Saturday 9 June 2018

कश्मीर : पैलेट और बुलेट ही इलाज बचा

देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के श्रीमुख से ये सुनकर अच्छा लगा कि कश्मीर में पत्थरबाजी करने वालों पर अब रहम नहीं किया जावेगा। कश्मीर के दौरे पर गये गृहमंत्री ने स्पष्ट किया कि सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करने वालों को मुख्यधारा में लौटने के समुचित अवसर दिए गए किन्तु आगे से उनकी हरकतें नजरअंदाज नहीं की जावेंगी। उन्होंने ये आश्वासन भी दिया कि उपद्रवी भीड़ पर कार्रवाई करने वाले सुरक्षा बलों के विरुद्ध राज्य की पुलिस द्वारा दर्ज किए जाने वाले प्रकरणों को लेकर भी मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती से चर्चा हो चुकी है जिससे ये समस्या भी सुलझ जाएगी। राजनाथ सिंह सीमावर्ती क्षेत्रों का दौरा करने पहुंचे थे। रमजान के महीने में मुख्यमंत्री के आग्रह पर युद्धविराम लागू किये जाने की देश भर में तीखी आलोचना हुई। सुरक्षा बलों पर लगातार हमले होते रहे। उनके वाहनों को रोककर पत्थरबाजी की गई। एक वाहन चालक ने हमले से बचने के लिए जब गाड़ी नहीं रोकी तो कुछ उपद्रवी कुचलकर मर गये। उस चालक के विरुद्ध स्थानीय पुलिस ने प्रकरण दर्ज कर लिया जबकि उसकी इसमें कोई गलती नहीं थी। आत्मरक्षार्थ वाहन को चलाते रहने के अलावा और कोई विकल्प चालक के पास उन परिस्थितियों में हो भी नहीं सकता था वरना उसके साथ बैठे बाकी लोग भी मारे जाते। हालाँकि युद्धविराम के दौरान हुए हमलों को देखते हुए सुरक्षा बलों को भी जवाबी कार्रवाई करने की छूट दे दी गई थी किन्तु राज्य सरकार द्वारा जनता के गुस्से से बचने के लिए उनके खिलाफ  प्रकरण दर्ज करने से केंद्र और राज्य के बीच सीधे-सीधे टकराव की स्थिति बनने लगी और सुरक्षा बलों के मनोबल पर भी विपरीत असर पडऩे लगा। बहरहाल गृहमंत्री ने समय रहते उस समस्या को हल कर दिया और लगे हाथ ये भी कह दिया कि पत्थरबाजी करने वालों को अब कोई अवसर नहीं दिया जाएगा। मेहबूबा मुफ्ती सहित कश्मीर के अन्य नेता पत्थरबाजों को भटका हुआ मानकर उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैये की वकालत करते रहे। केंद्र सरकार ने उस पर ध्यान भी दिया और उनके पुनर्वास हेतु काफी सुविधाएं प्रदान कीं। सरकारी नौकरियों के लिए भी जमकर भर्तियां हुईं। बीच-बीच में ऐसा लगा कि स्थितियां सामान्य हो गईं लेकिन अलगाववादी मौका पाते ही अपना खेल दिखाने से बाज नहीं आते। पत्थरबाजी उनका सबसे सस्ता और आसान हथियार है। बेरोजगार किशोर और युवकों को रुपयों का लालच देकर उनसे सुरक्षा बलों पर पथराव करवा देना आम बात हो गई थी। बीते साल जब पैलेट गन नामक हथियार का उपयोग हुआ तब हजारों पत्थरबाज घायल हो गए। कई तो अंधे और स्थायी रूप से विकलांग भी हुए। वह मुहिम सफल होती दिखने लगी थी तभी संसद से लेकर सर्वोच्च न्यायालय में पैलेट गन के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया गया। केंद्र सरकार ने भी कुछ ढील दी। लेकिन थोड़े समय बाद फिर वही सिलसिला शुरू हो गया। कुल मिलाकर सच्चाई ये है कि कश्मीर घाटी लगभग हिन्दू विहीन हो चुकी है। शहरों में तो इक्का-दुक्का मिल भी जाएंगे लेकिन गांव और कस्बों में तो पूरी तरह मुस्लिम आबादी ही है। इस वजह से अलगाववादियों को सहायता और संरक्षण दोनों आसानी से मिल जाता है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि आतंकवाद कश्मीर घाटी में कुटीर उद्योग की तरह जड़ें जमा चुका है। स्थानीय जनता चाहे-अनचाहे अलगाववादियों के इशारों पर नाचने मजबूर है क्योंकि उनकी बात न मानने का परिणाम बेहद भयावह होता है। ऐसे में अब एक ही रास्ता है जिसके जरिये पत्थरबाजों के हाथ और हौसले दोनों तोड़े जा सकते हैं और वह है पत्थर का जवाब पैलेट या बुलेट से। केंद्र और कुछ हद तक राज्य सरकार ने जब और जितनी सदाशयता दिखाई उसके बदले में सिवाय नफरत और हिंसा के कुछ हासिल नहीं हुआ।  सुरक्षा बल स्थितियों से निपटने में पूरी तरह से सक्षम हैं बशर्ते उन्हें उसके लिए छूट और संरक्षण दिया जाए। कश्मीर घाटी की परिस्थिति श्रीलंका के उत्तरी हिस्से जाफना सरीखी हो चुकी है जहाँ लिट्टे नामक संगठन द्वारा समानांतर सरकार चलाई जाने लगी थी। लिट्टे के पास सेना की टक्कर के अस्त्र-शस्त्र होने से वहां कई बरस तक बाकायदा गृहयुद्ध चला जिसमें अंतत: श्रीलंका की सेना जीत गई। तत्कालीन राष्ट्रपति राजपक्षे ने लिट्टे को उसी की शैली में जवाब देते हुए मानवाधिकारों की डुगडुगी बजाने वालों को भाव ही नहीं दिया। विश्व जनमत की परवाह न करते हुए श्रीलंका ने आतंकवादियों का सफाया कर दिखाया। लिट्टे के स्वयंभू प्रमुख प्रभाकरण को मारने के बाद उसके परिवार को भी मौत के घाट उतार दिया गया। यहां तक कि उसके किशोर बेटे तक को श्रीलंका सेना से नहीं बख्शा जिससे कि भविष्य में लिट्टे दोबारा खड़ा न हो सके। शासन व्यवस्था के कुशल संचालन और कूटनीति के महान प्रणेता आचार्य चाणक्य ने जड़ों में मठा डालने का जो सिद्धांत दिया था उसका श्रीलंका सरकार द्वारा अक्षरश: पालन करते हुए लिट्टे को समूल नष्ट कर अपने देश को टूटने से बचा लिया गया। दुनिया के अन्य देश भी हैं जहां अलगाववाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई छेड़कर देश को रोज-रोज की अशांति से मुक्ति दिलाई गई। दुर्भाग्य से हमारे देश में राष्ट्रहित के मामलों में भी राजनीति हावी हो जाती है। जम्मू-कश्मीर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। लेकिन समय आ गया है जब पिछली गलतियों को भुलाकर अलगाववाद के विरुद्ध आर-पार की लड़ाई लड़ी जाए। इस काम में जितनी देर की जाएगी उतनी ही उसकी जड़ें गहरी होती जायेंगी। रही बात मानवाधिकारों की, तो देश की अखंडता के लिए खतरा बनने वालों की सजा केवल मौत ही है। कश्मीर घाटी के जो हालात हैं उनमें किसी भी तरह की मुरव्वत या मानवीयता की गुंजाइश नहीं बची है। राजनाथ सिंह ने पत्थरबाजों के प्रति सहानुभूति न रखने की जो बात कही उस पर केंद्र सरकार को अमल करना चाहिए। बीते चार साल में केंद्र और मेहबूबा सरकार ने घाटी में शांति स्थापना के जितने प्रयास करने थे, कर लिये। उनका नतीजा वही है जो सांप को दूध पिलाने पर निकलता है। ऐसे में एकमात्र विकल्प अब फन कुचलने का बचा है। इसके पहले कि बहुत देर हो जाए, ये काम कर लेना चाहिए वरना मोदी सरकार की साख और धाक दोनों को धक्का लगे बिना नहीं रहेगा। फेसबुक पर किसी की ये पोस्ट गौरतलब है कि जिस तरह लालकिले का रखरखाव निजी कम्पनी को सौंप दिया गया वैसे ही कश्मीर की देखरेख इजरायल को दे दी जाए। इस व्यंग्य में छिपी गंभीरता को समझने की जरूरत है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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