Thursday 8 September 2022

नये मुद्दे और अच्छी छवि के बिना राजनीतिक यात्रा सफल नहीं होती



कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भारतीय राजनीति के ऐसे पात्र हैं जिनकी भूमिका आज तक निर्धारित नहीं हो सकी | पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद भी वे अनमने तरीके से काम करते देखे गए | पिछले लोकसभा चुनाव में निराशाजनक परिणाम के बाद उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ते हुए ऐलान कर दिया कि गांधी नामधारी अध्यक्ष  नहीं बनेगा | उसके बाद भी उनकी मनुहार चली किन्तु  अंत में सोनिया गांधी को ही कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर परिवार का आधिपत्य रखा गया | इतना ही नहीं प्रियंका वाड्रा का दखल भी बढ़ता  गया | जिसका खामियाजा पंजाब की हार के रूप में सामने आया | राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत के  शीतयुद्ध के पीछे भी गांधी  परिवार की शह है | उ.प्र की कमान श्रीमती वाड्रा को सौंपने का परिणाम भी बुरा रहा  | इसके साथ ही राहुल द्वारा  कुछ न रहते हुए भी सब कुछ बने रहने की नीति के विरुद्ध लगभग दो दर्जन नेताओं ने मोर्चा खोल दिया | कुछ तो पार्टी से बाहर निकल गये वहीं कुछ बाहर जाने का रास्ता तलाश रहे हैं | ज्यादा दबाव बना तो संगठन के चुनाव की तारीख भी तय कर दी गयी | राहुल की अनिच्छा की आड़ में  अनेक नाम सामने आने लगे | ये आरोप भी उछले कि मतदाता सूचियों में गड़बड़ की जा रही है | बात आगे बढ़ती उसके पहले ही श्री गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा का कार्यक्रम घोषित कर दिया जिसका गत दिवस कन्याकुमारी से शुभारम्भ भी हो गया  | 3500 किमी से ज्यादा दूरी की इस यात्रा के बारे में  प्रचारित किया जा रहा है कि इससे कांग्रेस में नई ऊर्जा का संचार होगा और वह जनता से एक बार फिर जुड़ सकेगी | कहा जा रहा है कि स्व. चन्द्रशेखर , लालकृष्ण आडवाणी और आन्ध्र के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी द्वारा निकाली गयी यात्राओं के बाद हुए सत्ता परिवर्तन की तर्ज पर श्री गांधी की यह यात्रा भी 2024 में केंद्र की सत्ता में कांग्रेस की वापसी का रास्ता तैयार करेगी  | यात्रा ऐसे समय हो रही है जब तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसी रेड्डी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  विपक्ष का गठबंधन बनाने हाथ पाँव मार रहे हैं |  3500 किमी की दूरी 150 दिनों में पूरी होने की योजना है | अर्थात गुजरात चुनाव इसी के बीच हो जायेंगे | यात्रा का उद्देश्य  देश में व्याप्त भय , कट्टरता , बेरोजगारी और विषमता जैसी समस्याओं पर मौजूदा केंद्र सरकार के विरुद्ध जनमत तैयार करना है | संभवतः श्री गांधी के सलाहकारों ने उन्हें ये समझाया है कि लम्बे समय से राष्ट्रीय राजनीति में बने रहने के बावजूद वे जननेता नहीं बन पाए क्योंकि उनका जनता से सीधा जुड़ाव नहीं है | और इसी वजह से वे अमेठी के पुश्तैनी गढ़ में बुरी तरह हारे | भले ही समाचार माध्यम उन्हें सुर्खियों में रखते हों लेकिन आम जनता के बीच आज भी उनकी छवि ऐसे नेता की है जिसे सब  कुछ विरासत में मिला | ये कटाक्ष भी सुनने मिल रहा है कि जब वे पार्टी को ही जोड़कर नहीं रख पा रहे तब भारत जोड़ो अभियान का औचित्य क्या है ? ये भी कहा जा रहा है कि यात्रा का उद्देश्य कांग्रेस में चल रहे शीतयुद्ध को ठंडा करना है | वैसे भी जो मुद्दे यात्रा के दौरान उठाये जाने की बात कही जा रही है वे तो श्री गांधी आये दिन उठाते रहते हैं | और ये भी कि उनका जनता पर कोई असर नहीं पड़ रहा वरना कुछ माह पहले पांच राज्यों के जो चुनाव हुए उनमें काग्रेस का सफाया न होता | साथ ही ये भी ध्यान देने योग्य बात है कि गुजरात के आगामी चुनाव में  विश्लेषक आम आदमी पार्टी को कांग्रेस से ज्यादा प्रभावशाली बता रहे हैं | इस  यात्रा में कांग्रेस के वे सभी बड़े नेता राहुल के इर्द गिर्द दिखेंगे  जिन्हें अभी भी गांधी परिवार में ही पार्टी का भविष्य नजर आता है | लेकिन ऐसी यात्राओं का लाभ तभी मिलता है जब नेता के पीछे पार्टी का संगठन तो हो ही किन्तु उससे भी बड़ी बात होती है मुद्दा | चूंकि श्री गांधी कोई भी ऐसी नई बात नहीं कह रहे जो अन्य विपक्षी नेता न बोलते हों इसलिए यात्रा एक तमाशा भी साबित हो सकती है  | इस बारे में उन्हें और कांग्रेस दोनों को ये ध्यान रखना चाहिए कि स्व. चन्द्रशेखर एक जमीनी नेता रहे जिनकी एक अलग पहिचान थी | तीखे समाजवादी तेवरों की कारण उन्होंने कांग्रेस में रहकर भी उस दौर की सबसे शक्तिशाली नेता स्व. इंदिरा गांधी से भी टकराने का साहस दिखाया | जहां तक लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा की बात थी तो उसके साथ राममंदिर मुद्दा जुड़ा होने से वह कामयाब रही  | लेकिन 2004 में वाजपेयी सरकार के पतन के बाद निकाली गईं यात्राओं में वे वैसा उत्साह नहीं जगा सके क्योंकि उनकी प्रधानमंत्री बनने की चाहत साफ़ तौर पर दिख रही थी | रही बात जगन मोहन की तो राज्यों में चुनाव के पहले नेताओं द्वारा निक़ाली जाने वाली यात्राओं को पहले  भी सफलता मिलती रही है | उस लिहाज से भारत जोड़ो यात्रा राष्ट्रीय स्वरूप तो लिए हुए है लेकिन इसे सैद्धांतिक जामा पहिनाने की कोशिश  शायद ही सफल हो सकेगी क्योंकि पार्टी का संगठनात्मक ढांचा बहुत बुरी स्थिति में है | दूसरी बात इसके साथ ये भी जुड़ गई  कि इसका मकसद येन केन प्रकारेण पार्टी पर श्री गांधी का कब्जा बनाये रखना है | चूंकि यात्रा के केन्द्रीय व्यक्तित्व की छवि एक गम्भीर और परिपक्व नेता की नहीं  है इसलिये  ज्यादा आशा करना उचित नहीं लगता | बेहतर होता श्री गांधी कांग्रेस के संगठन चुनाव संपन्न होने के बाद यह करते | सही बात ये है कि यदि कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में अपना खोया स्थान प्राप्त करना चाहती है तब उसे अपना घर ठीक करना पड़ेगा | उसके लिए ये गहन चिन्तन का विषय है कि भाजपा विरोधी जिस विपक्षी मोर्चे की पहल हो रही है उसकी बागडोर कांग्रेस के हाथ से निकलकर क्षेत्रीय नेताओं के पास है और कुछ प्रादेशिक पार्टियाँ उसके साथ हाथ मिलाने तक को राजी नहीं हैं | आशय ये है कि जब श्री गांधी को कांग्रेस के बिखराव को रोकने के उपाय करने चाहिए थे  तब  वे देश भ्रमण पर चल पड़े  | इससे उन्हें और कांग्रेस को क्या हासिल होगा ये इस बात पर निर्भर होगा कि यात्रा के दौरान भी असंतुष्ट नेताओं का पार्टी छोड़ने का सिलसिला जारी रहता है या नहीं ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment