Wednesday 20 June 2018

आतंकवाद का सफाया: अब पीडीपी का बहाना भी नहीं रहा

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा का बेमेल गठबंधन आखिर टूट ही गया। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने स्तीफा दे दिया और अब राज्य में राष्ट्रपति शासन रहेगा। कांग्रेस द्वारा खुले शब्दों में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने से मना कर दिए जाने के बाद वहां किसी और गठबंधन सरकार की संभावना समाप्त हो चुकी है। बावजूद इसके अभी तक विधानसभा भंग कर नए चुनाव करवाने की कोई सुगबुगाहट शुरू नहीं हुई। इसका अर्थ ये निकला जा सकता है कि केंद्र सरकार इस दौरान आतंकवादी गतिविधियों के विरुद्ध ऑपरेशन ऑल आउट को तेज करेगी। यद्यपि रमजान के दौरान इकतरफा युद्धविराम के पहले भी उक्त अभियान जारी था लेकिन ये भी सही है कि पीडीपी अपने वोट बैंक की खातिर पत्थरबाजों और अलगाववादियों के विरुद्ध  आर-पार की लड़ाई  नहीं होने दे रही थी। चूँकि कानून व्यवस्था राज्य के अधिकार क्षेत्र में आती है इसलिए केंद्रीय सुरक्षा बलों के हाथ ठिठक जाते थे। पत्थरबाजों पर कायम मुकदमे वापिस लेने की वजह से भी सुरक्षा बलों में गुस्सा और निराशा थी। जब भी घाटी में माहौल शांत होने की उम्मीद बंधी तब-तब कुछ न कुछ  ऐसा कर दिया गया जिसे दूध में नींबू निचोडऩा कहा जा सकता है। दरअसल इस सरकार का गठन ही समझ से परे था। पीडीपी का रुख भाजपा के एकदम विरुद्ध होने के बाद भी न जाने क्यों ये दोनों करीब आए? आश्चर्य की बात ये रही कि रास्वसंघ से भाजपा में आए राम माधव ने ऑपरेशन कश्मीर संचालित करते हुए पीडीपी के साथ गलबहियां करने की भूमिका तैयार की। गठबंधन सदैव न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर आधारित होते हैं लेकिन पीडीपी और भाजपा किस आधार पर और क्यों नजदीक आए ये वे भी नहीं बता सकेंगेे। यद्यपि 2014 का जनादेश इतना टूटा-फूटा था कि किसी स्थायी सरकार का बनना बहुत क़ठिन था। मसलन पीडीपी, कांग्रेस और नेशनल कांफे्रंस चाहते तो उनकी सरकार बन सकती थी किन्तु उसमें पेंच ये था कि मुफ्ती और अब्दुल्ला परिवार में सांप और नेवले जैसे रिश्तों के कारण उनका एक साथ बैठना नामुमकिन था। कांग्रेस भी अकेले दम पर किसी सरकार का सहारा बन नहीं सकती थी। भाजपा के साथ नेशनल कांफे्रंस और काँग्रेस का आना भी असम्भव था। भाजपा को लगा कि उसे मौके का लाभ उठाना चाहिए और उसी सोच के वशीभूत उसने स्व.मुफ्ती मोहम्मद सईद की अगुआई में गठबंधन सरकार बना ली।  भाजपा का सोचना रहा कि वह केंद्र सरकार के बलबूते मुफ्ती को अपने तरीके से हाँक लेगी किन्तु सरकार बनने के साथ ही पीडीपी ने अपनी हरकतें शुरू कर दीं। मशर्रत आलम जैसे खूंखार आतंकवादी को जेल से रिहा कर मुफ्ती ने बर्र के छत्ते में पहला पत्थर मारा। उसी दिन भाजपा को आक्रामक होना चाहिए था लेकिन वह सतही सख्ती दिखती रही। संसद तक मामला पहुंच जाने पर हालांकि मशर्रत को पुन: जेल भेज दिया गया लेकिन उसके बाद भी पीडीपी अपनी हरकतों को दोहराती गई और भाजपा गठबंधन की बेडिय़ों में जकड़ी असहाय बनी रही। बीते तीन साल में कई अवसर ऐसे आये जब भाजपा के लिए गठबंधन तोडऩा बेहद सामयिक और वाजिब होता लेकिन न जाने किस लालच में वह सत्ता से चिपकी रही। हालांकि इस दौरान सुरक्षा बलों ने काफी बेहतर काम किया और बड़े पैमाने पर आतंकवादियों और अलगाववादियों का सफाया किया। पत्थरबाजों के हौसले पस्त करने में भी जबरदस्त कामयाबी मिली किन्तु पहले मुफ्ती और बाद में महबूबा ने कुत्ते की पूंछ के टेढ़े ही रहने की कहावत चरितार्थ करते हुए आतंकवाद के विरुद्ध सैन्यबलों की कड़ाई का खुलकर विरोध किया और 11 हज़ार पत्थरबाजों पर कायम मुकदमे वापिस लेकर भाजपा को ठेंगा दिखा दिया। यही नहीं सुरक्षा बलों के लोगों पर जबरन मुकदमे थोप दिए गए। भाजपा ने जिन भी वजह से ये सब सहा हो लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि पीडीपी के कारनामों के कारण पूरे देश में भाजपा की छवि पर ऐसे दाग लग गए जिन्हें आसानी से धोया नहीं जा सकेगा। गत दिवस अचानक समर्थन वापिस लेकर उसने भले ही अपने समर्थकों को थोड़ी राहत प्रदान कर दी किन्तु सही बात ये है कि ये कदम भी उसने मज़बूरी में उठाया। अगर ईद के पहले सेना के जवान औरंगजेब और वरिष्ठ पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या न हुई होती तब शायद ये निर्णय और टल सकता था। वैसे ये खबर भी है कि महबूबा ने ईद के फौरन बाद ऑपरेशन ऑल आउट दोबारा शुरू करने पर ऐतराज व्यक्त किया था लेकिन सैन्य बलों के दबाव की वजह से केंद्र सरकार उनकी बात को मानने की स्थिति में नहीं रह गई थी। दूसरी खबर ये भी है कि महबूबा खुद भाजपा से पिंड छुड़ाना चाह रही थीं क्योंकि केंद्र सरकार जिस तरह से सख्ती के मूड में थी उसे देखते हुए पीडीपी भी उससे तलाक की सोच रही थी लेकिन भाजपा ने उसे मौका नहीं दिया और पहले धमाका कर दिया। कल  सुबह जब राज्य सरकार में शरीक भाजपाई मंत्रियों और वरिष्ठ नेताओं को अमित शाह ने दिल्ली तलब किया तभी हालांकि ये तो लगने लगा था कि कुछ न कुछ बड़ा फैसला होगा लेकिन वह सब इतनी जल्दी होगा इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। लेकिन दोपहर में जिस तरह राम माधव ने पत्रकार वार्ता में पीडीपी पर आरोप थोपे उससे लगा कि भाजपा इस बारे में मन बना चुकी थी। पीडीपी को इससे कोई आश्चर्य हुआ हो ऐसा भी नहीं लगा। महबूबा की पत्रकार वार्ता में उन्होंने जो कुछ कहा उससे एक बात तो स्पष्ट हो गई कि गठबंधन टूटने की असली वजह सुरक्षा बलों द्वारा की जा रही कार्रवाई ही बनी। केंद्र सरकार को कश्मीर नीति के विफल होने के लिए अपने घर में ही आलोचना झेलनी पड़ रही थी वहीं जम्मू और लद्दाख क्षेत्र अपनी उपेक्षा से ठग महसूस कर रहे थे क्योंकि ले देकर पूरा का पूरा ध्यान घाटी पर ही रहता था। भाजपा के इस कदम के पीछे 2019 का लोकसभा चुनाव भी बताया जा रहा है। 2014 में वह जम्मू और कठुआ के अलावा लद्दाख की सीट भी जीत गई थी। विधानसभा चुनाव में उसे मिली सफलता में जम्मू अंचल का ही योगदान रहा। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा ने जम्मू और लद्दाख के जनाधार को टूटने से बचाने के लिए ये कदम उठाया है लेकिन सही बात ये है कि कश्मीर को लेकर पूरे देश में भाजपा और प्रधानमंत्री के 56 इंची सीने के दावे की जो थू-थू हो रही थी वह 2019 में बड़ा मुद्दा बनने वाला था। इसीलिए निकट भविष्य में तीन राज्यों के जो चुनाव होने वाले हैं उनके पहले ही भाजपा ने पीडीपी को अलविदा कह दिया। लेकिन इस फैसले को दूसरे नज़रिए से देखें तो ये सैन्य बलों को खुला हाथ देने के लिए उठाया गया कदम है। केंद्र सरकार को ये लगने लगा था कि पीडीपी के साथ रहते हुए वह ऑपरेशन ऑल आउट को सही ढंग से लागू नहीं कर पा रही जिससे सैन्य बलों में नाराजगी बढ़ रही थी। इसलिए उसने मजबूरी में ही सही महबूबा सरकार गिरवाकर राज्य का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। लेकिन इससे उसकी जिम्मेदारी और बढ़ गई है। अब तक की समस्त गड़बडिय़ों के लिए तो भाजपा के पास पीडीपी का बहाना था किन्तु अब हर छोटी-बड़ी बात के लिए उसे ही अकेले कठघरे में खड़ा होना पड़ेगा। एक बात और कि देश की जनता आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई में सरकार और सेना के साथ है। इसे देखते हुए इस अवसर का लाभ केंद्र को उठा लेना चाहिए क्योंकि आतंकवाद का सफाया किसी दल या नेता के नहीं देश के भविष्य के लिए जरूरी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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