Wednesday 21 August 2019

आयुध निर्माणी हड़ताल : दोनों पक्ष हठधर्मिता से बचें

इसे महज संयोग ही कहा जा सकता है कि देश की सभी आयुध निर्माणियों में एक साथ शुरू हुई एक माह की हड़ताल के दिन ही वायु सेनाध्य्क्ष बी.एस धनोआ का ये बयान आ गया कि वायुसेना अब भी 44 साल पुराने मिग- 21 लड़ाकू विमानों का उपयोग कर रही है जबकि इतनी पुरानी तो कोई कार तक नहीं चलाता। जिस समारोह में उन्होंने उक्त टिप्प्णी की उसमें रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी मौजूद थे। वायु सेनाध्यक्ष की यह पीड़ा नई नहीं है। उल्लेखनीय है बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक के उपरान्त पाकिस्तानी एफ-16 का पीछा करते हुए पाकिस्तानी वायु क्षेत्र में घुसे विंग कमांडर अभिनंदन भी मिग लड़ाकू विमान ही उड़ा रहे थे। अस्त्र-शस्त्रों के मामले में आधुनिकीकरण की धीमी प्रक्रिया की शिकायत थल सेनाध्यक्ष और नौ सेनाध्यक्ष भी समय-समय पर करते रहे हैं। कहते हैं मनमोहन सरकार के समय रक्षा उपकरणों की खरीद में बहुत ही सुस्ती बरती गई जिसका प्रभाव सेना की मारक क्षमता पर भी पड़ा। मोदी सरकार ने सत्ता संभालते ही इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाये और विदेशों से आधुनिकतम हथियार और रक्षा उपकरण खरीदने संबंधी प्रक्रिया को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। इनमें लड़ाकू विमान, हेलीकाप्टर और तोपें सहित अन्य सामग्री भी है। सबसे बड़ी बात ये रही कि किसी एक देश पर निर्भरता खत्म करते हुए विभिन्न देशों से रक्षा सौदे किये गए जिनमें आर्थिक बचत के साथ ही जल्द आपूर्ति को सुनिश्चित किया गया। इसी का सुपरिणाम है कि एक तरफ  चीन से डोकलाम विवाद के समय भारत ने दो-दो हाथ करने की हिम्मत दिखाई वहीं अरुणाचल में आधुनिक तोपें और मिसाइलों के अलावा रडार वगैरह लगाकर सुरक्षा इंतजाम पुख्ता किये गये। पाकिस्तान के मोर्चे पर थल और वायु सेना द्वारा की गईं सर्जिकल स्ट्राइक भी अपने आप में काफी कुछ कह जाती हैं। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के बिना देश की सुरक्षा सदैव खतरे में रहती है और इसीलिये प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने मेक इन इंडिया योजना के अंतर्गत रक्षा सामग्री का उत्पादन भारत में ही करने की बात सोची और निजी क्षेत्र को भी इसके लिए अनुमति दे दी। इस बारे में उल्लखनीय होगा कि ब्रम्होस जैसी आधुनिक मिसाइल का रूस के सहयोग से उत्पादन करने के बाद उसका कुछ देशों को निर्यात करने से ये संभावना बढ़ी कि यदि भारत में रक्षा उत्पादन भी कमाई का जरिया बन सकता है। शायद इसी सोच ने निजी क्षेत्र की राह प्रशस्त की जिसकी नींव उदारीकरण के साथ ही पड़ चुकी थी। कल से शुरू हुई आयुध निर्माणियों की हड़ताल के पीछे वर्षों से चली आ रही वह आशंका है जिसके अनुसार सरकार धीरे-धीरे इस सम्वेदनशील क्षेत्र को भी निजी कंपनियों के हाथों बेचने की रूपरेखा बना रही है। ध्यान देने वाली बात ये है कि आयुध निर्माणियों की समस्त श्रमिक यूनियन इस हड़ताल में शामिल हैं जबकि वे अलग-अलग राजनीतिक दलों से सम्बद्ध बताई जाती हैं। कर्मचारियों का कहना है कि आयुध निर्माणियों के मौजूदा प्रशासनिक ढांचे को बदलकर उसे सार्वजानिक क्षेत्र का उद्यम बनाने और उसका निगमीकरण करने की सरकार की योजना दरअसल निजीकरण करने का षडयंत्र है जिससे रक्षा उत्पादन के क्षेत्र पर भी बाजारवादी सोच हावी हो जायेगी और युद्ध की स्थिति में सेना की जरूरतों को पूरा करने में परेशानी आ सकती है। निजी कंपनियों का उद्देश्य जाहिर तौर पर मुनाफा कमाना होता है जबकि सरकारी फैक्ट्रियां देश की जरूरत के मुताबिक दिन रात काम करने से भी पीछे नहीं रहतीं। ये भी कहा जा रहा है कि निजी क्षेत्र कीमतों को लेकर भी सरकार और सेना का शोषण कर सकता है। कर्मचारियों के मन में अपने भविष्य और सेवा शर्तों को लेकर भी तरह-तरह की शंकाएँ हैं। कर्मचारी संगठन काफी समय से सरकार से इस बारे में बातचीत करते रहे हैं। हालाँकि निजीकरण नहीं किये जाने का आश्वासन भी मिलता रहा लेकिन इससे कर्मचारी संतुष्ट नहीं हुए और एक महीने की लम्बी हड़ताल का निर्णय ले लिया गया। अभी तक सरकार ने हड़ताल को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और न ही उसे खत्म करवाने की दिशा में हो रहे प्रयासों की जानकारी मिली है लेकिन सबसे बड़ी चिंता का विषय ये है कि जब सीमा पर युद्ध के बादल मंडरा रहे हों तब देश में रक्षा उत्पादन से जुड़ी सभी फैक्ट्रियां एक साथ लम्बी हड़ताल पर चली जाएं तो इसका दूरगामी असर हो सकता है। हालांकि श्रमिक संगठनों ने ये भी कह दिया है कि युद्ध की स्थिति में वे तत्काल काम पर लौट आएंगे लेकिन एक महीने हड़ताल चली तब रक्षा उत्पादन के लक्ष्य प्रभावित हो सकते हैं। सरकार को चाहिए कि वह कर्मचारियों के साथ सौहाद्र्रपूर्ण वातावरण में वार्ता करते हुए उनकी शंकाओं को दूर करे। निश्चित रूप से सरकार की अपनी परेशानियां और शिकायतें होंगीं। सरकारी क्षेत्र कार्य संस्कृति के अभाव के अलावा अधिक उत्पादन लागत और पूंजी की किल्लत से जूझ रहा है। अनेक विकसित देशों में रक्षा उत्पादन निजी क्षेत्रों में होने से नई तकनीक का विकास तेजी से हो सका जबकि रक्षा अनुसन्धान के मामले में भारत बहुत पीछे है। भले ही डी.आर.डी.ओ जैसे संस्थान ने बीते कुछ दशकों में सराहनीय कार्य किया है लेकिन सरकारी क्षेत्र में व्याप्त कछुआ चाल की वजह से हम अंतर्राष्ट्रीय मानकों के लिहाज से बहुत ही फिसड्डी हैं। यद्यपि इसके लिए सरकारी निर्णय प्रक्रिया को बाधित्त करने एवं हर काम में टांग अड़ाने वाली नौकरशाही भी कम जिम्मेदार नहीं है। ऐसे में केंद्र सरकार को ये देखना चाहिए कि रक्षा उत्पादन के क्षेत्र से जुड़े 82 हजार कर्मचारी और वैचारिक मतभेदों को भुलाकर एकस्वर में बोलने वाले उनके संगठन यदि इतनी लम्बी हड़ताल पर जाने मजबूर हुए तो उसकी वजहें क्या हैं और समय रहते इस बारे में कोई कदम क्यों नहीं उठाया गया? तमाम विरोधाभासों के बावजूद रक्षा उत्पादन से जुड़े कर्मचारी भी अप्रत्यक्ष तौर पर सेना का ही हिस्सा हैं और इसलिए उनके साथ सामान्य कर्मचारी से हटकर व्यवहार होना चाहिए। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं लेकिन हठधर्मिता किसी की भी अच्छी नहीं होगी। वैसे भी हड़ताल श्रमिकों का अन्त्तिम अस्त्र होता है जिसकी विफलता उनके पूरे संघर्ष को मिट्टी में मिला देती है। 1974 की रेल हड़ताल उसका उदाहारण है। वहीं सरकार को भी सोच-समझकर आगे बढऩा होगा क्योंकि उसकी अपनी नीयत पर भी संदेह बना हुआ है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment