Friday 2 August 2019

जाते - जाते सच जुबान पर आ ही गया

उन्नाव दुष्कर्म मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय को सौंपे जाने के फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय की सर्वत्र प्रशंसा हो रही है। उसने 45 दिनों में फैसले का निर्देश भी दे दिया वहीं पीडि़ता की हत्या के उद्देश्य से करवाई गयी ट्रक दुर्घटना की जांच हेतु सीबीआई को अधिकतम दो सप्ताह का समय दिया। पीडि़ता और उसके साथ घायल हुए वकील को विमान से दिल्ली लाकर इलाज करवाने और 25 लाख का मुआवजा देने सहित अनेक निर्देश देते हुए देश में कानून का पालन नहीं होने पर गुस्सा भी जताया। सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता ऐसे चर्चित मामलों में सदैव काबिले तारीफ  रही है। चूंकि वह देश की सबसे बड़ी अदालत है इसलिए उससे केंद्र और राज्यों की सरकारों के अलावा पुलिस तथा सीबीआई जैसे विभाग भी खौफ  खाते हैं। देश में कानून की बदहाली तो अपनी जगह है ही लेकिन पीडि़ता की चिठ्ठी पहले समाचार माध्यमों में आ जाये किन्तु देश के प्रधान न्यायाधीश तक नहीं पहुंचे तब दिया तले अँधेरे वाली बात भी चरितार्थ होती है। देखने में आया है कि जिन प्रकरणों को लेकर खूब हल्ला मचता है उन्हीं को लेकर सर्वोच्च न्यायालय भी अतिरिक्त सक्रियता दिखाता है वरना तीस्ता सीतलबाड और चिदम्बरम बाप-बेटे के प्रकरणों में सबसे ऊंची अदालत की चाल कितनी धीमी है ये किसी से छिपा नहीं है। ये देखते हुए कभी-कभी ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय भी किसी मामले की टीआरपी से प्रभावित होता है। उन्नाव काण्ड अपने आप में वीभत्स है। विधायक सेंगर की उसमें संलिप्तता की वजह से वह और भी चर्चित हो गया। इस बारे में इतना तो साफ हो ही गया कि सेंगर एक पेशेवर अपराधी है जो राजनीतिक प्रभुत्व की आड़ में बचता रहा। भाजपा में आने से पहले वह सपा और बसपा में रह चुका था। जिस बलात्कार के प्रकरण में वह आरोपी है उससे जुड़ा घटनाक्रम उसके अपराध को साबित करने के लिए पर्याप्त है। सेंगर के क्रियाकलाप ये बताते हैं कि वह अपराधियों का गिरोह चलाता है। बीते दिनों रायबरेली और उन्नाव के बीच हुई सड़क दुर्घटना में इस्तेमाल किया ट्रक समाजवादी पार्टी के किसी नेता का बताया जाता है जिससे पता चलता है कि अपराधियों के बीच किस तरह का सर्वदलीय गठबंधन है। जहां तक बात भाजपा द्वारा सेंगर के विरुद्ध की गयी कार्रवाई की है तो वह उसकी राजनीतिक ईमानदारी से ज्यादा अपराधबोध का परिचायक बन गयी। यदि जिस दिन सेंगर का नाम दुष्कर्म में सामने आया था उसी दिन उसको निकाल बाहर किया जाता तब भाजपा अपने को परम पवित्र बता सकती थी। लेकिन चारों तरफ  थुक्का फजीहत हो गयी तब जाकर उसकी छुट्टी का फैसला किया गया। बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय की ताजा कार्रवाई से सेंगर को उसके किये की सजा मिलने की उम्मीदें तो बढ़ी हैं लेकिन दुर्भाग्य से अगर पीडि़ता को कुछ हो गया या फिर वह अदालत में अपना पक्ष रखने लायक नहीं रही तब जरुर अपराधी को राहत की आशंका बढ़ जायेगी क्योंकि कानून गवाहों और प्रमाणों का मोहताज रहता है। जिस सड़क दुर्घटना की वजह से ये पूरा प्रकरण राष्ट्रीय मुद्दा बना वह महज एक दुर्घटना थी या पीडि़ता सहित उसके परिवारजनों को खत्म कर देने की साजिश का हिस्सा, ये साफ हुए बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचना संभव नहीं है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को भी ये स्पष्ट करना होगा कि प्रकरणों की प्राथमिकता के चयन का उसका आधार क्या है? चूँकि इस प्रकरण में एक विधायक आरोपी है इसलिए समाचार जगत और राजनीतिक क्षेत्रों में इसे लेकर अतिरिक्त संवेदनशीलता परिलक्षित हुई वरना मामला भीड़ का हिस्सा बनकर गुमनामी में कहीं खो चुका होता। देश के प्रधान न्यायाधीश किसी दूसरे लोक से तो आये नहीं जो इस देश की पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका में व्याप्त विसंगतियों से अपरिचित हों। न्याय की सर्वोच्च आसंदी पर पहुंचने से पूर्व भी उन्होंने न्याय प्रक्रिया को निकट से देखा और महसूस किया होगा। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि जब उनके कार्यकाल का अंतिम दौर चल रहा है तब जाकर उन्होंने ये कहने का दुस्साहस किया कि इस देश में कानून के अनुसार कुछ नहीं हो रहा। उनकी इस टिप्पणी की सत्यता से शायद ही कोई असहमत होगा लेकिन श्री रंजन गोगोई से इस प्रश्न का उत्तर भी अपेक्षित है कि कानून के सामने सभी के बराबर होने का सिद्धांत किस हद तक लागू हो सका ? भ्रष्ट नेता को सजा होने के बाद भी उसको महंगे अस्पताल का इलाज उपलब्ध रहता है और वहीं से बैठा-बैठा वह राजनीतिक गतिविधियाँ संचालित करता रहता है। दूसरी तरफ  जेलों में हजारों कैदी ऐसे हैं जो धनाभाव की वजह से विधिक सहायता नहीं ले पाने के कारण जमानत की अर्जी तक नहीं लगा पाते। दो दिन पहले खबर आई कि अलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश पर लगे भ्रष्टाचार की जांच सीबीआई करेगी जो अपनी तरह का देश में पहला मामला होगा। लेकिन इस सम्बन्ध में एक और जानकारी आई कि जज साहेब को ये सलाह दी गई थी कि वे इस्तीफा देकर अलग हो जाएँ किन्तु वे नहीं माने तब जाकर सीबीआई जांच की नौबत आई। अगर वे इस्तीफा देकर घर बैठ जाते तब उनका दामन साफ -सुथरा बना रहता। खुद श्री गोगोई पर एक महिला ने यौन प्रताडऩा का आरोप लगाया था जिसे लेकर खूब हल्ला मचा। जिस पर उन्हीं के द्वारा अपने मातहत न्यायाधीशों को जाँच का काम सौंप दिया गया जिसका परिणाम सर्वविदित है। ये सब देखते हुए श्री गोगोई का ये कहना कि देश में कानून के अनुसार कुछ नहीं हो रहा उस न्यायपालिका की तरफ  भी उंगली उठाता है जिसकी बागडोर उनके स्वयं के हाथों में है। आगामी नवम्बर में वे सेवा निवृत्त होने वाले हैं। उम्मीद की जा सकती है कि विदाई के पहले ऐसे ही कुछ और कड़वे सच वे उजागार करेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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