Friday 9 August 2019

और अब सिंधिया के रिश्तेदार डा. कर्णसिंह भी ....

जम्मू कश्मीर के पूर्व महाराजा और भारत में उसके विलय के बाद बनाये गये पहले सदर ए रियासत डा. कर्णसिंह उन चंद लोगों में से हैं जिन्हें इस रियासत के राज्य बनने से लेकर आज तक की सारी जानकारी है। उनकी गिनती देश के अत्यंत विद्वान व्यक्तियों में होती है। राजसी पृष्ठभूमि से निकलकर राजनीति में आने के बाद भी संस्कृत भाषा, भारतीय आध्यात्म और संस्कृति का उनका अध्ययन उन्हें अतिरिक्त सम्मान का अधिकारी बनाता रहा। यद्यपि उनके पिता और जम्मू कश्मीर के भारत में विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले स्व. महाराजा हरिसिंह के प्रति पं. नेहरु का रवैया बेहद असम्वेदनशील रहा लेकिन डा. सिंह प्रारंभ से लेकर अभी तक नेहरु-गांधी परिवार के अनुयायी बने रहे। हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष पद हेतु जिन लोगों ने प्रियंका वाड्रा का नाम उछाला उनमें प्रमुख तौर पर वे भी थे । इसी तरह बीते दिनों जब जम्मू कश्मीर को लेकर अनुमानों और अटकलों का दौर चल रहा था तब उन्होंने केंद्र सरकार को अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाने के बारे में सोच समझकर फैसला करने कहा था। उल्लेखनीय है अनुच्छेद 35 ए उन्हीं के सदर ए रियासत रहते हुए हस्ताक्षरित हुआ था। बाद में जब वह पद समाप्त होकर राज्यपाल में बदला तब वे केन्द्रीय राजनीति में आ गये और जम्मू की ऊधमपुर सीट से लोकसभा सदस्य बनकर केन्द्रीय मंत्री बनते रहे। बाद में वहां भी उनका राजनीतिक प्रभाव ढलान पर आ गया और तब कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा के जरिये सांसद बनाये रखा। उल्लेखनीय बात ये है कि वे कभी श्रीनगर या कश्मीर घाटी की किसी दूसरी सीट से चुनाव लडऩे की हिम्मत नहीं जुटा सके। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि अनुच्छेद 370 ने उन्हें अपनी ही पूर्व रियासत में हाशिये पर धकेल दिया लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े रहने की लालसा की वजह से उन्होंने कांग्रेस का दामन थामे रखा। यही वजह रही जब उन्होंने 370 और 35 ए से छेड़छाड़ करने के प्रति केंद्र सरकार को चेताया तब ये लगा कि वे पार्टी के प्रति वफादारी की वजह से ऐसा कह रहे हैं। लेकिन गत दिवस डा. कर्णसिंह को न जाने कौन सी प्रेरणा हुई जो उन्होंने 35 ए हटाये जाने और लद्दाख को जम्मू कश्मीर से अलग केंद्र शासित राज्य बनाए जाने के फैसले को राष्ट्रहित में बताते हुए उसका विरोध नहीं करने की बात कह दी। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि संसद द्वारा पारित विधेयक में अनेक सकारात्मक बातें हैं इसलिए उसका सिरे से विरोध गलत होगा। हालांकि उन्होंने 370 को लेकर कुछ नहीं कहा तथा नेशनल कांफे्रंस और पीडीपी को राष्ट्रविरोधी कहे जाने को गलत बताकर उसके नेताओं की रिहाई का सुझाव देते हुए आगे भी बातचीत की जरूरत बताई। लेकिन संसद द्वारा पारित जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक को सैद्धांतिक रूप से समर्थन देकर उन्होंने जनभावनाओं का सम्मान करने की बात कहकर कांग्रेस के लिए शोचनीय स्थिति उत्पन्न कर दी जो इस मामले में पहले से ही नीतिगत अनिर्णय का शिकार होने से लोकनिंदा का सामना कर रही है। यद्यपि डा. सिंह से पूर्व उनके करीबी रिश्तेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया भी ऐसा ही बयान दे चुके थे लेकिन जम्मू कश्मीर सम्बन्धी इस ऐतिहासिक फैसले को डा. कर्णसिंह के सैद्धांतिक समर्थन का भी ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि वे इस समस्या के जन्म से लेकर उसके निरंतर विस्तार के सबसे निकट साक्षी रहे हैं और जम्मू कश्मीर के बारे में कुछ भी बोलने का उनका अधिकार अब्दुल्लाओं और मुफ्तियों से कहीं अधिक है। अब जबकि उन जैसे व्यक्ति ने भी मोदी सरकार द्वारा उठाये गए कदम की मूल भावना के औचित्य को स्वीकार करते हुए उसका समर्थन कर दिया है तो कांग्रेस की स्थिति और भी हास्यास्पद होकर रह गयी है। जब दीपेन्दर हुड्डा और मिलिंद देवड़ा जैसे युवा नेताओं ने 370 और 35 ए हटाये जाने का समर्थन करते हुए उसे देशहित में बताया तब कांग्रेस ने उन्हें अपरिपक्व मानकर उपेक्षित कर दिया। इसी तरह जनार्दन द्विवेदी द्वारा ;पार्टी लाइन से हटकर की गई टिप्पणी को राज्यसभा सीट से वंचित होने की कुंठा माना गया। लेकिन जब राहुल गांधी के अत्यंत निकटस्थ कहे जाने वाले श्री सिंधिया ने भी सरकार का समर्थन किया तब पार्टी में सुगबुगाहट शुरू हुई। लेकिन अब जब डा. कर्णसिंह जैसे नेहरु-गांधी परिवार के वफादार नेता द्वारा संसद के फैसले को सैद्धांतिक तौर पर समर्थन दे दिया गया तब कांग्रेस के पास एक ही रास्ता बच रहता है कि वह वास्तविकता के धरातल पर उतरकर जनार्दन द्विवेदी, ज्योतिरादित्य सिंधिया और डा कर्णसिंह जैसे नेताओं की बात को गम्भीरता से ले। रही बात राजनीतिक नफे-नुकसान की तो कांग्रेस को ये बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि लद्दाख अंचल में तो उसके लिए कोई गुंजाईश नहीं है। इसी तरह कश्मीर घाटी में भी उसकी ताकत नाम मात्र की है। बचा जम्मू तो यहाँ जिस तरह से जश्न का माहौल है उसके चलते यदि कांग्रेस ने आगे भी अडिय़ल रवैया नहीं छोड़ा तो हिन्दू बहुल इस क्षेत्र में भी उसका सूपड़ा साफ होना तय है। कश्मीर संबंधी किसी भी नीति का निर्धारण करने के लिए बजाय गुलाम नबी आज़ाद जैसे नेता के यदि कांग्रेस डा. कर्णसिंह से सलाह लेती होती तब उस नीतिगत लकवे से बच सकती थी जिसके कारण पूरे देश में उसकी निंदा हो रही है। इससे भी बढ़कर कांग्रेस के मौजूदा नेताओं को अपने उन असंख्य कार्यकर्ताओं और समर्थकों की प्रतिक्रियाओं का भी संज्ञान लेना चाहिए जो खुलकर 370 और 35 ए हटने का स्वागत करते देखे जा सकते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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