Saturday 31 August 2019

मंदी : घरेलू निवेशक और उपभोक्ता को महत्व देना ही उपाय

आँकड़ों के बारे में एक उक्ति बड़ी ही मशहूर है कि झूठ , सफेद झूठ और आँकड़ा। इसका आशय ये है कि जब किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना हो तब उसे आंकड़ों में वर्णित कर दिया जाता है ताकि उसकी विश्वसनीयता बढ़ जाए। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में तो ये खेल जमकर चलता है। एक जमाना था जब बजट , शेयर बाजार, रूपये का विनिमय मूल्य, विकास दर आदि के बारे में शिक्षित वर्ग तक को ख़ास रूचि नहीं होती थी। व्यापारी अपने व्यापार और जनता महंगाई से सरोकार रखती थी। लेकिन बीते कुछ वर्षों में स्थितियां बदली हैं और आर्थिक क्षेत्र में होने वाली छोटी-बड़ी गतिविधियों का भी संज्ञान लिया जाने लगा है। उनकी खबरें अखबारों के व्यापार पृष्ठ से निकलकर पहले पन्ने पर भी स्थान पाने लगी हैं। ये एक अच्छा लक्षण है। विकसित देशों में चुनाव के दौरान उठने वाले मुद्दे अभी भी भारतीय परिदृश्य में नजर नहीं आते लेकिन अब पहले जैसी निर्लिप्तता भी नहीं रही और विकास दर, रूपये की कीमत, बेरोजगारी के आंकड़े, विदेशी निवेश सरीखी बातें राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनने लगी हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव तक विकास दर को लेकर जो आशाजनक स्थिति बनी थी वह बीते तीन महीनों में अचानक कैसे बदल गयी ये सवाल आज हर जुबान पर है। ये आरोप पहले भी लगते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने आर्थिक प्रगति के जिन आँकड़ों के आधार पर अच्छे दिनों के आगमन का आश्वासन दिया, वे बाजीगरी थे। लेकिन दूसरी तरफ ये भी गौरतलब है कि भारत के पूंजी बाजार में रिकार्डतोड़ विदेशी निवेश भी आता गया जिससे शेयर बाजार नित नई ऊँचाइयों को छूने लगा। बावजूद इसके पहले बेरोजगारी और अब विकास दर के जो आँकड़े आए उनके बाद से आर्थिक मोर्चे पर चिंता का माहौल बन गया। दो दिन पहले ही जब केंद्र सरकार को रिजर्व बैंक के संचित कोष से पौने दो लाख करोड़ रूपये मिलने की खबर आई तो इस बात की पुष्टि हो गई कि अर्थव्यवस्था की हालत सरकारी दावों के विपरीत हैं जिसे विपक्ष सहित अनेक आर्थिक विशेषज्ञों ने मोदी सरकार की विफलता माना तथा नोटबंदी और जीएसटी को इसके लिए कसूरवार मानते हुए प्रधानमन्त्री से अपेक्षा की कि कम से कम अपनी गलती को स्वीकार तो करें। ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि जम्मू-कश्मीर को लेकर उठाये गये कदम जनता का ध्यान आर्थिक बदहाली से हटाने के लिए हैं। आज ही खबर आ गई कि 10 बैंकों का विलय करते हुए उन्हें 4 में बदल दिया गया। इसके बाद अब देश में केवल 12 राष्ट्रीयकृत बैंक बचे जबकि दो साल पहले ये संख्या 27 थी। कहा जा रहा है कि एनपीए के बोझ से दबे बैंकों की स्थिति इससे सुधर जायेगी और बैंक ज्यादा कर्ज देकर आर्थिक मंदी को दूर करने में सफल हो सकेंगे। उल्लेखनीय है अब किसी देश की अर्थव्यवस्था केवल उसकी अपनी घरेलू स्थिति पर निर्भर नहीं रही। विश्व व्यापार संगठन के उदय के पश्चात पूरी दुनिया एक बाजार में बदलकर रह गई है। एक देश में होने वाली आर्थिक हलचल दूसरे पर असर डाले बिना नहीं रहती और उस दृष्टि से भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालातों को भी उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। गत दिवस जारी हुए आंकड़ों के अनुसार इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में भारत की विकास दर नीचे उतरकर 5 फीसदी पर आ गई जो बीते वर्ष इसी अवधि में 8 प्रतिशत थी। जबकि मनमोहन सरकार के जमाने में 2012-13 की पहली तिमाही में यह 4.9 फीसदी रही। कारोबारी साल की शुरुवात में इस साल विकास दर के। 7 फीसदी रहने का अनुमान था जो धीरे-धीरे नीचे आता चला गया लेकिन 5 प्रतिशत की स्थिति निश्चित रूप से अनपेक्षित ही है जिसके अनेक कारण भी बताये जा रहे हैं। लेकिन इसके लिए घरेलू हालात अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। भारत के सबसे बड़े प्रतिद्वन्दी चीन की विकास दर भी अप्रैल से जून के बीच महज 6.2 रही जो बीते 27 वर्षों में सबसे कम है। वहीं अमेरिका की अर्थव्यवस्था भी हिचकोले खाने की स्थिति में आ गई। जिससे बचने की लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के साथ ट्रेड वार शुरू कर दिया जिसके कारण पूरा विश्व आर्थिक उथल -पुथल में फंस गया है। इसका तात्कालिक परिणाम आर्थिक मंदी के तौर पर देखा जा रहा है। जिस तिमाही की चर्चा यहाँ हो रही है उसमें चीन का निर्यात ही नहीं आयात भी घटा है। इस सबसे भारत अछूता नहीं रह सकता क्योंकि हमारे उद्योगपतियों ने भी चीन के साथ ही अफ्रीकी और यूरोपीय देशों में काफी निवेश कर रखा है। जहां बात भारत में मंदी की है तो उसे लेकर अनेक आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि इसे मंदी की बजाय आर्थिक सुस्ती कहना ज्यादा सही रहेगा और सरकार सूझबूझ भरे कुछ कदम उठा ले तो इससे बचा जा सकता है। मौजूदा हालात में कृषि, निर्माण और आटोमोबाइल क्षेत्र में ज्यादा चिंता दिखाई दे रही है। लेकिन ये धारणा भी मजबूत है कि अच्छी मानसूनी बरसात की वजह से कृषि क्षेत्र से उत्साह्जनक खबरें आने वाली हैं जिनकी वजह से त्यौहारी मौसम आते तक उपभोक्ता बाजार में मांग बढ़ जायेगी। हालांकि अभी निश्चित तौर पर कुछ कहना कठिन है क्योंकि अनुमान लगातार गलत होते रहे हैं लेकिन समूचे परिदृश्य पर नजर डालने पर लगेगा कि विपरीत हालातों में 5 फीसदी की विकास दर भी वैश्विक मापदंडों के लिहाज से काफी संतोषजनक है, बशर्ते इसमें और गिरावट नहीं आये। केंद्र सरकार द्वारा लगातार दी जा रही रियायतों का असर होने में कुछ समय लग सकता है लेकिन सबसे बड़ी जरूरत अर्थव्यवस्था को लेकर नकारात्मक और निराशाजनक सोच से बचने की है और उसका अतिरंजित प्रचार भी राष्ट्रहित में ठीक नहीं है। यदि मंदी के हालात केवल भारत में होते तब जरुर घबराने वाली बात मानी जाती लेकिन पूरी दुनिया इससे प्रभावित है। अमेरिका में आने वाले दो साल भयावह आर्थिक हालात का संकेत दे रहे हैं जिससे निबटने के लिए ही डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के साथ व्यापारिक शीत युद्ध प्रारम्भ किया। भारत के लिए ये स्थिति झटके की जरूर है लेकिन इस धुंध के बीच ही रास्ता निकलने की उम्मीद भी बरकरार है क्योंकि हमारा अपना विशाल बाजार भी अर्थव्यवस्था को सहारा देने में सक्षम है। केंद्र सरकार को बस इतना चाहिए कि वह जितनी चिरौरी विदेशी निवेशकों की करती है उसकी आधी भी अगर अपने देश के निवेशकों की करने लगे तो कारोबार को पंख लगते देर नहीं लगेगी। प्रधानमन्त्री ने लालकिले की प्राचीर से देशवासियों का आह्वान किया कि वे देश के 15 पर्यटन केन्द्रों की सैर करें। पर्यटन से अर्थव्यवस्था को बहुत मदद मिलती है लेकिन मोदी जी को ये भी देखना चाहिए कि भारत से लाखों पर्यटक विदेश यात्रा पर इसलिए जाते हैं क्योंकि वहां का सैर-सपाटा तुलनात्मक और गुणात्मक रूप से सस्ता और सुरक्षित है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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