Tuesday 12 June 2018

निजी क्षेत्र से नियुक्ति : सकारात्मक प्रयोग


केंद्र सरकार द्वारा प्रशासनिक सुधार हेतु प्राप्त सिफारिश पर अमल करते हुए  निजी क्षेत्र में 15 वर्ष से सेवाएं दे रहे अनुभवी पेशेवरों को सीधे भर्ती के जरिये संयुक्त सचिव बनाने के फैसले को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है। मुख्य आपत्ति इस बात को लेकर है कि इन नियुक्तियों में सत्तारूढ़ भाजपा अपनी विचारधारा के लोगों को महत्वपूर्ण विभागों में पदस्थ कर देगी। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और बसपा प्रमुख मायावती इस मामले में खुलकर सामने आए हैं वहीं सोशल मीडिया सहित अन्य विचार मंचों पर भी केंद्र के उक्त फैसले को लेकर पक्ष-विपक्ष में टिप्पणियां आ रही हैं। यद्यपि विषय बौद्धिक स्तर का है इसलिये आम जनता के स्तर तक ये शायद चर्चा में न भी आए किन्तु जिन्हें भी शासन-प्रशासन की समझ है वे अवश्य इसका संज्ञान ले रहे हैं। जहां तक बात औचित्य की है तो केंद्र सरकार के पास प्रशासनिक सुधार हेतु आई सिफारिश का आधार है जिसमें उसकी या भाजपा/रास्वसंघ की कोई भूमिका नहीं कही जा सकती। रही बात पिछली सरकार द्वारा ठंडे बस्ते में डालकर रखी गई सिफारिश को लागू करने की तो ये सरकार के विवेक पर निर्भर है कि वह किसी आयोग या समिति की अनुशंसा अथवा सुझाव को स्वीकार करे या नहीं। चूंकि पिछली सरकार ने संबंधित सिफारिश को रद्दी की टोकरी में न फेंकते हुए दबाकर रख दिया इसलिये मौजूदा सरकार को उसे लागू करने में कोई परेशानी नहीं हुई। निजी क्षेत्र से योग्य और अनुभवी लोगों को संयुक्त सचिव बनाने के लिए विधिवत अधिसूचना जारी करते हुए आवेदन भी आमन्त्रित कर लिए गए। महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर निजी क्षेत्र के लोगों को नियुक्त करने का चलन नया नहीं है। मंत्रीगण अपने लिए ओएसडी (विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी) के रूप में निजी लोगों की सेवाएं लेते रहे हैं। केन्द्र और राज्य दोनों में ऐसा होता आया है। यद्यपि संयुक्त सचिव स्तर पर जिस प्रकार से नियुक्ति की प्रक्रिया मोदी सरकार ने प्रारम्भ की वह अवश्य एक नई बात है। इसका उद्देश्य केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली को सक्षम और जिम्मेदार बनाना है। जिस सिफारिश के आधार पर ये निर्णय लिया गया उसमें भी कहा गया था कि निजी क्षेत्र के प्रतिभासम्पन्न और अनुभवी पेशेवर प्रबन्धकों की सेवाओं का शासन में उपयोग करने से सरकारी विभागों की कार्य संस्कृति में अपेक्षानुसार सुधार किया जा सकेगा। ये निर्णय कितना सफल हो सकेगा ये अभी से कहना कठिन है क्योंकि प्रशासनिक पदों पर पहले से बैठे नौकरशाह इन नए लोगों को कितना बर्दाश्त कर पाएंगे ये बड़ा सवाल है। सरकारी दफ्तर चाहे वह केंद्रीय सचिवालय हो या किसी स्थानीय निकाय का दफ्तर, उनकी कार्यप्रणाली में समय के साथ बदलाव या सुधार नहीं हो सका तो उसकी वजह पेशेवर दृष्टिकोण का अभाव ही है। जो राजनीतिक नेता इस निर्णय के विरोध में हैं वे भूल रहे हैं कि अब तो राजनीतिक दल भी बदलते समय और नई पीढ़ी की अपेक्षाओं के मद्देनजर निजी क्षेत्र से आये पेशेवरों को न केवल संगठन अपितु सत्ता में भी महत्वपूर्ण पदों पर आसीन कर रहे हैं। 2014 के चुनाव में भाजपा के चुनाव अभियान के मुख्य रणनीतिकार प्रशांत किशोर बाद में बिहार चुनाव में नीतिश कुमार के लिए व्यूहरचना में जुटे और पुरस्कार स्वरूप नीतिश ने उन्हें सरकार का सलाहकार भी बना लिया। केंद्र सरकार अपने प्रशासनिक काडर से बाहर के विशेषज्ञों को भी बतौर सलाहकार नियुक्त करती रही हैं। रिज़र्व बैंक के पिछले गवर्नर को मनमोहन सरकार विदेश से लेकर आई थी। मोदी सरकार ने नीति आयोग सहित आर्थिक और अन्य तकनीकी मामलों में निजी क्षेत्र के पेशेवरों को नियुक्त किया। आधार कार्ड बनवाने की महत्वाकांक्षी योजना के क्रियान्वयन हेतु यूपीए सरकार ने इंफोसिस के नंदन नीलेकणि की सेवाएं लेने में परहेज नहीं किया। विभिन्न राजनीतिक दल अब पूर्व नौकरशाहों को सीधी भर्ती देकर अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं पर लाद देते हैं जिसका कारण उनके अनुभव और योग्यता का उपयोग करना ही होता है। मोदी सरकार में कई पूर्व नौकरशाह सांसद और मंत्री बने जिनमें पूर्व थल सेनाध्यक्ष भी हैं। इससे साबित होता है कि अनुभव और पेशेवर दक्षता की जरूरत राजनीतिक क्षेत्रों को भी है भले ही उसे व्यक्त न किया जाए। दलितों की पार्टी बसपा में मायावती के विश्वस्त सलाहकार के रूप में ब्राह्मण सतीशचन्द्र मिश्र हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता होना उनकी योग्यता है। दलितों की पार्टी एक सवर्ण को महासचिव बनाकर राज्यसभा भेजती जा रही हैं तो इसके पीछे श्री मिश्रा का कानूनी ज्ञान ही है। निजी क्षेत्रों के पेशेवरों से पहले ही तमाम क्रिकेटर, अभिनेता-अभिनेत्रियां, उद्योगपति राजनीति में आकर उच्च पदों पर पहुंचे। उस दृष्टि से केंद्र सरकार के फैसले का विरोध औचित्यहीन लगता है। रही बात इसमें राजनीतिक प्रतिबद्धता की तो ये बात नहीं भूलना चाहिए कि निजी क्षेत्र के अनुभवी प्रबंधक अपने काम पर ध्यान देते हुए समय सीमा में लक्ष्य पूरा करने में सिद्धहस्त होते हैं। यूँ भी उदारीकरण का दौर शुरू होते ही शासकीय कार्यों में निजी क्षेत्र की सेवाएं लेने का चलन चल पड़ा है। ऐसे में यदि संयुक्त सचिव के स्तर पर निजी क्षेत्र से न्यूनतम 15 साल का अनुभव प्राप्त योग्य लोगों की सीधी नियुक्ति होती है तो इसे एक सकारात्मक प्रयोग के तौर पर देखा जाना चाहिए। रही बात उनकी वजह से निजी क्षेत्र के स्वार्थ पूरे होने की तो उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान के वर्तमान राज्यपाल कल्याण सिंह का ये कथन इस बारे में उल्लेखनीय है कि नौकरशाही वह घोड़ा है जो उस पर बैठे घुड़सवार की मर्जी से दौड़ता और रुकता है। ये घुड़सवार पर निर्भर है कि वह उस पर किस तरह नियंत्रण रख पाता है। जब राजनीति सहित सभी सरकारी क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की सेवाओं का उपयोग किया जा रहा है तब प्रशासन में भी क्यों नहीं? बेहतर हो इस निर्णय के परिणामों के लिए प्रतीक्षा की जाए। प्रतिवर्ष अनेक नौकरशाह नौकरी छोड़कर राजनीति या अन्य क्षेत्रों में जाते है जिसकी प्रमुख वजह सरकारी दफ्तर की कार्य संस्कृति में पेशेवर दृष्टिकोण का अभाव बताई जाती है। ऐसे में निजी क्षेत्र के अनुभवी प्रबंधक यदि सरकार की सेवा हेतु आते हैं तो बुरा क्या है? हाँ, उन अफसरों को जरूर घबराहट हो रही होगी जो मोटी तनख्वाह और सुविधाओं के बाद भी अकर्मण्यता के पर्याय बने बैठे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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