Saturday 16 June 2018

केजरीवाल ने सुनहरा अवसर गंवा दिया

चूंकि आम आदमी पार्टी नई राजनीतिक संस्कृति की प्रवर्तक है इसलिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया सहित कुछ मंत्रियों द्वारा उपराज्यपाल के घर में सोफे पर अनशन करने से किसी को आश्चर्य नहीं हो रहा। दिल्ली की जनता भीषण गर्मी में पानी और बिजली के संकट से जूझ रही है। अधिकारियों की हड़ताल से प्रशासन ठप्प है। श्री केजरीवाल अपनी चिर-परिचित शैली और मांगों को लेकर उपराज्यपाल से मिलना चाहते हैं किन्तु महामहिम उन्हें घास नहीं डाल रहे। दूसरी तरफ  विपक्ष का धर्म निभाने के लिये भाजपा ने केजरीवालजी के घर पर डेरा जमाते हुए जवाबी धरना दे रखा है। उपराज्यपाल द्वारा पूरी तरह से अनबोला साध लेने के बाद अरविंद ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उनसे हस्तक्षेप की गुजारिश की। राष्ट्रपति तक से अधिकारियों की हड़ताल तुड़वाने हेतु गुहार लगाई गई किन्तु अब तक तो कोई नतीजा नहीं निकला। श्री केजरीवाल और उनके सहयोगी इस बार वैसा समर्थन हासिल करते नहीं दिखाई दे रहे जैसा शुरूवाती दिनों में उन्हें सहज रूप से मिल जाया करता था। जिन वायदों के साथ आम आदमी पार्टी सत्ता में आई थी उनमें से कुछ तो उसने पूरे किए। सरकारी शालाओं को निजी क्षेत्र की टक्कर में खड़ा करना बहुत ही प्रशंसनीय काम है। इसी तरह मोहल्ला क्लिनिक की व्यवस्था भी जनहितकारी कही जाएगी। बिजली और पानी के बिल कम करने सम्बन्धी वायदा भी केजरीवाल सरकार ने आंशिक ही सही लेकिन पूरा किया। लेकिन जिस सादगी और ईमानदारी के नाम पर दिल्ली के मतदाताओं ने नई नवेली आम आदमी पार्टी को ऐतिहासिक समर्थन दिया वे कहीं लुप्त हो गईं। मंत्रियों और विधायकों पर वे तमाम आरोप लग गए जो भारतीय राजनेताओं की पहिचान बन चुके हैं। दरअसल जनांदोलन से निकली इस पार्टी को समय से पहले जिस तरह छप्पर फाड़कर मिल गया उसने उसके नेताओं के दिमाग खराब कर दिए। यही वजह रही कि संघर्ष के दिनों के तमाम साथी या तो खुद निकलकर चले गये या धक्के मारकर बाहर कर दिए गए। शांतिभूषण, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और डॉ. कुमार विश्वास ने इस पार्टी को यहां तक पहुंचाने के लिए अविस्मरणीय योगदान दिया किन्तु वे जिस तरह बाहर हुए वह शायद उनके विरोधियों को भी पसंद नहीं आया होगा। अरविंद और उनकी पूरी मंडली जिन अन्ना हज़ारे के चरणों में बैठकर सत्ता के शिखर तक जा पहुंची, उनका भी अपने चेलों से मोहभंग हो गया। जिन लोगों को अभी भी केजरीवाल जी से सहानुभूति है वे भी इस बात को मानेंगे कि अन्ना और ऊपर वर्णित नेताओं के साथ न रहने से आम आदमी पार्टी का नैतिक बल कमजोर हुआ है। इतने प्रचंड बहुमत के बाद यदि ये पार्टी अपनी शक्ति और समय का सही उपयोग करती होती तो देश जिस तीसरे विकल्प की बाट जोह रहा था, वह पूरी हो सकती थी। अरविंद और उनके साथ जुड़ी टीम में काफी सुयोग्य और समर्पित लोग हैं जिनमें जनता की समस्याओं को समझकर उनका निदान करने के लिए समुचित उपाय करने की क्षमता है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि आम आदमी पार्टी का जो कोर गु्रप है उसका औसत बौद्धिक स्तर और पेशेवर दक्षता अन्य छोटे दलों की अपेक्षा कहीं बेहतर है। लेकिन अरविंद की असीमित महत्वाकांक्षाएं और अनियंत्रित कार्यप्रणाली के कारण समूची प्रतिभा छोटे-छोटे विवादों में गु्रप खर्च होकर रह गई। सरकार बनाने के बाद बजाय अपने एजेंडे पर काम करते रहने के आम आदमी पार्टी ने टकराव का रास्ता चुन लिया। अपनी विफलताओं को छिपाने के लिए केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री पर सीधे हमले करने की उनकी रणनीति शुरू-शुरू में भले प्रभावित करने में सफल रही किन्तु धीरे-धीरे उसका उल्टा असर होने लगा। दिल्ली की सफलता को अन्य राज्यों में दोहराने की कोशिश जिस तरह फुस्स हुई उससे भी श्री केजरीवाल की निर्णय और नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठे। पंजाब चुनाव में तो आम आदमी पार्टी ने ऐसा माहौल बनाया जैसे सत्ता उसकी जेब में  आ चुकी हो किन्तु परिणाम उसके उलट निकला। उसके बाद वहां पार्टी की टूटन और खुलकर सामने आ गई।  हाल ही में सम्पन्न कर्नाटक के चुनाव में इस पार्टी ने जमानत जप्ती का रिकार्ड बना दिया। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी आम आदमी पार्टी को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी। होना तो ये चाहिये था कि श्री केजरीवाल पूरे पांच वर्ष तक दिल्ली का राजपाट संभालते हुए एक आदर्श शासन व्यवस्था का मॉडल देश के सामने प्रस्तुत करते हुए सक्षम विकल्प बनकर सामने आते। प्रधानमंत्री से अपने वैचारिक मतभेदों को राजनीति तक सीमित रखकर वे दिल्ली के विकास हेतु केंद्र का सहयोग हासिल करने के लिए प्रयास करते तब उन्हें वह सब प्राप्त हो सकता था, जो वे चाहते थे लेकिन उन्होंने व्यर्थ का टकराव लेना शुरू कर दिया। उन्हें अच्छी तरह पता था कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है। इस कारण वहां उपराज्यपाल के पास अतिरिक्त संवैधानिक शक्तियां हैं। जब तक पूर्ण राज्य नहीं बनता तब तक चुनी हुई सरकार को भी अपने लिए खींची गई लक्ष्मण रेखा के भीतर रहकर ही काम करना होता है। केंद्र शासित जिन क्षेत्रों को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया वहाँ उपराज्यपाल की शक्तियाँ दिल्ली जैसी ही हैं। पुडुचेरी में भी कांग्रेस की सरकार है जिसके उपराज्यपाल के साथ बहुत मधुर रिश्ते न होने पर भी दिल्ली सरीखी कटुता नहीं है। ऐसा नहीं है कि पूरी गलती अरविंद की ही हो लेकिन उन्होंने भाजपा और प्रधानमंत्री से भिडऩे में वह स्वर्णिम अवसर गंवा दिया जो दिल्ली वालों ने उन्हें दिया था। लोगों को ये लगने लगा है श्री केजरीवाल अभी तक ये नहीं समझ सके कि सरकार नियोजन से चलती हैं आंदोलन से नहीं। अधिकारियों को लेकर उत्पन्न विवाद में भी आम आदमी पार्टी अपने अंक गंवा रही है। वरिष्ट अधिकारी को आधी रात बुलवाकर उसके संग मारपीट को भला कौन बर्दाश्त करेगा? कुल मिलाकर उपराज्यपाल के घर पर अनशन करने से केजरीवाल जी और उनके मंत्रीमंडलीय सहयोगियों को जनता का अपेक्षित समर्थन नहीं मिल रहा तो उसका कारण दिल्ली सरकार की विश्वसनीयता में आई कमी ही है। राज्यसभा चुनाव में तपे-तपाए नेताओं की उपेक्षा कर करोड़पति उद्योगपतियों को उपकृत करने से पार्टी के साथ जुड़ा आम आदमी शब्द पहले ही सवालों के घेरे में आ चुका है। आज खबर आई कि केजरीवाल जी के साथ अनशन कर रहे एक मंत्री का वजन घटने की बजाय बढ़ गया। यदि ये सच है तब नई राजनीति के इस प्रयोग की सार्थकता पर और भी प्रश्न उठेंगे। जिस तरह काँग्रेस को कोसते रहने से मोदी सरकार की विफलताएं नहीं छिप सकतीं वैसे ही दिन भर प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार को गरियाते रहने से आम आदमी पार्टी को भी कुछ हासिल नहीं होगा। विपक्ष के संभावित गठबंधन में इसीलिए आम आदमी पार्टी के लिए खास जगह नहीं बन पा रही।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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