Monday 2 July 2018

जीएसटी : दरें और सरकारी आतंक घटाना जरूरी


शायद ही इसके पहले किसी कर की शुरुवात के पहले इतना विवाद हुआ तथा उसकी शुरुवात और वर्षगांठ को जश्न का स्वरूप दिया गया हो। गत दिवस जीएसटी नामक कर प्रणाली को लागू हुए एक वर्ष पूरा हो गया। संसद के संयुक्त अधिवेशन की तर्ज पर आयोजित समारोह में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति की मौजूदगी में 30 जून 2017 की रात ज्योंही घड़ी ने बारह बजाए त्योंही जीएसटी के रूप में एक बहुप्रतीक्षित कर प्रणाली देश में लागू कर दी गई। कुछ देशों में जीएसटी की एक ही दर है लेकिन भारत में घरेलू परिस्थितियों के मुताबिक 5, 12, 18 और 28 प्रतिशत के तौर पर चार दरें रखी गईं। एक देश, एक टैक्स के नारे के साथ शुरू जीएसटी का प्रमुख उद्देश्य अनेक राज्यों में विभिन्न वस्तुओं पर करों की अलग-अलग दरें होने की वजह से अंतर्राज्यीय व्यापार में होने वाली परेशानी दूर करने के साथ ही कर प्रणाली को सरल और पारदर्शी बनाकर कर चोरी और सरकारी विभागों का भ्रष्टाचार रोकना था। राज्यों और केंद्र के बीच करों का न्यायोचित बंटवारा भी संघीय गणराज्य की अवधारणा के अनुरूप हो इसके नियमन हेतु जीएसटी काउंसिल बनाई गई जिसमें सभी राज्यों को प्रतिनिधित्व देते हुए  निर्णय प्रक्रिया में उन सभी की भागीदारी सुनिश्चित की गई। इसका प्रमाण ये है कि अभी तक के सभी फैसले काउंसिल ने सर्वसम्मति से लिये। लेकिन एक वर्ष बाद ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि जीएसटी को लेकर जो सपने दिखाए और जो उम्मीदें जगाई गईं वे हकीकत में नहीं बदल सकीं। इसके पीछे अनेक वजहें रहीं। सबसे पहले तो दरों से लेकर समूची प्रणाली को लागू करने तक की प्रक्रिया में अनिश्चितता एवं जटिलता और दूसरा सरकारी विभागों की चिर-परिचित परेशान करने वाली कार्यप्रणाली जो करदाता को सहयोग और आश्वस्त करने के बजाय परेशान और भयभीत ज्यादा करती है। इनके अलावा विभिन्न राज्यों के बीच हितों के टकराव ने भी जीएसटी को उतना सरल और सफल नहीं होने दिया, जितनी अपेक्षा थी। सबसे बढ़कर बात ये रही कि जीएसटी ने छोटे और मझोले किस्म के व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में कागजी काम और कर संबंधी औपचारिकताएं इतनी बढ़ा दीं कि इसे लेकर परेशान होते हुए यह तबका सरकार को कोसने लगा। नोटबन्दी के बाद ये एक बड़ा झटका था। यद्यपि धीरे-धीरे चीजें पटरी पर आती गईं तथा सरकार और जीएसटी काउंसिल दोनों ने गलतियों से सीखने की बुद्धिमत्ता दिखाते हुए अनेक सुधार और संशोधनों के जरिये जटिलता को कम किया किन्तु सरकार का राजस्व बढऩे के बावजूद भी जीएसटी अभी भी उन उम्मीदों के मुताबिक नहीं बन सका जो इसे लेकर संजोई गईं थीं। यही वजह रही कि नए करदाताओं के रिकार्ड तोड़ पंजीयन के बाद भी कर संग्रह लक्ष्य के अनुसार नहीं हो पा रहा और अभी भी बिना बिल के होने वाला व्यापार जारी है। उसके लिए कुछ वस्तुओं पर  ऊंची टैक्स दरें भी जिम्मेदार हैं। पूर्व वित्तमंत्री पी.चिदंबरम द्वारा एक ही दर रखे जाने को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ये कहना पूरी तरह सही है कि खाद्य सामग्री और महंगी मर्सिडीज कार पर एक सा कर अव्यवहारिक और जन विरोधी होगा लेकिन दूसरी तरफ  ये भी सही है कि 28 प्रतिशत जैसी ऊंची दर के कारण  कर चोरी को पूरी तरह रोक पाना संभव नहीं हो पाया। वहीं पेट्रोल और डीजल सहित अन्य पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी से बाहर रखने की वजह से आम उपभोक्ता को ये कर सरकारी लूटमार लगने लगा। हालांकि इसे लेकर गैर भाजपा शासित राज्य भी तैयार नहीं हैं लेकिन उक्त वस्तुओं को छुट्टा छोड़ देने से जीएसटी को लोकप्रिय बनाने का मकसद पूरा नहीं हो सका। ऐसा नहीं है कि हर व्यापारी कर चोरी करता हो लेकिन करों की ऊँची दरें ग्राहक को भी असहनीय लगने से कर चोरी की शुरुवात होती है। एक वर्ष पूरा होने पर सरकार ने जहां अपने हाथों से अपनी पीठ ठोंकी है वहीं जनता और व्यापार जगत में जीएसटी को लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएं हैं। आम धारणा ये है कि कर की अधिकतम दर 18 प्रतिशत से अधिक न हो और पेट्रोल-डीजल सहित सहित सभी पेट्रोलियम पदार्थ जीएसटी के अंतर्गत लाए जाएं। वैसे जीएसटी लागू होने पर अनेक वस्तुएं और सेवाएं सस्ती हुई हैं लेकिन जैसे सब्जबाग दिखाए गए उनके मुताबिक राहत नहीं मिलने से सरकार को वह प्रशंसा और सफलता नहीं मिल सकी जिसकी उसे ही नहीं पूरे देश को उम्मीद थी। बहरहाल एक साल पूरे होने पर जीएसटी की विसंगतियां और अव्यवहारिक पहलू सामने आ चुके हैं।। यदि केंद्र और राज्य सरकारें वाकई इसे ऐतिहासिक कर सुधार बनाना चाहती हैं तब उन्हें चाहिए वे जनता के साथ उद्योग-व्यापार जगत की उचित मांगों और अपेक्षाओं पर निश्चत समय सीमा के भीतर खुले मन से विचार करते हुए तदनुसार निर्णय करें। जीएसटी को वापिस लेना तो सम्भव नहीं है इसलिए बेहतर यही होगा इसे पूरी तरह जनहितैषी और व्यवहारिक बनाया जाए जिससे  सरकार को पर्याप्त कर मिले, कर चोरी व भ्रष्टाचार रुके और देश विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सके। सबसे बड़ी जरूरत सरकार की तरफ  से ये विश्वास दिलाने की है कि उसका उद्देश्य मुनाफाखोरी करना नहीं है। इसके अलावा सरकारी अमले की कार्यप्रणाली और संस्कृति  में आमूल परिवर्तन की भी आवश्यकता है जो करदाताओं को आकर्षित और प्रेरित करने की बजाय आतंकित करती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले वर्ष 1 जुलाई को जीएसटी की दूसरी वर्षगांठ पर जनता भी उसके जलसे में खुशी-खुशी शामिल होगी। इस वर्ष तो वह महज सरकारी आयोजन बनकर रह गया।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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