Monday 16 July 2018

फ्रांस ने कप और क्रोएशिया ने दिल जीता

आखिर फ्रांस ने फुटबॉल का विश्व कप जीत ही लिया। 20 साल बाद उसे ये गौरव हासिल हुआ। उसके फायनल तक पहुंचने और विजेता बनने पर किसी को अचरज नहीं हुआ किन्तु मात्र 40 लाख जनसंख्या वाले क्रोएशिया के खिताबी मुकाबले तक के सफर ने फुटबॉल प्रेमियों को उसका दीवाना बना दिया। हालांकि कल वह 4-2 से हार गया किन्तु इस विश्व कप में जहां बड़े-बड़े सितारा खिलाड़ी अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर सके वहीं क्रोएशिया ने सबको चौंकाते हुए वह कर दिखाया जिसकी खेल विशेषज्ञों को रत्ती भर भी उम्मीद नहीं थी। सोवियत संघ अलग होकर बने तमाम देशों में आबादी के लिहाज से बेहद छोटे माने जाने वाले क्रोएशिया ने जिस तरह पूरी दुनिया का ध्यान खींचा वह निश्चित तौर पर खिलाड़ी भावना का द्योतक है जिसमें सच्चे खेलप्रेमी तमाम बातों से ऊपर उठकर अच्छे खेल के प्रशंसक बनते हैं। फुटबॉल विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय खेलों में से है। उसके सितारा खिलाड़ी पेशेवर क्लबों द्वारा जितनी बड़ी राशि पर खरीदे जाते हैं वह सुनकर आंखें फटी रह जाती हैं। लेटिन अमेरिका में तो फुटबॉल एक तरह से जीवन का हिस्सा है। लेकिन इस विश्वकप ने यूरोप का दबदबा स्थापित कर दिया। जहां तक बात एशिया की है तो जापान और द. कोरिया को छोड़कर अन्य किसी प्रतिभागी देश की उपस्थिति उल्लेखनीय ही नहीं रही। दुख की बात है कि भारत क्रिकेट, बैडमिंटन और टेनिस जैसे खेलों में तों विश्वस्तर पर पहिचान बनाने में सफल रहा है लेकिन फुटबॉल जैसे लोकप्रिय मैदानी खेल में  हमारी कोई अहमियत नहीं होना शर्मनाक और विचारणीय है। वैसे बंगाल में फुटबॉल काफी लोकप्रिय है। मोहन बागान और मोहम्मद स्पोर्टिंग नामक दो क्लबों के नाम देश भर के फुटबॉल प्रेमियों के ध्यान में बने रहते हैं। गोवा में भी फुटबॉल के प्रति काफी आकर्षण है किंतु शेष भारत में उसको वह अपेक्षित महत्व नहीं मिल सका जिसकी वजह से राष्ट्रीय स्तर पर ये खेल क्रिकेट की तुलना में मीलों पीछे चल रहा है। इस विश्वकप में क्रोएशिया के अविस्मरणीय प्रदर्शन ने एक बार फिर अपने देश में फुटबॉल की दयनीय स्थिति के बारे में सोचने और कुछ करने की जरूरत महसूस करा दी है। बीते कुछ सालों में एक दो खिलाड़ी जरूर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमके तथा पेशेवर क्लबों के अनुबंध पर विदेशों में खेलने भी गए किन्तु उसके बाद भी देश में फुटबॉल के प्रति रुझान वैसा नहीं बढ़ा, जैसी जरूरत थी। 130 करोड़ के देश के लिए ये चिंता का विषय है। रही बात सरकार की तो उससे अपेक्षा करने के बजाय  बेहतर हो निजी क्षेत्र के साथ ही बीसीसीआई जैसे धनवान खेल संगठन न सिर्फ  फुटबॉल के विकास बल्कि हॉकी के पुनरुत्थान के लिए भी आगे आएं। कबड्डी को कुछ बड़े औद्योगिक समूहों सहित अभिनेता अभिषेक बच्चन द्वारा प्रोत्साहित करने का कदम स्वागतयोग्य है। कुश्ती और मुक्केबाजी जैसे खेलों को संरक्षण दिये जाने के भी अच्छे परिणाम निकल रहे हैं। विजेताओं को भारी भरकम पुरुस्कार राशि मिलने से खेलों की तरफ  आकर्षण बढ़ा है। कई साधारण परिवारों के लड़के-लड़कियां अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भारत की गौरव पताका फहरा भी रहे हैं। हाल ही में हिमा दास नामक असम की 18 वर्षीय बालिका ने दौड़ में विश्व स्तर पर स्वर्ण पदक जीतकर ध्यान आकर्षित किया। लेकिन अभी भी मैदानी खेलों में हमारी स्थिति असन्तोषजनक से भी बढ़कर अपमानजनक है। गत दिवस रूस में सम्पन्न फुटबॉल विश्व कप के बाद भारत को आगामी विश्व कप के लिए तैयारी शुरू कर देना चाहिए। चार साल कम नहीं होते। यदि घरेलू स्तर पर फुटबॉल प्रतियोगिताएं क्रिकेट की तरह शुरू कराई जाएं तथा उनको अच्छे प्रायोजक मिल सकें  तो बड़ी बात नहीं अगले विश्व कप में न केवल भारतीय टीम को  खेलने मिल सकेगा वरन हमारी टीम अच्छा प्रदर्शन भी करने में सफल होगी। इस विश्व कप में क्रोएशिया का सफर भारत जैसे देश के लिए अत्यन्त प्रेरणादायक है। उसके शानदार और जानदार प्रदर्शन ने साबित कर दिया कि सफलता किसी की बपौती नहीं है। भले ही विश्व कप फ्रांस के कब्जे में आ गया लेकिन दुनिया भर के करोड़ों फुटबॉल प्रेमियों का दिल क्रोएशिया जीतकर ले गया। भारत भी चाहे तो ऐसा कर सकता है किंतु उसके लिए ईमानदार कोशिशों की जरूरत है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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