एक तरफ केरल के सुप्रसिद्ध हिन्दू मंदिर सबरीमाला में 10 से 50 वर्ष तक की महिलाओं के प्रवेश पर रोक की परंपरा को भेदभाव पूर्ण मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश टिप्पणी कर रहे हैं कि स्त्री ईश्वर की बनाई कृति है। इसलिए उसे किसी मंदिर में पूजा अर्चना का वही अधिकार है जो पुरुषों को दिया गया है। लैंगिक असमानता को मुद्दा बनाते हुए दायर याचिका पर केंद्र सरकार ने भी सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर सहमति दी है जो स्वागतयोग्य है। अतीत में जिन कारणों और परिस्थितियों में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी लगाई गई होगी वे आज के दौर में अप्रासंगिक और अनुपयोगी लगने से रद्द करने योग्य हैं। हिन्दू समाज के पढ़े लिखे तबके में भी सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक समाप्त करने को लेकर आम तौर पर सहमति है लेकिन इसके ठीक उलट हमारे ही देश में मुस्लिम समुदाय की एक महिला को महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध लडऩे के कारण फतवा जारी करते हुए कह दिया गया कि कोई उस महिला से सम्बन्ध रखना तो दूर उससे मेल-मुलाकात तक नहीं नहीं रखेगा। इससे भी बढ़कर उसको इलाज की सुविधा से भी वंचित करते हुए मृत्यु हो जाने पर उसके लिए नमाज ए जनाज़ा तक पर रोक लगा दी गई। निदा खान नामक मुस्लिम महिला तीन तलाक़ के खिलाफ न सिर्फ खुद लड़ रही है अपितु अन्य पीडि़त मुस्लिम महिलाओं की मदद करने का साहस भी दिखा रही है। हाल ही में उसी की कोशिशों से उप्र के बरेली शहर की एक महिला के साथ हुआ घिनौना व्यवहार सामने आया जिसको पति द्वारा तलाक़ दिए जाने के बाद पहले ससुर के साथ निकाह और हलाला के लिए मजबूर किया गया। दोबारा पति के साथ कुछ वर्ष रहने के बाद फिर तलाक़ दिया गया और इस बार देवर के साथ हलाला की शर्त पर फिर स्वीकार करने की शर्त रखी गई। इस दौरान उसको शारीरिक और मानसिक तौर पर भी जमकर प्रताडि़त किया गया। हर तरफ से निराश उक्त महिला को जब निदा खान के बारे में पता चला जो उन्हें थाने लेकर गईं। इस पर रिश्तेदार उसे ससुर के साथ हलाला करने वाली बात उजागर करने से रोकते रहे। इस तरह के मामलों को क्या किसी धर्म विशेष के सैकड़ों वर्ष पुराने नियम अथवा परम्परा से जुड़ा मानकर उपेक्षित किया जा सकता है? यहां सवाल इस्लाम या हिन्दू धर्म का नहीं मानवता और महिलाओं के सम्मान का है। सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश को लेकर केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय स्त्री-पुरुष समानता के सिद्धांत को धर्म से ऊपर रखने की बात कह रहे हैं तो ये सीधे-सीधे हिंदुओं के धार्मिक मामलों में दखलंदाजी है। लेकिन यदि सर्वेक्षण करवाया जावे तो अधिकतर हिन्दू इसका समर्थन करेंगे क्योंकि बदलते परिवेश में महिलाओं के साथ इस तरह का न्याय अत्यावश्यक हो गया है। वरना महिला सशक्तीकरण का नारा एक मजाक बनकर रह जावेगा। जिस मुस्लिम धार्मिक संस्था ने निदा खान के विरुद्ध फतवा जारी किया है दरअसल उसके विरुद्ध अपराधिक प्रकरण कायम होना चाहिए। किसी भी संस्था या धर्मगुरु द्वारा किसी इंसान को महज इसलिए कि वह स्थापित धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध आवाज उठा रहा है, समाज से दूर रखते हुए इलाज और मृत्यु उपरांत होने वाले धार्मिक अनुष्ठान से वंचित किया जाना मध्ययुगीन बर्बरता का प्रमाण नहीं तो और क्या है? शायद यही वे कारण हैं जिनकी वजह से समान नागरिक कानून की मांग अक्सर उठा करती है लेकिन छद्म धर्मनिरपेक्षता और मुसलमानों के वोट बैंक की लालच में अधिकतर राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता अपने होंठ सिलकर बैठे रहते हैं। ये बात अब उभरकर सामने आने लगी है कि जिन बाबा साहेब आंबेडकर को सभी राजनीतिक दल दिन रात पूजने में लगे रहते हैं उन्होंने संविधान बनते समय समान नागरिक कानून बनाए जाने की पुरजोर वकालत की थी किन्तु उन्हें अनसुना कर दिया गया। मुस्लिम वोटों की खातिर, डॉ. आंबेडकर को पूजने वाले नेता उनकी उस सोच का जिक्र भूलकर भी नहीं करते। लेकिन बीते कुछ वर्षों में मुस्लिम महिलाओं की दयनीय स्थिति को लेकर जिस तरह की जानकारियां आईं हैं उनके कारण अब उन पर धार्मिक रीति-रिवाजों के नाम पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। यदि सबरीमाला या ऐसे ही अन्य मामलों में सर्वोच्च न्यायालय और सरकार बिना किसी संकोच के प्रचलित कुरीतियों के विरुद्ध मुखर होकर सामने आ सकते हैं तब मुस्लिम समाज की महिलाओं को भी समान अधिकार दिलवाने के लिए वोट बैंक का लिहाज तोडऩा जरूरी है। इस विषय को केवल इसलिए उपेक्षित कर देना अनुचित है कि इससे किसी पार्टी विशेष को राजनीतिक लाभ मिल जावेगा। तीन तलाक़ और हलाला जैसी इस्लामिक व्यवस्थाओं सम्बन्धी विसंगतियाँ उजागर होने के साथ ही उनके दुरुपयोग के प्रमाण मिलने के बाद भी शरीयत की पवित्रता की आड़ में महिलाओं पर अत्याचार की छूट देते रहना भी किसी अत्याचार से कम नहीं है। निदा खान सम्बन्धी फतवे ने एक बार फिर ये सिद्ध कर दिया है कि मुस्लिम धर्मगुरु किसी भी तरह के सामाजिक सुधार के लिए राजी नहीं है। इसके ठीक विपरीत देश भर में शरीयत अदालतें खोलकर मुस्लिम समाज को पूरी तरह अपने शिकंजे में कसे रहने का तनाबाना बुना जा रहा है। देश का वर्तमान माहौल बड़ा ही अनिश्चित है। राजनीतिक हितों की टकराहट के कारण राष्ट्रीय हितों की अनदेखी की जा रही है। शशि थरूर जैसे उच्च शिक्षित नेता तक हिन्दू पाकिस्तान और हिंदुओं के तालिबानीकरण जैसी बातें करने लगे हैं जबकि उनके गृह राज्य केरल में एक मुस्लिम बालिका को बिंदी लगाने के कारण मुस्लिम शिक्षण संस्था में प्रवेश से रोक दिया गया। यदि श्री थरूर और उन जैसे आधुनिक दिखाई देने वाले नेता निदा खान के विरुद्ध जारी फतवे के मामले में हिम्मत के साथ सामने आते तब वे मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के सच्चे हितचिंतक कहे जाते जो अपने धर्मगुरुओं की पकड़ से निकलने के लिए छटपटा तो रहा है किंतु समर्थन के अभाव में हारकर बैठ जाता है। निदा खान ने तो हिम्मत कर ली इसलिये उसके विरुद्ध जारी फतवा प्रकाश में आ गया वरना ऐसे कई अमानवीय आदेश तो मुल्ला-मौलवी न जाने कितने जारी किया करते हैं। पुत्रवधु का निकाह ससुर से करवाने वाले क़ाज़ी के विरुद्ध इस तरह का फतवा जारी होता तब पूरा देश उसका स्वागत करता। हरियाणा की खाप पंचायतों के अमानवीय फैसलों का संज्ञान तो सभी लेते हैं किंतु सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए वह निदा खान के विरोध में मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा जारी फतवे पर स्वत: होकर कार्रवाई करे। किसी इंसान को इलाज और अंतिम संस्कार से वंचित करना यदि धर्म है तो फिर पाप क्या है इसका खुलासा भी जरूरी है। इंदिरा जयसिंह और उन जैसी अन्य साहसी महिला अधिवक्ता जिस तरह सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक हटवाने सर्वोच्च न्यायालय में संघर्षरत हैं वैसी ही हिम्मत उन्हें निदा खान और उन जैसे अन्य प्रकरणों में भी दिखानी चाहिए। संसद के मौजूदा सत्र में महिला सांसद भी दलीय मतभेद भूल इस तरह के अत्याचारों के विरुद्ध ध्यानाकर्षण लाकर उन पुरुष सांसदों को शर्मसार करें जो महिलाओं को समानता का अधिकार दिलवाने के लिए भाषण तो खूब झाड़ते हैं लेकिन जब उन पर अमल करने का अवसर आता है तब वोट बैंक के जाल में उलझकर कन्नी काटने में देर नहीं लगाते।
-रवीन्द्र वाजपेयी
No comments:
Post a Comment