Wednesday 6 June 2018

आरक्षण : दूरगामी सोच जरूरी


सर्वोच्च न्यायालय ने पदोन्नति में भी आरक्षण की अंतरिम अनुमति देकर केंद्र सरकार को राहत प्रदान कर दी जिस पर लगातार दलित विरोधी होने के आरोप विपक्ष द्वारा लगाए जा रहे हैं। दलित उत्पीडऩ के मामलों में तत्काल गिरफ्तारी नहीं किये जाने सम्बन्धी न्यायालयीन आदेश के कारण भी केंद्र सरकार निरन्तर दबाव में है। सर्वो'च और विभिन्न उ'च न्यायालयों द्वारा सरकारी विभागों में कार्यरत अनु.जाति/जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति में भी आरक्षण की सुविधा मिलने  पर रोक लगा देने से हज़ारों लोग पदोन्नत हुए बिना ही सेवा निवृत्त हो गए। इसकी वजह से सरकार में बैठे लोगों पर आरक्षण विरोधी होने की तोहमत लगने लगी। खास तौर पर भाजपा को इस आरोप से काफी नुकसान हो रहा था। गत दिवस सर्वो'च न्यायालय ने सरकार का पक्ष सुनने के बाद फिलहाल पदोन्नति में आरक्षण जारी रखने का फरमान सुना दिया किन्तु अंतिम निर्णय संविधान पीठ ही करेगी। इस निर्णय को लेकर ये संशय बना हुआ है कि इससे केवल केंद्र सरकार के कर्मचारी लाभान्वित होंगे अथवा राÓयों के भी। विधि विशेषज्ञ सर्वो'च न्यायालय के ताजा आदेश का अध्ययन कर रहे हैं। क्या होगा ये जल्द स्पष्ट हो जाएगा। ये भी माना जा सकता है कि राÓयों को भी उसी आधार पर अंतरिम रूप से तत्सम्बन्धी अनुमति मिल जाए। जिन राÓयों नें आगामी कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं वहां की सरकारें Óयादा चिंता में हैं क्योंकि इस फैसले से वोटों का हिसाब-किताब जुड़ा हुआ है। चूँकि ये तदर्थ व्यवस्था है इसलिए अंतिम फैसले तक रुकना ही पड़ेगा किन्तु इसकी वजह से आरक्षण को लेकर पक्ष-विपक्ष में चल रही बहस और तेज हो जाएगी। सही बात तो ये है कि राजनीति करने वालों को दलित और पिछड़ा वर्ग से कोई प्रेम नहीं है। यहां तक कि जाति की सियासत करने वालों तक को अपने कुनबे के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में उतनी रुचि नहीं है जितनी वोट बैंक में। यही वजह है कि सात दशक बाद भी समाज में दलित और पिछड़े मौजूद हैं। आरक्षण का मूल उद्देश्य पूरी तरह से न्यायोचित था। सदियों से उपेक्षित और वंचित वर्ग को  बराबरी पर लाकर खड़ा करने के लिए प्रदत्त आरक्षण को असीमित समय के लिए जारी रखने का विचार डा. आम्बेडकर के मन में भी नहीं था। लेकिन बाद की राजनीतिक परिस्थितियाँ इस तरह की बन गईं कि आरक्षण की समयावधि बढाई जाती रही जिससे ये साबित होता है कि यह व्यवस्था अपने मकसद में सफल नहीं हो सकी। यदि आज भी दलित और पिछड़े वर्ग के लोग विकास की दृष्टि से बराबरी पर नहीं आ सके तो उसका सीधा-सीधा अर्थ ये निकलता है कि ये दवा भी मर्ज ठीक नहीं कर पाई। उल्टे इसकी वजह से जातिगत द्वेष और बढ़ता गया। आग में घी का काम किया पदोन्नति में भी आरक्षण सम्बन्धी व्यवस्था लागू किये जाने ने। नौकरी में आरक्षण को तो वंचित वर्ग के लिए एक अवसर माना गया लेकिन पदोन्नति करते समय फिर वैसा करना एक तरह से पक्षपात की श्रेणी में रखा जाने लगा। सामाजिक विषमता की वजह से पीछे रह जाने वालों को आगे लाने के लिए आरक्षण एक रचनात्मक प्रयास था किंतु उसका एक उद्देश्य उक्त वर्ग को अपनी शैक्षणिक और पेशेवर क्षमता बढाने का अवसर देना था जिससे वे प्रतिस्पर्धा में टिके रहने का आत्मविश्वास अपने आप में जगा सकें किन्तु पदोन्नति में भी आरक्षण की सुविधा मिलने के कारण आरक्षित वर्ग की बड़ी संख्या पूरी तरह सरकार के भरोसे होकर रह गई। इसमें कुछेक अपवाद भी होते हैं किन्तु आरक्षित होने के बाद निश्चिंत होकर बैठ जाने की प्रवृत्ति ने इस तबके का स्वाभाविक विकास रोक दिया। उसके प्रति समाज के भीतर जो विद्वेष फैला उसकी वजह भी आरक्षण ही है। पदोन्नति किये जाते समय सम्बन्धित कर्मचारी की जति की जगह उसका अनुभव और कार्यकुशलता पैमाना हो तो अ'छा रहेगा। हमारे देश में शासकीय सेवाओं का स्तर जिस तरह से गिरता जा रहा है उसे आरक्षण का दुष्परिणाम मानने वाले बहुत से हैं। यद्यपि खुलकर बोलने से सब कतराते भी हैं। कुल मिलाकर आरक्षण वह दवाई बनती जा रही है जिसका लाभ सतही तौर पर तो महसूस किया जा सकता है किंतु अँगरेजी दवा की तरह से इसके नुकसानदेह साइड इफेक्ट भी खुलकर नजर आने लगे हैं। इन्हीं बिंदुओं को दृष्टिगत रखते हुए ही उ'च और सर्वो'च न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लगा रखी थी। चूंकि मामला वोट बैंक का है इसलिए राजनीतिक बिरादरी अपने-अपने ढंग से सक्रिय हो उठी। गत दिवस सर्वो'च न्यायालय ने जो अंतरिम आदेश सुनाया वह इस बात का प्रमाण है कि अभी न्यायपालिका इस बारे में किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंची है। संविधान सभा ने अगर पदोन्नति में आरक्षण को अवैध निरूपित कर दिया तब विभिन्न राजनीतिक दल क्या न्यायपालिका के उस निर्णय को शिरोधार्य करेंगे, इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा? यही वजह है कि आरक्षण बजाय सामाजिक समानता और समरसता लाने के नई नई समस्यओं को जन्म दे रहा है। राजनेताओं का एकमात्र उद्देश्य तो वोटों की फसल काटना मात्र है इसीलिए वे दूरदृष्टि की बजाय तात्कालिक फायदे की सोचा करते हैं लेकिन देश के मौजूदा माहौल में अब इस तरह के राजनीतिक पैंतरे समाज के भीतर नए तरह का संघर्ष उत्पन्न करने का कारण बन रहे हैं। समय आ गया है जब केवल राजनीति और वोटों से ऊपर उठकर देश और समाज की एकता के बारे में गम्भीर चिंतन किया जाए जिसमें बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की भावना हो। आरक्षण को लेकर तदर्थ और सतही सोच की बजाय ऐसा कुछ करने की जरूरत है जिससे कि समाज का दलित और वंचित वर्ग बजाय किसी की दया पर निर्भर रहने के अपने पांवों पर खड़ा हो सके और वह भी अपनी प्रतिभा के बल पर।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment