Tuesday 20 August 2019

मंदी : मुफ्तखोरी और निठल्लापन दूर करना ज़रूरी

देश में इन दिनों आर्थिक मंदी और उससे उत्पन्न हो रही बेरोजगारी की चर्चा है। अनेक लोगों को ये लगता है कि केंद्र सरकार की गलत आर्थिक नीतियों की वजह से ये हालात उत्पन्न हुए हैं। लेकिन बजाय ठोस उपाय करने के वह जनता का ध्यान इधर-उधर के मुद्दों में भटकाकर अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। देश में जमीन-जायजाद और आटोमोबाइल जैसे दो क्षेत्र अर्थव्यवथा की रफ्तार के सूचक हैं। पहला तो बीते अनेक वर्षों से मंदी का शिकार था लेकिन दूसरा कुछ समय से हांफने की स्थिति में आ गया। नतीजा उत्पादन में कमी और कर्मचारियों की छंटनी के तौर पर दिखाई दे रहा है। आम चर्चा है कि उपभोक्ता बाजार में मांग कम है। जिन व्यापारियों और उद्योगपतियों ने बैंक से कर्ज उठा रखा है वे उसकी अदायगी नहीं कर पा रहे जिससे कि बैंकों का पैसा फंसा पड़ा है। वे आगे कर्ज बांटने से बच रहे हैं। आर्थिक नीतियों से जुड़े लोग भी मानते हैं कि वैश्विक परिस्थितियों का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पडऩा शुरू हो चुका है और आने वाले कुछ वर्षों तक कारोबारी जगत में सुस्ती का माहौल बना रह सकता है। आज ही खबर आ गई कि आगामी वर्ष से अमेरिका भी मंदी की चपेट में आये बिना नहीं रहेगा। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा बीते कुछ समय से चीन के साथ होने वाले व्यापार पर तरह-तरह की पबांदियां लगाकर भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए भी परेशानियां पैदा कर दी गईं। केंद्र सरकार ने तो इस बारे में अभी तक कोई अधिकृत बयान जारी नहीं किया लेकिन गत दिवस रिजर्व बैंक के गवर्नर शशिकांत दास ने फिक्की के सम्मलेन में बोलते हुए निराशा से बचने की सलाह दी। विकास में सभी की हिस्सेदारी को जरुरी बताते हुए तमाम सलाहनुमा उपदेश दे डाले। केन्द्रीय बजट में 400 करोड़ तक के कारोबार वाली कंपनियों के लिए 25 फीसदी कार्पोरेट टैक्स किये जाने के पीछे भी मंदी को टालने की सोच थी। ताजा संकेतों के अनुसार सरकार सभी कंपनियों को 25 फीसदी के दायरे में लाने पर विचार कर रही है। रिजर्व बैंक भी बीती कुछ तिमाहियों से रेपो रेट में कटौती करते हुए कर्ज को सस्ता करने में जुटा है लेकिन बैंकों द्वारा उसका पूरा लाभ ग्राहकों को नहीं देने से उस कटौती से बाजार को कोई फायदा नहीं हुआ। स्थिति गंभीर है ये तो सभी मान रहे हैं लेकिन उससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है ये कोई भी नहीं बता पा रहा या यूं कहें कि किसी की समझ में ये नहीं आ रहा कि आखिर उपाय है क्या ? लेकिन अर्थशास्त्र की तकनीकी बातों से अलग हटकर देखें तो बाजार में मांग कम होने के जो सामान्य कारण हैं उनमें सबसे प्रमुख है उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति कमजोर होना। भारत में गरीबी तो छोडिय़े उससे भी नीचे के स्तर पर करोड़ों लोग रहते हैं। जाहिर है ऐसे में घरेलू उपभोक्ता बाजार में बढ़ते उत्पादन की खपत होना संभव नहीं होती। और तब उसका निर्यात करके उत्पादक धन अर्जित करता है। लेकिन भारत का निर्यात भी लगातार ढलान पर है जिसका मुख्य कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में हमारे उत्पादन अपेक्षाकृत महंगे होना है। इस सम्बन्ध में चीन का उदाहरण सबसे अधिक प्रासंगिक है। जिसके उत्पादन भारतीय बाजारों में बुरी तरह से छा गए हैं। दरअसल चीनी चीजें बेहद सस्ती होने के कारण भारतीय उत्पादनों पर भारी पडऩे लगीं जिसकी वजह से घरेलू उद्योग विशेष रूप से लघु और मध्यम श्रेणी की औद्योगिक इकाइयां बंद होने के कगार पर आ गईं। विश्व व्यापार संगठन के साथ अनुबंध की वजह से चीन से होने वाले आयात पर रोक लगाने का साहस न पिछली सरकार कर सकी और न ही राष्ट्रवाद की हिमायती वर्तमान सरकार। लेकिन मौजूदा हालात में हाथ पर हाथ रखे बैठना भी संभव नहीं है क्योंकि आर्थिक मंदी का प्रत्यक्ष असर बेरोजगारी बढऩे के रूप में सामने आ रहा है जिसकी वजह से देश में अशांति फैलने का खतरा है। हालांकि केंद्र और राज्यों की सरकारें बेरोजगारों को भत्ता देना जैसे उपाय कर रही हैं। मनरेगा नामक योजना भी संचालित है। मोदी सरकार ने किसानों और छोटे व्यापारियों के लिए पेंशन योजना भी शुरू की है। लेकिन इससे न मंदी रोकी जा सकेगी और न ही औद्योगिक उत्पादन बढ़ेगा जिससे निर्यात किया जा सके। ऐसे में जो उपाय सरलता से लागू हो सकता है वह है देश में उत्पादन की लागत घटाना और उसके लिए सबसे ज्यादा जरुरी है श्रमिकों का सस्ता होना। चीन में बनी चीजें सस्ती होने का सबसे बड़ा कारण वहां श्रमिक सस्ता होना भी है। उसके विपरीत भारत में विशाल जनसंख्या के कारण मानव संसाधन की प्रचुर उपलब्धता के बावजूद भी श्रमिक महंगे हैं। सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी की जो दरें निर्धारित की गईं हैं वे सैद्धान्त्तिक रूप से तो सही दिखती हैं लेकिन व्यवहार रूप में वे घरेलू हालातों से मेल नहीं खातीं। इसी तरह सरकार द्वारा लागू किये गये बाकी श्रमिक कानून भी उत्पादन की लागत बढ़ाने का कारण बन बैठे हैं। यद्यपि इस तरह की बात श्रमिक आन्दोलन के संचालकों को हजम नहीं होगी लेकिन श्रमिकों को शोषण से बचाने की चिंता के साथ-साथ ये भी सोचना जरूरी है कि मांग और पूर्ति का अर्थशास्त्रीय सिद्धांत श्रम क्षेत्र में भी लागू हो तो भारत में व्यापार और उद्योग तो तरक्की करेंगे ही वैश्विक बाजारों में हमारे उत्पाद प्रतिस्पर्धा में भी मजबूती से टिक सकेंगे। इस बारे में एक बात और भी उल्लेखनीय है और वह है करोड़ों लोगों को निठल्ला बनाकर मुफ्त में खिलाना। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का उद्देश्य बेशक बड़ा ही पवित्र है लेकिन उनके कारण एक बहुत बड़ा वर्ग मुफ्तखोरी का आदी हो गया है। देश में बेरोजगारी के भयावह आंकड़ों के बीच छोटे-छोटे कामों के लिए कर्मचारी या मजदूर नहीं मिलते। मध्यमवर्गीय परिवारों में घरेलू नौकरों की किल्लत एक बड़ी समस्या के तौर पर देखी जा सकती है। धर्मस्थलों पर भीख मांगते हट्टे-कट्टे व्यक्ति को काम करने का प्रस्ताव देने पर वह मुंह फेरकर चल देता है। ये सब देखते हुए यदि भारतीय अर्थव्यवस्था पर छाये चिंता के बादलों को दूर करना है तब सबसे बड़ी जरुरत है उत्पादन की लागत को घटाना और उसके लिए अव्यवहारिक श्रम कानूनों की समयानुसार समीक्षा करना बेहद जरूरी है। देश में करोड़ों बेरोजगारों के बाद भी यदि श्रम महंगा हो तो ये ऐसी विरोधाभासी स्थिति है जिसे दूर करना ही होगा। लेकिन ये तब तक संभव नहीं है जब तक अर्थव्यवस्था और राजनीति का घालमेल नहीं रोका जाता। करोड़ों लोगों को मुफ्त की रोटी तोडऩे की सुविधा देने वाला विकासशील देश कभी भी विकसित नहीं बन सकता। बात-बात में चीन की दुहाई देने वालों को वहां श्रमिकों को मिलने वाले पारिश्रमिक के बारे में भी पता करना चाहिए। भारत के आम आदमी को जब तक कर्मठ नहीं बनाया जा सकता तब तक बड़े से बड़ा अर्थशास्त्री भी हालात को पटरी पर नहीं ला सकता। दुनिया का तो पता नहीं लेकिन भारत में आर्थिक बदहाली की बड़ी वजह वे सरकारी नीतियां हैं जो केवल वोट बैंक के नजरिये से बनाई जाती हैं, फिर चाहे खजाना ही खाली हो जाए।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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