Saturday 2 June 2018

मांगें उचित लेकिन अतिवादी तरीकों से बचें किसान

आधा दर्जन राज्यों में गत दिवस प्रारम्भ हुए किसान आंदोलन में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने के अलावा अन्य जो मांगें रखी गईं उनमें से अधिकतर स्वीकार करने योग्य हैं। विपक्षी दल भी बहती गंगा में हाथ धो लेने की तर्ज पर केंद्र सरकार को किसान विरोधी बताने के अभियान में जुटकर घडिय़ाली आंसू बहाते देखे जा सकते हैं। मप्र के मंदसौर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और गुजरात के पाटीदार नेता हार्दिक पटेल के आने की भी खबर है। ये देखना है कि क्या श्री गांधी पंजाब के आंदोलनरत किसानों के समर्थन में भी जाएंगे जहां उनके अपने दल की सरकार है। पहले दिन कहीं से किसी अप्रिय घटना के समाचार न मिलना अच्छा संकेत है। गत वर्ष मप्र के मंदसौर में आंदोलनरत किसानों के हिंसक हो जाने पर गोली चलाए जाने से हुई आधा दर्जन मौतों की वजह से न सिर्फ  शिवराज सरकार वरन अन्य राज्य सरकारें भी सतर्क  हैं। किसान भी इस बात को महसूस करने लगे हैं कि वोटों की फसल काटने वाले राजनीतिक नेताओं से सावधान रहना चाहिए किन्तु जिस तरह से किसानों पर आंदोलन में शामिल होने का दबाव बनाया जा रहा है उसके मदद्देनजऱ आने वाले दिनों में अंतर्निहित विवाद उत्पन्न हो जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। मोदी सरकार लगातार किसानों की आय को दोगुना करने के वायदे के साथ फसल का उचित दाम देने की प्रतिबद्धता दोहरा रही है। फसल बीमा जैसी तमाम योजनाओं को लागू भी कर दिया है। गांव और किसानों की बेहतरी के लिए केंद्र और राज्य सरकारें न जाने कितनी योजनाएं चला रही हैं। ग्रामीण विकास पर सरकारी बजट का बड़ा हिस्सा खर्च होता है। बावजूद उसके यदि किसान परेशान है तो उसकी तह में जाए बिना किये गए तदर्थ उपाय किसी काम के नहीं रहते। आज भी कृषि हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। एक समय था जब खाद्यान्न संकट हुआ करता था। राशन की दुकानों पर अच्छे-अच्छे लोग विदेशी गेंहूँ के लिए लाइन लगाए दिखते थे। लेकिन अब देश उस मामले में आत्मनिर्भर हो चुका है तब दूसरी समस्या उठ खड़ी हुई कृषि उत्पादों के भण्डारण की। सारी मुसीबतों की एक वजह हमारे देश में असंतुलित विकास का होना है। कृषि उत्पादन में वृद्धि करने की कार्ययोजना बनाने के साथ ही भण्डारण एवं खाद्य प्रसंस्करण के इन्तज़ाम भी लगे हाथ कर लिए जाते तब आज न तो किसानों को सड़कों पर उतरना पड़ता और न ही शासनतंत्र को अनावश्यक मानसिक दबाव झेलना पड़ता। बीते चार साल में मोदी सरकार किसानों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकी ये सतही तौर पर तो सही दिखता है लेकिन कुछ समस्याएं किसानों की खुद पैदा की हुई हैं। इसकी एक बानगी है उन चीजों के उत्पादन के पीछे भागना जिनकी कीमतें अचानक ज्यादा हो जाती हैं। प्याज, टमाटर और दलहन इसके ताजा उदाहरण हैं। अगली फसल तक जब अधिक उत्पादन से कीमतें जमीन पर लुढकतीं हैं तब किसान अपने को लुटा महसूस करता है। कीमतें  बढ़ते समय चौतरफा आलोचनाओं की वजह से सरकार भी आयात कर दाम नियंत्रित करने में जुट जाती है जिसका विपरीत असर अगली फसल पर किसानों के घाटे के तौर पर सामने आता है। दूसरी तरफ  अनाज, सब्जियां और फलों के भण्डारण का समुचित प्रबन्ध नहीं होने से भी उत्पादक को मजबूरन औने-पौने दाम पर अपने उत्पाद बेचने पड़ते हैं। सरकार की भी मजबूरी है कि वह खाद्यान्न के लिए तो सरकारी समर्थन मूल्य तय कर सकती है किंतु सब्जियों और फलों के लिए वैसा करना टेढी खीर है। गत वर्ष मंदसौर गोली कांड से सहमी शिवराज सरकार ने प्याज खरीदी का इंतजाम कर किसानों के गुस्से को ठंडा करना चाहा लेकिन वह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। इसी तरह भावन्तर योजना भी नौकरशाही की हवस का शिकार होकर विफल हो गई। किसानों को बिचौलियों से बचाने के लिए बनाई गईं कृषि उपज मंडियां भी अपने मूल उद्देश्य की बजाय भ्रष्टाचार का अड्डा बन गईं जहां छोटे किसान को हर तरह की तकलीफ और अपमान झेलना पड़ता है। हमारे देश में वर्षा होने पर क्रिकेट पिच को ढांकने की तो पुख्ता व्यवस्था है किन्तु सरकारी खरीद के लिए अनाज को खुले में रखकर मौसम के रहमो करम पर छोड़ दिया जाता है। राज्य सरकारें कहने को तो किसान के लिए सौगातों के ढेर लगा देती हैं किंतु वे उन तक समय पर नहीं पहुंच पाने से सारा किया धरा पानी में चला जाता है। आढ़तिया के मकडज़ाल से किसान को बचाने के लिए जो सरकारी मंडियां बनाईं गई वे नए तरीके से उसे परेशान करने का जरिया बन गईं। दुर्भाग्य की बात ये है कि सरकार अपना घर ठीक नहीं कर पा रही जिससे किसान दुखी और क्रोधित हो उठता है। वर्तमान आन्दोलन में उसके द्वारा रखी गईं मांगों में कुछ को भले ही अव्यवहारिक या अनुचित कह दिया जाए लेकिन अधिकाँश मानी जाने लायक हैं किन्तु ये भी जरूरी है किसान ऐसा कुछ भी न करें जिससे जनमानस  में उनके प्रति जो सहानुभूति और समर्थन है उस पर विपरीत असर पड़े। गत दिवस कई जगहों पर सब्जियां और दूध जिस तरह सड़कों पर बहा दिया गया उसको कोई पसंद नहीं करेगा क्योंकि ये किसी भी कोण से बुद्धिमत्ता का परिचायक नहीं है। बड़े और समृद्ध किसान तो ऐसी हिम्मत कर भी सकते हैं किंतु छोटे उत्पादक के लिए ऐसा करना बहुत नुक्सानदेह होता है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि किसी भी आंदोलन की शुरुवात ही यदि अतिरेक पूर्ण तरीकों से हो तब उसकी उम्र ज्यादा नहीं होती। अतीत में जब-जब किसान आंदोलन में उत्तेजना और हिंसा का समावेश हुआ वह बेनतीजा खत्म हो गया। किसानों के नाम पर राजनीति करने वाले नेता चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हों, केवल वोटों के नजरिये से अपना काम करते  हैं। कहने को तो हर दल का अपना कृषक संगठन है और संसद तथा विधानसभाओं के सैकड़ों सदस्य खुद किसान हैं या उनकी पृष्ठभूमि ग्रामीण है किन्तु अपना वेतन-भत्ता बिना बहस के बढ़वाने वाले इन जनप्रतिनिधियों में से एक ने भी कभी ये कहकर बढ़ा हुआ वेतन-भत्ता लेने से इनकार नहीं किया कि पहले किसान को संतुष्ट करो। उस दृष्टि से किसान जिन कारणों से  भरी गर्मी में सड़कों पर उतरने मजबूर हुआ उनके औचित्य को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी तरफ  उनके आंदोलन की अगुआई कर रहे तथाकथित नेताओं ने भी जानबूझकर ये समय चुना क्योंकि देश इस समय चुनावी मूड में आ चुका है। और यही मौसम होता है जब जो मांगोगे वही मिलेगा वाली स्थिति बन जाती है। समाचार माध्यमों के अलावा निजी तौर पर किये गए अध्ययनों से ये बात तो साबित हो चुकी है कि देश कृषि उत्पादनों के क्षेत्र में भले तरक्की करता दिख रहा हो लेकिन वास्तविकता ये है कि छोटा और मध्यम श्रेणी का किसान बेहद परेशान है। बढ़ते कर्ज के अलावा अन्य मानसिक दबावों के चलते आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए यदि हजारों कृषक मजबूर हुए तब स्थिति की गम्भीरता को समझा जा सकता है। यद्यपि ऐसे कदम को कोई भी उचित नहीं मानेगा लेकिन ये भी सत्य है कि अपने हाथों अपनी जान लेने जैसा निर्णय व्यक्ति आसानी से नहीं कर सकता। ये सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा है इसलिए इसके लिए किसी पार्टी या सरकार की बजाय पूरी व्यवस्था को ही दोष दिया जा सकता है। किसान अपनी मांगें लेकर शांतिपूर्ण आंदोलन करें उस पर किसी को ऐतराज नहीं होगा लेकिन उन्हें अतिवादी तौर-तरीकों से बचना चाहिए वरना उनके प्रयास दिशाहीन होकर बेकार चले जायेंगे। सरकार को भी चाहिए कि वह किसानों की जायज मांगों को तत्काल स्वीकार करे लेकिन उन्हें ऐसे कोई भी आश्वासन न दे जिन्हें पूरा न किया जा सके। कृषि प्रधान देश में किसान सड़कों पर उतरे ये शर्मनाक है। उसको घाटा होना भी चिन्ताजनक है लेकिन किसानों को भी थोड़ा व्यवहारिक और समझदार होना पड़ेगा क्योंकि आज के जमाने की खेती में केवल मेहनत से काम नहीं चलता बल्कि लागत भी लगती है और वह भी भरपूर। देश में भण्डारण और खाद्य प्रसंस्करण की समुचित व्यवस्था सर्वोच्च प्राथमिकता के तौर पर की जानी चाहिए जिससे कृषि उत्पादों की बर्बादी रुके तथा उनका व्यवसायिक उपयोग करते हुए किसान की आय बढ़ाने का जरिया निकले। उम्मीद की जानी चाहिए कि मौजूदा आंदोलन का सुखद समापन होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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