Wednesday 14 September 2022

हिन्दी भाषियों को हीन भावना से बचना चाहिये



1949 में आज ही  के दिन संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया था। 1953 में उसकी महत्ता स्वीकारते हुए 14 सितम्बर को राजभाषा दिवस घोषित कर दिया गया। इस प्रकार  यह एक तरह से हिन्दी का शासकीय जन्मदिवस है। समय के साथ इसका विस्तार राजभाषा सप्ताह , पखबाड़ा और माह के रूप में भी हो गया। कहने को तो हिन्दी के  लिये ये गौरव की बात है कि अनेकानेक प्रादेशिक भाषाओं के होते हुए भी  सरकारी प्रेरणा से  देश भर में उसका प्रशस्तिगान होता है। अनगिनत आयोजनों में हिन्दी की सहजता और सरलता के बखान के साथ ही उसकी  स्वीकार्यता का संकल्प दोहराया जाता है। प्रतियोगिताएँ , पुरस्कार  , सम्मान  , गोष्ठियां , कवि सम्मलेन, पोस्टर - बैनर , जैसे अनेक ऐसे कर्मकांड किये जाते हैं जिनसे हम सब बखूबी परिचित हैं। लंबे समय से केंद्र  सरकार के सभी विभागों  तथा उपक्रमों में राजभाषा अधिकारी पदस्थ  हैं जिनका कार्य हिन्दी में कामकाज में वृद्धि के लिये गैर हिन्दी भाषियों को हिन्दी में प्रशिक्षित करना है। राजभाषा अधिकारियों को रखे जाने से शासकीय कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग काफी बढ़ा भी। यद्यपि भाषावार प्रान्तों के गठन की भूल का खामियाजा देश आज तक भुगत रहा है । राजनीति ने जाति और धर्म की तरह से ही भाषा को भी वोट बैंक का जरिया  बना दिया। तमिलनाडु में जहाँ हिन्दी का सर्वाधिक विरोध होता  है  वहां  के लोग अंग्रेजी  पटर-पटर करने वालों का विरोध नहीं करते। कुछ समय पहले हिन्दी लादने के विरोध में पूर्व केंद्रीय मंत्री डी. राजा ने तो अलग तमिल देश की धमकी तक दे डाली। महाराष्ट्र में शिवसेना और मनसे भी मराठी भाषा के नाम पर लोगों को  भड़काने से बाज नहीं आतीं। इससे प्रोत्साहित होकर अन्य राज्यों में भी  क्षेत्रीय भाषा को राजनीतिक मुद्दा बनाने का कुचक्र रचा जाने लगा है। इस सम्बन्ध में संतोष का विषय है कि उत्तर भारतीय राज्यों में न्यायालयों के अतिरिक्त ही  राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर की  प्रतियोगी परीक्षाओं में भी हिन्दी को मान्यता  मिल गयी है। इन सबसे  हिन्दी के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है। लेकिन दूसरा पक्ष  चिंता भी पैदा कर रहा है। और वह है हिन्दी भाषियों के ही  एक बड़े वर्ग द्वारा उसकी उपेक्षा जो काफी हद तक  हीनभावना से प्रेरित है। उल्लेखनीय है पहले संपन्न वर्ग में ही अंग्रेजी का आकर्षण था क्योंकि वह अभिजात्यता की प्रतीक मानी जाती है। लेकिन बीते कुछ दशकों में मध्यम वर्ग में भी जिस तरह अंग्रेजी के प्रति अनुराग बढ़ा उसके कारण हिन्दी का अधिक नुकसान हो रहा है। शिक्षा के अँग्रेजी माध्यम को सफलता की  सीढ़ी मान लेने की सोच  के परिणामस्वरुप विद्यालयीन  शिक्षा का स्वरूप ही पूरी तरह से  बदल गया जिससे जहाँ देखो वहाँ कान्वेंट स्कूल के बोर्ड टंग गये। यद्यपि इनमें अध्ययनरत कमजोर आर्थिक स्थिति वाले बच्चे काम चलाऊ अंग्रेजी  ही सीख जाएँ तो भी उसका लाभ है परंतु अंग्रेजी माध्यम के मोहपाश में बंधने के बाद हिन्दी भाषी प्रान्तों के बच्चे अंग्रेजी तो सीख नहीं पाते किंतु हिन्दी में भी कमजोर हो जाते हैं। इस स्थिति के लिये  शिक्षा प्रणाली के साथ माता - पिता भी कम दोषी दोषी  नहीं हैं जिन्होंने अंग्रेजी की मृगमरीचिका में अपनी संतानों को उनकी  मातृभाषा से ही अनजान बना दिया। ये कहना न तो गलत है और न ही अहंकार कि हिन्दी का खात्मा किसी के लिये सम्भव  नहीं  है क्योंकि यही ऐसी भाषा है जो पूरे देश में समझी जाती  है।  जिन दक्षिणी राज्यों में उसका विरोध सतह पर दिखाई देता है वहां के लोग उत्तर  भारत में आकर नौकरी करने में तनिक भी  संकोच नहीं करते। इसी तरह उप्र और बिहार जैसे विशुद्ध हिन्दी भाषी प्रदेशों के मजदूर बिना स्थानीय भाषा सीखे ही दक्षिण  ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर के राज्यों में भी कार्य करते हैं। कोरोना के दौरान लॉक डाउन की वजह से  काम बंद हो जाने पर  जब महानगरों से मजदूरों का पलायन हुआ तब ये वास्तविकता सामने आई कि हिन्दी विरोधी  राज्यों में भी हिन्दी बोलने वाले श्रमिकों का कोई विरोध नहीं है। ये  देखते हुए हिन्दी भाषी लोगों को अपनी भाषा के प्रति हीन भावन से मुक्त होना चाहिए । अंग्रेजी को बतौर भाषा सीखना अच्छा है लेकिन उसी में डूब जाने  की प्रवृत्ति हमारे सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए खतरा है। क्योंकि भाषा के साथ आने वाले साहित्य और संस्कृति का प्रभाव पीढिय़ों तक बना रहता है जिससे कालांतर में उसे अपनाने वाला  समाज अपनी पहिचान खो बैठता है। अनेक देशों  में विदेशी भाषा के आधिपत्य ने उनकी जड़ों को  नष्ट कर दिया। हिन्दी  दिवस के नाम पर होने वाले सभी आयोजन  उसके प्रचार - प्रसार की दृष्टि से तो अच्छे हैं किंतु हिन्दी भाषी लोग जब तक मातृभाषा के प्रति आकर्षित नहीं होते तब तक उसको सरकारी संरक्षण  कितना भी मिलता रहे लेकिन  राष्ट्रभाषा होने के बाद भी वह उपेक्षित ही रहेगी। ऐसे में हिन्दी भाषी ही यदि उसे ईमानदारी से अपना लें तो उसका विरोध धीरे - धीरे खत्म होता जाएगा। इसीलिए आज के दिन का सबसे सरल सन्देश यही है कि हिन्दी की बातें कम करें लेकिन  हिन्दी में बातें ज्यादा करें ।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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