Wednesday 28 August 2019

धन लेना बुरा नहीं लेकिन लोगों को विश्वास में लिया जावे

बात है तकनीकी इसलिए आसानी से समझ नहीं आयेगी लेकिन रिजर्व बैंक द्वारा सरकार को पौने दो लाख करोड़ रूपये दिए जाने के निर्णय पर शुरू हुई राजनीतिक बहस से आम जनता को यही सन्देश जा रहा है कि खस्ता माली हालत के चलते केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक द्वारा रखे गये संचित धन में से कुछ राशि निकालकर अपने खर्चे चलाने का इंतजाम किया जिसे आम त्तौर पर अच्छा नहीं समझा जाता। रिजर्व बैंक यूं तो एक स्वायत्त संस्था है जो ऊपर-ऊपर कैसी भी दिखे लेकिन वस्तुत: उसका स्वामित्व और नियंत्रण सरकार के ही पास रहता है। गवर्नरों की नियुक्ति से लेकर शेष प्रशासनिक फैसलों में भी सरकार का ही दखल चलता है। केन्द्रीय बैंक की यह व्यवस्था पूरी दुनिया में होती है। देश में आर्थिक नीतियां भले ही सरकार में बैठे लोगों द्वारा तय की जाती हों लेकिन मौद्रिक नीति बनाने का काम रिजर्व बैंक द्वारा ही किया जाता है। बैंकों की ब्याज दरें और ऋण नीति भी उसी के द्वारा निश्चित होती हैं। विभिन्न बैंकों के बीच समन्वय का काम भी इसी संस्था के निर्देशन में होता है। अनुचित और अनैतिक प्रतिस्पर्धा पर निगाह रखने के मामले में भी रिजर्व बैंक काफी सतर्कता बरतता है। ये सब देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि देश की आर्थिक सेहत को बनाये रखने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। बीते एक - दो वर्षों में रिजर्व बैंक की स्वायत्तता को लेकर बवाल मचता रहा है। इसकी वजह ब्याज दरों में कटौती संबंधी सरकार की अपेक्षाएं पूरी नहीं होना था। इसके बाद गवर्नर को हटाये जाने और कुछ उप गवर्नरों द्वारा इस्तीफा दिए जाने से विवाद और बढ़ा और विपक्ष की तरफ से केंद्र सरकार पर ये आरोप लगाया जाने लगा कि वह अपनी आर्थिक विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए केन्द्रीय बैंक के काम में जबरन दखलंदाजी कर रही है। रघुराम राजन के कार्यकाल में तल्खी काफी बढ़ गयी थी। वे महंगाई को नियंत्रण में रखने के नाम पर कर्ज सस्ता किये जाने के लिए तैयार नहीं थे। विशेष रूप से नोट बंदी के बाद जब बाजार में नगदी का भारी अकाल हो  गया तब भी रिजर्व बैंक अपनी तिमाही समीक्षा बैठक में कर्ज को सस्ता बनाने और बैंकों के पास मुद्रा की तरलता (उपलब्धता) बढ़ाने के लिए नानुकुर करता रहा। इस बारे में ये भी कहा गया कि मनमोहन सरकार के समय रिजर्व बैंक में नियुक्त हुए उच्च अधिकारी नई सरकार के प्रति दुर्भावना रखते हैं और इसी कारण से मौद्रिक नीतियों में लचीलापन लाने की बजाय उन्हें अव्यवहारिक बनाया जा रहा है। औद्योगिक मंदी की आहट के बीच इस तरह के फैसलों से व्यापार-उद्योग जगत भी असंतुष्ट था। जीएसटी लागू होने के बाद से व्यापार जगत को जो परेशानियां आईं उनको दूर करने में भी रिजर्व बैंक की कंजूसी सहायक रही ऐसा अनेक लोग कहते हैं। बहरहाल महंगाई को नियंत्रण में रखने के फेर में बाजार में पूंजी विशेष रूप से नगदी की किल्लत ने व्यापार जगत की हलचलों को ठंडा कर दिया। जीएसटी में जमा रकम की वापिसी में होने वाले विलम्ब के कारण व्यापारियों का पैसा फंसकर रह गया। दूसरी तरफ  बैंकों की बड़ी राशि एनपीए में उलझ जाने से वे भी नगदी के अभाव में आ गए जिसकी वजह से नए ऋण बाँटने की प्रक्रिया पर विपरीत असर पड़ा। आर्थिक मंदी के पीछे बाजार में उत्पन्न पूंजी संकट भी बड़ा कारण है। ऐसे में सरकार के लिये ये जरुरी हो गया था कि वह बैंकों की सेहत सुधारे तथा अर्थव्यवस्था की सुस्त रफ्तार को गति प्रदान करे। प्रचलित व्यवस्था के अनुसार रिजर्व बैंक प्रतिवर्ष केंद्र सरकार को अपने मुनाफे में से एक हिस्सा देता है। इसे लेकर भी उसके साथ सरकार की रस्साकशी चलती रही। पौने दो लाख करोड़ की अतिरिक्त राशि रिजर्व बैंक से लेकर बैंकों को देने का केंद्र सरकार का इरादा बाजार में व्याप्त सुस्ती को दूर करने को लेकर ही है। जहां तक बात उचित-अनुचित और रिजर्व बैंक की स्वायत्तता की है तो उसको सुरक्षित रखना एक आदर्श व्यवस्था होने के बाद भी यदि उसके सुरक्षित कोष का उपयोग आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए किया जाता है तो उसे लेकर ज्यादा हल्ला मचाना राजनीतिक प्रपंच ही लगता है। रिजर्व बैंक के पास स्वर्ण भण्डार भी रहता है जो देश की आर्थिक मजबूती का प्रमाण माना जाता है। 1991 में चन्द्रशेखर सरकार ने उसे गिरवी रखा था तब भी बड़ा हल्ला मचा था। निश्चित रूप से जोड़कर रखा गया धन मुसीबत के लिए ही होता है फिर चाहे वह घर, व्यापार या देश में हो। उस दृष्टि से पूंजी के अभाव में यदि बाजार और अर्थव्यवस्था में ठहराव के हालात बन गये हों तब रिजर्व बैंक के सुरक्षित कोष में से यदि कुछ राशि सरकार ले रही है तब इस पर ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए जिनसे आम जनता में भय और अविश्वास पैदा हो। यद्यपि अर्थव्यवस्था पर श्वेत पत्र जारी करने की विपक्ष की मांग औचित्यहीन नहीं है। सरकार को चाहिए कि जिस तरह वह देश की सुरक्षा पर संकट मंडराने के बारे में जनता को सूचित करते हुए उसका समर्थन हासिल करती है वैसा ही आर्थिक संकट में करना चाहिये। मंदी को लेकर अनाधिकृत रूप से उडऩे वाली खबरें अफवाहों को जन्म देती हैं। सरकार जितना ज्यादा जनता को विश्वास में लेती रहेगी उसकी दिक्कतें उतनी ही कम होती जायेंगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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