शेक्सपियर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है? बात कुछ हद तक सही भी है लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं जो जुबान पर चढ़ जाने से उनमें बदलाव अस्वाभाविक और असहज प्रतीत होता है। लेकिन नाम तो सिर्फ पहिचान देता है जबकि सम्मान काम से मिलता है। भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग द्वारा यूजीसी (विवि अनुदान आयोग) का नाम परिवर्तित कर उच्च शिक्षा आयोग करने की घोषणा के संबंध में भी यही बात विचारणीय है। वर्तमान अनुदान आयोग के कार्य और अधिकार क्षेत्र को लेकर काफी समय से विवाद चलता आया है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण की घुसपैठ ने शिक्षा को पूरी तरह व्यवसाय बनाकर रख दिया। पहले तो बात केवल महाविद्यालयों तक सीमित थी किन्तु तथाकथित उदारीकरण ने शिक्षा को भी मुनाफाखोरी का जरिया बनाकर रख दिया जिसके परिणामस्वरूप देश भर में निजी क्षेत्र के तकनीकी शिक्षा संस्थानों और अब निजी विश्वविद्यालयों की कतार लग गई। इंजीनियरिंग कालेज तो कुकुरमुत्ते जैसे जहां देखो वहाँ खुल गए। निजी मेडिकल कालेजों की भी बाढ़ सी आ गई और फिर शुरू हुआ नोट छापने का धंधा। यूजीसी को उसके नाम के अनुरूप केवल अनुदान बाँटने वाली संस्था समझा जाता था किन्तु वही देश में उच्च शिक्षा संबंधी समस्त व्यवस्था का नियमन और संचालन करता रहा लेकिन काफी समय से ये महसूस किया जाने लगा था कि उसका कार्य क्षेत्र पुन: परिभाषित और निर्धारित किया जावे। ऐसा लगता है सरकार ने जिस नए संस्थान की घोषणा की उसका अधिकार क्षेत्र अनुदान बाँटने से ऊपर उठकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बढाने के लिए समुचित व्यवस्था करना होगा। उच्च शिक्षा देश के भविष्य के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। ये किसी से छिपा नहीं है। सबसे बड़ी चिंता उसकी गुणवत्ता में आ रही गिरावट की है। हालांकि निजी क्षेत्र के भी अनेक ऐसे संस्थान हैं जिन्हें उच्च स्तरीय कहा जा सकता है लेकिन उनमें व्यवसायिक सोच हावी है, ये कहना गलत नहीं होगा। बड़े औद्योगिक घरानों के साथ राजनेताओं ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र को कमाई का जरिया बनाकर औरों को भी ललचा दिया जिसके कारण देश में एक शिक्षा माफिया उत्पन्न हो गया। यूजीसी की जगह जिस उच्च शिक्षा आयोग का प्रस्ताव सामने आया है उसका कार्य केवल मान्यता, अनुदान और वेतनमान न होकर उच्च शिक्षा से जुड़े हर पहलू पर ध्यान देकर फर्जीबाड़े को रोकना बताया जा रहा है। आदेशों की अवहेलना करने वालों को जेल की सजा जैसे प्रावधान कितने कारगर होंगे ये अभी से कहना कठिन है लेकिन इतना तय है कि नई संस्था को नियमों के पालन में लापरवाही पर दंडात्मक कार्रवाई का अधिकार होने पर धंधेबाज किस्म के लोगों की कारस्तानी पर लगाम लग सकेगी बशर्ते वह भी भयादोहन के जरिये कमाई का जरिया न बन जाये। एक जमाना था जब समाज के प्रतिष्ठित और सेवाभावी व्यक्ति और संस्थाएं शिक्षण संस्थाओं के जरिये जनसेवा करती थीं जिसके पीछे धनोपार्जन का कोई मकसद नहीं होता था लेकिन समय के साथ ज्यों ज्यों समाज का माहौल बदला त्यों-त्यों पैसा कमाने की हवस भी चरम पर जा पहुंची और शिक्षा पूरी तरह से कारोबार में तब्दील हो गई। नया आयोग इन विसंगतियों को दूर करने में कितना सहायक हो सकेगा ये अंदाज लगाना तो मुश्किल है क्योंकि हमारे देश में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक का व्यवसायीकरण होने के साथ ही राजनीतिकरण भी काफी हद तक हो चुका है जिसकी वजह से सरकार द्वारा की जाने वाली सख्ती को उसी में बैठे लोग पलीता लगाने से बाज नहीं आते। और फिर अभी तो नए प्रावधान को संसद की स्वीकृति मिलनी शेष है। यदि विपक्ष ने अड़ंगा लगाया तो राज्यसभा में उसे अटकते देर नहीं लगेगी। वैसे चाहता हर कोई है कि शिक्षा विशेष रूप से उच्च शिक्षा का स्तर किसी भी कीमत पर बनाकर रखा जावे। यूजीसी उसमें कितना सक्षम रहा इस पर मगजमारी करने की बजाय बेहतर होगा भविष्य सुधार लिया जावे। लेकिन सरकार और उसके सलाहकार यदि ये मानकर चल रहे हों कि नाम और दायरा बदलने मात्र से शिक्षा जगत में रामराज का आगमन हो जायेगा तो वे मुंगेरीलाल की तरह सपने देख रहे हैं। उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि इस क्षेत्र में भी माफिया का उदय हो चुका था जिसकी जड़ें काफी गहराई तक फैल गई हैं और चाहे यूजीसी हो या राज्यों के शिक्षा विभाग, सभी इस माफिया के शिकंजे में फंसे हैं। इसलिए कोई भी नई व्यवस्था बनाने के साथ ही ये देखना भी जरूरी होगा कि वह शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र में गंदगी फैलाने वालों से लडऩे में कितनी सफल और सक्षम होगी? ऐसा सोचना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि शिक्षा जगत में बीते 70 साल में जितने प्रयोग हुए उतने शायद ही किसी अन्य विभाग में हुए होंगे। बावजूद उसके यदि उच्च शिक्षा भी भ्रष्टाचार और मुनाफाखोरी के मकडज़ाल में उलझकर रह गई तब ये मानना पड़ेगा कि नीति लागू करने वालों की नीयत में खोट होती है या फिर उनके निर्णयों में सही सोच और व्यवहारिकता का अभाव होता है।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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