Sunday 11 August 2019

लौटकर कांग्रेस 10 जनपथ आई

आखिरकार ढाई महीने बाद कांग्रेस ने अपना कप्तान चुन लिया लेकिन वह भी अंतरिम ही है | 25  मई को राहुल गांधी द्वारा लोकसभा चुनाव में  पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी के अध्यक्ष पद से न केवल इस्तीफा दिया वरन ये ऐलान भी कर दिया कि गांधी परिवार का कोई सदस्य उनका उत्तराधिकारी  नहीं बनेगा | राहुल सोचते थे कि उनके वैसा करते ही पार्टी संगठन में त्यागपत्रों की बाढ़ आ जायेगी लेकिन वैसा नहीं हुआ | बाद में जब उन्होंने इस पर उलाहना दिया तब जाकर छुटपुट कुछ इस्तीफ़े आये भी लेकिन उन्हें बहुत असरकारक नहीं माना गया | शुरू - शुरू में लगा कि श्री गांधी  मनाने पर मान जायेंगे लेकिन वे अपने त्यागपत्र पर डटे रहे | बीच - बीच में ये खबर भी उड़ी कि संगठन चुनाव होने तक राहुल के  किसी भरोसेमंद को अंतरिम अध्यक्ष बनाकर गाडी खींची जायेगी |, परन्तु वह भी नहीं हुआ | इस दौरान उत्तराधिकारी को लेकर कई नाम चर्चा में आये | पहले - पहल लगा कि राहुल के करीबी समझे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट में से किसी को बागडोर सौंपकर युवाओं को आकर्षित करने का दांव चला जाएगा | उसके बाद मल्लिकार्जुन खडगे , सुशील कुमार शिंदे और मुकुल वासनिक जैसे वरिष्ठ नेताओं का नाम चला जो अनुसूचित जाति वर्ग से हैं | भारी उहापोह के बीच गत दिवस कांग्रेस कार्यसमिति बैठी और जैसी अपेक्षा थी राहुल से त्यागपत्र वापिस लेने की अपील की गई लेकिन उन्होंने न सिर्फ इनकार कर  दिया वरन चयन प्रक्रिया से ही  वे और सोनिया गांधी अलग हो गये तथा बैठक भी छोड़ दी | दिन भर उठापटक चली | पैनल बनते - बिगड़ते रहे | प्रियंका वाड्रा का नाम भी उछला | राहुल से मान जाओ - मान जाओ की गुहार लगाई जाती रही और अंत में रात 11 बजे सोनिया जी को ही अंतरिम अध्यक्ष का दायित्व सौंपे जाने का फैसला सुना दिया गया | इस फैसले से लोग चौंकते नहीं अगर राहुल ये नहीं कहते कि उनका उत्तराधिकारी गांधी परिवार से नहीं होगा | लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने अपनी बहिन प्रियंका वाड्रा  को पार्टी महासचिव बनाकर पूर्वी उत्तरप्रदेश की कमान सौंपी तब ये लगा था कि गांधी परिवार ने पार्टी के उपर अपना शिकंजा और मजबूत कर लिया है लेकिन लोकसभा चुनाव के परिणामों ने साबित कर दिया कि कांग्रेस का  परिवारवाद किसी भी सूरत में जनता को स्वीकार्य नहीं रहा | ऐसे में जब श्री गांधी ने पार्टी की कमान किसी और को देने की बात कही तब उसे एक सुलझा हुआ कदम माना गया | हालांकि उसके बाद इतने लम्बे समय तक पार्टी के शीर्षस्थ नेतृत्व को लेकर अनिश्चितता बने रहने पर खूब आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी हुईं | उसका दुष्परिणाम बीते दिनों मौजूदा लोकसभा के पहले सत्र में  कांग्रेस के लचर प्रदर्शन के तौर पर सामने आया | विशेष रूप से कश्मीर को लेकर मोदी सरकार ने जो राजनीतिक दांव खेला उसके सामने कांग्रेस पहले राज्यसभा और फिर लोकसभा में पूरी तरह से बिना राजा की फौज जैसी दिखाई दी | राहुल गांधी ने एक शब्द तक नहीं बोला | कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने जिस तरह से सरकार  के पक्ष में बयान दिये उससे भी पार्टी की जबर्दस्त किरकिरी हुई | ये सब देखते हुए लगता था कि  कार्यसमिति किसी उर्जावान नेता को पार्टी की कमान  सौंपेगी लेकिन लगता है आपसी  खींचातानी के चलते किसी नाम पर एक राय नहीं बन सकी और ले देकर सोनिया जी को ही  अंतरिम अध्यक्ष बनाकर पिंड छुडाया गया | इस बारे में एक चर्चा ये भी  चल पड़ी है कि राहुल के पूरी तरह  से इंकार कर  देने के बाद अधिकतर नेता प्रियंका के नाम पर राजी थे | लेकिन राहुल ने वैसा नहीं होने दिया क्योंकि वे नहीं चाहते थे पार्टी का नियन्त्रण विकेन्द्रीकृत हो तथा परिवार के भीतर ही नया शक्ति केंद्र उभरे | भले ही राहुल ने ही प्रियंका को पार्टी महासचिव  बनाकर पार्टी की मुख्यधारा में शामिल किया हो लेकिन उनके कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने के बाद राबर्ट वाड्रा का जो महत्त्व राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ता वह राहुल  को स्वीकार नहीं हो रहा था | उन्हें ये डर भी सता रहा था कि भूमि घोटालों की जांच के घेरे में फंसे राबर्ट वाड्रा की वजह से कांग्रेस की फजीहत न होने लगे | वैसे मन ही मन सोनियां जी भी प्रियंका को राहुल का विकल्प बनाने राजी नही थीं और उसी कारण से दिन भर के नाटक के  अंत पर लोगों को आश्चर्य नहीं हुआ | अब सवाल ये है कि क्या सोनिया जी के दोबारा कमान सँभालने से कांग्रेस वर्तमान दुरावस्था से उबर पायेगी क्योंकि उनका स्वास्थ्य पहले जैसा नहीं रहा | जहां  तक बात राहुल की है तो लोकसभा चुनाव हुए लम्बा समय बीतने के बाद भी वे ऐसा कोई संकेत नहीं दे सके जिससे ये लगता कि उनकी निराशा दूर हुई हो | कश्मीर मसले पर लोकसभा में पार्टी का पक्ष रखकर वे जनता के मन में अपने प्रति व्याप्त  अवधारणा को बदल सकते थे लेकिन अपनी उदासीनता के चलते उन्होंने एक बेहतरीन अवसर गँवा दिया | बहरहाल अब सोनिया जी के अंतरिम अध्यक्ष बनने के बाद ये तय हो गया है कि कांग्रेस आगे भी गांधी परिवार की मुट्ठी में ही  रहेगी | कुछ नेताओं का कहना था कि और किसी के अध्यक्ष बनने से ;पार्टी में विघटन का आशंका बढ़ जाती किन्तु वह सब भी गांधी परिवार का पुराना तरीका है | सही बात ये है कि राहुल ऊपरी तौर पर चाहे कितना भी दिखावा करें लेकिन वे पार्टी पर अपना आधिपत्य बनाये रखने के लिए पूरी तरह प्रयासरत थे | यद्यपि इस समूची कवायद से एक सवाल जरुर उठ खड़ा हुआ है कि सोनिया गांधी को ही अंतरिम अध्यक्ष बनाना था तब ढाई महीने तक पार्टी को अनिश्चितता में फंसाकर रखने का मतलब  क्या था ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

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