Thursday 22 August 2019

राजनीति और पत्रकारिता को ढाल बनाना गलत

कल का दिन अत्यंत घटनाप्रधान रहा। सुबह से लेकर देर रात तक पूर्व गृह मंत्री पी. चिदम्बरम की गिरफ्तारी खबरों में छाई रही। सर्वोच्च न्यायालय में जमानत अर्जी पर सुनवाई नहीं होने के बाद उनके पास दो ही विकल्प थे। पहला शुक्रवार को सुनवाई होने तक गुप्तवास पर रहना और दूसरा सामने आकर सीबीआई को गिरफ्तारी दे देना। जब ये लगा कि दो दिन तक गिरफ्तारी से बचने के लिए छिपने से उनकी और कांग्रेस पार्टी दोनों की छीछालेदर होती रहेगी तब जैसा कि प्रचारित किया गया उन्होंने सोनिया गांधी के कहने पर कांग्रेस मुख्यालय में प्रकट होकर पत्रकारों के समक्ष अपना संक्षिप्त वक्तव्य पढ़ा और घर चले गए जहां से सीबीआई ने उन्हें हिरासत में ले लिया। उन्होंने स्वेच्छा से गिरफ़्तारी नहीं दी क्योंकि घर के दरवाजे नहीं खोले जाने पर सीबीआई को दीवार फांदकर भीतर जाना पड़ा। आज सीबीआई उन्हें अदालत में पेश करते हुए पूछताछ के लिए रिमांड मांगेगी जबकि श्री चिदम्बरम जमानत की अर्जी दाखिल करेंगे। यदि उन्हें आज ही जमानत मिल गयी तब वे विजेता की मुद्रा में आ जायेंगे अन्यथा दिक्कतें और बढ़ती जायेंगी। देर सवेर उनके सांसद पुत्र कार्ति भी लपेटे में आयेंगे। उधर कांग्रेस इसे राजनीतिक बदले से जोड़कर मोदी सरकार को घेरने में जुटी है। आज सुबह उसकी पत्रकार वार्ता भी हुई। इस समूची कार्रवाई को अमित शाह के ऊपर अतीत में चले मुकदमे से जोड़कर भी पेश किया जा रहा है। संयोगवश उस समय श्री चिदम्बरम गृह मंत्री थे जबकि आज उसका उल्टा है। इस प्रकरण का अंजाम क्या होगा ये तो अदालत पर ही निर्भर है लेकिन इससे ये मुद्दा फिर विचारणीय हो गया कि राजनेता अपने आपको कानून के सामने वीआईपी समझने की प्रवृत्ति से कब मुक्त होंगे? ये सवाल केवल श्री चिदम्बरम के प्रकरण से नहीं उठा अपितु पूरी राजनीतिक बिरादरी को ये लगता है कि वह कानून से ऊपर है और उनकी शान में गुस्ताखी नहीं की जानी चाहिए। लेकिन गत दिवस ही सीबीआई द्वारा समाचार चैनल एनडीटीवी के संचालक प्रणय रॉय, उनकी पत्नी राधिका रॉय के अलावा संस्थान के मुख्य कार्यपालन अधिकारी विक्रम चन्द्रा के विरुद्ध भी आर्थिक मामलों से जुड़े विभिन्न आरोपों में प्रकरण दर्ज कर लिया गया। इस मामले में भी लम्बे समय से जांच चल रही थी। हाल ही में रॉय दंपत्ति को विदेश यात्रा पर जाने से पहले हवाई अड्डे पर ही रोक लिया गया था। एनडीटीवी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए आरोप लगा दिया कि चैनल के सरकार विरोधी रवैये के कारण ये कार्रवाई हो रही है जिससे उसकी आवाज दबाई जा सके। एक वर्ग ऐसा है जिसे एनडीटीवी के आरोपों में सच्चाई नजर आती है। इस तरह अब राजनेता और पत्रकार दोनों एक ही तरह के आरोपों में फंसे हैं और दोनों का कहना है कि राजनीतिक वैमनस्य के कारण उन्हें सताया जा रहा है। वैसे तो ऐसी स्थिति में साधारण व्यक्ति भी अपने को निर्दोष ही बताता है लेकिन उसकी बात को कोई महत्व नहीं मिलता। प्रणय रॉय केवल एक पत्रकार ही नहीं बल्कि समाचार चैनल के अलावा और भी व्यवसाय करते हुए पैसे कमाते हैं। उनके विरूद्ध जो आरोप हैं उन्हें देखने के बाद ये साफ़  हो जाता है कि उनका पत्रकारिता से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसे में विचारणीय मुद्दा ये है कि समाज में क़ानून की परवाह न करने वाला एक वर्ग पैदा हो गया है जो अपनी विशिष्ट स्थिति को हर मामले में भुनाने की कोशिश करता है। लालू प्रसाद यादव और मायावती जैसों पर कानून का शिकंजा कसते ही पिछड़ी और दलित जातियों के अपमान को मुद्दा बना लिया जाता है। आजम खान के गिरेबान पर हाथ डालते ही मुस्लिमों के साथ अन्याय का शोर मचा दिया जाता है। जिसकी गर्दन में कानून का फंदा कसता है वही लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे का हल्ला मचाने लगता है। उक्त दोनों मामलों को आधार बनाकर विचार करें तो ये लगता है कि राजनीति और समाचार माध्यम को ढाल बनाकर कुछ भी करने की स्वतंत्रता हासिल करने का सुनियोजित्त खेल चल पड़ा है। ये दोनों वर्ग समाज में विशेषाधिकार संपन्न माने जाते हैं। लोकतांत्रिक देश में ऐसा होना अनोखा नहीं है लेकिन राजनेता और समाचार जगत के दिग्गज कहे जाने वाले राजनीति और पत्रकारिता के अलावा बाकी जो भी व्यवसाय करते हैं उसमें भी उन्हें वीआईपी माना जाए ये स्थिति अच्छी नहीं होती। और दुर्भाग्य से हमारे देश में ये बुराई चरम पर है। राजनेता बनते ही कारोबार चमकने लग जाता है। पूरा परिवार सम्पन्नता की चमक में खो जाता है। इसी तरह बड़े समाचार समूह और उनके साथ जुड़े पत्रकार भी जिस तरह के गोरखधंधों में लिप्त हो जाते हैं वह एक तरह से प्रजातंत्र का शोषण ही है। सवाल केवल श्री चिदम्बरम या श्री रॉय तक ही सीमित नहीं है। इस बिरादरी के तमाम नामी-गिरामी लोगों के चेहरों पर कालिख पुत चुकी है और अनेक जांच के घेरे में हैं।  इनमें कांग्रेस-भाजपा सहित अन्य दलों एवं खेमों में लोग हैं। मनसे के सर्वेसर्वा राज ठाकरे भी आज ही तामझाम के साथ प्रवर्तन निदेशालय में पेश हुए हैं। वहीं हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा भी जाँच एजेंसी के सवालों का सामना कर रहे हैं। ऐसे में होना तो ये चाहिए कि जाँच शुरू होने पर अपनी विशेष स्थिति को भुनाने के लिए उठापटक करने की बजाय यदि सामान्य तरीकों से पेश आया जाए तब शायद इस तरह की स्थिति बने ही न। सत्ता में बैठे लोगों पर बदले की भावना से कार्रवाई का आरोप जब वही लोग लगाते हैं हैं जो स्वयं कुछ समय पहले तक इसी आरोप से घिरे हुए थे, तब हंसी आती है। देश के अनेक नामी पत्रकार भ्रष्टाचार और दलाली जैसे आरोपों में फंसकर प्रतिष्ठा गंवा चुके हों तब इस पेशे से जुड़े महानुभावों को भी परम-पवित्र मानने की अवधारणा बदलनी होगी। राजनेताओं और पत्रकारों के प्रति यदि पहले जैसा सम्मान नहीं रहा तब उसके लिए दूसरों को दोषी ठहराने की जगह उन्हें आत्मलोचन करने की जरूरत है। हालांकि सभी लोग एक जैसे नहीं होते लेकिन कुछ लोगों के दामन दागदार होने के कारण बाकी की छवि पर भी संदेह के बादल मंडराना स्वाभाविक है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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