Tuesday 3 July 2018

दुष्कर्म : दुख! गुस्सा!! डर!!!


डॉ .राहत इंदौरी का एक प्रसिद्ध शेर है :-
हर सुबह, है यही मातम, दर ओ दीवार के साथ, कितनी लाशें मेरे घर आएँगी अखबार के साथ......
उनका आशय चारों तरफ  से आने वाली हिंसा की ख़बरों से था जो सुबह-सुबह चिंतित भी करती हैं और विचलित भी । लेकिन आज के संदर्भ में देखें तो राहत साहेब को भी लगेगा दुष्कर्मों की खबरों ने हिंसा की वारदातों को भी पीछे छोड़ दिया है । हिंसा की घटनाओं में मारे गए लोग तो इस दुनिया से चले जाते हैं लेकिन दुष्कर्म की शिकार बालिका या युवती जि़ंदा लाश बनकर पूरी जि़ंदगी उस हादसे की वीभत्स यादें सीने में लिए घुट - घुटकर मरने के लिए मजबूर हो जाती है । आज सुबह के अखबार में मप्र के मंदसौर कांड की खबर के इर्द -गिर्द जबलपुर और सतना में दुष्कर्म के समाचार भी प्रकाशित हुए हैं । नाबालिग बालिकाओं को हवस का शिकार बनाने जैसा कुकृत्य फिर दोहराया गया । एक घटना तो दोस्त की बहिन के साथ ही दुष्कर्म की है । मंदसौर हादसे के बाद जली संवेदना सूचक मोमबत्तियां अभी तलक बुझी भी नहीं थीं कि ताजा घटनाओं ने प्रत्येक समझदार और जिम्मेदार व्यक्ति को भीतर तक झकझोर दिया । देश-विदेश की ताजा खबरों के बीच बलात्कार रूपी विभीषिका भी बढ़ते प्रदूषण की तरह सामने आने से सांस लेने में होने वाली कठिनाई जैसे हालात बन गए हैं । अजीबोगऱीब तरह की घुटन से आत्मग्लानि का एहसास होने लगा है । आज़ादी के 70 साल बाद के भारत में लोगों का नैतिक पतन इस तरह पराकाष्ठा तक पहुंच जाएगा ये देखकर हर उस व्यक्ति का कलेजा फटने लगता है जिसमें जरा सी भी मानवीयता है । फांसी की सजा जैसा सख्त कानून बनने के बाद भी यदि अबोध बालिकाओं के साथ राक्षसी कृत्य हो रहे हैं तब ये मानना गलत नहीं होगा कि समाज में अनैतिकता खतरे के निशान से ऊपर आ चुकी है । समाजशास्त्र में कहा गया है कि व्यक्ति पर वंशानुक्रमण और पर्यावरण दोनों का असर पड़ता है । उस लिहाज से देखें तो कोई भी ये नहीं मानेगा कि किसी भी परिवार में बलात्कार के संस्कार नई पीढ़ी को दिए जाते हों । भारतीय समाज में पारिवारिक रिश्तों को बहुत महत्व दिया जाता है । अड़ोस-पड़ोस तक में वैसे ही सम्बन्धों का निर्वहन सहज -स्वाभाविक बात होती है । ग्रामीण परिवेश में तो लड़की को पूरे गांव की बेटी मानकर प्यार और सम्मान दिया जाता रहा किन्तु अब तो क्या गांव क्या शहर सब में मानसिक विकृति का बोलबाला हो गया है । हर घटना के बाद आरोपी पकड़े जाते है और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दिए जाने का शोर उठता है । कोई फास्ट ट्रैक कोर्ट लगाकर जल्दी फैसले की गुहार लगाता है तो कोई आरोपियों को चौराहे पर फांसी की । पीडि़ता का परिवार दरिंदे को खुद सजा देने का अधिकार मांगता है वहीं सियासत के सौदागर अपनी रोटी सेंकने जुट जाते हैं । लेकिन समस्या के असली कारण को समझने की बुद्धिमत्ता दिखाने की जहमत कोई नहीं उठाता। इसी का दुष्परिणाम है कि बलात्कार रोजमर्रे की बात जैसा होता जा रहा है । प्रश्न ये है कि क्या यही उस विकास का फल है जिसका गाना सुबह-शाम हमें चाहे-अनचाहे सुनना पड़ता है । शिक्षा के प्रसार के बावजूद यदि समाज में दुष्कर्म एक प्रवृत्ति के तौर पर स्थापित होता जा रहा है तब ये कुछ का नहीं वरन सभी लोगों की चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि इस बुराई के विरुद्ध समाज का सामूहिक प्रतिकार सामने नहीं आया तब कोई भी बालिका या महिला सुरक्षित नहीं रहेगी ।  भारतीय समाज तेजी से आधुनिक होते हुए दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने की हैसियत भले हासिल कर चुका हो किन्तु महिलाओं के सम्मान के प्रति हम अपने मूल संस्कारों से विमुख होते जा रहे हैं । पश्चिम के जिस समाज की यौन स्वच्छन्दता को भारतीय परिवेश में स्वीकृति देने का प्रयास कतिपय आधुनिक लोग करते हैं ये स्थिति उसी से उपजी है । समाज के मानसिक स्तर में गिरावट का संकेत हाल ही में अभिनेता संजय दत्त के जीवन पर बनी फिल्म को टिकिट खिड़की पर मिल रही सफलता है । संजय का जीवन तमाम बुराइयों से भरा होने के बावजूद यदि बतौर फिल्म सराहा जा रहा है तब ये मान लेने में क्या बुराई है कि हमारी सोच का स्तर लगातार नीचे जा रहा है । जिस तरह की घटनाएं लगभग रोज ही सामने आ रही हैं उनसे पहले दुख होता था। बाद में गुस्सा भी आने लगा लेकिन अब तो ऐसी खबरें पढ़ और सुनकर डर लगने लगा है क्योंकि इससेे लगता है कि पूरा समाज धृतराष्ट्र की वह सभा हो गई है जिसमें द्रौपदी का चीरहरण होता रहा और एक से एक बढ़कर महारथी नजरें झुकाए लाचार बैठे रहे । जिस जगह दुष्कर्म होता है वहां तो जनाक्रोश  सतह पर आ जाता है किंतु बाकी जगह दिखावे के अलावा कुछ नहीं होने से दरिंदों का मनोबल टूटने नहीं पा रहा । प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन भी है । इसके अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं । स्वच्छता के प्रति आम नागरिक गम्भीर हुआ है लेकिन क्या घर, मोहल्ला और शहर साफ-सुथरा रखने मात्र से वह मानसिक गंदगी दूर हो सकेगी जिसकी वजह से पूरा समाज सड़ांध महसूस कर रहा है । समय आ गया है जब दुष्कर्म के विरुद्ध एक बड़ा अभियान समाज में छेड़ा जावे जिससे कि मानसिक प्रदूषण दूर किया जा सके । वरना वो दिन दूर नहीं जब 21 वीं सदी की बजाय हमारा समाज उस आदिम अवस्था में पहुंच जाएगा जिसमें न सभ्यता थी, न संस्कार और न ही कोई संस्कृति ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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