Wednesday 18 July 2018

भीड़ की हिंसा सभ्य समाज में बर्दाश्त नहीं


समाज विज्ञान में कहा गया है कि भीड़ का कोई विवेक नहीं होता। ये बात केवल किताबों तक ही सीमित नहीं है। भारत जैसे देश में जहां भीड़तंत्र भी लोकतंत्र के समानांतर कायम है, उक्त परिभाषा पूरी तरह सत्य साबित होती रही है। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा पर चिंता व्यक्त करते हुए इसे अलग से अपराध की श्रेणी में रखने का निर्देश दिया। इस निर्णय की पृष्ठभूमि देश के कई शहरों में गोरक्षकों की भीड़ द्वारा महज गो तस्करी के संदेह के आधार पर कुछ लोगों की हत्या की घटनाएँ थीं। चूंकि मारे गए अधिकतर व्यक्ति मुसलमान थे इसलिए मुद्दा साम्प्रदायिक बनते हुए राजनीतिक बन गया। असहिष्णुता सम्बन्धी विवाद भी इसी से उपजा। यद्यपि गो तस्करी हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए एक बेहद भावनात्मक और संवेदनशील विषय होने के साथ धार्मिक आस्थाओं से भी जुड़ा हुआ है इसलिए इसे लेकर कुछ ज्यादा ही बवाल मचा। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि भाजपा के ताकतवर होने के बाद से ही देश भर में गोरक्षकों की नई पौध उग आई जो कानून को अपने हाथ में लेने में नहीं हिचकते। गाय की तस्करी  निश्चित रूप से एक अपराध है लेकिन महज संदेह के आधार पर कुछ लोग किसी को मृत्युदंड दे दें इसका अधिकार किसी भी सभ्य समाज में नहीं होना चाहिए। हालांकि प्रधानमंन्त्री नरेंद्र मोदी एवं रास्वसंघ के प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने भी ये माना कि गोरक्षा के नाम पर कुछ असामाजिक तत्व कानून को अपने हाथ में ले लेते हैं लेकिन ये भी सच है कि जितनी भी घटनाएं हुईं उनमें शामिल लोगों ने खुद को हिन्दू संगठनों से जुड़ा ही दिखाया। इस वजह से गोरक्षा जैसा महत्वपूर्ण विषय तो गौण होकर रह गया और भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा राष्ट्रव्यापी बहस का विषय बन बैठी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में कानून बनाकर अपराधियों को दंडित करने की जो हिदायत दी वह अपनी जगह उचित और सामयिक है जिस पर संसद और सरकार दोनों को गंभीरता से विचार करते हुए ठोस कदम उठाना चाहिए क्योंकि गोरक्षा की आड़ में कई ऐसे तत्व सक्रिय हो उठे हैं जिनका उद्देश्य या तो अपनी नेतागिरी चमकाना था या फिर वे उसके नाम पर अवैध वसूली करना चाहते थे। ऐसे कई प्रकरण सुनने में आए भी जिनमें गो तस्करों को पकड़कर उनसे पैसे ऐंठे गए और छोड़ दिया गया। सबसे बड़ी बात ये हुई कि भीड़ द्वारा की गई कतिपय हत्याओं की वजह से पूरा हिन्दू समाज कठघरे में खड़ा कर दिया गया। गोरक्षा के अलावा भी अन्य कुछ ऐसी वारदातें हुईं जिनमें भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति को सजा देने के लिए इतना पीटा गया कि उसके प्राण पखेरू उड़ गए। ऐसी घटनाएं निश्चित तौर पर कानून के राज के प्रति अविश्वास और अवहेलना का प्रतीक होती हैं। भीड़तंत्र किसी भी देश के लिए घातक होता है क्योंकि यह अराजकता को प्रोत्साहित करते हुए अव्यवस्था का आधार बन जाता है। संसद, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर कितनी जल्दी अमल करती है ये कह पाना कठिन है क्योंकि देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल में सर्वदलीय सहमति बन पाना बेहद कठिन है और फिर वर्तमान लोकसभा के पास इतना समय ही नहीं बचा कि वह अपने लंबित कामों को निबटाकर किसी नये विधेयक को पारित करवा सके। ऐसी स्थिति में ये संभव है कि या तो मोदी सरकार अध्यादेश लेकर आये या फिर इस विषय को अगली लोकसभा के लिए छोड़ दे क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने जिस स्पष्टता से निर्देश दिया है उसकी उपेक्षा से भी गलत संदेश जाएगा। इस सबसे हटकर विचारणीय प्रश्न ये है कि भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की ये प्रवृत्ति क्या अचानक पैदा हो गई? स्मरणीय है कुछ वर्ष पूर्व नागपुर की अदालत में महिलाओं की भीड़ ने घुसकर एक बलात्कारी को इतना पीटा कि वह मर गया। वहां उपस्थित लोग कुछ नहीं कर सके। इसी तरह की और भी घटनाएं हुईं हैं लेकिन सर्वाधिक चर्चा और विवाद या तो गोरक्षकों की भीड़ द्वारा की जाने वाली पिटाई की होती है या फिर दलितों पर हुए अत्याचार की। इस तरह की घटनाओं का कारणों के आधार पर वर्गीकरण किये जाने की बजाय उन्हें संपूर्णता के आधार पर देखा जाना चाहिये। कानून तोडऩे वालों के पास कितनी भी वाजिब वजह क्यों न हों लेकिन उन्हें किसी भी हालात में किसी की हत्या करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। फिर चाहे वह गोरक्षा का मुद्दा हो या कोई और? लेकिन धार्मिक, साम्प्रदायिक और जातीय विवादों को छोड़ दें तो कुछ मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें पुलिस और प्रशासन की उदासीनता या असहयोग भीड़ की उत्तेजना का कारण बन जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पहलू पर अपेक्षित ध्यान दिया या नहीं ये तो उसके फैसले को पूरा पढ़कर ही पता चलेगा किन्तु भीड़ के भड़कने के जो अप्रत्यक्ष कारण होते हैं उनका भी संज्ञान लिया जाना जरूरी है। समाज अपने आप में एक व्यवस्था है जो उसी के द्वारा बनाये एवं स्वीकृत कानूनों से संचालित होती हैं। इसलिए अपनी मर्जी से कोई उस व्यवस्था को तोड़े तो वह किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए किन्तु न्याय और दंडप्रक्रिया को भी अपने दायित्व के समुचित निर्वहन के प्रति जागरूक रहना होगा अन्यथा जनता  के मन का गुस्सा धीरे-धीरे बढ़ते हुए लावा बनकर फूट पड़ता है। हमारे देश में न्यायोचित मांगों के प्रति शासन-प्रशासन और कुछ हद तक न्यायपालिका का टरकाऊ रवैया भी स्थिति के बिगडऩे का कारण बन रहा है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने जिस संसद से भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा विरोधी कानून बनाने की उम्मीद की है वह भी तो उन्हीं राजनीतिक हस्तियों द्वारा संचालित होती है जो अपने स्वार्थवश लोगों को भड़काते और संरक्षण प्रदान करते हैं। ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि इस बारे में बनने वाले कानून का हश्र भी लोकपाल अथवा अन्य ऐसे ही विधेयकों की तरह होकर न रह जाये जो आम सहमति के अभाव में अनिश्चितता के भंवर में फंसे पड़े हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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