Monday 11 June 2018

देश के नुकसान में किसी का फायदा नहीं


चूंकि हमारे देश में राष्ट्रीय महत्व की बजाय राजनीतिक महत्व के मुद्दों पर ध्यान देने का चलन है इसलिए देश की अर्थव्यवस्था को हुए बड़े नुकसान का संज्ञान लेने की किसी को भी फुर्सत नहीं है। एक गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में भारत के भीतर हिंसा के चलते अर्थव्यवस्था को 80 लाख करोड़ का नुकसान पहुंचा। यदि इसे प्रति व्यक्ति के हिसाब से देखें तो देश के हर नागरिक का 40 हजार का नुकसान हुआ। आंकड़ों का बारीक विश्लेषण करने पर जो तथ्य सामने आए उसके अनुसार हमारे सकल घरेलू उत्पादन को 9 प्रतिशत की हानि हुई। सवाल उठ सकता है कि इससे आम जनता को क्या लेना-देना क्योंकि इतने बड़े देश में 80 लाख करोड़ कोई मायने नहीं रखते लेकिन प्रति व्यक्ति 40 हजार छोटी रकम नहीं कही जा सकती। ये भी विचारणीय विषय है कि हिंसा में सभी लोग तो लिप्त होते नहीं तब सभी इस बारे में चिंता भी क्यों करें? बात है भी सच किन्तु हिंसा से अर्थव्यवस्था को हुआ नुकसान प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में आता तो हर नागरिक के हिस्से में है इसलिए ऐसी बातें मुख्यधारा के विमर्श का हिस्सा बनना चाहिए। गंभीरता के धरातल पर उतरकर देखें  तो जरूरी हो जाता है कि 24 घंटे राजनीतिक चर्चा में उलझे रहने के बजाय समाज का जिम्मेदार वर्ग समय निकालकर ऐसे विषयों को भी बौद्धिक चर्चा में शामिल करे जिनका देश के विकास पर विपरीत असर पड़ता है। उक्त आंकड़ा तो महज 2017 का ही है। अगर बीते 10 बरस का ब्यौरा सामने रखा जावे तो जो आंकड़ा उसमें से निकलकर आएगा वह आंखें फाड़ देने के लिए पर्याप्त होगा। अब सवाल ये उठता है कि क्या देश के राजनीतिक दलों और स्वनामधन्य नेताओं को इसे रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए? देश के विभिन्न राज्यों में हुए जनांदोलनों के हिंसक हो जाने से निजी और सार्वजनिक संपत्ति को जो क्षति पहुंची वह रोकी जा सकती थी यदि राजनेता बजाय पानी डालने के आग में घी डालने जैसी शरारत नहीं करते। जाट, गुर्जर, पाटीदार समाज के आंदोलन उतना नुकसान नहीं पहुंचा पाते यदि राजनीतिक फायदे के लिए उन्हें समर्थन नहीं दिया जाता। उक्त आंदोलनों से अभी तक क्या हासिल हुआ ये तो कोई नहीं बता सकता लेकिन जो हानि हुई वह जरूर सबके सामने है। एकबारगी मान भी लें कि उत्तेजनावश वैसा हो गया किन्तु बार बार  हिंसा का दोहराया जाना ये साबित करने हेतु पर्याप्त है कि ये सब जानबूझकर किया या करवाया जाता है।  किसानों की आत्महत्या, दलित और महिला उत्पीडऩ, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार आदि के मामलों पर तो सड़क से संसद तक बवाल मच जाता है लेकिन देश के अर्थतंत्र को तबाह कर देने वाली प्रवृत्तियों को लेकर कोई चिंता तक नहीं की जाती। निश्चित रूप से ये एक गंभीर  स्थिति है क्योंकि उक्त आंकड़े में सिर्फ  हिंसा के परिणामस्वरूप हुए नुकसान की जानकारी है। हमारे देश में प्रजातन्त्र जिस तरह से भीड़तंत्र में बदला उसकी वजह से आए दिन कहीं न कहीं उपद्रव होते रहते हैं। दो राज्य नदी जल के बंटवारे पर झगड़ते हंै तब भी हिंसा होती है और किसी बड़े शख्स की मौत पर भी जनता गुस्सा व्यक्त करने में पीछे नहीं रहती। होना तो ये चाहिये कि आज़ादी के 70 साल बाद हमारी सोच में परिपक्वता आती लेकिन उसकी दूरदराज तक कोई संभावना नहीं दिखती। ऐसी स्थिति में ये खतरा हो गया है कि इस तरह की घटनाएं अर्थव्यवस्था और विकास दर को एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाली स्थिति में न धकेल  दें। अपने राजनीतिक मतभेदों को भूलकर यदि सभी राजनीतिक दल ये तय कर लें कि आंदोलनों के दौरान किसी भी कीमत पर हिंसा नहीं होने दी जाएगी तो समस्या काफी हद तक हल हो सकती है। राजस्थान में गुर्जर आंदोलन के दौरान हफ्तों रेलगाडिय़ां नहीं चलने दी गईं। अंदाज लगाएं उससे कितना नुकसान हुआ होगा? ये तो महज एक उदाहरण है। कश्मीर अकेले में रोजाना हिंसा के चलते बड़ा नुकसान हो रहा है। उत्तर पूर्वी राज्यों में भी हिंसा सामान्य बात रही है। लेकिन अब तो देश के लगभग सभी हिस्सों में हिंसा दबाव बनाने का सरलतम उपाय बन गई है। इससे होने वाली आर्थिक क्षति उपलब्ध आंकड़ों से यदि ज्यादा हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कुल मिलाकर बात ये है कि हिंसा से अर्थव्यवस्था और सकल घरेलू उत्पादन को जो नुकसान हो रहा है उसे तत्काल रोकने के जरूरत है। दुर्भाग्य तो ये है कि देश के अनेक राज्यों में चाहे स्थानीय निकायों के हों या लोकसभा के चुनाव, हिंसा होना अवश्यम्भावी है। देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें राजनीतिक मुद्दों पर तो सहमति बनने की कोई गुंजाइश नजर नहीं आ रही लेकिन जब हिंसा से प्रति व्यक्ति नुकसान का आंकड़ा 40 हजार महज एक वर्ष में पहुंच जाए तब सभी को बैठकर इस बारे में कोई हल निकालना चाहिये क्योंकि देश को होने वाले नुकसान का खामियाजा हर खासो-आम को भुगतना पड़ता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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