Friday 29 June 2018

बिना निर्यात बढ़ाए उद्धार संभव नहीं


यदि रिजर्व बैंक टेका न लगाता तब शायद अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया कल और लुढ़क जाता। निश्चित रूप से ये एक चिंताजनक विषय है। इसके पहले अगस्त 2013 में मनमोहन सरकार के कार्यकाल में डॉलर रु. 68.80 का बिका था जो उस  समय तक का सबसे ऊंचा भाव था लेकिन तदुपरांत अर्थव्यव्यस्था में सुधार होने से भाव गिरे किन्तु निर्यात के मुकाबले आयात अधिक होने से रुपया कभी भी विश्व की ताकतवर मुद्राओं के मुकाबले सम्मानजनक स्थिति में नहीं रह सका। इसकी मुख्य वजह सोने और कच्चे तेल का आयात है जिस पर विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। बीते दो दशक में चीनी सामान के बेतहाशा आयात ने घरेलू उद्योगों की कमर तोड़कर रख दी। छोटी-छोटी चीजें तक चीन से आने की वजह से व्यापार असंतुलन नियंत्रण से बाहर चला गया है। यद्यपि भारत में ऑटोमोबाइल और सॉफ्टवेयर उद्योग काफी पनपा लेकिन वह भी आयात -निर्यात के बीच के अंतर को पाटने में सफल नहीं हो सका। बीच में ईरान और रूस से कच्चे तेल के आयात के जो अनुबंध थे वे भी बदली हुई अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में काम नहीं आ रहे। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सनकीपन के कारण पूरी दुनिया के बाजारों में उथलपुथल है। कहने को तो ट्रम्प का असली निशाना चीन है लेकिन दुनिया इतने करीब आ चुकी है कि कोई भी दूसरे से अछूता नहीं रह सकता। भारत में डॉलर की तुलना में रुपये की गिरावट पर राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप भी जमकर चल पड़े जो स्वाभाविक भी है। लेकिन अर्थशास्त्र को समझने वाले जान रहे हैं कि मुद्रा की कीमत में गिरावट केवल भारत में न होकर सर्वत्र हो रही है जिसका सीधा कारण वैश्विक परिस्थितियां हैं जो कब सुधरेंगी पता नहीं। लेकिन भारत इस बारे में निश्चिंत होकर बैठा नहीं रह सकता क्योंकि विदेशी मुद्रा के भंडार को बचाकर रखना ही किसी भी देश की आर्थिक सेहत के लिए जरूरी है। एक समय था जब हमारे देश में विदेशी मुद्रा का जबरदस्त संकट होता था। विदेश जाने वालों को बमुश्किल 8-10 डॉलर मिला करते थे किन्तु बीते 10-15 सालों में स्थिति काफी बेहतर हुई है। जिसके परिणामस्वरूप विदेशी मुद्रा का भंडार लबालब रहता है। इसमें विदेशी निवेशकों के साथ ही अप्रवासी भारतवंशियों का भरपूर योगदान है जो अधिक ब्याज के लालच में अपना धन भारत में जमा करते हैं । शेयर बाजार में भी विदेशी निवेशकों की खासी रुचि नजर आती है। लेकिन केवल डॉलर अथवा कोई अन्य विदेशी मुद्रा जमा रखने मात्र से अर्थव्यवस्था मज़बूत नहीं मानी जा सकती जब तक कि हमारा निर्यात प्रभावशाली ढंग से न बढ़े और यही वह क्षेत्र है जहां भारत पिछड़ जाता है।  निवेश अथवा जमा पूंजी के तौर पर आने वाली विदेशी मुद्रा स्थायी नहीं होती जबकि निर्यात से अर्जित होने वाले डॉलर और पाउंड वगैरह हमारी अपनी दौलत होने से अर्थव्यव्यस्था की रीढ़ को मजबूती प्रदान करते हैं। इसलिए समय आ गया है जब भारत को आयातक की जगह निर्यातक देश बनने की तरफ  कदम बढ़ाना चाहिए। यद्यपि हमारी और चीन की नीतियों, शासन व्यवस्था आदि में काफी अंतर है किंतु ये बात काबिले गौर है कि चीन विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में तभी शामिल हो सका जब उसका निर्यात आसमान की बुलंदियों तक जा पहुंचा। भारत को यदि वैसी ही तरक्की करनी है तब उसे घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए कारगर नीतियां और उन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार तथा ईमानदार प्रशासनिक ढांचा खड़ा करना होगा। वर्तमान स्थिति तो बेहद दयनीय है। छोटे उद्योगों को सरकारी अमला जिस तरह  खून के आंसू पिलाता है वह देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि औद्योगिकीकरण को प्रोत्साहित कम और निरुत्साहित ज्यादा किया जाता है। प्रधानमंत्री ने बीते कुछ बरस में स्टार्ट अप और मुद्रा योजना के अंतर्गत अरबों-खरबों के ऋण नव उद्यमियों को दिलवाए लेकिन उससे सकल घरेलू उत्पादन में कोई खास वृद्धि नहीं दिखाई दी। बैंकों का एनपीए जिस मात्रा में बढ़ा उसने भी अर्थतंत्र की कमर तोड़ दी जिसका असर साफ-साफ  दिखने लगा है। इस प्रकार डॉलर के सामने रुपये का लडख़ड़ाना चिंता की बात तो है लेकिन चौंकाने वाली नहीं क्योंकि तमाम दावों के बावजूद हमारी अर्थव्यवस्था आज भी उतनी ताकतवर नहीं है कि दुनिया की हलचलों से अप्रभावित रहे। विशेषज्ञों की मानें तब तो अभी रुपये में आगे भी गिरावट होगी क्योंकि ट्रम्प द्वारा शुरू ट्रेड वार को लेकर व्याप्त अनिश्चितता बरकरार है। कच्चे तेल के दाम चढऩे से भारत सदृश देश को भारी परेशानी होगी जो अपनी जरूरत का 85 फीसदी आयात करता है और इस स्थिति का फिलहाल कोई विकल्प नहीं है। डॉलर की कीमतों में रिकार्ड उछाल से भारत किस तरह निबटता है ये देखने वाली बात होगी क्योंकि आगामी महीनों में लगातार चुनाव होने से केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ सकेगी। उसके लिए ये चिंता का विषय है कि जनता के बड़े वर्ग में अब Lऐसे मुद्दों पर भी चर्चा होती है और वे मतदान के दिन निर्णय को प्रभावित भी करते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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