Monday 25 June 2018

जनता के पैसों से मुफ्तखोरी पर रोक जरूरी


सर्वोच्च न्यायालय के बाद मप्र उच्च न्यायालय ने भी पूर्व मुख्यमंत्रियों से सरकारी बंगला खाली करवाने का निर्णय देकर सामंती मानसिकता पर करारी चोट की। जन सामान्य में उक्त दोनों फैसलों का खुले हृदय से स्वागत किया गया। उसके फौरन बाद मप्र के ही उन सांसदों की खोज-ख़बर शुरू हो गई जिन्हें दिल्ली के अलावा उनके निर्वाचन क्षेत्र सहित भोपाल में भी सरकारी बंगले आवंटित हैं। जब खुलासा हुआ तो पता चला इनमें कई केंद्रीय मंत्री भी हैं। भाजपा के राज्यसभा सदस्य प्रभात झा दिल्ली, भोपाल और ग्वालियर में सरकारी आवास का सुख भोग रहे हैं। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी उन्हीं के नक्शे कदम पर हैं। खबर है प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह को भी दिल्ली जबलपुर और भोपाल में बंगला मिला हुआ है। इस बारे में कोई नियम या बंदिश न होने के कारण सत्तारूढ़ पार्टी अपने जनप्रतिनिधियों को नाममात्र के किराए पर सर्वसुविधा सम्पन्न बंगले आवंटित कर उपकृत करती है। ये पहली मर्तबा हो रहा हो ऐसा नहीं है। दरअसल सत्ता का दुरुपयोग करना राजनीति का मुख्य मकसद बन गया है। यदि जनता के पैसे से मुफ्त में ऐश करने न मिले तब सियासत करना घर फूंक तमाशा देखने जैसा हो जाएगा, जो आज के युग में असम्भव लगता है। जो पार्टियां गांधी जी की माला जपती नजर आती हैं वे भी सादगी को गहराई तक दफन चुकी हैं। जहां तक बात सांसदों को मिले बंगले की है तो दिल्ली में उसका आवंटन आवश्यकता है। जो सांसद बाहर का रहने वाला हो उसे निर्वाचन क्षेत्र में सरकारी आवास मिलने का भी औचित्य एक सीमा तक है किंतु भोपाल में भी बंगला कब्जाए रखने की जरूरत समझ से परे है। जनप्रतिनिधि बनते ही किसी भी व्यक्ति को जो विशेषाधिकार और सुविधाएं दी जाती हैं उन पर किसी को ऐतराज नहीं होता लेकिन संसद की कैंटीन में बढिय़ा भोजन मिट्टी के मोल मिलने की जानकारी लोगों को क्रोधित करती है। उप्र और मप्र के पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगले से बाहर करने के अदालती निर्देश के बाद जब निगाह एक से ज्यादा सरकारी आवास में जमे सांसदों पर गई तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। पूरे देश का अध्ययन करें तो सरकारी संपत्ति पर नेताओं का बेजा कब्जा एक फैशन या यूं कहें कि प्रवृत्ति के तौर पर देखने मिलेगा। जो लोग मंत्री नहीं बन पाते उन्हें निगम-मंडल, प्राधिकरण आदि में पद देकर मंत्री और राज्यमंत्री जैसे दर्जे दे दिए जाते हैं। हाल ही में मप्र की शिवराज सिंह चौहान सरकार ने कुछ बाबाओं को मंत्री पद रूपी रेवडिय़ां बांटकर अपनी जगहंसाई करवाई। ये केवल मप्र में होता हो ऐसा नहीं है। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारें जिस तरह ओहदे बांटती हैं उससे अंग्रेजों के जमाने में दी जाने वाली राय साहब और राय बहादुर जैसी पदवियों की याद आने लगती है। कहने का आशय मात्र इतना है कि प्रजातन्त्र का सामन्तीकरण करने के ऐसे प्रयास पूरे देश में समान रूप से देखे जा सकते हैं। यही वजह है कि राजनेताओं और राजनीति के प्रति पहले सरीखा सम्मान नहीं रहा। कहने को तो सभी राजनीतिक दल और उनके नेता समाज के पढ़े लिखे वर्ग से सियासत में आने का अनुरोध करते हैं किंतु ऐसे जो भी लोग राजनीति में कदम रखते हैं उनकी किस तरह उपेक्षा होती है ये किसी से छिपा नहीं है। समय आ गया है जब राजनीति को जनोन्मुखी बनाने की प्रक्रिया शुरू की जावे। नेताओं और जनप्रतिनिधियों को मिल रही राजसी सुविधाओं का वापिस लिया जावे। अल्पावधि के लिए सांसद या विधायक रहने वाले को भी जीवन भर पेंशन, मुफ़्त यात्रा, इलाज जैसी खैरातें बन्द की जाएं। मंत्री पद के दर्जे भी समाप्त हों। सरकारी आवासों की बंदरबांट पर लगाम लगे। राजनीति और उससे प्राप्त सत्ता नि:स्वार्थ सेवा और कर्तव्यों के निर्वहन का जरिया होना चाहिए न कि राजसी सुख लूटने का। पूर्व मुख्यमंत्रियों के बाद सांसदों को दिल्ली के बाहर भी सरकारी आवास दिए जाने पर उठ खड़े हुए प्रश्न इस बात का संकेत हैं कि बहुत दिनों तक जनता इन नव सामंतों को ढोने के लिए राजी नहीं है। भोपाल में हाउसिंग बोर्ड द्वारा बनाई रिवेरो कालोनी विशेष रूप से विधायकों के लिए बनी जिसमें उस शर्त को विलोपित कर दिया गया कि मप्र में उनका अन्यत्र कोई आवास नहीं है। उस कालोनी में सस्ते दामों पर मिले बंगले आज करोड़ों के हैं। दूसरी तरफ हाउसिंग बोर्ड द्वारा निर्मित अन्य आवासीय कालोनियों की निर्माण सम्बन्धी गुणवत्ता और नियम शर्तें कैसी हैं ये किसी से छिपा नहीं है। बीते 70 सालों में सत्ता रूपी मलाई चाटने  में जिस तरह की सर्वसम्मति दिखाई गई वह अन्य राष्ट्रीय मसलों पर भी होती तो देश कहां से कहां पहुंच चुका होता। वामपंथी जरुर इस मामले में पाक साफ  हैं लेकिन बाकी सभी दल पूरी तरह कठघरे में खड़े हुए हैं। चाहे वे लोहिया जी की समाजवादी परंपरा के लोग हों या फिर दीनदयाल जी के अनुयायी। जहां तक कांग्रेस की बात है तो उसी ने सत्ता का निर्लज्जता के साथ दुरुपयोग के तौर तरीके ईजाद करते हुए राजनीति को निजी स्वार्थसाधना का माध्यम बनाने की शुरुवात की जिसे बाद में कांग्रेस संस्कृति कहा जाने लगा। मौजूदा माहौल में जब 21 वीं सदी में जन्मे युवक-युवतियां आगामी चुनावों में मतदान करेंगे तब वे राजनेताओं की बंदरबांट को उपेक्षित नहीं करेंगे क्योंकि उनकी कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है। यदि अभी भी राजनेता नहीं चेते तथा जनता के पैसों से मुफ्तखोरी नहीं रुकी तो जनता का गुस्सा अनियंत्रित हो सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment