Wednesday 25 July 2018

अनजाने में ही सही समान नागरिक कानून की वकालत कर गए सिंघवी


केरल के सुप्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक हटवाने हेतु दायर याचिका में मंदिर के संचालक मंडल की तरफ  से तर्क  दिया गया कि अनेक मंदिरों एवं मस्जिदों में भी महिलाओं का प्रवेश वर्जित है तो क्या सर्वोच्च न्यायालय उसे हटवाने के लिए भी निर्देश देगा? वरिष्ठ कांग्रेस नेता और राज्यसभा सदस्य अभिषेक मनु सिंघवी ने मंदिर की तरफ  से पैरवी करते हुए ये भी कहा कि अनेक देवी मंदिरों में नवरात्रि के दौरान भक्तगण अपने शरीर में लोहे की कीलें और सरिये चुभोते हैं वहीं शिया मुसलमान मोहर्रम के दौरान मातम मनाते हुए अपने शरीर को लहूलुहान करते हैं। क्या न्यायालय अपने प्रगतिशील विचारों के अंतर्गत इन प्रथाओं को भी रोकेगा?  उल्लेखनीय है बीते दिनों सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध के संबंध में टिप्पणी करते हुए कहा गया था कि स्त्री ईश्वर द्वारा बनाई कृति है इसलिए उसे मंदिर में प्रवेश से रोकना लैंगिक भेदभाव है। न्यायालय के उक्त कथन से प्रगतिशील तबके का मन गदगद हो गया। महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत संगठन भी बेहद खुश हुए होंगे। यद्यपि किसी नेता ने इस पर कुछ नहीं कहा क्योंकि सभी को लगता है कि 21 वीं सदी के मुताबिक समाज की सोच और रीति रिवाजों में भी परिवर्तन और सुधार वांछित है। लेकिन सबरीमाला मंदिर के संचालक मंडल की ओर से वकील के तौर पर खड़े श्री सिंघवी ने जो तर्क दिये क्या वे समान नागरिक कानून बनाने की वकालत नहीं है जिसका उनकी पार्टी काँगे्रस सदैव विरोध करती आई है। सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगा परम्परागत प्रतिबंध धार्मिक अधार पर कितना तर्कसंगत है उसकी समीक्षा बदलते समय के अनुसार कहीं से भी गलत नहीं कही जा सकती लेकिन मंदिर संचालक मंडल का ये कहना भी मायने रखता है कि यदि देश की सर्वोच्च अदालत नए ख्यालों के अनुसार सदियों पुरानी परम्पराओं को बदलने हेतु हस्तक्षेप करने को राजी है तब उसे मस्जिदों सहित अन्य धार्मिक स्थानों में लागू उन परंपराओं को बदलने या रुकवाने के लिए भी पहल करनी चाहिए जो आज के दौर में अव्यवहारिक और अवैज्ञानिक प्रतीत होती हैं। उसके कहने का मतलब साफ  है कि या तो सर्वोच्च न्यायालय सभी धर्मों में व्याप्त कुरीतियों को रोके या महज एक याचिका की आड़ में हिन्दू धर्म के एक अति प्राचीन एवं सम्मानित धर्म स्थान में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही प्रथा में भी दखलंदाजी न करे। जहां तक बात श्री सिंघवी की है तो बतौर एक अधिवक्ता वे अपने पक्षकार के हक में दलीलें देते हुए उसका हित संवर्धन करें ये उनका पेशा है लेकिन इसके अलावा वे एक राजनीतिक शख्सियत भी हैं जिसकी एक विचारधारा है जो सभी धर्मों के लिए एक जैसा नागरिक कानून (कॉमन सिविल कोड) बनाये जाने पर बात करने से भी मात्र इसलिए हिचकती है क्योंकि वैसा करने से मुसलमान नाराज हो जाएंगे। सर्वोच्च न्यायालय के सामने इन दिनों तीन तलाक़, बहुपत्नी प्रथा और हलाला जैसे कई मुद्दे विचाराधीन हैं जिन्हें मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम धर्मगुरु शरीयत में हस्तक्षेप के नाम पर सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर बताते हुए विचार योग्य ही नहीं मानते। चूंकि सबरीमाला मंदिर के संदर्भ में पहले सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं के साथ भेदभाव को अनुचित बताया और अब श्री सिंघवी ने दूसरे धर्मों में व्याप्त धार्मिक रीति रिवाजों में भी हस्तक्षेप के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती नुमा तर्क पेश कर दिया है इसलिए बेहतर हो इस मामले में व्यापक नज़रिए से  विचार करते हुए सभी धर्मों और समुदायों में प्रचलित कुरीतियों का स्वत: संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय एक ऐसे समान कानून या व्यवस्था को लागू करने के लिए संसद को निर्देश दे जिससे भेदभाव, पक्षपात और तुष्टीकरण की शिकायतें न रहें। ये संतोष का विषय है कि बतौर अधिवक्ता श्री सिंघवी ने सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे तर्क रखे जिन पर उसको विचार करना ही चाहिए क्योंकि अगर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति उसने दी तब दूसरे धर्मों और उनके आस्था केंद्रों में चल रही उन परंपराओं को रोकने के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय को आगे आना पड़ेगा जिन्हें आधुनिक सन्दर्भ में कुरीति कहा जा सकता है वरना उसका अपना फैसला ही उसके गले पड़ जायेगा। पता नहीं काँग्रेस पार्टी में श्री सिंघवी द्वारा सबरीमाला मंदिर संचालक मंडल के पक्ष में दिए गए तर्कों को लेकर क्या प्रतिक्रिया होती है क्योंकि अयोध्या विवाद में कपिल सिब्बल द्वारा मुस्लिम संगठनों की तरफ से पैरवी किये जाने पर पार्टी ने उन्हें मामले से हटने की सलाह दी थी ताकि हिन्दू समुदाय की नाराजगी को टाला जा सके। यद्यपि एक पेशेवर अधिवक्ता होने की वजह से श्री सिंघवी इस बारे में स्वतन्त्र हैं किन्तु काँग्रेस के प्रवक्ता होने की वजह से उनसे ये अपेक्षा भी रहती है कि वे उसकी नीतियों के विपरीत कोई काम न करें। देखने वाली बात ये होगी कि सर्वोच्च न्यायालय को अन्य आस्था स्थलों और धर्मों में प्रचलित परम्पराओं में हस्तक्षेप की जो सलाह उन्होंने दी उस पर न सिर्फ  काँग्रेस अपितु प्रगतिशीलता के बाकी पैरोकार क्या कहते हैं क्योंकि अनजाने में ही सही श्री सिंघवी ने सभी के लिए एक समान नागरिक कानून बनाये जाने की अवधारणा को तर्क सहित प्रासंगिक बना दिया है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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