Wednesday 21 September 2022

बिन चन्दा सब सून : चुनाव आयोग की बात अच्छी किन्तु मानेगा कौन



चुनाव आयोग ने केन्द्रीय विधि मंत्री किरण रिजजू को जन प्रतिनिधित्व कानून  में संशोधन कर राजनीतिक दलों को मिलने वाले व्यक्तिगत नगद चंदे की अधिकतम सीमा 2 हजार रु. के साथ ही कुल जमा चंदे में नगदी का हिस्सा  अधिकतम  20 करोड़ रु. करने की सिफारिश की है | आयोग का मानना है इससे पारदर्शिता आने के साथ ही  काले धन के  उपयोग पर रोक लगाना भी सम्भव होगा | हालाँकि व्यवसायिक लेन देन में भी 20 हजार तक के नगद भुगतान की अनुमति है | लेकिन राजनीतिक पार्टियाँ बड़े चंदे को भी 20 हजार की शक्ल में विभाजित कर चुनाव आयोग की आँखों में धूल झोंकती हैं | देखना ये  है कि आयोग ने उपरोक्त अनुशंसा आत्मप्रेरणा से की या इसके पीछे अन्य कोई कारण है ? वैसे उसके द्वारा हाल ही में सैकड़ों ऐसे दलों का पंजीयन रद्द कर दिया गया जो चंदे संबंधी नियमों का पालन नहीं कर रहे थे | आयकर विभाग ने भी अनेक  दलों के ठिकानों पर छापे मारकर  खुलासा किया कि उनका गठन  काले धन को सफ़ेद करने के लिये किया गया था | विधि मंत्री को भेजी गयी उक्त सिफारिश के संदर्भ में ये भी देखना होगा कि आयोग ने इस बारे में मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से परामर्श किया या नहीं क्योंकि  कानून में संशोधन जिस संसद में होगा उसमें चन्दा बटोरने वाले राजनीतिक दलों के सांसद ही तो बैठे हैं | ऐसे में क्या वे ऐसे किसी बदलाव को लागू करेंगे जिससे उनके अपने हाथ बंध जाएँ | उल्लेखनीय है राजनीतिक दलों द्वारा अपने दैनिक कामकाज के अलावा चुनाव के लिए चन्दा उगाही की जाती है | एक समय था जब उन पर कोई रोक टोक  नहीं होती थी | लेकिन कालान्तर में चुनाव सुधारों की प्रक्रिया के चलते उनको अपने हिसाब – किताब का ब्यौरा आयकर विभाग को देने की व्यवस्था हुई | चुनावी बांड नामक प्रणाली भी अस्तित्व में आईं | उद्योगपतियों को इस बारे में प्रोत्साहित किया जाने लगा कि वे राजनीतिक दलों को चैक से चन्दा दें परन्तु जितने सुधार हुए उतने ही अन्य रास्ते भी खोज लिए गए काले धन में चन्दा लेने के | इस बारे में कहना सही है कि राजनीतिक संरक्षण में ही तो काला धन पैदा होता है इसलिए उसके बिना राजनीति की कल्पना करना सपने देखने जैसा होगा |  भले ही स्व. टी.एन. शेषन ने चुनावी खर्च को कम करने की दिशा में काफी उपाय किये और मैदानी प्रचार पर भी अनेकानेक बंदिशें लगाईं किन्तु आयोग द्वारा तय की  जाने वाली खर्च की राशि में चुनाव लड़ने से बड़ा झूठ दूसरा नहीं हो सकता | ऐसे में चुनाव आयोग द्वारा नगद चंदे की राशि 2 हजार करने और कुल नगद चंदे की सीमा 20 करोड़ करने के सुझाव को सरकार किस हद तक मानेगी ये कोई नहीं बता सकता |  यदि इस सुझाव के पीछे सरकार की कोशिश है तब हो सकता है मामला संसद में विचार हेतु आये भी लेकिन उसका स्वीकृत होना संभव नहीं लगता क्योंकि राजनीतिक दलों को चैक जैसे माध्यम से चंदा देने वाले  कितने भी  ज्यादा हों लेकिन बिना काले धन के उनकी गाड़ी नहीं चल सकती | काले धन का स्वरूप केवल नगदी ही नहीं अपितु संसाधन  के तौर पर भी होता है | मसलन नेताओं द्वारा उपयोग की जाने वाले महंगी गाड़ियाँ और हेलीकाप्टर अक्सर  धनकुबेर मित्रों के होते हैं | आलीशान होटलों में ठहरने का खर्च वहन करने वाला भी अप्रत्यक्ष तौर पर चन्दा ही देता है | नेतागण आजकल हवाई जहाज की यात्रा भी काफी करने लगे हैं | उनके  हवाई टिकिटों का भुगतान किसके द्वारा किया जाता है इसकी खोजबीन होने पर बहुत से छुपे रुस्तम सामने आये बिना नहीं रहेंगे | ये देखते हुए चुनाव आयोग ने जो अनुशंसा कानून मंत्री को भेजी है वह सैद्धांतिक तौर पर भले ही उचित लगे लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से उसका पालन आज के समय में लगभग असंभव है | आयोग द्वारा चुनाव खर्च कम करने के लिए उठाये गए क़दमों का असर सतही तौर पर भले नजर आता हो लेकिन विधानसभा और लोकसभा चुनाव हेतु  तय की जाने वाले खर्च सीमा किसी मजाक से कम नहीं है | आयकर छापों में ये बात भी सामने आई है कि अनेक छोटे – छोटे दलों ने मुखौटा कंपनियों की तर्ज पर काले धन को सफ़ेद करने का कारोबार कर रखा था | इस मामले में हमाम में सभी के नग्न होने वाली उक्ति भी काफी हद तक लागू होती है क्योंकि चंदे के धंधे में सभी  की चाल , चरित्र और चेहरा एक जैसा है | और ये भी सही है कि आम जनता भी चमक दमक से प्रभावित होती है | सीधे – सादे , उज्ज्वल छवि और बेदाग़ चरित्र वाले ज्यादातर निर्दलीय  उम्मीदवारों का हश्र किसी से छिपा नहीं है | राज्यसभा में उद्योगपतियों को भेजे जाने के पीछे भी  उनके द्वारा दिया जाने वाला चन्दा ही है | वरना  समाजवादी पार्टी द्वारा पूंजीवादी अनिल अम्बानी को उच्च सदन में भेजे जाने का क्या औचित्य था ? इसी तरह आम आदमी पार्टी ने भी अपने संस्थापकों को दरकिनार करते हुए अनेक धनकुबेरों को राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की | कहने का आशय ये है कि चुनाव आयोग कितनी भी सख्ती करे और संसद भी  कानून में चाहे जैसा बदलाव कर ले किन्तु जब तक  राजनीतिक दल  ईमानदार नहीं होंगे तब तक सारे  प्रयास केवल कागजों में रहेंगे |  राजनीतिक दल जिस तरह विचारधारा की बजाय पेशेवर और व्यवसायिक लोगों के हाथ में जा रहे हैं उसे देखते हुए  कहना गलत न होगा कि भविष्य में उन्हें भी कारपोरेट जगत की लिमिटेड कंपनी मानकर शेयर बाजार का हिस्सा बनाया जाए ताकि चंदा देने वाले निवेशक के तौर पर खुलकर उनमें पैसा लगा सकें | वैसे भी राजनीतिक दल चंदा देने वालों के हितों का वैसे ही  ध्यान रखते हैं जिस तरह कम्पनियाँ अपने अंश धारकों का | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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