सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनु. जाति/जनजाति पर उत्पीडऩ की शिकायत पर आरोपी की गिरफ्तारी के पूर्व पुलिस द्वारा समुचित जांच किये जाने संबंधी निर्णय को लेकर दलित वर्ग में व्याप्त असन्तोष अब राजनीतिक सौदेबाजी का हिस्सा बनने लगा है। इसे लेकर भाजपा पर दलित विरोधी होने का जो ठप्पा लगा उसे हटाने के लिए मोदी सरकार फौरन सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार की अर्जी लेकर पहुंच गई किन्तु अदालत ने उसे उपकृत नहीं किया जिसके बाद से ही ये खबरें उडऩे लगीं कि सरकार अध्यादेश के जरिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बेअसर करते हुए पुरानी व्यवस्था को बहाल करने जा रही है किंतु दूसरी तरफ भाजपा को अपने सवर्ण जनाधार में नाराजगी की चिंता भी सता रही है। चूंकि संसद का सत्र चल रहा है इसलिए अध्यादेश तो जारी नहीं किया जा सकता और मौजूदा सत्र में संशोधन पारित करवाना भी सम्भव नहीं है। ये देखते हुए अब दलित समुदाय के नेता सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति पर उतर आए हैं। भाजपा विरोधी तो खैर मोर्चा खोलकर बैठे ही हैं लेकिन अब उसकी सहयोगी लोजपा भी आंखें तरेरने लगी है। हालांकि उसके अध्यक्ष रामविलास पासवान मोदी मंत्रिमंडल में वरिष्ठ मंत्री हैं किंतु उनके सांसद बेटे चिराग पासवान ने खुलकर आवाज उठाना शुरू कर दिया है। रामविलास की अगुआई में एनडीए के समस्त दलित सांसद एकजुट होकर सरकार पर तत्सम्बन्धी दबाव पहले से ही बनाते आ रहे हैं। अध्यादेश जारी करते हुए दलित उत्पीडऩ कानून को पुरानी शक्ल देने के लिए तो केंद्र सरकार फिर भी राजी ही थी किन्तु अब इस विवाद में नया पेंच ये फंस गया कि सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भित फैसले में शामिल न्यायाधीश एके गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का चेयरमैन बनाये जाने से भी दलित लॉबी भन्नाई हुई है और पासवान पुत्र सहित अन्य दलित नेता श्री गोयल को उक्त पद से हटाने का दबाव बनाकर सरकार के लिए अड़चन पैदा करने लगे हैं। अभी तक मोदी सरकार के साथ खड़े नजर आने वाले पासवान पिता-पुत्र श्री गोयल को लेकर जिस तरह ऐंठने लग गए हैं वह एक तरह की सौदेबाजी का ही हिस्सा है। यद्यपि सारा विवाद आगामी लोकसभा चुनाव के पहले अपना महत्व और ताकत साबित करने को लेकर है क्योंकि बिहार में भाजपा और नीतीश का गठबंधन होने के बाद रामविलास स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा नामक पिछड़े वर्ग के अन्य मंत्री भी चूंकि नीतीश से खुन्नस रखते हैं इसलिए वे भी भाजपा को धमकाते रहते हैं। लेकिन श्री गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के चेयरमैन पद से हटाने जैसी शर्त तो एक नई परिपाटी है । यदि सरकार उसे स्वीकार कर लेती है तब ये सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने जैसा हो जाएगा। विवादित मुद्दों पर फैसला करते समय कोई न्यायाधीश यदि राजनीतिक बिरादरी की नाराजगी और प्रसन्नता की चिंता करने लगे तो उससे न्याय प्रक्रिया पर विपरीत असर पड़े बिना नहीं रहेगा और न्यायाधीश फैसला करते समय अपने भविष्य को ध्यान में रखने लग जाएंगे। मोदी सरकार भले ही अध्यादेश के जरिये दलित कानून के पुराने स्वरूप को बहाल कर दे किन्तु सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश को किसी पद पर नियुक्त किये जाने के बाद इसलिए हटाया जाए कि उसने बतौर न्यायाधीश जो निर्णय दिया वह एक खास वर्ग को रास नहीं आ रहा तब तो एक नए किस्म की सियासत जन्म ले लेगी जो प्रतिबद्ध न्यायपालिका से भी एक कदम आगे बढऩे जैसा होगा। नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री कड़े निर्णय लेने के बाद उन पर डटे रहने के लिए जाने जाते हैं। यदि पासवान एंड कं. के दबाव में उन्होंने श्री गोयल को हटाने का निर्णय लिया तो उससे उनकी छवि को तो नुकसान होगा ही किन्तु उससे भी ज्यादा न्यायपालिका पर दबाव बनाने की नई राजनीतिक परंपरा शुरू हो जावेगी। वैसे भी रामविलास पासवान सरीखे लोग कभी विश्वसनीय नहीं रहे। गुजरात दंगों के लिए श्री मोदी पर कार्रवाई नहीं किये जाने से नाराज होकर उन्होंने अटल जी की सरकार छोड़ दी थी किन्तु जब लगा कि मोदी लहर चलने वाली है तो सब भूल-भालकर उन्हीं नरेंद्र मोदी की गोद में आकर सत्ता सुख प्राप्त करने लगे। यदि श्री पासवान को जाना होगा तो वे किसी न किसी बहाने चले जायेंगे। इसलिए बेहतर होगा प्रधानमंत्री श्री गोयल को हटाने जैसी मांग को ठुकरा दें वरना उनके लिए रोज नई मुसीबत आकर खड़ी होने लगेगी।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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