Wednesday 7 August 2019

कांग्रेस : न नीति है न ही नेतृत्व

आजादी की लड़ाई की अगुआई करने वाली देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस जिस अनिश्चितता और दिशाहीनता की स्थिति में आ चुकी है वह उन समझदार लोगों को अच्छा नहीं लग रहा जिन्हें लोकतंत्र में एक मजबूत और जिम्मेदार विपक्ष की अहमियत पता है। बीते दो दिनों में देश एक ऐतिहासिक निर्णय का साक्षी बना। अनुच्छेद 370 और 35 ए की वजह से जम्मू कश्मीर को प्राप्त विशेष स्थिति को खत्म करते हुए मोदी सरकार ने इस राज्य का जो पुनर्गठन किया वह आजादी के बाद घरेलू राजनीति की सबसे बड़ी शल्य क्रिया कही जायेगी जिसका असर देश की सीमाओं से बाहर भी दिखाई दे रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता के लिए ये कदम कितना जरूरी और बहुप्रतीक्षित था इसका प्रमाण पूरे देश से आई हर्षपूर्ण प्रतिक्रिया से मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की अभूतपूर्व जुगलबन्दी ने जिस राजनीतिक चातुर्य का परिचय दिया वह भारत के एक ताकतवर देश के तौर पर उभरने के साथ ही बढ़ते आत्मविश्वास का परिचायक है। संसद के दोनों सदनों में गृहमंत्री श्री शाह ने जिस दबंगी से सरकार का पक्ष रखा उसकी वजह से वे एक ताकतवर नेता के तौर पर तो उभरे ही लेकिन उससे भी ज्यादा उल्लेखनीय ये रहा कि उन्होंने पूरी बहस का सिलसिलेवार जवाब देते हुए विपक्ष को पूरी तरह निहत्था कर दिया जिससे उसकी एकता तार-तार होकर रह गई। दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से विधेयक का पारित होना साधारण बात नहीं है क्योंकि भाजपा की घोर विरोधी पार्टियों में से अनेक ने उसका समर्थन किया वहीं जनता दल (यू) जैसी सहयोगी और तृणमूल कांग्रेस जैसी विरोधी पार्टी ने मतदान से दूरी बनाकर अप्रत्यक्ष तौर पर सरकार का साथ ही दिया। लेकिन सर्वाधिक भद्द पिटी सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस की जिसकी नीतिगत दिशाहीनता और वैचारिक विपन्नता चरमोत्कर्ष पर जा पहुँची। राज्यसभा में तो सत्ता पक्ष की ओर से किये गए अचानक हमले से भौचक रहने वाली स्थिति सामने थी। फिर भी गुलाम नबी आजाद ने अकेले काफी मुकाबला किया लेकिन लोकसभा में तो सोनिया गांधी और अभी भी कांग्रेस के अध्यक्ष बने बैठे राहुल गांधी मौजूद थे। साथ ही शशि थरूर सदृश अनुभवी और जानकार सदस्य भी थे जो अमित शाह के आक्रामक अंदाज को नियंत्रित कर सकते थे। लेकिन मनीष तिवारी जहां अधिकाँश समय नेहरु जी की प्रशस्ति के साथ ही विधेयक की वैधानिकता पर केन्द्रित रहे वहीं कांग्रेस दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने जोश में होश खोते हुए संयुक्त राष्ट्रसंघ का बेवजह उल्लेख कर पूरी पार्टी को अपराधबोध के तले दबा दिया। जब तक सोनिया गांधी कुछ कह या कर पातीं तब तक तो नुकसान हो चुका था। सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि परसों से शांत बैठे राहुल गांधी ने कल चुप्पी तोड़ी तो वह भी ट्विटर के जरिये और उसमें भी अव्वल दर्जे की नासमझी दिखाते हुए महबूबा मुफ्ती की नकल करते हुए लिख दिया कि देश जमीन से नहीं लोगों से बनता है। उनकी इस प्रतिक्रिया ने कांग्रेस की और दुर्गति करवा दी। संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी ने इस पर जोरदार कटाक्ष करते हुए कहा कि हमारे लिए देश मात्र भूमि नहीं बल्कि मातृभूमि है। इसी तरह संरासंघ के उल्लेख के कारण अधीर रंजन को घेरते हुए गृह मंत्री ने पूछा कि क्या ये कांग्रेस की अधिकृत नीति है, तब कांग्रेस पक्ष से कोई जवाब देने तक खड़ा नहीं हुआ। चर्चा रही कि अधीर रंजन की मूर्खता पर श्रीमती गांधी बहुत नाराज हुई जिसके कारण दोपहर बाद वे सफाई देते रहे लेकिन तरकश से निकला तीर वापिस नहीं लौट सका। सबसे ज्यादा हैरानी इस बात को लेकर हुई कि परसों शाम को राज्यसभा में विधेयक पारित होने के बाद से लोकसभा की बैठक शुरू होते तक कांग्रेस की तरफ से कोई नीतिगत बयान तक नहीं आया जिससे पूरे देश में फैले कांग्रेसजन असमंजस में फंसे रहे। जनमत सरकार के पक्ष में होने से वे भी निजी तौर पर 370 और 35 ए को हटाने का समर्थन करते देखे गए। उन्हें उम्मीद रही कि राहुल गांधी इस विशेष स्थिति में उनका मार्गदर्शन करेंगे लेकिन वे लोकसभा की दूसरी पंक्ति में पूरे समय मौन बैठे रहे। होना तो ये चाहिए था कि राज्यसभा में शिकस्त खा जाने के बाद कांग्रेस और विशेष तौर पर गांधी परिवार को देश का मूड समझ लेना चाहिए था और उसके बाद यदि राहुल लोकसभा में विधेयक पेश करने के तरीके का विरोध करते हुई देशहित में उसे सैद्धांतिक तौर पर समर्थन देकर सरकार से अपेक्षा करते कि घाटी के लोगों के साथ कोई अन्याय नहीं होना चाहिए तो जीत का सेहरा अकेले मोदी-शाह के सिर पर नहीं बंधा होता। यदि वे पंडित नेहरु का बचाव करते हुई तत्कालीन जरूरतों का हवाला देते, तब सदन के साथ पूरा देश उनकी बात सुनता और समझता। लेकिन वे मुंह में दही जमाये बैठे रह गए और उधर अमित शाह ने पूरे माहौल पर अपनी छाप छोड़कर ये दिखा दिया कि भाजपा केवल प्रधानमंत्री के भरोसे नहीं है। कांग्रेस को लद्दाख के युवा सांसद जाम्यांग सेरिंग नामग्याल ने जो झन्नाटेदार तमाचा रसीद किया उसने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी। इस तरह बीते दो दिनों में कांग्रेस पार्टी पूरी तरह अप्रासंगिक होकर रह गई। उसके अपने कैडर में इस वजह से जो असंतोष व्याप्त है उसकी बानगी जनार्दन द्विवेदी, मिलिंद देवड़ा, दीपेंदर सिंह हुड्डा और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे राहुल समर्थकों की प्रतिक्रिया से मिली जिन्होंने कांग्रेस की नीति को अंगूठा दिखाते हुए सरकार के निर्णय को राष्ट्रहित में बताने का दुस्साहस दिखा दिया। दशकों पहले की गई ऐतिहसिक गलती को सुधारकर जनता की अदालत में बरी होने का स्वर्णिम अवसर नियति ने कांग्रेस को दिया था लेकिन नीति और बिखराव दोनों ही मोर्चों पर पार्टी चारों खाने चित्त हो गयी जिसका परिणाम भविष्य में उसके भीतर और टूटन के तौर पर दिखाई दे सकता है। बीते दो दिनों में राहुल गांधी ने जिस तरह की उदासीनता और अनिर्णय की स्थिति बनाकर रखी उससे तो ये अवधारणा और पक्की हो गयी कि पहले जो गांधी परिवार पार्टी रूपी बोझ को अपने कंधों पर बिठाकर नदी पार करवा देता था, अब वही पार्टी के कंधों पर बोझ बनकर बैठ गया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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