Tuesday 13 August 2019

कश्मीर : बकरीद तो बीत गई लेकिन ......

आखिरकार बकरीद भी शांति से बीत गई। तमाम आशंकाओं को धता बताते हुए कश्मीर घाटी में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे लगता कि अनुच्छेद 370 और 35 ए के साथ छेड़छाड़ करते हुए जम्मू कश्मीर का भूगोल बदलने का जो दुस्साहस केंद्र सरकार ने गत 5 और 6 अगस्त को किया उसके विरुद्ध कश्मीर घाटी के लोगों के मन में भरा गुस्सा बाहर आ गया हो। सुरक्षा बलों की जबर्दस्त चौकसी की वजह से छोटी-छोटी दो चार घटनाओं के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे केंद्र सरकार के कदम को गलत बताने वाले अपनी पीठ ठोंक पाते। हालांकि ये कहना भी गलत नहीं है कि घाटी के भीतर सैन्य बलों की भारी मौजूदगी की वजह से चूँकि लोगों का घरों से निकलना सम्भव नहीं है इसलिये अभी विरोध करने वाले चुप हैं लेकिन ज्योंही उन्हें बाहर निकलकर एकजुट होने का मौका मिलेगा वे अपनी पुरानी रंगत पर लौट आएंगे। ये भी सही है कि नियंत्रण रेखा पर सेना की जबर्दस्त निगरानी की वजह से घुसपैठ और दूसरी सहायता नहीं आ पा रही। वहीं घाटी के भीतर अधिकाँश अलगाववादी नेता चूँकि काफी समय से बंद हैं इसलिए हालात बिगाडऩे वाले बिना राजा की फौज बनकर रह गए हैं। बीते अनेक वर्षों से देखने मिलता रहा कि जुमे की नमाज के बाद अथवा किसी इस्लामी त्यौहार के अवसर पर पाकिस्तानी झंडा लहराया जाना और भारत विरोधी नारेबाजी आम बात थी। लेकिन पिछले जुमे और कल ईद के दिन पत्ता भी नहीं खड़का तो उससे ये मान लेना सही नहीं होगा कि घाटी अलगाववादी तत्वों से मुक्त हो गयी हो। सच यही है कि फिलहाल घाटी के हालातों का सही अनुमान या आकलन कोई भी नहीं कर पा रहा और जब सैन्य बलों में कमी आयेगी उसके बाद ही आम कश्मीरी की प्रतिक्रिया सामने आयेगी। लेकिन इस बारे में उत्साहजनक बात ये हैं कि कर्फ्यू के बाद भी सड़कों पर निकलकर सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाली भीड़ का अता-पता नहीं है। महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला के अतिरिक्त जो भी कश्मीरी नेता हिरासत में हैं उनके समर्थन में कोई भी आवाज अब तक नहीं सुनाई दी। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल द्वारा घाटी में घूम-घूमकर लोगों से मुलाकात किये जाने के दौरान भी कोई अप्रिय घटना नहीं हुई। हालांकि कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने पैसे देकर लोगों को इकट्ठा किये जाने जैसा कटाक्ष भी किया लेकिन और समय होता तब पैसे लेकर भी कैमरे के सामने भारत का समर्थन करने की हिम्मत घाटी का कोई व्यक्ति शायद ही दिखाता। ये सब देखते हुए कहा जा सकता है कि मिशन कश्मीर संबंधी कार्ययोजना बेहद सटीक रही। गत दिवस ईद की नमाज के बाद धारा 144 फिर लगा दी गयी जिससे लोग झुण्ड बनाकर जमा नहीं हो सके। लेकिन सवाल ये उठ रहा है कि ये आपात्कालीन व्यवस्था कब तक जारी रह सकेगी क्योंकि जनजीवन जब तक सामान्य नहीं होगा तक ये पता लगा पाना मुश्किल रहेगा कि भारत सरकार द्वारा उठाये गए कदम को घाटी के जन साधारण ने किस सीमा तक स्वीकार किया और क्या इसकी वजह से वहां सक्रिय देश विरोधी ताकतों की कमर वाकई टूट गई। हालांकि घाटी पर नजर रखने वाले अनेक लोगों का मानना है कि आम कश्मीरी को 370 और 35 ए जैसी तकनीकी बातों और कश्मीर के विशेष दर्जे से कुछ खास लेना देना नहीं रहा। चूँकि उनके साथ केंद्र सरकार अथवा मुख्य धारा की राष्ट्रीय पार्टियों का सीधा संवाद नहीं रहा इसलिए वे अब्दुल्ला और मुफ्ती खानदान के साथ ही हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठनों के बहकावे में आते रहे। यदि केंद्र सरकार उनकी मूलभूत जरूरतें पूरी करने में सफल हो जाए और उन्हें ये भरोसा दिलवा सके कि कश्मीर घाटी में उनके जीवनयापन के समुचित इंतजाम और सुरक्षा की गारंटी है तब वे भारत विरोधी दुष्प्रचार से प्रभावित हुए बिना भारतीयता को ही अपनी राष्ट्रीयता मान लेने की मानसिकता बना सकेंगे। लेकिन केंद्र सरकार को किसी भी तरह की खुशफहमी से बचना होगा वरना उसके सारे किये कराये पर पानी फिर सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने जो कारनामा कर दिखाया वह हर दृष्टि से ऐतिहासिक है जिसका दूरगामी असर न सिर्फ  कश्मीर घाटी बल्कि पूरे देश पर पड़ेगा। लेकिन ये भी सही है कि घाटी की जनता जब तक इस कदम के साथ नहीं खड़ी होगी तब तक उसके वांछित परिणाम नहीं मिल सकेंगे। फिलहाल तो घाटी में सैन्य बलों के कारण पूरी तरह शान्ति रहना अच्छा संकेत है। बकरीद का निर्विघ्न संपन्न हो जाना भी संतोष देने वाला रहा। लेकिन घाटी के लिए न सिर्फ  आने वाले कुछ दिन या सप्ताह बल्कि कुछ महीने बेहद महत्वपूर्ण रहेंगे क्योंकि भारत सरकार ने अपने कदम इतने आगे बढ़ा दिए हैं कि अब लौटना आत्मघाती होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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