Saturday 30 June 2018

दुष्कर्म रोकने संस्कारों को पुनर्जीवित करना जरूरी

मंदसौर में एक अबोध बालिका के साथ हुए दुष्कर्म में शामिल नरपिशाच किस धर्म या जाति के थे ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना ये कि इस तरह के अपराध अब एक प्रवृत्ति के रूप में सामने आ रहे हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब देश के किसी न किसी हिस्से से दुष्कर्म की खबर न आती हो। मप्र तो वैसे भी इस मामले में काफी कुख्यात हो चुका है। 12 साल से कम की बालिका के साथ बलात्कार पर मृत्युदंड का प्रावधान होने पर भी दुष्कर्म की वारदातें नहीं रुकना कानून व्यवस्था के लिहाज से तो चिंताजनक है ही लेकिन उससे भी ज्यादा दुखद ये है कि इस तरह की राक्षसी मानसिकता जोर पकड़ती जा रही है। होने को बलात्कार पहले भी होते रहे हैं लेकिन बीते कुछ वर्षों से मासूम बालिकाओं के साथ दुष्कर्मों की घटनाओं में निरंतर वृद्धि एक बड़ी सामाजिक समस्या के तौर पर सामने आई है। जब भी ऐसी वारदात होती है समाचार माध्यम, सरकार और राजनीतिक दलों के अलावा पीडि़ता  के  जाति संगठन हरकत में आते हैं। पुलिस और प्रशासन भी मुस्तैद हो जाते हैं। आरोपियों को पकडऩे और कड़ा दंड देने की कवायद भी की जाती है। लेकिन दुर्भाग्यवश ये पूरी तरह से तात्कालिक होता है। घटना के कुछ दिन बाद ही सब कुछ भुला दिया जाता है। निर्भया कांड के उपरांत देश भर में गुस्से की लहर दौड़ पड़ी थी। सड़क से संसद तक दुष्कर्मियों के विरुद्ध कड़े से कड़े कदम उठाए जाने की जरूरत भी बताई गई। संसद सहित अनेक राज्यों की विधानसभाओं ने अबोध बालिकाओं के साथ दुष्कर्म करने वालों को फाँसी पर लटकाने संबंधी कानून भी बना दिया लेकिन उसके बाद भी इस तरह के अपराध कम होने की बजाय बढ़ते जा रहे हैं। दुष्कर्म में सजा हेतु नाबालिग लड़कों की उम्र संबंधी सीमा घटाने पर भी स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं आना ये साबित करता है कि चारित्रिक गिरावट संक्रामक रोग की तरह से होती जा रही है। इस तरह के अपराधों में वृद्धि से ये सवाल उठता है कि नारी, विशेष रूप से बेटियों को देवी स्वरूप मानने वाले समाज की मानसिकता में आ रहे इस परिवर्तन का कारण और उसे दूर करने का उपाय क्या है ? जैसा पूर्व में कहा गया कि केवल पुलिस और कानून के भरोसे बैठकर इस तरह के अपराध नहीं रोके सकते। इसके लिए समाज को अपनी उस भूमिका में लौटना होगा जो हमारे देश की पहिचान और परंपरा रही है। पतन की स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि निकट रक्त संबंधों से जुड़ी मर्यादा को तोडऩे का दुस्साहस तक होने लगा है। इसके लिए आधुनिकता उत्तरदायी है या सामाजिक ढांचे का कमजोर होना ये विश्लेषण का विषय हो सकता है किंतु इस तथ्य से तो कोई इनकार नहीं कर सकता कि अबोध बालिकाओं के साथ होने वाला दुष्कर्म तेजी से फैला है। ये सिलसिला कहाँ जाकर रुकेगा कोई नहीं बता सकता लेकिन समाज इस बारे में मौन साधकर बैठ जाये ये भी उचित नहीं होगा। जरूरी है परिवार के भीतर दिए जाने वाले संस्कारों को पुनर्जीवित किया जावे क्योंकि बाल्य और किशोरावस्था के दौरान बच्चों को घर के भीतर मिलने वाली शिक्षा ही उनके जीवन की  दिशा को काफी हद तक तय कर देती है। ये बात सच है कि संयुक्त परिवार टूटने की वजह से बच्चों की परवरिश पहले जैसी नहीं रही किन्तु कोई भी माता-पिता ये नहीं चाहता कि उनका बेटा बड़ा होकर या उससे पहले ही बलात्कारी बनकर सामने आए। ये सब देखते हुए अच्छा यही होगा कि किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रखने वाले बच्चों खासकर बेटों को लड़कियों के साथ व्यवहार करने की सीमा समझाई जाती रहे। आज का दौर खुलेपन का है लेकिन लड़के-लड़की अथवा महिला-पुरुष के बीच के संबंधों में मर्यादा और परस्पर सम्मान का जो भाव सभ्य समाज की आवश्यकता है, उसे बरकरार रखना ही होगा  वरना स्वतंत्रता, स्वच्छन्दता में बदलने के  बाद अराजकता की स्थिति में पहुँच जाएगी जो कोई भी नहीं चाहेगा। भारतीय समाज पर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव तेजी से बढऩे की वजह से समाज द्वारा निर्धारित अनेक मर्यादाएं टूटी या कमजोर हुई हैं लेकिन ये भी सही है कि विदेशी दासता के बावजूद भारत की आत्मा मरने से बची रही और उसी आधार पर ये विश्वास किया जा सकता है कि यदि समाज की महत्वपूर्ण इकाई के रूप में परिवार और उसे चलाने वाले अभिभावक अपने दायित्व के प्रति जागरूक और प्रतिबद्ध हों तो स्थिति को बहुत हद तक सुधारा जा सकता है। गरीब और अविकसित होने जैसा धब्बा तो फिर भी धोया जा सकता है लेकिन भारत के माथे पर दुष्कर्मी होने जैसा  कलंक लगना डूब मरने वाली बात होगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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