Tuesday 31 July 2018

घुसपैठियों से सहानुभूति देश हित के खिलाफ

असम में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों का विवाद लगभग चार दशक पुराना है। असम के लोगों ने इसे लेकर लंबी लड़ाई लड़ी। 1985 में स्व. राजीव गॉँधी के साथ उनका समझौता भी हुआ था जिसमें तय किया गया कि फलॉँ-फलॉँ तारीख तक असम में बसे लोगों को ही नागरिक माना जावेगा। न सिर्फ असम वरन् बंगाल और बिहार सहित पूरे देश में ही बांग्लादेश से सीमा पार कर घुस आए लोग एक बड़ी समस्या बन गये हैं। बंगाल में ममता बैनर्जी की पूर्ववर्ती वामपंथी सरकार ने भी अपने राजनीतिक वोट बैंक को मजबूत करने के लिये अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को मतदाता बनवा दिया। असम में भी कॉँगे्रस की जितनी राज्य सरकारें बीते दशकों में बनती रहीं उन सभी ने वोटों की लालच में घुसपैठियों को भारत का नागरिक बनाने में संकोच नहीं किया। इसके परिणाम स्वरूप देश के पूर्वी हिस्सों में कई इलाकें ऐसे हैं जहॉं बांग्लादेशी घुसपैठियों के हाथ में राजनीतिक संतुलन बनाने-बिगाडऩे की ताकत आ गई। चूॅंकि इनमें से 99 फीसदी मुस्लिम हैं इसलिये भाजपा को छोड़ अन्य दलों को उनसे कोई परहेज नहीं रहा। इस मुद्दे पर सत्ता में आई असम गण परिषद चूँकि अपने ही अंतर्विरोधों के चलते कमजोर होती चली गई इसीलिये असम में भाजपा ने इस मुद्दे को उछालकर पूर्वोत्तर की राजनीति में इस हद तक जगह बनाई कि असम में उसकी सरकार तक बन गई। वहीं बंगाल में वह वामपंथी दलों तथा कॉँग्रेस को पीछे छोड़कर ममता बैनर्जी की प्रमुख प्रतिद्वंदी बनती जा रही है। यही वजह है कि गत दिवस राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का दूसरा प्रारूप जारी होने पर ज्योंही पता चला कि असम के 40 लाख लोगों के नाम उसमें नहीं है त्योंही कॉँग्रेस, वामदल तथा सपा तो चिल्लाए ही किन्तु सर्वाधिक हल्ला मचाया ममता ने। इस बारे में उल्लेखनीय तथ्य ये है कि भारत के जनगणना आयुक्त ने असम में नागरिकता की पुष्टि हेतु जो रजिस्टर बनाया वह सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार है। अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिये द्वारा असम में आकर नागरिकता लेने के विरूद्ध प्रस्तुत याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने ही भारत के महापंजीयक व जनगणना आयुक्त को असम में नागरिकता का रजिस्टर तैयार करने के निर्देश दिये जिससे पता चल सके वहां घुसपैठिये कितने हैं। गत दिवस जारी प्रारूप में जिन 40 लाख लोगों के नाम छूट गए हैं उन्हें तत्काल देश निकाला देने जैसी कोई बात नहीं है। इस हेतु अभी और समय दिये जाने की बात केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने स्पष्ट रूप से कही भी परन्तु ममता सहित अन्य कई दल असमान सिर पर उठाने लगे तो मात्र इसीलिये कि एनआरसी में जिन 40 लाख लोगों की नागरिकता असम में नहीं मानी गई वे सब उन पार्टियों के वोट बैंक हैं। ममता यद्वपि बंगाल की मुख्यमंत्री हैं परन्तु उनकी भन्नाहट इस बात को लेकर है कि देर सबेर बंगाल का भी नंबर आया और तब उनकी पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने वाले लाखों बांग्लादेशियों की नागरिकता छिन जाएगी। प्रश्न ये है कि जिस सर्वोच्च न्यायालय के मान-सम्मान को लेकर पूरा विपक्ष केन्द्र सरकार पर चढ़े बैठता है उसके वे फैसलें उसे रास नहीं आते जिनसे उसकी स्वार्थसिद्धि न होती हो। असम में अवैध बांग्लादेशियों की पहिचान कर उनको वापिस भेजने की कार्रवाई को मुस्लिम विरोधी और भाजपा का षडय़ंत्र बताना सिवाय गैर जिम्मेदाराना राजनीति के और क्या है? दुख की बात है कि 1971 में बतौर शरणार्थी भारत में करोड़ों बांग्लादेशी भारत के अवैध नागरिक बन बैठे। अब तो उनकी तीसरी पीढ़ी यहां रह रही है। इनके कारण देश की अर्थव्यवस्था तो प्रभावित हुई ही आंतरिक सुरक्षा के लिये भी बड़ा खतरा पैदा हो गया है। विगत वर्षो में देश के भीतर हुई तमाम आतंकवादी घटनाओं के तार बांग्लादेश से जुड़े पाए गए थे। देश के पूर्वी राज्यों में इन घुसपैठियों ने बड़ी मात्रा में सरकारी खासतौर पर वन भूमि पर जबरन कब्जा कर लिया। उस वजह से वहॉँ रह रही जनजातियों से उनका खूनी संघर्ष तक हुआ। असम तो खैर इनकी घुसपैठ का सबसे बड़ा शिकार था इसीलिये वहॉँ खूब झगड़ा चला परन्तु देश की राजधानी दिल्ली से लेकर उत्तरी राज्यों में तो एक भी बड़ा शहर शायद ही होगा जहॉँ बांग्लादेशी न बसे हों। इनकी पहिचान कर इनको वापिस भेजने का काम कितना संभव है ये कह पाना कठिन है क्योंकि बांग्लादेश सरकार इस बोझ को किस सीमा तक स्वीकार करेगी ये बड़ा सवाल है परन्तु इनसे नागरिकता छीन ली जाए तो ये उन सरकारी सुविधाओं से वंचित होकर रह जाएंगे जिनके दम पर इनकी रोजी रोटी चला करती है। जिस दिन इनके नाम मतदाता सूची से अलग हो गए उस दिन कॉँग्रेस, वामपंथी और ममता में से कोई भी इन बांग्लादेशियों को पानी के लिये तक नहीं पूछेगा। यही वजह है कि एनआरसी का प्रारूप सामने आते ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संपन्न कराई प्रक्रिया का चीख-चीखकर विरोध किया जा रहा है। ममता बैनर्जी तो इस तरह आग बबूला हो रही है जैसे एनआरसी में उनका नाम तक काट दिया गया हो। डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी का ये कटाक्ष काबिले गौर है कि भारत कोई धर्मशाला नहीं है। जिन 40 लाख लोगों का नाम अभी नागरिकता रजिस्टर में नहीं है उन्हें दस्तावेज प्रस्तुत करने का एक अवसर और देना सर्वथा न्यायपूर्ण है। इसीलिये जो दल इसका विरोध कर रहे हैं उन्हें राजनीतिक हित छोड़ राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखते हुए इस प्रक्रिया के महत्व व जरूरत को समझना चाहिये। इसे अल्पसंख्यकों के विरूद्ध कहना बेहद गैर जिम्मेदाराना है। भाजपा पर वोट बैंक और सीमांकन का आरोप लगाने वाली ममता बैनर्जी ने बंगाल के भीतर हिंदुओं को जिस तरह से असुरक्षित बना दिया वह बेहद गंभीर मसला है। कई जिले तो ऐसे हो गए हैं जहॉँ से हिन्दू पलायन करने मजबूर हो गए हैं। असम के युवकों और छात्रों ने चार दशक तक इस मुद्दे को जीवित रखकर देश का जो हित किया उसके लिये उन्हें बधाई मिलनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने वहॉँ जनगणना करवाकर नागरिकों का रजिस्टर तैयार करने का जो आदेश दिया था वह भी बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि वोटों के सौदागार अपनी सत्ता की खातिर देश हितों की बलि चढ़ाने पर आमादा थे। जिस राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का गत दिवस खुलासा हुआ उसे सरकार या भाजपा को किसी भी प्रकार से अपराध बोध में आने की जरूरत नहीं है क्योंकि अवैध घुसपैठियों के लिये इस देश में कोई जगह नहीं होनी चाहिए चाहे वे बांग्लादेशी हों या रोहिंग्या।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 30 July 2018

भीड़ की हिंसा में भेद न किया जाए


भीड़ की हिंसा अब केवल गाय के तस्करों तक सीमित न रहकर साधारण किस्म के अपराधियों को दंडित करने तक बढ़ गई है। गत दिवस गुजरात में उत्तेजित लोगों की भीड़ ने चोरी के एक आरोपी को पीट-पीटकर मार डाला। इसी तरह की घटनाओं में कुछ अन्य राज्यों में बच्चा चोरी के संदिग्धों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। जिस तरह से दुष्कर्म के प्रकरण रोजमर्रे की खबर बन गए हैं उसी तरह से अब भीड़ की हिंसा भी संक्रामक रोग की तरह फैल रही है। गो तस्करों को पीटकर मार डालने को लेकर तो संसद से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक चिंता व्यक्त करते हैं लेकिन वैसा ही अमानुषिक व्यवहार अन्य किसी के साथ किये जाने पर वैसी प्रतिक्रिया नहीं आने से लगता है कि अपराध का विश्लेषण भी राजनीतिक आधार पर किया जाने लगा है। सर्वोच्च न्यायालय ने संसद से भीड़ की हिंसा रोकने सम्बन्धी कानून बनाने कहा है जिस पर विचार भी हो रहा है लेकिन चोर या ऐसे ही किसी सामान्य अपराधी को मरने की हद तक पीटने की जघन्यता अचानक विकसित हो गई ये मान लेना भी सही नहीं होगा। भीड़ चूंकि विवेकहीन होती है इसलिए उससे संयम की अपेक्षा नहीं की जाती लेकिन ये तो कहा ही जा सकता है कि कुछ लोगों के भड़काने पर ऐसा होता है। लेकिन इस प्रवृत्ति के जोर पकडऩे के पीछे लोगों का कानून पर से उठता जा रहा विश्वास भी  वजह है। पुलिस की भ्रष्ट छवि और अदालती दण्ड प्रक्रिया की कछुआ चाल ने समाज के भीतर निराशा और अविश्वास का भाव भर दिया है जिसकी परिणिती इस तरह की दुखद घटनाओं की शक्ल में सामने आने लगी है। यद्यपि कोई भी सुलझा हुआ व्यक्ति और सभ्य समाज इस तरह के जंगल राज शैली के न्याय का समर्थन नहीं करेगा किन्तु कानून के निर्माताओं और रखवालों के लिए भी वर्तमान माहौल गंभीरता के साथ विचार करने योग्य विषय है जिसमें समाज शास्त्रियों की मदद भी ली जानी चाहिये। भीड़ की हिंसा को रोकने के लिए अलग से कानून बनाने की जरूरत भी अपने आप में मौजूदा व्यवस्था में निहित कमजोरियों को उजागर कर रही है। ये तो तय है कि इस तरह की प्रवृत्ति पर एक दिन में अंकुश नहीं लगाया जा सकता लेकिन इस पर रोक लगाने के लिए ज्यादा रुकना भी नुकसानदेह होगा। बेहतर होगा भीड़ की हिंसा चाहे वह गाय के नाम पर हो या चोरी के, उसे एक ही नजरिये से देखा जाना चाहिए जिससे कि उसे लेकर राजनीति करने वाले अपना उल्लू सीधा न कर पाएं क्योंकि उसी की वजह से ऐसी घटनाओं को प्रोत्साहन मिलता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

सरकारी बंगला :उनको दिया तो इनको भी दे देते


दिग्विजय सिंह राजनीतिज्ञ कैसे भी हों किन्तु मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री रहे हैं। उस दृष्टि से अन्य पूर्व मुख्यमंत्रियों को राज्य सरकार यदि कोई सुविधा प्रदान करती है तब श्री सिंह को भी वह मिलनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बीते दिनों पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवंटित सरकारी बंगले खाली करने सम्बन्धी जो निर्णय किया गया उसके तहत भोपाल में पूर्व मुख्यमंत्रियों क्रमश: कैलाश जोशी, बाबूलाल गौर, दिग्विजय सिंह और उमाश्री भारती से बंगले खाली करवाने का आदेश जारी किया गया था। चूंकि फैसला सर्वोच्च न्यायालय का था इसलिए किसी ने ज्यादा चूँ-चपड़ नहीं की। लेकिन बीते सप्ताह शिवराज सरकार ने कैलाश जोशी, बाबूलाल गौर एवं उमाश्री भारती को दोबारा बंगला आवंटित कर दिया। लेकिन इस बार उनकी श्रेणी बदल दी गई। जोशी जी समाजसेवी हो गए तो गौर साहब वरिष्ठ विधायक वहीं उमा जी को भी विशिष्ट श्रेणी में सरकारी आवास की सुविधा बहाल कर दी गई। बहरहाल उनसे पहले के अपेक्षा कुछ ज्यादा किराया लिया जावेगा। लेकिन आश्चर्य ये है कि दिग्विजय सिंह को उपकृत नहीं किया गया। उन्होंने उक्त तीनों की तरह राज्य सरकार से बंगला मांगा या नहीं ये तो स्पष्ट नहीं है लेकिन तब भी सरकार को चाहिए था कि वह खुद होकर उनसे उस बारे में पूछ लेती या फिर राज्यसभा सदस्य होने के नाते उन्हें बंगला प्रदान करने की सौजन्यता दिखाती। हमारा आशय श्री सिंह से किसी भी प्रकार की हमदर्दी जताना नहीं अपितु राजनीतिक बड़प्पन की अपेक्षा करना है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का सभी वर्गों में स्वागत किया गया था। जब राज्य की चारों पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगले खाली करने के आदेश मिले तब भी लोग प्रसन्न हुये। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बेअसर करते हुए जब तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगला आवंटित कर दिया गया तब दिग्विजय सिंह की उपेक्षा किये जाने का औचित्य समझ से परे है। हो सकता है इसके पीछे कोई तकनीकी या प्रक्रिया साम्बन्धी अड़चन रही हो लेकिन बेहतर होता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद होकर श्री सिंह को भी वही सुविधा प्रदान करने की दरियादिली दिखाते। मप्र में विधानसभा चुनाव की तैयारियां चल पड़ी हैं। दिग्विजय सिंह कांग्रेस के प्रमुख नेता हैं। उन्हें देशद्रोही कहे जाने को लेकर मचा विवाद अभी थमा नहीं है। श्री सिंह बेहद अनुभवी और चतुर राजनेता होने के नाते स्थितियों का फायदा उठाने में सिद्धहस्त हैं। बंगला आवंटित न होने पर उनकी प्रतिक्रिया अभी तक तो बेहद संयत रही है लेकिन आगामी दिनों में वे इसे एक चुनावी मुद्दा बना सकते हैं। हो सकता है न भी बनाएं किन्तु अभी भी अच्छा होगा शिवराज सिंह इस गलती को सुधारें और दिग्विजय सिंह को भी बंगला देने की पेशकश करें। स्मरणीय है हाल ही में शिवपुरी में एक परियोजना के शिलान्यास के अवसर पर स्थानीय सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को न बुलाये जाने पर उठे विवाद में बजाय अडिय़लपन दिखाने के केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने लोकसभा में श्री सिंधिया से क्षमा याचना करते हुए मामले का सुखद पटाक्षेप कर दिया। उनसे सीख लेते हुए शिवराज सिंह को भी चाहिए था कि जिस तरह अपनी पार्टी के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को उन्होंने बंगला उपलब्ध करवाने का रास्ता निकाला वैसा ही  दिग्विजय सिंह के लिए भी करते। हो सकता है आगे वैसा हो भी जाये लेकिन फिलहाल तो यही कहा जा रहा है कि मप्र सरकार ने भाजपाई होने से श्री जोशी, श्री गौर और उमा जी को तो उपकृत कर दिया लेकिन कांग्रेसी होने की वजह से दिग्विजय सिंह को वंचित रखा। वैसे होना तो ये चाहिए था कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का पालन ईमानदारी से करते हुए पूर्व मुख्यमंत्रियों को प्रिवीपर्स की शक्ल में मिलने वाली सुविधाएं और अन्य विशेषाधिकार खत्म कर दिए जाते किन्तु जब बंदरबांट करना ही है तब फिर अपना पराया छोड़कर ऐसा निर्णय करना था जिससे कोई उँगली न उठा सके। वैसे शिवराज सिंह सौजन्यता और शिष्टता के मामले में काफी सतर्क और निष्पक्ष रहते हैं लेकिन उनकी सरकार का ये निर्णय उनकी प्रचलित छवि के विपरीत है, खासतौर पर जब अनेक छुटभैये भाजपाई भोपाल में सरकारी आवास की सुविधा ले रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 28 July 2018

5 दिन में फांसी : अनुकरणीय फैसला

देश के कोने - कोने से नित्य आने वाली दुष्कर्म की खबरें मन को विचलित भी करती हैं और भयभीत भी। मासूम बच्चियों के साथ जो लोग दरिंदगी करते हैं उन्हें मनुष्यों की इस दुनिया में रहने का अधिकार नहीं है और इसीलिए जब बलात्कारी को मृत्युदंड देने संबंधी कानून बना तो अपवाद स्वरूप कुछ लोगों को छोड़कर आम तौर पर इसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हुई। उसके बाद अनेक मामलों में आरोपियों को फांसी की सजा दी गई किन्तु मप्र के कटनी जिले में गत दिवस एक ऑटो चालक को फांसी की सजा सुनाया जाना अपने आप में अनोखा प्रकरण कहा जायेगा। राजकुमार कोल नामक उक्त आरोपी एक बच्ची को स्कूल ले जाने की बजाय किसी सुनसान जगह ले गया और उसके साथ दुष्कर्म किया। गत 4 जुलाई को घटित वारदात पर 7 जुलाई को आरोपी गिरफ्तार हुआ। 12 को पुलिस ने उसे अदालत में पेश किया। 23 से सुनवाई शुरू हुई और लगातार तीन दिनों तक चली। अदालत के निर्देश पर सभी गवाह समय पर पहुंचे और 5 दिन के भीतर आरोपी को मौत की सजा सुना दी गई। यद्यपि उसे फांसी पर लटकाए जाने में  समय लगेगा क्योंकि अभी न्याय प्रक्रिया की कई पायदानें शेष हैं। इसके पहले भी कई अदालतें बलात्कार के प्रकरणों में महीने भर के भीतर फांसी दे चुकी हैं। जिसमें सबसे पहले भोपाल की अदालत ने 15 दिनों के अंदर फैसला सुनाकर उदाहरण पेश किया था। यद्यपि कानून के जानकार ये कह सकते हैं कि दुष्कर्म के प्रत्येक मामले का निपटारा निचली अदालत से इतनी जल्दी किया जाना सम्भव नहीं होगा क्योंकि विवेचना और साक्ष्य एकत्र करने में समय लगता है। बावजूद इसके कटनी की जिस न्यायाधीश ने महज 3 दिनों तक  लगातार सुनवाई करने के उपरांत आरोपी बलात्कारी को फांसी सुनाई वे अभिनंदन की पात्र हैं।  उनके फैसले का ये हिस्सा काफी मार्मिक है कि पीडि़ता के जीवनकाल में उसके सामने आरोपी के आने पर उसे होने वाला मानसिक कष्ट मौत के बराबर ही होगा। इसलिए उसे मृत्युदंड देना ही उचित है क्योंकि मानव अधिकार मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण व्यक्ति के लिए हैं न कि अमानवीय कृत्य करने वाले के लिये। उक्त फैसले के विरुद्ध अपील में बचाव पक्ष के वकील ये तर्क दे सकते हैं कि निचली अदालत ने जल्दबाजी में निर्णय किया किन्तु समय आ गया है जब ऐसे प्रकरणों को इसी तरह निपटाया जावे। यही नहीं अपील होने पर ऊपरी अदालतें भी एक समयसीमा तय करते हुए आरोपी को उसके सही अंजाम तक पहुंचाने की पहल करें क्योंकि इस तरह के नरपिशाचों को ज्यादा दिनों तक जिंदा रखा जाना भी जघन्य अपराध जैसा ही है। ये कहना गलत नहीं होगा कि कटनी की महिला न्यायाधीश ने भावनावश प्रकरण के निपटारे में अतिरिक्त शीघ्रता दिखाई होगी किन्तु अभियोजन पेश करने एवं अन्य आवश्यक औपचारिकताओं को पूरा करने में पुलिस ने जिस मुस्तैदी का परिचय दिया वह भी प्रशंसनीय है। मप्र दुष्कर्म के मामलों में जिस तरह देश के अग्रणी राज्यों में शुमार हुआ उसके मद्देनजर जरूरी प्रतीत होता है कि उस जैसे घिनौने कृत्य के लिए दंड प्रक्रिया को त्वरित गति से पूरा किया जावे। कटनी की महिला न्यायाधीश सुश्री माधुरी राजलाल ने पूरे देश के समक्ष एक अनुकरणीय उदाहरण पेश कर दिया है। सभी प्रकरण एक जैसे नहीं होते किन्तु इतना तो साबित हो ही गया कि यदि इच्छाशक्ति और कर्तव्यबोध हो तो न्याय प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दुष्कर्मी की सामाजिक और आर्थिक हैसियत इसमें आड़े नहीं आएगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

गोयल को हटाने की मांग ठुकराने योग्य

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनु. जाति/जनजाति पर उत्पीडऩ की शिकायत पर आरोपी की गिरफ्तारी के पूर्व पुलिस द्वारा समुचित जांच किये जाने संबंधी निर्णय को लेकर दलित वर्ग में व्याप्त असन्तोष अब राजनीतिक सौदेबाजी का हिस्सा बनने लगा है। इसे लेकर भाजपा पर दलित विरोधी होने का जो ठप्पा लगा उसे हटाने के लिए मोदी सरकार फौरन सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार की अर्जी लेकर पहुंच गई किन्तु अदालत ने उसे उपकृत नहीं किया जिसके बाद से ही ये खबरें उडऩे लगीं कि सरकार अध्यादेश के जरिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बेअसर करते हुए पुरानी व्यवस्था को बहाल करने जा रही है किंतु दूसरी तरफ भाजपा को अपने सवर्ण जनाधार में नाराजगी की चिंता भी सता रही है। चूंकि संसद का सत्र चल रहा है इसलिए अध्यादेश तो जारी नहीं किया जा सकता और मौजूदा सत्र में संशोधन पारित करवाना भी सम्भव नहीं है। ये देखते हुए अब दलित समुदाय के नेता सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति पर उतर आए हैं। भाजपा विरोधी तो खैर मोर्चा खोलकर बैठे ही हैं लेकिन अब उसकी सहयोगी लोजपा भी आंखें तरेरने लगी है। हालांकि उसके अध्यक्ष रामविलास पासवान मोदी मंत्रिमंडल में वरिष्ठ मंत्री हैं किंतु उनके सांसद बेटे चिराग पासवान ने खुलकर आवाज उठाना शुरू कर दिया है। रामविलास की अगुआई में एनडीए के समस्त दलित सांसद एकजुट होकर सरकार पर तत्सम्बन्धी दबाव पहले से ही बनाते आ रहे हैं। अध्यादेश जारी करते हुए दलित उत्पीडऩ कानून को पुरानी शक्ल देने के लिए तो केंद्र सरकार फिर भी राजी ही थी किन्तु अब इस विवाद में नया पेंच ये फंस गया कि सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भित फैसले में शामिल न्यायाधीश एके गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का चेयरमैन बनाये जाने से भी दलित लॉबी भन्नाई हुई है और पासवान पुत्र सहित अन्य दलित नेता श्री गोयल को उक्त पद से हटाने का दबाव बनाकर सरकार के लिए अड़चन पैदा करने लगे हैं। अभी तक मोदी सरकार के साथ खड़े नजर आने वाले पासवान पिता-पुत्र श्री गोयल को लेकर जिस तरह ऐंठने लग गए हैं वह एक तरह की सौदेबाजी का ही हिस्सा है। यद्यपि सारा विवाद आगामी लोकसभा चुनाव के पहले अपना महत्व और ताकत साबित करने को लेकर  है क्योंकि बिहार में भाजपा और नीतीश का गठबंधन होने के बाद रामविलास स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा नामक पिछड़े वर्ग के अन्य मंत्री भी चूंकि नीतीश से खुन्नस रखते हैं इसलिए वे भी भाजपा को धमकाते रहते हैं। लेकिन श्री गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के चेयरमैन पद से हटाने जैसी शर्त तो एक नई परिपाटी है । यदि सरकार उसे स्वीकार कर लेती है तब ये सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने जैसा हो जाएगा। विवादित मुद्दों पर फैसला करते समय कोई न्यायाधीश यदि राजनीतिक बिरादरी की नाराजगी और प्रसन्नता की चिंता करने लगे तो उससे न्याय प्रक्रिया पर विपरीत असर पड़े बिना नहीं रहेगा और न्यायाधीश फैसला करते समय अपने भविष्य को ध्यान में रखने लग जाएंगे। मोदी सरकार भले ही अध्यादेश के जरिये दलित कानून के पुराने स्वरूप को बहाल कर दे किन्तु सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश को किसी पद पर नियुक्त किये जाने के बाद इसलिए हटाया जाए कि उसने बतौर न्यायाधीश जो निर्णय दिया वह एक खास वर्ग को रास नहीं आ रहा तब तो एक नए किस्म की सियासत जन्म ले लेगी जो प्रतिबद्ध न्यायपालिका से भी एक कदम आगे बढऩे जैसा होगा। नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री कड़े निर्णय लेने के बाद  उन पर डटे रहने के लिए जाने जाते हैं। यदि पासवान एंड कं. के दबाव में उन्होंने श्री गोयल को हटाने का निर्णय लिया तो उससे उनकी छवि को तो नुकसान होगा ही किन्तु उससे भी ज्यादा न्यायपालिका पर दबाव बनाने की नई राजनीतिक परंपरा शुरू हो जावेगी। वैसे भी रामविलास पासवान सरीखे लोग कभी विश्वसनीय नहीं रहे। गुजरात दंगों के लिए श्री मोदी पर कार्रवाई नहीं किये जाने से नाराज होकर उन्होंने अटल जी की सरकार छोड़ दी थी किन्तु जब लगा कि मोदी लहर चलने वाली है तो सब भूल-भालकर उन्हीं नरेंद्र मोदी की गोद में आकर सत्ता सुख प्राप्त करने लगे। यदि श्री पासवान को जाना होगा तो वे किसी न किसी बहाने चले जायेंगे। इसलिए बेहतर होगा प्रधानमंत्री श्री गोयल को हटाने जैसी मांग को ठुकरा दें वरना उनके लिए रोज नई मुसीबत आकर खड़ी होने लगेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी