ी आज भी बंद दरवाजे वाली  मानसिकता से प्रेरित है लेकिन नई पीढ़ी वैश्विक माहौल के साथ सामंजस्य बनाते हुए पश्चिमी सोच से प्रभावित है | यही कारण है कि  प्रखर राष्ट्रवाद के बावजूद आम रूसी यूक्रेन पर हमला करने के औचित्य को नहीं समझ सका | पुतिन ने हालांकि ये कदम रूस  के दीर्घकालिक आर्थिक और सामरिक हितों की खातिर उठाया लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि जिस तरह अमेरिका वियतनाम  पराजित होकर निकला था  उसी  त्रासदी से पुतिन को भी रूबरू होना पड़ेगा | ताजा खबरों के मुताबिक रूस इस जंग में थका – थका नजर आने लगा है | राष्ट्रपति पुतिन अब तक अपनी सेना को भी इस लड़ाई के उद्देश्य से सहमत नहीं करवा सके | यही वजह है कि जब यूक्रेनी जनता ने उसके  टैंको के सामने आकर प्रतिरोध किया तब बजाय उन्हंा उड़ा देने के टैंक या तो रुक गए या लौट गए | बीते कुछ दिनों से आ रही खबरों के अनुसार अनेक सीमावर्ती गाँवों को यूक्रेनी सेना ने रूसी कब्जे से खाली करवा लिया है | इस बात की भी पुष्टि हो गई है कि हवाई हमलों और मिसाइलों का सहारा लेने के बाद भी रूस के सैनिक बड़ी संख्या में मारे गये जिसकी वजह से पुतिन को वैसा ही विरोध झेलना पड़ रहा है जैसा अमेरिका में  वियतनाम युद्ध के दौरान और हालिया सालों में अफगानिस्तान में उसके सैनिकों के हताहत होने पर देखने मिला | कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि पुतिन ने भी वहीं गलती कर डाली जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मन तानाशाह हिटलर कर बैठा था | उल्लेखनीय है हिटलर ने युद्धोन्माद में रूस पर चढ़ाई कर तो दी और शुरू – शुरू में उसकी फौजें आगे बढ़ती भी गईं किन्तु जैसे – जैसे समय बीतता गया वे रूस के भीतर उलझकर रह गईं जिसका अंत जर्मनी की पराजय  के रूप में देखने मिला | छह महीनों में रूस ने यूक्रेन में ढांचागत नुकसान तो जबरदस्त कर दिया परन्तु उसके हाथ ऐसी कोई सफलता नहीं लगी जिससे वह जीत के प्रति आश्वस्त हो सके | आने वाले दिनों में इस जंग की दिशा क्या होगी ये कहना कठिन है | लेकिन परमाणु युद्ध की धमकी देने के बाद भी यदि पुतिन यूक्रेन को घुटनाटेक नहीं करवा सके तो ये मानने में कुछ भी गलत नहीं है कि उनका आकलन सतही तौर पर गलत साबित हो गया | उन्हें लगता था कि यूक्रेन की आंतरिक व्यवस्थाओं को तहस  नहस करने से जनता त्रस्त होकर जेलेंस्की के खिलाफ खड़ीं जायेगी | लेकिन केजीबी के पूर्व प्रमुख होने के नाते उन्हें सोवियत संघ को  अफगानिस्तान में मिले कटु  अनुभवों से सबक लेना चाहिए था जिसमें वे चूक गए | भले ही रूस में साम्यवाद दफन हो चुका है लेकिन ऐसा लगता है पुतिन दोबारा सोवियत संघ जैसी  व्यवस्था को जन्म देना चाहते हैं | यूक्रेन उसका सबसे प्रमुख घटक रहा जिसके पास प्राकृतिक और आर्थिक संसाधन प्रचुर मात्रा में होने के साथ ही भौगोलिक स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है | यही वजह है कि वह अभी तक पुतिन के अहंकारी रवैये के विरुद्ध तनकर खड़ा हुआ है | यदि रूस हताशा में कोई बड़ा कदम उठाये तभी वह यूक्रेन पर पूर्ण विजय की बात  सोच सकता है किन्तु आज की स्थिति में पुतिन भी उस तानाशाह की तरह हो गये हैं  जो सता के नशे में चूर होकर शेर की पीठ पर बैठ तो गया लेकिन अब उतरना उसके लिए खतरे से खाली नहीं है | युद्ध विशेषज्ञों का कहना है कि वे यूक्रेन को डरा धमकाकर रूस के आर्थिक और सामरिक हितों की रक्षा करना चाहते थे लेकिन अमेरिका और उसके साथी देशों ने ऐसा होने नहीं दिया | यद्यपि विश्व युद्ध की  आशंका को टालने के लिए वे खुलकर  लड़ने तो नहीं आये परन्तु जिस तरह वियतनाम युद्ध के  समय  रूस और चीन ने वहां के साम्यवादी गुरिल्लों को पीछे से सहायता देकर  लड़ते रहने का हौसला दिया ठीक उसी नीति पर चलते हुए अमेर्रिकी गुट के देश यूक्रेन को टेका लगाये हुए हैं | दूसरी  तरफ पुतिन के साथ दिक्कत ये हैं कि इस युद्ध में सैन्य मुकाबले के अलावा मनोवैज्ञानिक लड़ाई में उलझ गए हैं जिसमें आगे कुआ और पीछे खाई है | यहाँ उल्लेख करना जरूरी है कि पुतिन के करीबी आधा दर्जन बड़े उद्योगपति बीते छह माह में रहस्यमय तरीके से मौत के मुंह में समा चुके हैं |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

No comments:

Post a Comment