Saturday 31 August 2019

मंदी : घरेलू निवेशक और उपभोक्ता को महत्व देना ही उपाय

आँकड़ों के बारे में एक उक्ति बड़ी ही मशहूर है कि झूठ , सफेद झूठ और आँकड़ा। इसका आशय ये है कि जब किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना हो तब उसे आंकड़ों में वर्णित कर दिया जाता है ताकि उसकी विश्वसनीयता बढ़ जाए। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में तो ये खेल जमकर चलता है। एक जमाना था जब बजट , शेयर बाजार, रूपये का विनिमय मूल्य, विकास दर आदि के बारे में शिक्षित वर्ग तक को ख़ास रूचि नहीं होती थी। व्यापारी अपने व्यापार और जनता महंगाई से सरोकार रखती थी। लेकिन बीते कुछ वर्षों में स्थितियां बदली हैं और आर्थिक क्षेत्र में होने वाली छोटी-बड़ी गतिविधियों का भी संज्ञान लिया जाने लगा है। उनकी खबरें अखबारों के व्यापार पृष्ठ से निकलकर पहले पन्ने पर भी स्थान पाने लगी हैं। ये एक अच्छा लक्षण है। विकसित देशों में चुनाव के दौरान उठने वाले मुद्दे अभी भी भारतीय परिदृश्य में नजर नहीं आते लेकिन अब पहले जैसी निर्लिप्तता भी नहीं रही और विकास दर, रूपये की कीमत, बेरोजगारी के आंकड़े, विदेशी निवेश सरीखी बातें राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनने लगी हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव तक विकास दर को लेकर जो आशाजनक स्थिति बनी थी वह बीते तीन महीनों में अचानक कैसे बदल गयी ये सवाल आज हर जुबान पर है। ये आरोप पहले भी लगते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने आर्थिक प्रगति के जिन आँकड़ों के आधार पर अच्छे दिनों के आगमन का आश्वासन दिया, वे बाजीगरी थे। लेकिन दूसरी तरफ ये भी गौरतलब है कि भारत के पूंजी बाजार में रिकार्डतोड़ विदेशी निवेश भी आता गया जिससे शेयर बाजार नित नई ऊँचाइयों को छूने लगा। बावजूद इसके पहले बेरोजगारी और अब विकास दर के जो आँकड़े आए उनके बाद से आर्थिक मोर्चे पर चिंता का माहौल बन गया। दो दिन पहले ही जब केंद्र सरकार को रिजर्व बैंक के संचित कोष से पौने दो लाख करोड़ रूपये मिलने की खबर आई तो इस बात की पुष्टि हो गई कि अर्थव्यवस्था की हालत सरकारी दावों के विपरीत हैं जिसे विपक्ष सहित अनेक आर्थिक विशेषज्ञों ने मोदी सरकार की विफलता माना तथा नोटबंदी और जीएसटी को इसके लिए कसूरवार मानते हुए प्रधानमन्त्री से अपेक्षा की कि कम से कम अपनी गलती को स्वीकार तो करें। ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि जम्मू-कश्मीर को लेकर उठाये गये कदम जनता का ध्यान आर्थिक बदहाली से हटाने के लिए हैं। आज ही खबर आ गई कि 10 बैंकों का विलय करते हुए उन्हें 4 में बदल दिया गया। इसके बाद अब देश में केवल 12 राष्ट्रीयकृत बैंक बचे जबकि दो साल पहले ये संख्या 27 थी। कहा जा रहा है कि एनपीए के बोझ से दबे बैंकों की स्थिति इससे सुधर जायेगी और बैंक ज्यादा कर्ज देकर आर्थिक मंदी को दूर करने में सफल हो सकेंगे। उल्लेखनीय है अब किसी देश की अर्थव्यवस्था केवल उसकी अपनी घरेलू स्थिति पर निर्भर नहीं रही। विश्व व्यापार संगठन के उदय के पश्चात पूरी दुनिया एक बाजार में बदलकर रह गई है। एक देश में होने वाली आर्थिक हलचल दूसरे पर असर डाले बिना नहीं रहती और उस दृष्टि से भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालातों को भी उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। गत दिवस जारी हुए आंकड़ों के अनुसार इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में भारत की विकास दर नीचे उतरकर 5 फीसदी पर आ गई जो बीते वर्ष इसी अवधि में 8 प्रतिशत थी। जबकि मनमोहन सरकार के जमाने में 2012-13 की पहली तिमाही में यह 4.9 फीसदी रही। कारोबारी साल की शुरुवात में इस साल विकास दर के। 7 फीसदी रहने का अनुमान था जो धीरे-धीरे नीचे आता चला गया लेकिन 5 प्रतिशत की स्थिति निश्चित रूप से अनपेक्षित ही है जिसके अनेक कारण भी बताये जा रहे हैं। लेकिन इसके लिए घरेलू हालात अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। भारत के सबसे बड़े प्रतिद्वन्दी चीन की विकास दर भी अप्रैल से जून के बीच महज 6.2 रही जो बीते 27 वर्षों में सबसे कम है। वहीं अमेरिका की अर्थव्यवस्था भी हिचकोले खाने की स्थिति में आ गई। जिससे बचने की लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के साथ ट्रेड वार शुरू कर दिया जिसके कारण पूरा विश्व आर्थिक उथल -पुथल में फंस गया है। इसका तात्कालिक परिणाम आर्थिक मंदी के तौर पर देखा जा रहा है। जिस तिमाही की चर्चा यहाँ हो रही है उसमें चीन का निर्यात ही नहीं आयात भी घटा है। इस सबसे भारत अछूता नहीं रह सकता क्योंकि हमारे उद्योगपतियों ने भी चीन के साथ ही अफ्रीकी और यूरोपीय देशों में काफी निवेश कर रखा है। जहां बात भारत में मंदी की है तो उसे लेकर अनेक आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि इसे मंदी की बजाय आर्थिक सुस्ती कहना ज्यादा सही रहेगा और सरकार सूझबूझ भरे कुछ कदम उठा ले तो इससे बचा जा सकता है। मौजूदा हालात में कृषि, निर्माण और आटोमोबाइल क्षेत्र में ज्यादा चिंता दिखाई दे रही है। लेकिन ये धारणा भी मजबूत है कि अच्छी मानसूनी बरसात की वजह से कृषि क्षेत्र से उत्साह्जनक खबरें आने वाली हैं जिनकी वजह से त्यौहारी मौसम आते तक उपभोक्ता बाजार में मांग बढ़ जायेगी। हालांकि अभी निश्चित तौर पर कुछ कहना कठिन है क्योंकि अनुमान लगातार गलत होते रहे हैं लेकिन समूचे परिदृश्य पर नजर डालने पर लगेगा कि विपरीत हालातों में 5 फीसदी की विकास दर भी वैश्विक मापदंडों के लिहाज से काफी संतोषजनक है, बशर्ते इसमें और गिरावट नहीं आये। केंद्र सरकार द्वारा लगातार दी जा रही रियायतों का असर होने में कुछ समय लग सकता है लेकिन सबसे बड़ी जरूरत अर्थव्यवस्था को लेकर नकारात्मक और निराशाजनक सोच से बचने की है और उसका अतिरंजित प्रचार भी राष्ट्रहित में ठीक नहीं है। यदि मंदी के हालात केवल भारत में होते तब जरुर घबराने वाली बात मानी जाती लेकिन पूरी दुनिया इससे प्रभावित है। अमेरिका में आने वाले दो साल भयावह आर्थिक हालात का संकेत दे रहे हैं जिससे निबटने के लिए ही डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के साथ व्यापारिक शीत युद्ध प्रारम्भ किया। भारत के लिए ये स्थिति झटके की जरूर है लेकिन इस धुंध के बीच ही रास्ता निकलने की उम्मीद भी बरकरार है क्योंकि हमारा अपना विशाल बाजार भी अर्थव्यवस्था को सहारा देने में सक्षम है। केंद्र सरकार को बस इतना चाहिए कि वह जितनी चिरौरी विदेशी निवेशकों की करती है उसकी आधी भी अगर अपने देश के निवेशकों की करने लगे तो कारोबार को पंख लगते देर नहीं लगेगी। प्रधानमन्त्री ने लालकिले की प्राचीर से देशवासियों का आह्वान किया कि वे देश के 15 पर्यटन केन्द्रों की सैर करें। पर्यटन से अर्थव्यवस्था को बहुत मदद मिलती है लेकिन मोदी जी को ये भी देखना चाहिए कि भारत से लाखों पर्यटक विदेश यात्रा पर इसलिए जाते हैं क्योंकि वहां का सैर-सपाटा तुलनात्मक और गुणात्मक रूप से सस्ता और सुरक्षित है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 30 August 2019

नुक्कड़ पर न्यायपालिका

यद्यपि न्यायपालिका के भीतर से आने वाले वाली सनसनीखेज खबरें अब उतना रोमांचित नहीं करतीं लेकिन पटना उच्च न्यायालय  में गत दिवस जो कुछ भी हुआ उससे लगने लगा है कि न्याय के पवित्र मंदिर में भी वे सभी बुराइयां कुंडली मारकर बैठ गईं हैं जिनके कारण देश का वातावरण प्रदूषित हो चुका है | हुआ यूँ कि वरिष्ठता में दूसरे क्रम के न्यायाधीश राकेश कुमार ने एक खत्म हो चुके मामले की नए सिरे से सुनवाई शुरू की | एक पूर्व आईएएस अधिकारी को उनहोंने जमानत नहीं दी थी लेकिन उसने निचली अदालत से जमानत हासिल कर ली | श्री कुमार ने उस प्रकरण की सुनवाई करते हुए कुछ आदेश पारित किये और उनकी प्रतिलिपि सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और प्रधानमंत्री कार्यालय के अलावा सीबीआई को प्रेषित करने का आदेश भी दे दिया | इस पर मुख्य सहित  उच्च  न्यायालय के 11 न्यायाधीशों ने एक साथ बैठकर श्री कुमार द्वारा दिए गए पूरे आदेश के क्रियान्वयन को न सिर्फ रोक दिया अपितु उनके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी कीं |  यहाँ तक कि उनके निर्णय को नुक्कड़ पर होने वाली बयानबाजी जैसा बताने में भी संकोच नहीं किया | इसी के साथ उन्हें अकेले किसी मामले की सुनवाई करने से रोक दिया गया | दूसरी तरफ 11 न्यायाधीशों के  संयुक्त फैसले के विरुद्ध श्री कुमार खुलकर मैदान में आ गए और  न्यायपालिका में व्याप्त धांधलियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि भ्रष्ट न्यायाधीश को बचाया जा रहा है और जिस न्यायाधीश के विरुद्ध उन्होंनें शिकायात की वही उनकी जाँच में शामिल हैं | मामला चूँकि अति सम्मानीय योर ऑनर्स का है इसलिए आम जनता और नेता इस पर टिप्पणी से बचेंगे लेकिन इस विवाद से इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि पंच  को परमेश्वर मानने वाले देश में आधुनिक युग की पंचायतों में बैठने वाले न्यायाधीश नामक पंच अब उस सम्मान को खोते जा रहे हैं जो उन्हें सहज और स्वाभाविक रूप से प्राप्त था | वैसे ये पहला  मौका नहीं है जब न्यायपालिका के अंदरूनी झगड़े इस तरह से सार्वजनिक हो रहे हैं | इनके पीछे राजनीति  भी कम नहीं है | दक्षिण भारत के एक न्यायाधीश का भ्रष्टाचार उजागर होने  के बाद जब महाभियोग की बात उठी तब संसद में अनेक सांसदों ने क्षेत्रीयता का मुद्दा  उठाकर बवाल मचा दिया | कोलकाता उच्च  न्यायालय में पदस्थ एक न्यायाधीश ने तो सर्वोच्च न्यायालय तक के विरुद्ध आदेश पारित करते हुए सभी मर्यादाएं तोड़ दीं | ज्यादा दूर क्यों जाएँ देश के वर्तमान प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने ही सर्वोच्च न्यायालय के उन चार न्यायाधीशों की अगुआई की थी जिन्होंने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध बगावती  अंदाज में पत्रकार वार्ता करते हुए न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में बताकर खूब सुर्खियाँ बटोरी थीं | लेकिन कुछ समय पहले जब श्री गोगोई पर एक महिला ने यौन शोषण का आरोप लगाया तब उसकी जाँच हेतु पीठ भी उन्हीं ने गठित की और जल्द ही  वे निर्दोष साबित हो गए जिसे लेकर विधि जगत के अलावा भी तरह - तरह की चर्चाएँ हुआ करती हैं | इसीलिये गत दिवस पटना में जो कुछ भी हुआ उसे वहां के मुख्य न्यायाधीश ने भले ही अभूतपूर्व माना हो लेकिन देश के आम जनमानस में उसे लेकर साधारण प्रतिक्रिया ही हुई होगी क्योंकि काले कोटों से भरे न्यायालय परिसर में गाहे - बगाहे सुने जाने वाले कारनामे अब आये दिन की खबरें बन गये हैं | हाँ , इतना अवश्य है कि पहले वकील , मुवक्किल और अदालतों का निचला स्टाफ उनसे सम्बद्ध  होता था लेकिन अब तो माननीय न्यायाधीशों तक पर उंगलियां उठने लगी हैं | हमारे देश में न्यायपालिका विशेष रूप से न्यायाधीशों के विरुद्ध बोलने से अच्छे - अच्छे घबराया करते थे लेकिन जब न्यायाधीश ही एक दूसरे पर कीचड़ उछालने  की प्रतिस्पर्धा में लिप्त हों तब आम जनता को भी मौका मिल गया है | पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सहित शेष 11 न्यायाधीशों ने राकेश कुमार के फैसले को नुक्कड़ की बयानबाजी कहकर ये साबित कर दिया कि न्याय की पवित्र आसंदी के बारे में खुद न्यायपालिका के उच्च पदों पर बैठे लोग ही क्या सोचते हैं | चूँकि कानून का पालन करवाने वाले न्यायाधीशों के विशेषाधिकारों के सामने साधारण स्थितियों में क़ानून भी असहाय होकर रह जाता है इसलिये इस मामले के बाद न्यायापालिका परम - पवित्र  हो जायेगी ये सोच लेना मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा होगा | लेकिन गोबर गिरा है तो मिट्टी लेकर उठेगा की तर्ज पर ये उम्मीद की जा सकती है कि जिस न्यायापालिका के भीतर व्याप्त बुराइयां तलाशने में लोग डरा करते थे उन्हें न्यायाधीशों के बीच की लड़ाई सार्वजानिक कर देगी | पटना उच्च न्यायालय में गत दिवस जो कुछ भी हुआ उसने ये प्रमाणित कर  दिया कि भ्रष्टाचार के मामले में भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है | और न्यायपालिका भी उससे अछूती नहीं रही | जब एक न्यायाधीश के फैसले को उसी न्यायालय के बाकी न्यायाधीश नुक्कड़ छाप बताने की हद तक चले गये तब और कुछ कहने की जरूरत ही कहाँ है ? इस प्रकरण में इक बात अवश्य उल्लेखनीय है कि राकेश कुमार लालू प्रसाद यादव के भ्रष्टाचार की मामले में सीबीआई के वकील थे | न्यायाधीशों की टिप्पणी पर देश भर के नुक्कड़ों पर खड़े होने वाले बुद्धिजीवी अवमानना का प्रकरण दर्ज करा दें तो आश्चर्य नहीं होगा !

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 29 August 2019

कश्मीर संबंधी विपक्षी रवैया ठीक नहीं


जम्मू कश्मीर में प्रवेश को लेकर विपक्षी पार्टियों के नेतागण तथा कश्मीर घाटी के कुछ लोग बेताब हैं। बात सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुँची है जिसने अक्टूबर में सुनवाई की तारिख भी तय कर दी है। वैसे माकपा महासचिव सीताराम येचुरी को अदालत ने आज कश्मीर जाकर अपनी पार्टी के नेता से मिलने की इजाजत दी है। लेकिन वे न्यायालय को अपनी रिपोर्ट देने के बाद ही कोई राजनीतिक बयान जारी कर सकेंगे। इस बारे में सरकार का कहना है कि विपक्षी नेताओं के घाटी में जाने से वहां हालात बिगड़ सकते हैं। पिछले दिनों राहुल गांधी के नेतृत्व में गये विपक्षी नेताओं के दल को भी श्रीनगर हवाई अड्डे से बैरंग लौटा दिया गया था। घाटी में विपक्ष के नेता या तो नजरबंद हैं या फिर हिरासत में हैं। आतंकवाद से जुड़े कैदियों को अन्य राज्यों की जेलों में भेज दिया गया है। दरअसल वर्तमान स्थिति में कश्मीर घाटी में एक तरह से सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया चल रही है। राज्य के विभाजन के बाद जम्मू-कश्मीर से लद्दाख अलग हो गया है वहीं उसको पूर्ण राज्य की बजाय केंद्र शासित बना दिए जाने के कारण समूची प्रशासनिक व्यवस्था में सिरे से बदलाव करना पड़ रहा है। लद्दाख को भी अलग से बिना विधानसभा वाला केंद्र शासित क्षेत्र बनाने में भी सरकारी स्तर पर भारी मशक्कत हो रही है। सरकार के समक्ष सबसे बड़ी समस्या घाटी के भीतर अलगाववादी ताकतों को पूरी तरह से नियन्त्रण में रखने की है। बीते तीन सप्ताह में घाटी में इक्का - दुक्का घटनाओं को छोड़कर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे केंद्र सरकार के फैसले के विरुद्ध जनता के गुस्से का पता चलता। हालाँकि सरकारी दावे के अनुसार तो स्थिति पूरी तरह से नियंत्रण में है और घाटी की आम जनता भी 370 और 35 ए हटने से खुश है लेकिन इस पर तभी भरोसा होगा जब लोगों की आवाजाही पर लगी रोक हट जायेगी तथा संचार सुविधाएँ पूरी तरह से बहाल होकर सामान्य स्थिति वापिस लौटेगी। भले ही कहे कुछ नहीं लेकिन सरकार भी जानती है कि अलगाववाद की चिंगारी भीतर - भीतर सुलग रही है तथा जरा सी हवा मिलते ही फिर भड़क सकती है। यही वजह है कि विपक्ष के तमाम दबाव के बावजूद भी घाटी के भीतर धीरे-धीरे ही रियायतें दी जा रही हैं। जहां तक बात आने-जाने और संपर्क की आजादी की है तो यह निश्चित रूप से मनुष्य का नैसर्गिक अधिकार है लेकिन जब सवाल देश की सुरक्षा और अखंडता का हो तब बाकी बातें महत्वहीन हो जाती हैं। उस लिहाज से केंद्र सरकार ने जो रणनीति अपना रखी है उसका विपक्ष को विरोध नहीं करना चाहिए। कश्मीर में फिलहाल जो हो रहा है वह उतना बुरा तो कदापि नहीं है जितना अलगाववादियों की हरकतों के कारण होता रहा है। बुरहान बानी के मारे जाने के बाद घाटी में जितना उत्पात हुआ वह बीते एक महीने की अपेक्षा कई गुना ज्यादा था। सच्चाई ये है कि सियासत चमकाने की खातिर कोई कहे कुछ भी लेकिन कश्मीर में अलगाववाद की समस्या को खत्म करने का और कोई विकल्प बचा ही नहीं था। पता नहीं क्यों कांग्रेस सहित बाकी विपक्षी पार्टियां घाटी को पाकिस्तान समर्थक तत्वों के आतंक से मुक्त कराने के इस प्रयास को लेकर तरह-तरह के ऐसे सवाल खड़े करने में जुटी हुई हैं जिनसे हमारे सुरक्षा बलों की पूरी मेहनत पर पानी फिर सकता है। कश्मीर में सर्दियां अक्टूबर के प्रारम्भ से ही शुरू हो जाती हैं। बर्फबारी के कारण आवागमन भी अवरुद्ध होता है और जनजीवन भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। लद्दाख को देश से जोडऩे वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 1 भी उसका शिकार हुए बिना नहीं रहता। और भी अनेक संवेदनशील कारण हैं जिनके चलते सुरक्षा बलों को भी काफी सजगता बरतनी पड़ती है। विपक्ष को इस विषय में एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि कश्मीर को लेकर बीते 5 और 6 अगस्त को देश की संसद ने भारी बहुमत से जो ऐतिहासिक फैसला लिया वह राजनीतिक नहीं अपितु राष्ट्रीय महत्व का है जिसका सीधा सम्बन्ध देश की सुरक्षा और सम्मान से है। कश्मीर घाटी में बीते अनेक वर्षों से अलगाववादी संगठनों के नेताओं ने जिस तरह का पाकिस्तान समर्थक रुख दिखाया उसके कारण देश के बाकी हिस्सों में नरेंद्र मोदी के छप्पन इंची सीने का मजाक उड़ाया जाने लगा था। युवा जवानों और अफसरों की मौत से भी जनाक्रोश बढ़ता जा रहा था। हर कोई कहता था कि मु_ी भर आतंकवादी और पाकिस्तान जैसा छोटा सा देश 130 करोड़ की आबादी वाले देश को मजबूर किये हुए। मोदी सरकार ने जिस हिम्मत का प्रदर्शन किया विपक्ष द्वारा उसकी तारीफ भले न की जाए लेकिन उसकी आलोचना करते हुए समूची प्रक्रिया पर सवाल उठाकर पाकिस्तान की आवाज को बुलंद करने की जो नादानी की जा रही है उससे उसकी विश्वसनीयता खतरे में आ गई है। अच्छा होगा यदि अभी भी अक्लमंदी दिखाते हुए विपक्ष रचनातमक रवैये का परिचय दे। गत दिवस राहुल गांधी का एक ट्वीट कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग बताते हुए पाकिस्तान की आलोचना का आया। बेहतर हो वे इसी तरह आगे भी चलते रहें जिससे बीते एक माह में हुए नुक्सान की कुछ भरपाई हो सके वरना यदि विपक्ष ने अपना रवैया नहीं सुधारा तो वह जनता की निगाहों से पूरी तरह उतर जाये तो आश्चर्य नहीं होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 28 August 2019

धन लेना बुरा नहीं लेकिन लोगों को विश्वास में लिया जावे

बात है तकनीकी इसलिए आसानी से समझ नहीं आयेगी लेकिन रिजर्व बैंक द्वारा सरकार को पौने दो लाख करोड़ रूपये दिए जाने के निर्णय पर शुरू हुई राजनीतिक बहस से आम जनता को यही सन्देश जा रहा है कि खस्ता माली हालत के चलते केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक द्वारा रखे गये संचित धन में से कुछ राशि निकालकर अपने खर्चे चलाने का इंतजाम किया जिसे आम त्तौर पर अच्छा नहीं समझा जाता। रिजर्व बैंक यूं तो एक स्वायत्त संस्था है जो ऊपर-ऊपर कैसी भी दिखे लेकिन वस्तुत: उसका स्वामित्व और नियंत्रण सरकार के ही पास रहता है। गवर्नरों की नियुक्ति से लेकर शेष प्रशासनिक फैसलों में भी सरकार का ही दखल चलता है। केन्द्रीय बैंक की यह व्यवस्था पूरी दुनिया में होती है। देश में आर्थिक नीतियां भले ही सरकार में बैठे लोगों द्वारा तय की जाती हों लेकिन मौद्रिक नीति बनाने का काम रिजर्व बैंक द्वारा ही किया जाता है। बैंकों की ब्याज दरें और ऋण नीति भी उसी के द्वारा निश्चित होती हैं। विभिन्न बैंकों के बीच समन्वय का काम भी इसी संस्था के निर्देशन में होता है। अनुचित और अनैतिक प्रतिस्पर्धा पर निगाह रखने के मामले में भी रिजर्व बैंक काफी सतर्कता बरतता है। ये सब देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि देश की आर्थिक सेहत को बनाये रखने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। बीते एक - दो वर्षों में रिजर्व बैंक की स्वायत्तता को लेकर बवाल मचता रहा है। इसकी वजह ब्याज दरों में कटौती संबंधी सरकार की अपेक्षाएं पूरी नहीं होना था। इसके बाद गवर्नर को हटाये जाने और कुछ उप गवर्नरों द्वारा इस्तीफा दिए जाने से विवाद और बढ़ा और विपक्ष की तरफ से केंद्र सरकार पर ये आरोप लगाया जाने लगा कि वह अपनी आर्थिक विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए केन्द्रीय बैंक के काम में जबरन दखलंदाजी कर रही है। रघुराम राजन के कार्यकाल में तल्खी काफी बढ़ गयी थी। वे महंगाई को नियंत्रण में रखने के नाम पर कर्ज सस्ता किये जाने के लिए तैयार नहीं थे। विशेष रूप से नोट बंदी के बाद जब बाजार में नगदी का भारी अकाल हो  गया तब भी रिजर्व बैंक अपनी तिमाही समीक्षा बैठक में कर्ज को सस्ता बनाने और बैंकों के पास मुद्रा की तरलता (उपलब्धता) बढ़ाने के लिए नानुकुर करता रहा। इस बारे में ये भी कहा गया कि मनमोहन सरकार के समय रिजर्व बैंक में नियुक्त हुए उच्च अधिकारी नई सरकार के प्रति दुर्भावना रखते हैं और इसी कारण से मौद्रिक नीतियों में लचीलापन लाने की बजाय उन्हें अव्यवहारिक बनाया जा रहा है। औद्योगिक मंदी की आहट के बीच इस तरह के फैसलों से व्यापार-उद्योग जगत भी असंतुष्ट था। जीएसटी लागू होने के बाद से व्यापार जगत को जो परेशानियां आईं उनको दूर करने में भी रिजर्व बैंक की कंजूसी सहायक रही ऐसा अनेक लोग कहते हैं। बहरहाल महंगाई को नियंत्रण में रखने के फेर में बाजार में पूंजी विशेष रूप से नगदी की किल्लत ने व्यापार जगत की हलचलों को ठंडा कर दिया। जीएसटी में जमा रकम की वापिसी में होने वाले विलम्ब के कारण व्यापारियों का पैसा फंसकर रह गया। दूसरी तरफ  बैंकों की बड़ी राशि एनपीए में उलझ जाने से वे भी नगदी के अभाव में आ गए जिसकी वजह से नए ऋण बाँटने की प्रक्रिया पर विपरीत असर पड़ा। आर्थिक मंदी के पीछे बाजार में उत्पन्न पूंजी संकट भी बड़ा कारण है। ऐसे में सरकार के लिये ये जरुरी हो गया था कि वह बैंकों की सेहत सुधारे तथा अर्थव्यवस्था की सुस्त रफ्तार को गति प्रदान करे। प्रचलित व्यवस्था के अनुसार रिजर्व बैंक प्रतिवर्ष केंद्र सरकार को अपने मुनाफे में से एक हिस्सा देता है। इसे लेकर भी उसके साथ सरकार की रस्साकशी चलती रही। पौने दो लाख करोड़ की अतिरिक्त राशि रिजर्व बैंक से लेकर बैंकों को देने का केंद्र सरकार का इरादा बाजार में व्याप्त सुस्ती को दूर करने को लेकर ही है। जहां तक बात उचित-अनुचित और रिजर्व बैंक की स्वायत्तता की है तो उसको सुरक्षित रखना एक आदर्श व्यवस्था होने के बाद भी यदि उसके सुरक्षित कोष का उपयोग आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए किया जाता है तो उसे लेकर ज्यादा हल्ला मचाना राजनीतिक प्रपंच ही लगता है। रिजर्व बैंक के पास स्वर्ण भण्डार भी रहता है जो देश की आर्थिक मजबूती का प्रमाण माना जाता है। 1991 में चन्द्रशेखर सरकार ने उसे गिरवी रखा था तब भी बड़ा हल्ला मचा था। निश्चित रूप से जोड़कर रखा गया धन मुसीबत के लिए ही होता है फिर चाहे वह घर, व्यापार या देश में हो। उस दृष्टि से पूंजी के अभाव में यदि बाजार और अर्थव्यवस्था में ठहराव के हालात बन गये हों तब रिजर्व बैंक के सुरक्षित कोष में से यदि कुछ राशि सरकार ले रही है तब इस पर ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए जिनसे आम जनता में भय और अविश्वास पैदा हो। यद्यपि अर्थव्यवस्था पर श्वेत पत्र जारी करने की विपक्ष की मांग औचित्यहीन नहीं है। सरकार को चाहिए कि जिस तरह वह देश की सुरक्षा पर संकट मंडराने के बारे में जनता को सूचित करते हुए उसका समर्थन हासिल करती है वैसा ही आर्थिक संकट में करना चाहिये। मंदी को लेकर अनाधिकृत रूप से उडऩे वाली खबरें अफवाहों को जन्म देती हैं। सरकार जितना ज्यादा जनता को विश्वास में लेती रहेगी उसकी दिक्कतें उतनी ही कम होती जायेंगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी