Tuesday 5 June 2018

पर्यावरण की पुण्य तिथि जैसा बन गया 5 जून

चूंकि पूरी दुनिया मना रही है इसलिए हम भी मना रहे हैं, वरना जिस देश में प्रकृति के आधारभूत पंचतत्वों के महत्व को सहस्त्रों वर्ष पहले ही समझ लिया गया हो वहां पर्यावरण दिवस मनाने की औपचारिकता कुछ अजीब सी लगती है। दूब से लेकर अंतरिक्ष तक को पूजने वाले देश में आज पर्यावरण इतनी दयनीय अवस्था में जा पहुंचा है कि देखकर शर्म कम दुख ज्यादा होता है। उपभोक्तावादी संस्कृति और बाज़ारवादी सोच ने हरियाली को भी व्यापार और विलासिता बना दिया। जो सरल और सहज था, वह दुर्लभ हो गया। आंगन और मुंडेर पर आकर चहकने वाली गौरैया तो गुमशुदा की श्रेणी में आ गई। कौओं की कांव-कांव तक विलुप्त हो गई, कोयल की कुहू-कुहू तो इतिहास बनती जा रही है। किसी थके-हारे राहगीर को दो घड़ी सुस्ताने के लिए छांव देने वाले वृक्ष विकास की बलि चढ़ गए। जिन कुएं, तालाबों, बावडिय़ों से जीवन को सींचा जाता था, वे या तो दिवंगत हो गए या उनकी अंतिम सांसें चल रही हैं। सूरज का कोप भी साल दर साल बढ़ता जा रहा है। नदी, पहाड़, समुद्र सभी अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। जल, जंगल और जमीन पर मनुष्य की वासना भारी पड़ रही है। हरी भरी वसुंधरा अब केवल कवियों की कल्पना का हिस्सा रह गई है। हो सकता है प्रलय के लिए जरूरी सत्यानाश में अभी कुछ गुंजाइश हो लेकिन जितना हो चुका उसकी भरपाई की कोई सम्भावना नजर नहीं आने से पूरी दुनिया भयातुर है। पर्यावरण के संरक्षण के प्रति कहने को तो हर खासो- आम चिंतित दिखाई देता है लेकिन उसमें ईमानदारी का अभाव होने से जितना अपेक्षित है उसका दशमांश भी हासिल नहीं हो पा रहा। यही वजह है कि प्रति वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस नामक औपचारिकता का निर्वहन तो पूरा विश्व करता है लेकिन  कड़वा सच ये है कि हर साल प्रकृति और पर्यावरण की स्थिति बीते साल की अपेक्षा और बदतर होती जाती है। जो विकसित देश पूरी दुनिया को पर्यावरण के संरक्षण के प्रति उपदेश देते हैं वे ही उसके साथ दुराचार के सबसे बड़े अपराधी हैं। विकास का जो स्वरूप पूरी दुनिया ने अपना रखा है वह प्रकृति से समन्वय की बजाय उससे संघर्ष करते हुए  उसे पराजित करने की मनोवृत्ति पर आधारित होने से हालात एक कदम आगे दो कदम पीछे के बन गए हैं। दरअसल विकासशील कहे जाने वाले भारत को प्रकृति और पर्यावरण के लिए किसी से ज्ञान लेने की कोई जरूरत नहीं है। गांव के एक अपढ़ इंसान को भी जल, जंगल, जमीन का महत्व और उनके संरक्षण के तौर-तरीके भली-भांति पता होते हैं। प्रकृति की रक्षा का संस्कार उसे घुट्टी में ही मिल जाता है। बावजूद उसके यदि भारत में पर्यावरण के लिए खतरनाक स्थितियां उत्पन्न हो गईं है तब विचारणीय मुद्दा ये है कि क्या हमें पश्चिम से इस बारे में सीखना पड़ेगा जो खुद प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के लिए जिम्मेदार है। अविवेकपूर्ण विकास की अंधी दौड़ में जितना कुछ हासिल किया गया उससे ज्यादा गंवा दिया गया और वह भी ऐसा जिसकी क्षतिपूर्ति अब सम्भव नहीं लगती। इसलिए बुद्धिमत्ता इसी में है कि भारत अपनी समस्याओं का इलाज अपने तरीकों से ही करे जिसमें प्रकृति के दोहन की तो अनुमति है किन्तु शोषण की नहीं। देश की राजधानी दिल्ली जब विश्व के  सर्वधिक प्रदूषित महानगरों में शुमार होती है तब ये समझा जा सकता है कि देश के भीतरी हिस्से किस दुर्दशा में जी रहे होंगे? पर्यावरण दिवस पर जिन चिंताओं को लेकर चिंतन हो रहा है वे रातों-रात तो जन्मीं नहीं। लम्बे अरसे से हो रहे अत्याचार ने प्रकृति में भी प्रतिशोध की भावना भर दी है। इस वजह से जो प्राकृतिक आपदाएं कभी-कभार आया करती थीं वे जल्दी-जल्दी आने लगीं। विज्ञान प्रदत्त तकनीक और विकास के बावजूद भी इन आपदाओं के सामने अमेरिका सरीखा विकसित और संपन्न देश भी असहाय होकर रह जाता है। वर्ष में एक दिन पर्यावरण दिवस मनाने से यदि काम चलता होता तब स्थितियां शायद इतनी भयावह नहीं होतीं। यदि वाकई इस बारे में हम गंभीर हैं तब हमें पूरे समय पर्यावरण के संरक्षण के प्रति जागरूक रहना पड़ेगा। प्रकृति से लड़कर जीतने का अहंकार अन्तत: समूची मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएगा। वहीं लापरवाही यदि नहीं रोकी गई तब भी पर्यावरण दम तोड़ता जाएगा। गर्मी से बचने के लिए कितने भी एयर कंडीशनर लगा लिए जाएं लेकिन जब तक समूचा परिवेश नैसर्गिक हरियाली से भरा नहीं होगा तब तक तन-मन  को सुकून देने वाली ठंडी हवाएं पैसा देकर भी नसीब नहीं होंगी। इसका सबसे ताजा और ज्वलन्त उदाहरण है हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला। देश के सबसे ऊंचे इस हिल स्टेशन पर शीतलता की चाह में धन और समय खर्च कर पहुँचे सैलानी पानी के लिए तरस रहे हैं। ज्यादा दूर न जाएं तो सदैव लबालब रहने वाली नर्मदा नदी की धार अपने उद्गम स्थल अमरकंटक से शुरू होने के कुछ दूर बाद ही सूख गई है। हिमालय के ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। पहाड़ नंगे नजर आने लगे हैं। जंगलों का घनापन गुजरे जमाने की चीज होकर रह गया है। ऐसे में पर्यावरण दिवस पश्चाताप दिवस बनकर रह गया है। यदि हम वाकई पर्यावरण के संरक्षण के प्रति ईमानदारी से समर्पित हैं तो पर्यावरण और पृथ्वी दिवस मनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री न करें क्योंकि ये किसी की पुण्यतिथि जैसा होता जा रहा है। इसके उलट पर्यावरण संरक्षण हमारी नित्य क्रियाओं का अभिन्न हिस्सा होना चाहिए। जब तक हम प्रकृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अपनी आदत नहीं बनाएंगे तब तक किसी सुधार की उम्मीद करना रेगिस्तान में पानी की तलाश करने जैसा होगा। जो आज के दिन भारत सहित पूरी दुनिया कर रही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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