Tuesday 31 July 2018

घुसपैठियों से सहानुभूति देश हित के खिलाफ

असम में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों का विवाद लगभग चार दशक पुराना है। असम के लोगों ने इसे लेकर लंबी लड़ाई लड़ी। 1985 में स्व. राजीव गॉँधी के साथ उनका समझौता भी हुआ था जिसमें तय किया गया कि फलॉँ-फलॉँ तारीख तक असम में बसे लोगों को ही नागरिक माना जावेगा। न सिर्फ असम वरन् बंगाल और बिहार सहित पूरे देश में ही बांग्लादेश से सीमा पार कर घुस आए लोग एक बड़ी समस्या बन गये हैं। बंगाल में ममता बैनर्जी की पूर्ववर्ती वामपंथी सरकार ने भी अपने राजनीतिक वोट बैंक को मजबूत करने के लिये अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को मतदाता बनवा दिया। असम में भी कॉँगे्रस की जितनी राज्य सरकारें बीते दशकों में बनती रहीं उन सभी ने वोटों की लालच में घुसपैठियों को भारत का नागरिक बनाने में संकोच नहीं किया। इसके परिणाम स्वरूप देश के पूर्वी हिस्सों में कई इलाकें ऐसे हैं जहॉं बांग्लादेशी घुसपैठियों के हाथ में राजनीतिक संतुलन बनाने-बिगाडऩे की ताकत आ गई। चूॅंकि इनमें से 99 फीसदी मुस्लिम हैं इसलिये भाजपा को छोड़ अन्य दलों को उनसे कोई परहेज नहीं रहा। इस मुद्दे पर सत्ता में आई असम गण परिषद चूँकि अपने ही अंतर्विरोधों के चलते कमजोर होती चली गई इसीलिये असम में भाजपा ने इस मुद्दे को उछालकर पूर्वोत्तर की राजनीति में इस हद तक जगह बनाई कि असम में उसकी सरकार तक बन गई। वहीं बंगाल में वह वामपंथी दलों तथा कॉँग्रेस को पीछे छोड़कर ममता बैनर्जी की प्रमुख प्रतिद्वंदी बनती जा रही है। यही वजह है कि गत दिवस राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का दूसरा प्रारूप जारी होने पर ज्योंही पता चला कि असम के 40 लाख लोगों के नाम उसमें नहीं है त्योंही कॉँग्रेस, वामदल तथा सपा तो चिल्लाए ही किन्तु सर्वाधिक हल्ला मचाया ममता ने। इस बारे में उल्लेखनीय तथ्य ये है कि भारत के जनगणना आयुक्त ने असम में नागरिकता की पुष्टि हेतु जो रजिस्टर बनाया वह सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार है। अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिये द्वारा असम में आकर नागरिकता लेने के विरूद्ध प्रस्तुत याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने ही भारत के महापंजीयक व जनगणना आयुक्त को असम में नागरिकता का रजिस्टर तैयार करने के निर्देश दिये जिससे पता चल सके वहां घुसपैठिये कितने हैं। गत दिवस जारी प्रारूप में जिन 40 लाख लोगों के नाम छूट गए हैं उन्हें तत्काल देश निकाला देने जैसी कोई बात नहीं है। इस हेतु अभी और समय दिये जाने की बात केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने स्पष्ट रूप से कही भी परन्तु ममता सहित अन्य कई दल असमान सिर पर उठाने लगे तो मात्र इसीलिये कि एनआरसी में जिन 40 लाख लोगों की नागरिकता असम में नहीं मानी गई वे सब उन पार्टियों के वोट बैंक हैं। ममता यद्वपि बंगाल की मुख्यमंत्री हैं परन्तु उनकी भन्नाहट इस बात को लेकर है कि देर सबेर बंगाल का भी नंबर आया और तब उनकी पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने वाले लाखों बांग्लादेशियों की नागरिकता छिन जाएगी। प्रश्न ये है कि जिस सर्वोच्च न्यायालय के मान-सम्मान को लेकर पूरा विपक्ष केन्द्र सरकार पर चढ़े बैठता है उसके वे फैसलें उसे रास नहीं आते जिनसे उसकी स्वार्थसिद्धि न होती हो। असम में अवैध बांग्लादेशियों की पहिचान कर उनको वापिस भेजने की कार्रवाई को मुस्लिम विरोधी और भाजपा का षडय़ंत्र बताना सिवाय गैर जिम्मेदाराना राजनीति के और क्या है? दुख की बात है कि 1971 में बतौर शरणार्थी भारत में करोड़ों बांग्लादेशी भारत के अवैध नागरिक बन बैठे। अब तो उनकी तीसरी पीढ़ी यहां रह रही है। इनके कारण देश की अर्थव्यवस्था तो प्रभावित हुई ही आंतरिक सुरक्षा के लिये भी बड़ा खतरा पैदा हो गया है। विगत वर्षो में देश के भीतर हुई तमाम आतंकवादी घटनाओं के तार बांग्लादेश से जुड़े पाए गए थे। देश के पूर्वी राज्यों में इन घुसपैठियों ने बड़ी मात्रा में सरकारी खासतौर पर वन भूमि पर जबरन कब्जा कर लिया। उस वजह से वहॉँ रह रही जनजातियों से उनका खूनी संघर्ष तक हुआ। असम तो खैर इनकी घुसपैठ का सबसे बड़ा शिकार था इसीलिये वहॉँ खूब झगड़ा चला परन्तु देश की राजधानी दिल्ली से लेकर उत्तरी राज्यों में तो एक भी बड़ा शहर शायद ही होगा जहॉँ बांग्लादेशी न बसे हों। इनकी पहिचान कर इनको वापिस भेजने का काम कितना संभव है ये कह पाना कठिन है क्योंकि बांग्लादेश सरकार इस बोझ को किस सीमा तक स्वीकार करेगी ये बड़ा सवाल है परन्तु इनसे नागरिकता छीन ली जाए तो ये उन सरकारी सुविधाओं से वंचित होकर रह जाएंगे जिनके दम पर इनकी रोजी रोटी चला करती है। जिस दिन इनके नाम मतदाता सूची से अलग हो गए उस दिन कॉँग्रेस, वामपंथी और ममता में से कोई भी इन बांग्लादेशियों को पानी के लिये तक नहीं पूछेगा। यही वजह है कि एनआरसी का प्रारूप सामने आते ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संपन्न कराई प्रक्रिया का चीख-चीखकर विरोध किया जा रहा है। ममता बैनर्जी तो इस तरह आग बबूला हो रही है जैसे एनआरसी में उनका नाम तक काट दिया गया हो। डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी का ये कटाक्ष काबिले गौर है कि भारत कोई धर्मशाला नहीं है। जिन 40 लाख लोगों का नाम अभी नागरिकता रजिस्टर में नहीं है उन्हें दस्तावेज प्रस्तुत करने का एक अवसर और देना सर्वथा न्यायपूर्ण है। इसीलिये जो दल इसका विरोध कर रहे हैं उन्हें राजनीतिक हित छोड़ राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखते हुए इस प्रक्रिया के महत्व व जरूरत को समझना चाहिये। इसे अल्पसंख्यकों के विरूद्ध कहना बेहद गैर जिम्मेदाराना है। भाजपा पर वोट बैंक और सीमांकन का आरोप लगाने वाली ममता बैनर्जी ने बंगाल के भीतर हिंदुओं को जिस तरह से असुरक्षित बना दिया वह बेहद गंभीर मसला है। कई जिले तो ऐसे हो गए हैं जहॉँ से हिन्दू पलायन करने मजबूर हो गए हैं। असम के युवकों और छात्रों ने चार दशक तक इस मुद्दे को जीवित रखकर देश का जो हित किया उसके लिये उन्हें बधाई मिलनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने वहॉँ जनगणना करवाकर नागरिकों का रजिस्टर तैयार करने का जो आदेश दिया था वह भी बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि वोटों के सौदागार अपनी सत्ता की खातिर देश हितों की बलि चढ़ाने पर आमादा थे। जिस राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का गत दिवस खुलासा हुआ उसे सरकार या भाजपा को किसी भी प्रकार से अपराध बोध में आने की जरूरत नहीं है क्योंकि अवैध घुसपैठियों के लिये इस देश में कोई जगह नहीं होनी चाहिए चाहे वे बांग्लादेशी हों या रोहिंग्या।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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