Saturday 10 August 2019

वरना अयोध्या विवाद का हल भी कश्मीर जैसा होगा

न्यायशास्त्र की बड़ी ही प्रचलित उक्ति है कि न्याय में विलम्ब न्याय से इंकार करना है। आम तौर पर हर पक्षकार की कोशिश होती है कि उसका प्रकरण जल्द से जल्द निपट जाए। देश में वैसे तो लाखों मुकदमे निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक में विचाराधीन हैं लेकिन राम जन्मभूमि का विवाद बीती आधी सदी से भी ज्यादा फैसले की प्रतीक्षा कर रहा है। इसे जल्द से जल्द निपटाने की बातें तो खूब हुईं लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव के चलते एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली स्थिति बनी रही। अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 30 सितम्बर 2010 को विवादित स्थल को तीन हिस्सों में बाँटने का जो फैसला दिया उसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपीलें हुई और लम्बी उठापटक के बाद आखिरकार नियमित सुनवाई करते हुए निर्णय तक पहुँचने की मानसिकता पिछले प्रधान न्यायाधीश श्री दीपक मिश्र के कार्यकाल में बनी। लेकिन वे स्वयं कतिपय विवादों में उलझकर रह गये और कुछ नहीं कर सके। उनके उत्तराधिकारी बने श्री रंजन गोगोई ने भी तदाशय की कोशिशें पदभार सँभालते ही शुरू कीं लेकिन जैसी कि उम्मीद थी लोकसभा चुनाव के पहले वे भी प्रकरण को अंजाम तक नहीं पहुंचा सके। गत 6 अगस्त से नियमित सुनवाई शुरू करते हुए संविधान पीठ ने हर सप्ताह मंगल, बुध और गुरुवार को सुनवाई करना तय किया लेकिन फिर उसे बढ़ाकर सभी पांच कार्य दिवसों में सुनवाई का फैसला किया। चूँकि श्री गोगोई 17 नवम्बर को सेवानिवृत्त होने वाले हैं इसलिए उनका सोचना है कि वे उसके पहले फैसला कर जाएँ। अन्यथा फिर से नई संविधान पीठ बनाकर नये सिरे से सुनवाई करनी पड़ेगी। लेकिन गत दिवस पहले ही निवाले में मक्खी वाली स्थिति बनाते  हुए मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने सप्ताह के पाँचों दिन लगातार सुनवाई का विरोध करते हुए अनेक व्यवहारिक परेशानियां गिनाईं परन्तु न्यायालय ने उनकी दलील को अस्वीकार करते हुए अपना फैसला बरकरार रखा। इस वजह से ये उम्मीद दिखाई देने लगी है कि श्री गोगोई के सेवानिवृत्त होने के पहले अयोध्या विवाद पर निर्णय आ जाएगा। वह किसके पक्ष में होगा ये अनुमान लगाना तो मुश्किल है क्योंकि सभी पक्षकार अपनी बात को सही बताते नहीं  थकते। बहरहाल बीते कुछ वर्षों से एक सकारात्मक परिवर्तन ये देखने में आया कि सभी पक्ष अदालती फैसले को मानने के प्रति रजामंद हो गये। वरना तो शुरू-शुरू में यही सुनने मिलता था कि आस्था के मामले अदालत से नहीं निपटते। ऐसे में जब सर्वोच्च न्यायालय ने नियमित सुनवाई करने का फैसला  लिया तो पूरा देश आश्वस्त हुआ। ये भी संयोग रहा कि जिस दिन संसद में जम्मू कश्मीर के पुनर्गठन संबंधी विधेयक पारित हुआ उसी दिन से अयोध्या मामले की रोजाना सुनवाई प्रारंभ हुई जिससे आम देशवासी को ये लगा कि दशकों से विवाद का कारण बने मामलों के हल  होने का मुहूर्त आ गया है। लेकिन गत दिवस मुस्लिम पक्ष की तरफ  से फिर वही अड़ंगेबाजी लगाने का प्रयास किया गया जिसकी वजह से ये विवाद उलझता चला गया। खैर, ये अच्छा रहा कि पीठ ने श्री धवन को तो टूक कह दिया कि सुनवाई पाँचों दिन चलेगी और अनुपस्थित रहने पर उनका पक्ष बाद में सुन लिया जावेगा। आगामी सप्ताह अदालत जब बैठेगी तब मुस्लिम पक्ष का रुख और रणनीति सहयोगात्मक रहेगी या फिर रोड़ा अटकाने वाली, ये देखने वाली बात होगी। बड़ी बात नहीं अदालत के बाहर भी अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव को मुद्दा बनाकर नया बखेड़ा खड़ा कर दिया जाए। बावजूद इसके संविधान पीठ ने यदि अपने कदम पीछे नहीं खींचे तब ये उम्मीद बलवती होती जायेगी कि श्री गोगोई की सेवानिवृत्ति के पूर्व यह संवेदनशील मुद्दा सुलझ जाएगा। ऐसा लगता है कि मुस्लिम पक्ष की रणनीति मामले को अटकाए रखने की है क्योंकि  प्रकरण सुलझ गया तब इससे सियासी फायदे लेते रहे लोगों की पूछपरख और दुकानदारी चौपट हो जायेगी। ये भी संभव है कि उसे अपनी हार का अंदेशा सताने लगा हो। ये आशंका पहले भी व्यक्त की गई थी जब गत वर्ष कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और प्रख्यात अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने मुस्लिम पक्ष की तरफ  से पैरवी करते हुए अदालत से मांग की थी कि वह लोकसभा चुनाव तक सुनवाई टाल दे जिससे फैसले का राजनीतिक लाभ न लिया जा सके। श्री सिब्बल चूँकि स्वयं राजनेता हैं इसलिए उनकी आशंका के निहितार्थ को समझा जा सकता था। लगभग उसी तरह की मंशा राजीव धवन की कोशिश से झलक रही है। इस बारे में मुस्लिम समाज के सुलझे हुए लोगों को आगे आकर इस तरह की अड़ंगेबाजी का विरोध करना चाहिए। बड़ी मुश्किल से तो सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी तरफ  से तत्परता प्रदर्शित की है। अब यदि पक्षकारों की तरफ  से आने वाली रुकावटों से 17 नवम्बर तक फैसला नहीं हो सका तब फिर कोई अनहोनी होने का खतरा हो सकता है। इस बारे में जम्मू कश्मीर का उदाहरण एकदम ताजा है। यदि कश्मीर घाटी के राजनीतिक नेता दोगलापन छोड़कर देशहित की मानसिकता रखते होते तब केंद्र सरकार शायद इस सीमा तक नहीं जाती। उसके पहले तीन तलाक वाले मामले में भी मुस्लिम समाज अपनी जिद पर अड़े रहने का खामियाजा भुगत चुका है। मोदी सरकार ने एक झटके में अलगाववादी संगठनों के साथ ही खुद को कश्मीर का मालिक समझने वाले अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार को दिन में तारे दिखाने जैसा जो दांव चला उसकी पुनरावृत्ति अयोध्या मामले में भी हो सकती है, यदि वह श्री गोगोई के रहते नहीं निपटा तो। मुस्लिम पक्ष को ये नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा के साथ ही राज्यसभा में भी केंद्र सरकार के पास सुविधाजनक बहुमत है और इस समय देश का जनमत भी उसके साथ है। ऐसे में यही अच्छा रहेगा कि मुस्लिम पक्ष अडिय़लपन छोड़कर अदालत के साथ सहयोग करे। अन्यथा न खुदा ही मिला न विसाल ए सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे वाली स्थिति से उसे रूबरू होना पड़ सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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