Tuesday 24 July 2018

राफेल : गोपनीयता के साथ विश्वसनीयता भी जरूरी


फ्रांस के साथ हुए राफेल लड़ाकू विमान सौदे में भ्रष्टाचार को लेकर काँग्रेस और भाजपा के बीच चल पड़ी राजनीतिक लड़ाई अपनी जगह है लेकिन समय आ गया है जब  इस सौदे की असलियत सामने आना चाहिए। लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस में काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने खुलकर आरोप लगाया कि मनमोहन सरकार के कार्यकाल में हुए इस सौदे के समय उक्त विमान की कीमत 520  करोड़ थी लेकिन मोदी सरकार ने उसका सौदा 1670 करोड़ रूपये प्रति विमान के हिसाब से किया जो तीन गुना ज्यादा है। उनके हमले के जवाब में रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने 2008 में तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटोनी द्वारा फ्रांस के साथ किये उस अनुबंध को पेश कर दिया जिसके अनुसार सौदे का विवरण सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। वैसे रक्षा सौदों में इस तरह की गोपनीयता बरती जाना नई बात नहीं है। उसका उद्देश्य उपकरणों की गुणवत्ता और उनकी क्षमता को छिपाकर रखना होता है। सरकारी सूत्र राफेल के बारे में अनधिकृत तौर पर जो बताते हैं उसके अनुसार कीमत में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी विमान को तकनीकी दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ और सक्षम बनाने की वजह से हुई जिसको उजागर करना सुरक्षा के लिहाज से भी गलत होगा और फ्रांस सरकार के साथ हुए सौदे में रखे गए गोपनीयता प्रावधान के अंतर्गत भी। लेकिन इस विवाद का  एक पक्ष और भी है। सौदा करते समय प्रधानमंत्री के साथ गये प्रतिनिधिमंडल में वे उद्योगपति भी थे जिन्हें बाद में राफेल संबंधी रखरखाव और कलपुर्जे बनाने का काम दिलवा दिया गया जो भारत सरकार के अपने उपक्रम हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को मिलना था। रक्षा क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोलकर विदेशी निवेश आमंत्रित करने की नीति के तहत रक्षा उत्पादन के व्यवसाय में भारत को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में उतारने की दृष्टि से ये कदम उठाया जाना बताया गया है जिसमें काँग्रेस को भ्रष्टचार नजर आने से विवाद उत्पन्न हो गया। लोकसभा में राहुल गांधी के आरोप को प्रमाणविहीन बताकऱ भाजपा ने विशेषाधिकार हनन करने संबंधी प्रस्ताव लोकसभा अध्यक्ष को सौंप दिया वहीं जवाब में काँग्रेस की तरफ  से रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री के विरुद्ध भी सदन को गुमराह करने के आरोप में वैसा ही प्रस्ताव पेश कर दिया गया। पूर्व रक्षा मंत्री श्री एंटोनी ने भी गत दिवस श्रीमती सीतारमण द्वारा सदन में दी गई सफाई को गलत बताते हुए गोपनीयता विषयक अनुबंध से इंकार कर दिया। दरअसल लोकसभा में राहुल के भाषण और उसके बाद रक्षामंत्री द्वारा पेश की गई सफाई के फौरन बाद ही फ्रांस सरकार ने स्पष्टीकरण जारी करते हुए श्री गांधी के उस दावे को गलत बता दिया कि फ्रांस के राष्ट्रपति से हुई उनकी भेंट में राफेल सौदे को गोपनीय रखे जाने संबंधी प्रावधान का  खंडन किया गया था। बकौल राहुल उस मुलाकात में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और काँग्रेस नेता आनन्द शर्मा भी उनके साथ थे। श्री शर्मा ने भी राफेल विवाद में कल सरकार पर हमला बोला।  दोनों तरफ  से आये विशेषाधिकार हनन प्रस्तावों का क्या हश्र होता है इसमें आम लोगों को विशेष रुचि नहीं है लेकिन अभी तक बेदाग बनी हुई मोदी सरकार के दामन पर छींटे डालकर राहुल दरअसल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और श्री मोदी को घेरने की रणनीति बना रहे हैं। चूंकि भ्रष्टाचार हमारे देश के लिए चिरपरिचित चीज है इसलिए उसका कोई भी आरोप आम जनता के दिल में बैठ जाता है। कोई भी अरबों - खरबों का सौदा बिना घूस खाये या खिलाये हो जाएगा ये मान लेना  किसी आश्चर्य से कम नहीं होता। नरेंद्र मोदी को विफल मानने वाले भी इस बात के लिए उनकी प्रशंसा किया करते हैं कि आदमी पाक साफ  है। भले ही वे भ्रष्टाचार को खत्म नहीं कर सके किन्तु स्वयं उससे पूरी तरह दूर हैं। लेकिन राफेल सौदे संबंधी विवाद उठाकर राहुल ने सीधे प्रधानमंत्री को ही लपेटे में लेने की जो कोशिश की उसे अन्य भाजपा विरोधी दल और तबका भी हाथों हाथ ले रहा है। मामला जिस तरह उछल रहा है उसे केवल गोपनीयता के बहाने दबाए रखना श्री मोदी और भाजपा दोनों के लिए घातक हो सकता है। यदि ये प्रकरण काफी पहले उठता तब सरकार के पास बचाव का भरपूर समय होता लेकिन चुनावी वर्ष में ऐसे विवादों पर दी जाने वाली सफाई का असर नहीं होता। उस लिहाज से प्रधानमंत्री को भी ऐसा कुछ करना चाहिए जिससे कि फ्रांस के साथ हुए किसी भी अनुबंध का उल्लंघन हुए बिना श्री गांधी द्वारा लगाए जा रहे  आरोपों का खंडन इस तरह हो सके जिससे आम जनता भी संतुष्ट हो। राफेल विवाद में गोपनीयता से ज्यादा बड़ा मुद्दा विश्वनीयता का है। 2014 के चुनाव अभियान में श्री मोदी ने न खाऊंगा , न खाने दूंगा का नारा जमकर उछाला था। अब तक का अनुभव ये बताता है कि अपने  दूसरे दावे को तो वे पूरा नहीं कर सके किन्तु न खाऊंगा वाली बात उन्होंने साबित कर दिखाई थी।  राफेल सौदे में लगे आरोप उनकी ईमानदारी पर सवाल खड़े कर रहे हैं इसलिए ये जरूरी है वे ऐसा रास्ता निकालें जिससे विपक्ष भी संतुष्ट हो और जनता भी। इस हेतु एक संसदीय पैनल बनाया जा सकता है जिसमें विभिन्न दलों के सांसद शरीक हों। उसे गोपनीयता की शपथ दिलवाकर राफेल सौदे संबंधी दस्तावेज दिखाकर सरकार अपनी ईमानदारी के प्रमाण दे सकती है। और कोई भी उपाय इस विवाद में कारगर नहीं होगा क्योंकि काँग्रेस और राहुल इस समय आक्रमण ही सर्वोत्तम सुरक्षा के सिद्धांत पर चल रहे हैं। शतरंज के खेल में कई मर्तबा प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी के बादशाह को शह पर शह देने की नीति अपनाकर भयभीत करने का प्रयास किया जाता है जिससे आत्मरक्षा की भड़भड़ाहट में उससे गल्ती हो और मात दी जा सके। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि बीते लगभग साढ़े चार साल में मोदी सरकार राजनीतिक संकटों से चाहे जितनी घिरी हो किन्तु भ्रष्टाचार के आरोप उस पर ठहर नहीं पा रहे थे। लेकिन इस समय भाजपा विरोधी दल एकजुट हो गए हैं। और फिर सत्ता में बैठे लोगों पर इस तरह के दबाव आना कोई नई बात नहीं है। भाजपा ने राहुल पर बिना प्रमाण आरोप लगाने के लिए विशेषाधिकार हनन का मामला उठाकर पलटवार भी कर दिया लेकिन इससे उसकी छवि नहीं सुधरने वाली। बेहतर हो प्रधानमंत्री इस विषय को गंभीरता से लेते हुए श्री गांधी के आरोपों को गलत साबित करें वरना आम जनता में उनके प्रति व्याप्त विश्वास खंडित तो होगा ही सुरक्षा की दृष्टि से किये जाने वाले रक्षा सौदों में अड़ंगा लग जायेगा जैसा अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर के साथ हुआ। डॉ. मनमोहन सिंह के समय रक्षा उपकरणों की खरीद का काम बेहद पिछड़ गया जिसका बुरा असर सेना की ताकत पर पड़ा। मोदी सरकार ने इस बारे में तेजी से निर्णय लेकर फौज की सामरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए अच्छे कदम उठाए और बिचौलियों को दूर कर सीधे सरकार के स्तर पर अनुबंध किये जिससे किसी भी तरह के भ्रष्टाचार की गुंजाइश न रहे किन्तु राफेल सौदे  में एक भारतीय उद्योगपति को लाभान्वित किये जाने की बात से संदेह के बादल उमडऩे लगे। कुछ लोग इसे देश के कारपोरेट घरानों के शीत युद्ध से जोड़कर भी देख रहे हैं। वास्तविकता जो भी हो और श्री मोदी कितने भी पवित्र क्यों न हों, उन्हें अग्निपरीक्षा देनी ही होगी। भले ही राहुल गांधी राफेल सौदे में किसी भी तरह के भ्रष्टाचार को सिद्ध न कर पाएं लेकिन ये सरकार के लिए बेहतर होगा कि वह ऐसा कुछ करे जिससे प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता भी साबित हो जाए और देश की रक्षा जरूरतें भी समय पर पूरी होती रहें। लेकिन जि़म्मेदारी राहुल गांधी की भी कम नहीं है क्योंकि 2008 में हुए गोपनीयता अनुबंध की बात यदि प्रामाणिक निकली तो फिर कांग्रेस वर्तमान से भी बुरी स्थिति का शिकार हो जाएगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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