Tuesday 26 June 2018

नई पीढ़ी को आपातकाल के इतिहास से परिचित करना जरूरी


25 और 26 जून 1975 की दरम्यानी रात इस देश पर बहुत भारी पड़ी। उसके पहले 12 जून को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1971में श्रीमती गांधी का रायबरेली सीट से लोकसभा के लिए निर्वाचन अवैध घोषित कर राजनीतिक हलचल मचा दी थी। 1974 से चल रहे छात्र आंदोलन के साथ विपक्षी दलों के जुड़ाव ने देश भर में इंदिरा जी के विरुद्ध वातावरण बना रखा था। लायसेंस कांड जैसे भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर संसद चल नहीं पा रही थी। जयप्रकाश नारायण द्वारा सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान पर छात्र और युवक भी आंदोलित थे। 6 मार्च 1975 को दिल्ली में आयोजित सर्वदलीय रैली में जनसैलाब उमड़ पड़ा था। लालकिले से बोट क्लब तक के रास्ते पर पैर रखने की जगह नहीं बची थी। ऐसे में जब 12 जून को न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने श्रीमती गांधी के लोकसभा निर्वाचन को शून्य करने जैसा दुस्साहसिक फैसला सुनाया तो बजाय उसका सम्मान करने के श्रीमती गांधी ने हठधर्मिता दिखाई। श्री सिन्हा को सीआईए का एजेन्ट बताकऱ उनके पुतले जलाए गए। यहां तक कहा गया कि करोड़ों लोगों द्वारा चुने प्रधानमंत्री को एक अदना सा जज पद से  कैसे हटा सकता है ? और फिर 25 जून की मध्यरात्रि राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को जगाकर उनसे आपातकाल लगाए जाने सम्बन्धी अध्यादेश पर हस्ताक्षर करवा लिए गए। उल्लेखनीय बात ये थी कि उस अध्यादेश को मंत्रिपरिषद से अनुमोदित करवाए बिना ही महामहिम के समक्ष हस्ताक्षर हेतु प्रस्तुत कर दिया गया। कहा जाता है कि श्री अहमद ने जब प्रक्रिया पर ऐतराज किया तब उन्हें धमकाया गया, यद्यपि इसकी पुष्टि नहीं हो सकी। 26 जून की सुबह तक देश में लोकतंत्र एक व्यक्ति की तानाशाही के अधीन हो चुका था। विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं से लेकर ग्रामीण स्तर तक के कांग्रेस विरोधी कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गये। शुरू शुरू में किसी को कुछ भी समझ नहीं आया लेकिन दोपहर तक माजरा साफ  हो चुका था। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई। विपक्षी विचारधारा के पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। समाचार पत्रों के प्रकाशन के पहले प्रशासनिक अधिकारी उसकी जांच करते थे। सरकार विरोधी कोई लेख या समाचार प्रकाशित करना अपराध माना जाता था। जनता के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए और फिर विपक्ष विहीन संसद में इंदिरा जी ने अपने और अपनी सरकार के पक्ष में मनमर्जी फैसले करवाते हुए देश में लोकतंत्र की हत्या करने जैसा पाप कर डाला। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो चाटुकारिता की पराकाष्ठा करते हुए कह दिया कि इंदिरा ही भारत और भारत ही इन्दिरा हैं। देश इस अप्रत्याशित और अकल्पनीय स्थिति से हतप्रभ और भयभीत था। लाखों लोगों के जेल चले जाने से हर खासो-आम के मन में खौफ  बैठ गया। सख्ती के कुछ प्रत्यक्ष लाभ भी हुए कि सरकारी अमला चुस्त-दुरुस्त हो गया। दफ्तर और रेलगाडिय़ां समय की पाबंद दिखीं। कानून और पुलिस के प्रति डर के कारण अपराधों में भी कमी आई। दरअसल आपातकाल के औचित्य को साबित करने के लिए अपराधी तत्वों को भी पकड़ लिया गया था। लोकतंत्र पर हुए जबरदस्त प्रहार से सहमे देश को एकमात्र उम्मीद थी सर्वोदयी नेता विनोबा भावे से जो उन दिनों मौन धारण किये थे। लेकिन जब उन्होंने मौन तोड़ा तो बजाय आपातकाल का विरोध करने के उसे अनुशासन पर्व कहकर इंदिरा जी के हाथ और हौसले दोनों मजबूत कर दिए। उसी के बाद राष्ट्रसंत कहे जाने वाले विनोबा जी को बहुत से लोग सरकारी सन्त कहने लग गए। 1976 में लोकसभा चुनाव होना थे लेकिन उसे एक वर्ष टाल दिया गया। जब इंदिरा जी को लगा कि देश में विरोध करने वालों की हिम्मत जवाब दे गई है और जनता भी भयवश उनके विरुद्ध नहीं खड़ी होगी तब उन्होंने जनवरी 1977 में अचानक लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी। जेल में बंद राजनीतिक मीसाबंदी छोड़ दिए गए। काँग्रेस को उम्मीद थी कि बिखरा हुआ विपक्ष चुनाव में चारों खाने चित्त हो जाएगा और इस तरह तानाशाही पर लोकशाही की छाप लगाने में वह सफल हो जाएगी लेकिन जनता पार्टी के रूप में विपक्षी दल एक होकर मैदान में उतरे और आपातकाल के विरुद्ध ऐतिहासिक जनादेश आया। पहली मर्तबा कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बेदखल हुई। इन्दिरा जी और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी बन चुके बेटे संजय  क्रमश: रायबरेली और अमेठी से हार गये। मोरार जी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसने लोकतंत्र की बहाली के साथ ही आपातकाल की वापसी के रास्ते स्थायी तौर पर बन्द कर दिए। नेताओं की महत्वाकांक्षा और स्वनिर्मित अंतर्विरोधों के चलते वह सरकार 27 महीनों बाद गिर गई।  गैर कांग्रेसवाद के झंडाबरदार कांग्रेस की गोद  में बैठ गए। 1980 में इंदिरा जी फिर प्रधानमंत्री बन गर्इं किन्तु कुछ माह बाद ही संजय गांधी चल बसे और राजीव के रूप में एक और गांधी मैदान में आया। उसके बाद से देश में राजनीतिक माहौल समय-समय पर बदलता रहा। 1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद कांग्रेस महाशक्ति के रूप में उभरी किन्तु मात्र 5 साल बाद राजीव गांधी को लोगों ने सत्ता से हटा दिया। उसके बाद  का इतिहास तो नई पीढ़ी को पता है। लेकिन आज जब ये बात प्रचारित की जाती है कि लोकतंत्र खतरे में है और समाचार माध्यम सहित न्यायपालिका की आज़ादी पर प्रहार हो रहा है तब ये देखकर आश्चर्य होता है कि ये वही लोग हैं  जो आपातकाल को स्वर्णयुग मानते हैं। सूचना क्रांति के इस दौर में जब सोशल मीडिया के रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित हो चुकी हो तब इस तरह की बात अविश्वसनीय लगती है लेकिन कुछ पढ़े-लिखे लोग भी जब आपातकाल का महिमामंडन करते हैं तब इस बात का डर सताने लगता है कि तानाशाही मानसिकता के बीज अभी भी कहीं न कहीं दबे हुए हैं जो जरा सा खाद पानी मिलते ही अंकुरित हो सकते हैं। इसीलिए जरूरी है नौजवान पीढ़ी को उन काले दिनों की जानकारी देते हुए लोकतंत्र पर आने वाले किसी भी संकट से लडऩे के लिए तैयार रखा जाए। 43 साल पहले की घटना को याद रखने और याद दिलाने के औचित्य पर बहुत लोग सवाल उठाते हैं किन्तु जिस तरह आज़ादी का जश्न मनाते समय उन कारणों को याद करना आवश्यक है जिनकी वजह से देश गुलाम हुआ था उसी तरह आपातकाल के सही इतिहास की जानकारी नई पीढ़ी को दी जानी चाहिए जिससे कि उसे ये समझ आ जाए कि लोकतंत्र का महत्व क्या है और उसे खतरे में डालने वाली मानसिकता वाले कौन लोग हैं?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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