Friday 1 June 2018

राष्ट्रीय पार्टियों पर क्षेत्रीय दलों का दबाव बढ़ेगा

विभिन्न राज्यों में हुए उपचुनाव के जो नतीजे विगत दिवस घोषित हुए उन्हें भाजपा के विरुद्ध विपक्षी एकता की सफलता के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। चूंकि भाजपा ने अपनी उप्र की कैराना और महराष्ट्र की भंडारा-गोंदिया लोकसभा सीट क्रमश: रालोद और राकांपा के हाथों गवां दीं इसलिए ये माना जा रहा है कि मोदी लहर के कमजोर होने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। कैराना के साथ उप्र की नूरपुर विधानसभा सीट भी भाजपा से सपा ने छीन ली। भाजपा केवल महाराष्ट्र पालघर लोकसभा और उत्तराखंड की थराली विधानसभा सीट बचा सकी। कांग्रेस को पंजाब में एक, महाराष्ट्र की 2 और कर्नाटक एवं मेघालय की एक-एक विधानसभा सीट जरूर मिल गई किन्तु लोकसभा के चार उपचुनावों में कैराना और भण्डारा-गोंदिया में तो वह लड़ी नहीं और  पालघर में हिम्मत की भी तो वह पांचवे स्थान पर लुढ़क गई। इन नतीजों से स्पष्ट हो गया कि भाजपा और काँग्रेस दोनों को क्षेत्रीय दलों की तरफ  से जबरदस्त चुनौती मिल रही है। बंगाल, झारखंड, नागालैण्ड, मेघालय, उप्र, बिहार और महाराष्ट्र तक में क्षेत्रीय पार्टियाँ जिस तरह से राष्ट्रीय पार्टियों के समक्ष अड़ रही हैं वह भविष्य की दृष्टि से विचारणीय है। वामपंथी तो केरल में वे एक विधानसभा उपचुनाव जरूर जीत गए किन्तु बंगाल में उनका भाजपा से पीछे तीसरे स्थान पर लुढ़क जाना उनके अप्रसांगिक होते जाने का एक और प्रमाण है। इन परिणामों से एक बात तो जरूर स्पष्ट हुई कि सारे भाजपा विरोधी एकजुट हो जाएं तो 2019 में मोदी-शाह की सारी रणनीति धरी रह जायेगी। बिहार की एक विधानसभा सीट पर राजद को मिली बड़ी विजय इसको साबित करती है। महाराष्ट्र में भंडारा-गोंदिया लोकसभा सीट पर राकांपा की जीत 20 हजार के मामूली अंतर से तभी हो सकी जब वहां काँग्रेस नहीं लड़ी। वहीं पालघर में मुकाबला शिवसेना और भाजपा के बीच हुआ किन्तु काँग्रेस पांचवे स्थान पर रहकर जितने वोट ले गई वे भाजपा की जीत के अंतर से ज्यादा रहे। एक अन्य क्षेत्रीय दल भी जितने वोट ले गया यदि वे भी भाजपा के विरोध में मानें तब उसकी जीत असम्भव होती। उपचुनावों का मुख्य फोकस रहा उप्र की कैराना लोकसभा  सीट पर। फूलपुर और गोरखपुर का प्रयोग दोहराते हुए सपा और बसपा ने तो हाथ मिलाया ही काँग्रेस भी उनसे जुड़ गई। अजीत सिंह की रालोद का जाट मतों पर प्रभाव देखकर मुस्लिम प्रत्याशी उसके चिन्ह पर उतार दिया गया जिससे भाजपा को धु्रवीकरण से रोका जा सके। 5 लाख मुसलमान मतदाताओं के गोलबंद होने के कारण भाजपा पूरा जोर लगाकर भी हारने को मज़बूर हो गई। इससे ये सन्देश पूरे देश को देने की कोशिश की जा रही है कि उप्र में भाजपा को रोकने का नुस्खा हाथ लग गया है। लेकिन जो समीकरण दिखाई दे रहे हैं उनमें भले ही भाजपा का आभामंडल कमजोर पड़ता लगे लेकिन कांग्रेस का उत्थान भी नहीं दिखाई दे रहा। अरविंद केजरीवाल ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि अब स्पष्ट हो गया कि मोदी विकल्प नहीं है। उनकी बात का ये आशय निकाला जा सकता है कि विपक्ष का तात्कालिक लक्ष्य केवल येन केन प्रकरण मोदी को रोकना है क्योंकि 2019 में भाजपा की वापिसी से न सिर्फ  काँग्रेस अपितु अधिकतर क्षेत्रीय दलों का भविष्य भी खतरे में पड़ जाएगा किन्तु सबसे बड़ा पेंच ये है कि उप्र और बिहार को छोड़कर बाकी राज्यों में क्या विपक्षी एकता महागठबंधन का रूप ले सकेगी और उसमें काँग्रेस का हिस्सा कितना होगा? उदाहरण के तौर पर बंगाल में ममता बैनर्जी वामपंथियों को किसी भी सूरत में उपकृत नहीं करेंगीं और कांग्रेस वहां वामपंथियों के साथ है। इसी तरह केरल में वाममोर्चा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी अभी भी कांग्रेस ही है। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ उपचुनाव में भले ही तालमेल बन गया हो किन्तु शरद पवार की राकांपा और कांग्रेस, उद्धव ठाकरे के साथ कितनी दूर चल सकेंगी ये सोचने वाली बात है क्योंकि हिंदुत्व के मामले में शिवसेना तो भाजपा से भी ज्यादा कट्टर और आक्रामक मानी जाती है। उप्र और बिहार में भाजपा के विरोध में बनने वाले गठबंधन में कांग्रेस को कितना महत्व मिलेगा क्योंकि बाकी की तो छोड़ दें खुद सोनिया गांधी और राहुल अपनी लोकसभा सीट जीतने के लिए सपा और बसपा के रहमो करम पर निर्भर हैं। और कोई कितना भी गुणाभाग लगाए किन्तु बिना कांग्रेस को दूल्हा बनाये विपक्षी महागठबंधन की बारात नहीं सज सकेगी। ममता बैनर्जी और चंद्राबाबू नायडू के अलावा राजशेखर रेड्डी और अखिलेश यादव तक राहुल गांधी को बतौर प्रधानमंत्री पेश करने के प्रति अपनी हिचक दिखा चुके हैं। ऐसी स्थिति में श्री केजरीवाल का ये कहना कि मोदी विकल्प नहीं रहे विपक्षी एकता की पुष्टि नहीं करता। ऐसा लगता है उप्र में सपा-बसपा अपने अस्तित्व के लिए  किसी भी कीमत पर भाजपा को रोकने के लिए जैसा गठबंधन करना चाह रहे हैं वह अन्य राज्यों में आसान नहीं। कुमारस्वामी की शपथ ग्रहण पर हुए विपक्षी जमावड़े को 2019 से जोड़कर देखना उस दृष्टि से जल्दबाजी होगी। सही बात ये है कि विपक्षी एकता की पहल भले काँग्रेस कर रही है किन्तु उसे 2004 सरीखी सफलता नहीं मिलती दिखाई दे रही क्योंकि क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएँ भी आसमान छूने लगी हैं। दूसरी तरफ  ये तथ्य भी खुलकर सामने आ गया है कि  भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर उस स्थिति में आती जा रही है जहां कभी काँग्रेस हुआ करती थी। बंगाल में वामपंथियों और काँग्रेस की संयुक्त शक्ति भी उसके उभार को नहीं रोक पा रही। कर्नाटक में काँग्रेस द्वारा कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद सौंपने से अन्य क्षेत्रीय दलों के मुंह में भी पानी आ गया। प्रश्न ये उठ खड़ा होता है कि यदि 2019 में भाजपा को बहुमत नहीं मिला तब नरेन्द्र मोदी का उत्तराधिकारी कौन होगा क्योंकि काँग्रेस के 100 सीटों तक पहुंचने की संभावनाएं आज की स्थिति में तो नहीं दिखतीं। मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और गुजरात छोड़कर कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला बाकी नहीं है। अन्य सभी राज्यों में उसे सीटों का बंटवारा करना होगा जिसमें क्षेत्रीय दल उसे ज्यादा वजन नहीं देंगे। कर्नाटक को ही लें तो अब देवेगौड़ा परिवार भी उसका हिस्सा झपटने तैयार रहेगा। वहीं आंध्र में चंद्राबाबू नायडू और तेलंगाना में राजशेखर रेड्डी काँग्रेस को सुई की नोक बराबर जमीन भी देने को राजी नहीं होंगे। भाजपा के लिए भी क्षेत्रीय दलों का आक्रामक रवैया मुसीबत बनता जा रहा है क्योंकि वे उससे विचारधारा के आधार पर नहीं चिपके। जब उन्हें ये एहसास हो जाएगा कि भाजपा और श्री मोदी का करिश्मा कमजोर पड़ रहा है तो वे भी दूसरी मुंडेर पर बैठने में देर नहीं लगाएंगे। शिवसेना हिंदुत्व के नाम पर भाजपा की सहज मित्र थी किन्तु फिलहाल उद्धव ठाकरे प्राचीनकाल के राजपूतों वाली लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें सामने वाले के नुकसान के लिए दुश्मन से हाथ मिलाने में भी संकोच न किये जाने की नीति है। 2019 में शिवसेना अलग लडऩे की घोषणा कर चुकी है लेकिन कांग्रेस और राकांपा से उसका गठबंधन आसान नहीं  होगा और उस स्थिति में नतीजा पालघर जैसा आएगा। इन सबसे हटकर देखें तो क्या भाजपा के रणनीतिकार अपने जनाधार को इसी  तरह खिसकते देखते रहेंगे? जद (यू) महासचिव सहित अनेक विश्लेषकों ने माना है कि कर्नाटक चुनाव के फौरन बाद पेट्रोल-डीजल के दामों में रोजाना हुई वृद्धि इन उपचुनावों में भाजपा की हार का कारण बन गई। कैराना में गन्ना किसानों की समस्या ने पार्टी की लुटिया डुबोई। ये दोनों बातें अपनी जगह सही हैं किंतु मोदी सरकार ने अगर पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में लाकर कीमतें घटा दीं तब भी क्या लोग उसके प्रति ऐसे ही नाराज रहेंगे ? यद्यपि अभी भी भाजपा मोदी रूपी मृग मरीचिका में मुग्ध रही तब जरूर उसकी  उम्मीदों पर तुषारापात हो सकता है। गत दिवस उपचुनावों के जो नतीजे आए वे निश्चित रूप से भाजपा के प्रति उसके प्रतिबद्ध मतदाताओं में व्याप्त गुस्से का परिचायक है किंतु ये कांग्रेस के पुनरुत्थान की पुष्टि भी चूँकि नहीं करते इसलिए 2019 के राजनीतिक चित्र का स्वरूप अभी स्पष्ट नहीं है। गठबंधन सरकार बनने की सम्भावना को पूरी तरह से नकार देना तो गलत होगा किन्तु ये भाजपा विरोधी ही होगी ये नहीं कहा जा सकता क्योंकि गठबंधन करने में भाजपा को भी किसी से परहेज तो है नहीं। पीडीपी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। बहरहाल मोदी सरकार पर दबाव तो बढ़ा है। नरेंद्र मोदी आज भी लोकप्रिय हैं किंतु उनमें 2014 वाली बात नहीं रही क्योंकि उनकी सरकार जनता की अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरी नहीं उतर सकी। दुर्भाग्य से कांग्रेस इसका लाभ नहीं उठा पा रही और क्षेत्रीय दलों के सामने बिना शर्त झुकने तैयार हो रही है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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