आर्थिक मंदी की मार के शिकार बाज़ार की चर्चाओं के बीच अब सरकारी खजाने के खाली होने की बात भी सामने आने लगी है। इसका सबसे बड़ा कारण वोट बैंक की राजनीति है जिसकी आड़ में अनेक कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा कर दी जाती है। लेकिन जब उन पर अमल करने का अवसर आता है तब या तो आर्थिक संसाधनों के अभाव का रोना रोया जाता है या फिर दूसरे वर्गों पर नये कर या अधिभार थोपकर भरपाई की जाती है। चुनाव जीतने का सबसे आसान तरीका किसानों और गरीबों को लालच देना है। इसकी शुरुवात कब और किसने की इस बात पर मगजमारी करने की बजाय बदले हुए हालातों में सरकार में बैठे लोगों को चाहे वे किसी भी पार्टी के क्यूं न हों, अर्थशास्त्र से जुड़ी कड़वी वास्तविकताओं को स्वीकार करते हुए तदनुसार आर्थिक नियोजन करना चाहिये। ताजा संदर्भ मप्र का ही है। गत वर्ष नवम्बर में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सत्ता संभालने के 10 दिनों के भीतर ही किसानों को दो लाख तक के कर्ज माफ करने का प्रलोभन दिया था। इसी तरह मुख्यमंत्री कन्या विवाह और निकाह योजना में गरीब बच्चियों के विवाह हेतु 51 हजार की राशि बतौर अनुदान की बात भी घोषणापत्र में शामिल थी। इस हेतु पिछली शिवराज सरकार 21 हजार दिया करती थी। चूंकि चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर सत्ता में आ गई इसलिए ये माना गया कि उक्त दोनों और ऐसे ही अन्य वायदे जिनमें बेरोजगारी भत्ता भी था इस जीत में सहायक बने। सता संभालते ही मुख्यमंत्री कमलनाथ ने किसानों के कर्ज माफ करने का आदेश जारी कर दिया। सरकारी अमला भी नए हुक्मरानों के इशारे पर सक्रिय हो उठा। बीच में लोकसभा चुनाव आ जाने की वजह से खैरात बांटने का काम रुक गया लेकिन उसे संपन्न हुए भी तीन महीने बीत गए तब ये बात सामने आई कि प्रदेश सरकार किसानों के दो लाख तक के कर्ज एक मुश्त माफ करने की बजाय किश्तों में अपना वायदा निभाएगी। हालांकि इसके पीछे तकनीकी और प्रक्रियात्मक कारण भी बताये जा रहे हैं लेकिन कांग्रेस के चुनावी वायदे के बाद से ही किसानों ने बैंकों को पैसा देना बंद कर दिया। इसी तरह अनेक सहकारी समितियां भी दिवालिया होने के कगार पर आ गईं। आज एक और खबर आ गई जिसके अनुसार मुख्यमंत्री कन्या विवाह और निकाह योजना के अंतर्गत बीते छह महीने में संपन्न लगभग 22 हजार 500 विवाह में एक को भी 51 हजार का अनुदान नहीं मिला। राज्य शासन ने इसका कारण आर्थिक तंगी बताते हुए आश्वस्त किया कि जल्द ही हितग्राहियों के खाते में रकम जमा करा दी जावेगी। लेकिन आगामी विवाह आयोजन के लिए खजाने में पैसा नहीं है। ये कहना तो गलत होगा कि राज्य सरकार अपने वायदे से पीछे हट रही है लेकिन वित्तीय प्रबंधन और लोक-लुभावन नारों में समन्वय स्थापित कर पाना भारत जैसे देश में बहुत कठिन होता है। किसी भी सरकार का मुखिया जनता की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता क्योंकि उसकी कार्यकुशलता और सफलता का पैमाना चुनाव जिताने की उसकी करिश्माई क्षमता मानी जाती है। लेकिन इसके फेर में राज्य और केंद्र दोनों सरकारों का खजाना खाली होता जा रहा है जिसका असर विकास संबंधी गतिविधियों पर भी पडऩे लगा है। गत वर्ष जिन तीन राज्यों में कांग्रेस ने भाजपा को हराकर सत्ता पर कब्जा किया था उनमें लोकसभा चुनाव आते तक स्थिति उलट गई। इसका एक कारण किसानों के कर्ज दस दिनों में वापिस नहीं होना भी माना गया। मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों में सरकारों द्वारा सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर ख्रर्च की जा रही मोटी राशि उनके लिए असहनीय बोझ बनती जा रही है। इस दिशा में सभी राजनीतिक दलों को गंभीरता से विचार करना चहिये। देश जिन हालातों से गुजर रहा है उनमें घर फूंक तमाशा देखने वाली राजनीति बंद होनी चाहिए। मुफ्त बिजली से शुरू हुआ सिलसिला देश भर के विद्युत मंडलों की कमर टूटने के रूप में सामने आ चुका है। रही बात समाज के साधनहीन वर्ग को दी जाने वाली मदद की तो उसकी उपयोगिता और आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता लेकिन सरकार में बैठे लोगों को केवल चुनाव जीतने की नहीं बल्कि उसके आगे की भी चिंता करनी चाहिए। मप्र की पिछली शिवराज सरकार ने भी किसानों को ऊंची कीमत देने का वायदा किया लेकिन महीनों तक उनके खाते में भुगतान नहीं हो सका जिससे उस वर्ग में नाराजगी फैली। यही स्थिति प्राकृतिक विपदाओं के समय दी जाने वाली मुआवजा राशि के वितरण में भी सामने आई। विभिन्न राज्यों से मिल रही जानकारी के अनुसार मुफ्त चुनावी उपहारों के फेर में सरकारी खजाने की हालत बेहद चिंताजनक हो चुकी है। राज्यों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है जिसका ब्याज चुकाने तक के लिए उन्हें और कर्ज लेना पड़ता है। सरकारी विभागों में समय पर वेतन नहीं बंट पाना काफी कुछ कह जाता है। ये हालात किसी भी दृष्टि से संतोषजनक नहीं कहे जा सकते। आर्थिक मंदी की पदचाप तो काफी समय से सुनाई दे रही थी लेकिन अब वह दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई है। निजी क्षेत्र में उसे लेकर हाहाकार मचा है। लाखों लोगों की नौकरी जाने की खबरें लगातार आने से आम जनता में भी नाराजगी है। चारों तरफ से ये आवाज उठ रही है कि सरकार तत्काल जरूरी कदम उठाये। लेकिन सरकारी खजाना दोनों हाथों से बेरहमीपूर्वक लुटाने की प्रतिस्पर्धा नहीं रुकी तो हालात और बिगड़ सकते हैं। राजनीतिक बिरादरी जितनी जल्दी इस बात को समझ जाए उतना अच्छा वरना आर्थिक अराजकता समूची व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देगी।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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