आखिरकार वही हुआ जो काफी पहले हो जाना चाहिए था। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित मध्यस्थता पैनल जब अयोध्या विवाद में किसी भी तरह की सुलह करवाने में नाकामयाब रहा तब मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई ने आगामी 6 अगस्त से प्रति मंगल , बुध और गुरुवार को सुनवाई करने की बात कहते हुए ये संकेत भी दिया कि संभवत: 17 नवम्बर अर्थात उनकी सेवानिवृत्ति तक इस विवाद पर फैसला सुना दिया जाएगा। हालाँकि दैनिक सुनवाई करते हुए दशकों से चले रहे इस विवाद को उसके अंजाम तक पहुँचाने का ऐसा ही आश्वासन पिछले मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा ने भी देश को दिया था लेकिन उनके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के भीतर ही जिस तरह की लामबंदी हुई उसकी वजह से अपने कार्यकाल के अंतिम समय में वे सुरक्षित निकलने का रास्ता ही तलाशते रहे। उनके उत्तराधिकारी बने श्री गोगोई ने भी शुरुवात में ऐसा दिखाया कि वे आर-पार करने के मूड में है। गत वर्ष के अंत में जनवरी 2019 से नियमित सुनवाई की बात कही गई थी और तब ऐसा लगा था कि लोकसभा चुनाव के पहले फैसला आ जाएगा लेकिन अचानक न जाने कहाँ से मध्यस्थता पैनल का जिन्न बोतल से निकला और उसने भी आधा साल खराब कर दिया। इस पैनल का गठन सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही बड़ी ही सदिच्छा से किया हो लेकिन पैनल के सदस्यों को लेकर दोनों पक्षों में न कोई उत्साह था और न ही भरोसा। यही वजह रही कि वह कोशिश बुरी तरह असफल साबित हुई। गनीमत थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने वह व्यवस्था बनाई थी अन्यथा अभी तक तो पैनल के सदस्यों की छीछालेदर शुरू हो चुकी होती। खैर, वह अध्याय तो खत्म हो गया और गेंद एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय के पाले में आ गयी। लेकिन यक्ष प्रश्न अभी भी यही है कि क्या न्याय की सबसे बड़ी पीठ में विराजमान अति माननीय न्यायाधीश गणों में इतनी प्रबल इच्छाशक्ति है कि वे राष्ट्रीय महत्व के इस मसले पर चले आ रहे विवाद की इतिश्री कर सकें। चूंकि विवाद से जुड़े सभी पक्षों के अलावा लगभग सभी राजनीतिक दलों ने भी न्यायपालिका के निर्णय को शिरोधार्य करने का वायदा सार्वजानिक तौर पर कर दिया है तब न्यायपालिका पर भी किसी तरह का कोई मानसिक दबाव नहीं है। उसे तो सिर्फ अलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गये फैसले की समीक्षा करते हुए अंतिम निर्णय सुनाना है। श्री गोगोई एवं उनके साथ इस मामले की सुनवाई करने वाले बाकी न्यायाधीशों को इस बात से भी हिम्मत मिलेगी कि देश में राजनीतिक स्थिरता के साथ केंद्र में एक पर्याप्त बहुमत वाली सरकार है जिसमें निर्णय क्षमता भी है। ऐसे में श्री गोगोई के लिए ये स्वर्णिम अवसर है इतिहासपुरुष बनने का। यदि वे सेवा निवृत्ति के पहले अयोध्या विवाद का समाधान निकालने में सफल रहे तो वह न्यायिक क्षेत्र में उनके लम्बे कैरियर का सबसे गौरवशाली अध्याय बनेगा। इस विवाद को अनसुलझा रखने के पीछे दरअसल साहसिक निर्णय लेने की क्षमता का अभाव ही रहा है जिसकी वजह से देश न जाने कितनी समस्याओं का सामना लम्बे समय से करता आ रहा है। राजनीति भी हालांकि कम रोड़े नहीं अटकाती लेकिन न्यायपालिका के पास जो शक्तियां हैं उनका उपयोग करने की बजाय जब वह भी टरकाऊ रवैया अपनाती है तब लोगों में निराशा का भाव पनपता है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि अयोध्या विवाद के जीवित रहने में न्यायपालिका की भूमिका भी कम नहीं है। जिस मामले में वह चाहती है उसमें फटाफट कार्रवाई करते हुए फैसला कर देती है, वरना तारीख दर तारीख बढ़ती जाती है। उम्मीद है श्री गोगोई सेवा निवृत्ति के पहले ही इस विवाद पर अदालती फैसला सुना देंगे क्योंकि इस बारे में जितना विलम्ब होगा तनाव और कटुता भी उतनी ही बढ़ेगी। इसके पहले कि हालात किसी के काबू में न रहें सर्वोच्च न्यायालय को फैसला सुना देना चाहिए।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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